नरेन्द्र मोदी "प्रवृत्ति" का उद्भव एवं विकास... भाग-५ (अंतिम भाग)
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२००१ में नरेंद्र मोदी को गुजरात भेजा गया. २००२ में गोधरा में ट्रेन की बोगी जलाई गई और ५६ हिन्दू जिन्दा जल गए. इस घटना के खिलाफ गुजरात में जो आक्रोश पैदा हुआ, उसने गुजरात के दंगों को जन्म दिया. हालांकि गुजरात के लिए दंगे कोई नई घटना नहीं थी. २००२ से पहले गुजरात में प्रतिवर्ष ८-१० दंगे होना मामूली बात थी. लेकिन २००२ के इन दंगों में जिस तरह नरेंद्र मोदी ने “दंगाई मुसलमानों” के खिलाफ कठोर रुख अपनाया, उसने १९८४ से हिंदुओं के लगातार धधकते और खौलते मन को थोड़ी राहत पहुंचाई और वह नरेंद्र मोदी की कार्यशैली का दीवाना होने लगा. रही-सही कसर “तथाकथित सेकुलर मीडिया” ने पूरी कर दी, जिसने लगातार नरेंद्र मोदी के खिलाफ दुष्प्रचार का अभियान चलाया. भारतीय “सेकुलर”(???) मीडिया का व्यवहार, कवरेज और रिपोर्टिंग ऐसी थी मानो २००२ के गुजरात के दंगों से पहले और बाद में समूचे भारत में कोई दंगा हुआ ही नहीं. नरेंद्र मोदी के विरोध (इसे मुसलमान वोटों को खुश करने पढ़ा जाए) में “पेड” मीडिया, कांग्रेस, कथित सेकुलर बुद्धिजीवी, NGOचलाने वाले कई “गैंग्स” इतने नीचे गिरते चले गए कि उन्होंने गुजरात की छवि को पूरी तरह से नकारात्मक पेश करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी.हिन्दू वोटर जो पहले से ही शाहबानो, रूबिया सईद, मस्त गुल, कंधार विमान अपहरण तथा वाजपेयी की सरकार गिराने के लिए की गई “सेकुलर गिरोहबाजी” से त्रस्त और आहत था, वह नरेंद्र मोदी को अकेले मुकाबला करते देख और भी मजबूती से उनके पीछे खड़ा हो गया. नरेंद्र मोदी ने भी इस “विशाल हिन्दू मानस” को निराश नहीं किया, और उन्होंने अपनी ही शैली में इस बिकाऊ मीडिया को मुंहतोड जवाब दिया, साथ ही नरेंद्र मोदी गुजरात में विकास की लहर उत्पन्न करने में भी सफल रहे. २००२ के चुनावों पर दंगों की छाया थी, जबकि २००७ में भी कांग्रेस ने वही “गंदा धार्मिक खेल” खेलने की कोशिश की, नरेंद्र मोदी को “मौत का सौदागर” तक कहा गया, लेकिन २००२ में भी “तथाकथित धर्मनिरपेक्ष” भांडों ने मुँह की खाई, २००७ में भी नरेंद्र मोदी ने अकेले ही उन्हें पछाड़ा. इस बीच हिन्दू युवा ने अटलबिहारी वाजपेयी द्वारा संसद पर हमले के बाद पाकिस्तान को दी गई गीदड-भभकी भी देखी जब वाजपेयी ने सेना का एक गंभीर मूवमेंट पाकिस्तान की सीमा तक कर दिया. सेना के इस विशाल मूवमेंट पर भारी खर्च हुआ, लेकिन वाजपेयी उस समय भी पाकिस्तान को "अच्छा-खासा" सबक सिखाने की हिम्मत न जुटा सके, और सेना को बेरंग वापस अपनी-अपनी बैरकों में लौटा दिया गया. जले पर नमक छिड़कने के तौर पर वाजपेयी ने कारगिल के खलनायक मुशर्रफ को भी आगरा में शिखरवार्ता के लिए ससम्मान बुला लिया... वे वाजपेयी ही थे, जिन्होंने नरेंद्र मोदी को "राजधर्म" निभाने की सलाह भी दी थी. यह सब देखकर "मन ही मन खदबदाता" हिन्दू युवा NDA की सरकार से निराश और हताश हो चला था. परन्तु ऐसे विपरीत समय में भी नरेंद्र मोदी अपनी अक्खड़ शैली, मीडिया के सांड को सींग से पकड़कर पटकने और सेकुलरों को मुंहतोड जवाब देते हुए लगातार गुजरात में डटे रहे, सभी हिन्दू-विरोधी ताकतों की नाक पर मुक्का जमाते हुए उन्होंने एक के बाद दूसरा चुनाव भी जीता, और वे हिन्दू युवाओं के दिलों पर छा गए.
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२००१ में नरेंद्र मोदी को गुजरात भेजा गया. २००२ में गोधरा में ट्रेन की बोगी जलाई गई और ५६ हिन्दू जिन्दा जल गए. इस घटना के खिलाफ गुजरात में जो आक्रोश पैदा हुआ, उसने गुजरात के दंगों को जन्म दिया. हालांकि गुजरात के लिए दंगे कोई नई घटना नहीं थी. २००२ से पहले गुजरात में प्रतिवर्ष ८-१० दंगे होना मामूली बात थी. लेकिन २००२ के इन दंगों में जिस तरह नरेंद्र मोदी ने “दंगाई मुसलमानों” के खिलाफ कठोर रुख अपनाया, उसने १९८४ से हिंदुओं के लगातार धधकते और खौलते मन को थोड़ी राहत पहुंचाई और वह नरेंद्र मोदी की कार्यशैली का दीवाना होने लगा. रही-सही कसर “तथाकथित सेकुलर मीडिया” ने पूरी कर दी, जिसने लगातार नरेंद्र मोदी के खिलाफ दुष्प्रचार का अभियान चलाया. भारतीय “सेकुलर”(???) मीडिया का व्यवहार, कवरेज और रिपोर्टिंग ऐसी थी मानो २००२ के गुजरात के दंगों से पहले और बाद में समूचे भारत में कोई दंगा हुआ ही नहीं. नरेंद्र मोदी के विरोध (इसे मुसलमान वोटों को खुश करने पढ़ा जाए) में “पेड” मीडिया, कांग्रेस, कथित सेकुलर बुद्धिजीवी, NGOचलाने वाले कई “गैंग्स” इतने नीचे गिरते चले गए कि उन्होंने गुजरात की छवि को पूरी तरह से नकारात्मक पेश करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी.हिन्दू वोटर जो पहले से ही शाहबानो, रूबिया सईद, मस्त गुल, कंधार विमान अपहरण तथा वाजपेयी की सरकार गिराने के लिए की गई “सेकुलर गिरोहबाजी” से त्रस्त और आहत था, वह नरेंद्र मोदी को अकेले मुकाबला करते देख और भी मजबूती से उनके पीछे खड़ा हो गया. नरेंद्र मोदी ने भी इस “विशाल हिन्दू मानस” को निराश नहीं किया, और उन्होंने अपनी ही शैली में इस बिकाऊ मीडिया को मुंहतोड जवाब दिया, साथ ही नरेंद्र मोदी गुजरात में विकास की लहर उत्पन्न करने में भी सफल रहे. २००२ के चुनावों पर दंगों की छाया थी, जबकि २००७ में भी कांग्रेस ने वही “गंदा धार्मिक खेल” खेलने की कोशिश की, नरेंद्र मोदी को “मौत का सौदागर” तक कहा गया, लेकिन २००२ में भी “तथाकथित धर्मनिरपेक्ष” भांडों ने मुँह की खाई, २००७ में भी नरेंद्र मोदी ने अकेले ही उन्हें पछाड़ा. इस बीच हिन्दू युवा ने अटलबिहारी वाजपेयी द्वारा संसद पर हमले के बाद पाकिस्तान को दी गई गीदड-भभकी भी देखी जब वाजपेयी ने सेना का एक गंभीर मूवमेंट पाकिस्तान की सीमा तक कर दिया. सेना के इस विशाल मूवमेंट पर भारी खर्च हुआ, लेकिन वाजपेयी उस समय भी पाकिस्तान को "अच्छा-खासा" सबक सिखाने की हिम्मत न जुटा सके, और सेना को बेरंग वापस अपनी-अपनी बैरकों में लौटा दिया गया. जले पर नमक छिड़कने के तौर पर वाजपेयी ने कारगिल के खलनायक मुशर्रफ को भी आगरा में शिखरवार्ता के लिए ससम्मान बुला लिया... वे वाजपेयी ही थे, जिन्होंने नरेंद्र मोदी को "राजधर्म" निभाने की सलाह भी दी थी. यह सब देखकर "मन ही मन खदबदाता" हिन्दू युवा NDA की सरकार से निराश और हताश हो चला था. परन्तु ऐसे विपरीत समय में भी नरेंद्र मोदी अपनी अक्खड़ शैली, मीडिया के सांड को सींग से पकड़कर पटकने और सेकुलरों को मुंहतोड जवाब देते हुए लगातार गुजरात में डटे रहे, सभी हिन्दू-विरोधी ताकतों की नाक पर मुक्का जमाते हुए उन्होंने एक के बाद दूसरा चुनाव भी जीता, और वे हिन्दू युवाओं के दिलों पर छा गए.
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जैसी कि उम्मीद थी, २०१२ के गुजरात के चुनाव परिणामों ने ठीक वही रुख दिखाया है. एक अकेले व्यक्ति नरेंद्र मोदी ने अपनी लोकप्रियता, रणनीति और वाकचातुर्य के जरिए उनके खिलाफ चुनाव लड़ रहे मुख्यधारा(?) के मीडिया, NGOवादी गैंग के गुर्गों, अपनी ही पार्टी के कुछ विघ्नसंतोषियों, और कांग्रेस को जिस तरह चूल चटाई वह निश्चित रूप से काबिले-तारीफ़ है. इस सूची में मैंने कांग्रेस को सबसे अंत में इसलिए रखा क्योंकि इस चुनाव में गुजरात में कांग्रेस चुनाव लड़ ही नहीं रही थी, वह तो कहीं मुकाबले में थी ही नहीं. गुजरात में कांग्रेस की दुर्गति के दो-तीन उदाहरण दिए जा सकते हैं – पहला तो यह कि पिछले दस साल में नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए कांग्रेस एक ठीक-ठाक सा कांग्रेसी तक तैयार नहीं कर सकी और उसे संदिग्ध आचरण वाले पुलिस अफसर संजीव भट्ट की पत्नी को मोदी के खिलाफ उतारना पड़ा, दूसरा यह कि मोदी के खिलाफ चुनाव जीतने के लिए जिन दो प्रमुख व्यक्तियों पर कांग्रेस निर्भर थी, अर्थात केशुभाई पटेल और शंकरसिंह वाघेला, दोनों ही RSS के पूर्व स्वयंसेवक हैं, और चुनाव से पहले ही हार मान लेने का गिरता कांग्रेसी मनोबल तीसरे कारण में दिखाई देता है कि देश के इतिहास में यह ऐसा पहला चुनाव था जिसमें समूचे गुजरात में जो पोस्टर लगाए गए थे उनमें से किसी में भी गांधी परिवार के किसी सदस्य की फोटो तक नहीं लगाईं गई.इन्हीं तीनों कारणों से पता चलता है कि वास्तव में कांग्रेस चुनाव से पहले ही हार मान चुकी थी, इसीलिए उनके स्टार(?) प्रचारक राहुल गांधी ने १८२ सीटों में से सिर्फ ७ पर प्रचार किया.
बहरहाल, काँग्रेस की दुर्दशा से नरेंद्र मोदी की उपलब्धि कम नहीं हो जाती, बल्कि और भी बढ़ जाती है कि पिछले १० साल में नरेंद्र मोदी ने अपनी “विकासवादी कार्यशैली” के कारण गुजरात से विपक्ष को लगभग समाप्त कर दिया (भाजपा के अन्य मुख्यमंत्री इस से सबक लें). हिंदुत्व के साथ विकास के मिश्रण का जो “कॉकटेल” नरेंद्र मोदी ने पेश किया है, यदि भाजपा के मुख्यमंत्री अपने-अपने राज्यों में तथा भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व समूचे देश में लागू करने के बारे में जल्दी विचार करें, तभी २०१४ के आम चुनावों में पार्टी की संभावनाएं काफी उज्जवल बन सकेंगी. वास्तव में नरेंद मोदी ने आधा चुनाव तो उसी दिन जीत लिया था, जब सदभावना मिशन के तहत एक मंच पर उन्होंने एक मौलाना द्वारा “सफ़ेद जालीदार टोपी” पहनने से इंकार कर दिया था. उसी दिन उन्होंने यह सन्देश दे दिया था कि वे गुजरात में, इस “सेकुलर पाखण्ड” से भरी नौटंकी को नहीं अपनाएंगे, बल्कि बिना किसी भेदभाव के “विकासवादी मुसलमानों” को साथ लेकर चलेंगे.इसी का नतीजा रहा कि गुजरात की १२ मुस्लिम बहुल सीटों में से ९ सीटों पर भाजपा विजयी हुई, इसमें से एक विधानसभा क्षेत्र जमालपुर खड़िया तो ८०% मुस्लिम आबादी वाला है जहाँ से आज तक कोई हिन्दू उम्मीदवार नहीं जीता था, परन्तु वहाँ से भी मोदी की पसंद के हिन्दू उम्मीदवार ने जीत दर्ज की. अर्थात नरेंद्र मोदी ने इस तथाकथित “सेकुलर मिथक” को बुरी तरह तोड़-मरोड़ दिया है कि मुस्लिमों के साथ बहलाने-फुसलाने की राजनीति ही चलेगी. उन्होंने दिखा दिया कि गुजरात के मुस्लिम भी “आम इन्सान” ही हैं और उन्हें भी बिना किसी तुष्टिकरण के विकास की मुख्यधारा में लाया जा सकता है.
अब सवाल उठता है कि आखिर गुजरात की जनता ने नरेंद्र मोदी में ऐसा क्या देखा? जवाब है, त्वरित निर्णय लेने की क्षमता, उन निर्णयों को अमल में लाने के लिए पूरी ताकत झोंक देना और भाषणों में, बैठकों में, सभाओं में, चालढाल में उनकी विशिष्ट “दबंग स्टाइल”, जिसने युवा मतदाताओं को भारी आकर्षित किया. जिस समय नरेंद्र मोदी मणिनगर में अपना मतदान करने जा रहे थे, तब उनके वाहन के चारों तरफ जिस तरह से हजारों युवाओं की भारी भीड़ जमा थी, नारे लग रहे थे, खुशी में मुठ्ठियाँ लहराई जा रही थीं उसे देखकर किसी “रॉक-स्टार” का आभास होता था. अर्थात जो “नरेन्द्र मोदी प्रवृत्ति” १९८४ से अंकुरित होना शुरू हुई थी, १९९६ और २००२ में पल्लवित हुई और २०१२ आते-आते वटवृक्ष बन चुकी थी.
चाहे नर्मदा के पानी को किसी भी कीमत पर सौराष्ट्र तक पहुंचाने की बात हो, उद्योगों को बंजर भूमि दान करते हुए किसी क्षेत्र का विकास करना हो, या फिर “विशाल सौर ऊर्जा पार्क” तथा नर्मदा नहरों के ऊपर सोलर-पैनल लगाकर बिजली उत्पादन के नए-नए आइडिया लाने हों, नरेंद्र मोदी ने अपनी कार्यशैली से इसे पूरा कर दिखाया. रही-सही कसर ३-डी प्रचार ने पूरी कर दी, ३-डी के जरिए प्रचार के आइडिये ने कांग्रेस को पूरी तरह धराशायी कर दिया, उन्हें समझ ही नहीं आया कि इस अजूबे का मुकाबला कैसे करें? जहाँ कांग्रेस के नेता एक दिन में ३-४ सभाएं ही कर पाते थे, उतने ही खर्च में नरेंद्र मोदी अपने घर बैठे ३६ सभाओं को संबोधित कर देते थे. सोशल नेट्वर्किंग पर फैले अपने हजारों फैन्स और कार्यकर्ताओं के जरिए उनकी बात पलक झपकते लाखों लोगों तक पहुँच जाती थी. मुख्यधारा के मीडिया द्वारा किये गए नकारात्मक प्रचार के बावजूद मोदी के सकारात्मक और विकास कार्यों को सोशल मीडिया ने जनता तक पहुंचा ही दिया. आगे की राह आसान थी...
गुजरात के इन परिणामों ने जहाँ एक ओर विपक्षियों की नींद उडाई है, वहीं दूसरी तरफ भाजपा के अंदर भी मंथन शुरू हो चुका है. निम्न-मध्यम और उच्च-मध्यम वर्ग तथा युवाओं के बीच नरेंद्र मोदी ने जैसी छवि कायम की है, उसे देखते हुए शीर्ष नेतृत्व मोदी की अगली भूमिका के बारे में गहराई से सोचने पर मजबूर हो गया है. वास्तव में २०१४ के आम चुनावों में संघ-भाजपा को उत्तरप्रदेश और बिहार में प्रचार के लिए नरेंद्र मोदी जैसा व्यक्ति ही चाहिए, जो मायावती और मुलायम को उन्हीं की भाषा में, उन्हीं की शैली में ठोस जवाब दे सके, साथ ही जातिवाद और मुस्लिम तुष्टिकरण के दलदल में फंसे इन राज्यों के भाजपा कैडर में संजीवनी फूंक सके. इस भूमिका में नरेंद्र मोदी एकदम फिट बैठते हैं.उत्तरप्रदेश के हालिया निगम चुनावों में कुछ उम्मीदवार मोदी के पोस्टर और स्टीकर लिए दिखाई दिए, सन्देश स्पष्ट है कि चूंकि उत्तरप्रदेश के भाजपा नेता “झगड़ालू औरतों” की तरह सतत आपस में लड़ रहे हैं तथा उनमे से कोई भी मुलायम-मायावती का विकल्प देने की स्थिति में नहीं दिखता इसलिए मतदाता भाजपा को वोट नहीं देता, जिस दिन नरेंद्र मोदी वहाँ जाकर बिगुल फूँकेंगे, उसी दिन से स्थिति बदलना शुरू हो जाएगी.
१९९१ से १९९९ तक उत्तरप्रदेश में भाजपा की लगभग ५० सीटें आती थीं, लेकिन जब से भाजपा को सत्ता-प्रेम ने डस लिया और उसने “हिंदुत्व” के मुद्दे को ताक पर रख दिया, उसी दिन से वह पतन की राह पर निकल पडी. नरेंद्र मोदी की जो लोकप्रियता आज दिखाई दे रही है, वह उसी हिन्दू मन की दबी हुई आहट है जो सेकुलरिज्म की विकृति और नापाक गठबंधन की राजनीति के चलते बलपूर्वक दबा दी गयी थी.हिन्दू युवा पूछ रहा था कि जब मायावती दलित कार्ड खेल सकती हैं, मुलायम यादव-मुस्लिम कार्ड खेल सकते हैं, ममता और नीतिश भी मुस्लिम कार्ड खेल सकते हैं, यहाँ तक कि कांग्रेस भी “पैसा बाँटो और वोट खरीदो” की देश-डूबाऊ राजनीति कर सकती है, तो आखिर भाजपा को हिंदुत्व की राजनीति करने में क्या परहेज़ है? इसका जवाब नरेंद्र मोदी ने गुजरात में “हिंदुत्व को विकास” के साथ जोड़कर दिया है. लगातार सेकुलरिज्म-सेकुलरिज्म का भजन करने वाले दलों तथा २००१ के दंगों को लेकर सदा मीडिया ट्रायल चलाने वाले पत्रकारों को भी “मजबूरी में” २०१२ के चुनावों में इन मुद्दों को दूर रखना पड़ा. यही “नरेंद्र मोदी प्रवृत्ति” की सफलता है, जिसे भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने उत्तरप्रदेश में भुला दिया था. अब उत्तरप्रदेश और बिहार के मुसलमानों को यह सोचना है कि क्या उन्हें “तथाकथित सेकुलर” पार्टियों का मोहरा बनकर ही जीना है (जैसा कि पिछले ६० साल से होता आ रहा है), या फिर वे भी गुजरात के मुसलमानों की तरह नरेंद्र मोदी का साथ देते हुए विकास के मार्ग पर चलेंगे, जहाँ कोई तुष्टिकरण न हो, बल्कि सभी के लिए समान अवसर हों. नरेंद्र मोदी की अन्तर्राष्ट्रीय छवि को देखते हुए उनमें यह क्षमता है कि वे यूपी-बिहार की किस्मत सँवार सकते हैं, २०१४ में यह मौका होगा जब तय होगा कि क्या यूपी-बिहार जातिवाद के दलदल से बाहर निकलेंगे?
गुजरात चुनावों में मोदी की जीत के बाद एक SMS बहुत वितरित हुआ था कि, “दबंग-२ से पहले गुजरात में सिंघम-३ रिलीज़ हो गई”... यह SMS आधुनिक भारत के युवा मन की भावना को व्यक्त करता है, कि अब युवाओं को “दब्बू” और “अल्पभाषी” किस्म के तथा ऊपर से थोपे गए “राजकुमार” टाइप के नेता स्वीकार्य नहीं हैं. भारत का युवा चाहता है कि देश का नेतृत्व किसी निर्णायक किस्म के दबंग व्यक्ति के हाथों में होना चाहिए,जो पाकिस्तान से उसी की भाषा में बात कर सके, जो त्वरित निर्णय ले, जो देशहित में नवीनतम तकनीक का उपयोग करे, जिसके प्रति अफसरशाही के दिल में “भयमिश्रित सम्मान” हो... इन सभी शर्तों पर नरेंद्र मोदी खरे उतरते हैं. २००१ से पहले नरेंद्र मोदी ने ३० साल तक एक संघ प्रचारक-स्वयंसेवक के रूप में भाजपा की सेवा की, कभी कोई पद नहीं माँगा, कभी कोई शिकायत नहीं की. सच्चा कार्यकर्ता ऐसा ही होता है. इसीलिए नरेंद्र मोदी ने गुजरात प्रशासन को जनोन्मुख बनाया और विकास की सभी योजनाओं में जन-सुविधा का ख़याल रखा. नतीजा सामने है कि नरेंद्र मोदी ने लगातार तीसरी बार दो तिहाई बहुमत से गांधीनगर पर भगवा लहरा दिया है. इसे हम “नरेन्द्र मोदी प्रवृत्ति” का एक और सोपान कह सकते हैं.
संक्षेप में तात्पर्य यह है कि नरेंद्र मोदी ने पहला चरण पार कर लिया है, उनके लिए दिल्ली में मंच सज चुका है, संभवतः नरेंद्र मोदी अगले ६ माह या एक वर्ष के भीतर ही भाजपा में किसी केन्द्रीय भूमिका में नज़र आ सकते हैं. हालांकि विश्लेषक यह मान रहे हैं कि भाजपा के भीतर ही मोदी के लिए दिल्ली की राह इतनी आसान नहीं है, परन्तु गुजरात और देश की जनता के मन में जैसा “मॉस हिस्टीरिया” नरेंद्र मोदी ने पैदा किया है, उसका फिलहाल भाजपा में कोई मुकाबला नहीं है. संभावना तो यही बनती है कि २०१४ के लोकसभा चुनावों में “व्यक्तित्वों” का टकराव अवश्यम्भावी है. भाजपा में नरेंद्र मोदी जैसे “भीड़ खींचू” नेता अब बिरले ही बचे हैं. सो, नरेंद्र मोदी का पहले भाजपा में, फिर NDAमें और फिर प्रधानमंत्री कार्यालय में अवतरित होना अब सिर्फ समय की बात है...