Quantcast
Channel: महाजाल पर सुरेश चिपलूनकर (Suresh Chiplunkar)
Viewing all articles
Browse latest Browse all 168

RSS-BJP Coordination Meeting

$
0
0
संघ-भाजपा समन्वय बैठक : सिर्फ समन्वय या नाराजी और दबाव? 


यदि कोई व्यक्ति यह कहे कि वह दूध में घुली हुई शकर को देख सकता है, या छानकर दोनों को अलग-अलग कर सकता है, तो निश्चित ही या तो वह कोई महात्मा होगा या फिर कोई मूर्ख होगा. इसी प्रकार जब कोई यह कहता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा सरकारों का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है, संघ एक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन है और वह किसी भी सरकार के काम में दखलंदाजी नहीं करता, तो बरबस हँसी छूट ही जाती है. 



सितम्बर के पहले सप्ताह में देश के मुख्यधारा मीडिया ने दिल्ली के मध्यप्रदेश भवन “मध्यांचल” में सम्पन्न हुई संघ-भाजपा की “समन्वय बैठक” को लेकर जैसा हंगामा मचाया उससे यह पता चलता है कि या तो ये कथित पत्रकार अपरिपक्व हैं, या फिर संघ की कार्यशैली को जानते नहीं हैं या फिर खामख्वाह विरोध के लिए विरोध कर रहे हैं. RSS-भाजपा की ऐसी समन्वय बैठकें लगातार होती रहती हैं और आगे भी होती रहेंगी, क्योंकि परोक्ष एवं अपरोक्ष रूप से दोनों एक ही हैं. जो भी विश्लेषक संघ को पिछले पचास वर्ष से जानता है, उसे यह पता होना ही चाहिए कि यह एक “मातृसंस्था” है, जिसमें से निकली हुई विभिन्न संतानें, चाहे वह विश्व हिन्दू परिषद् हो, भाजपा हो, भारतीय मजदूर संघ हो या विद्या भारती हो, सभी एक छाते के नीचे हैं. ऐसे में केन्द्र की “पूर्ण बहुमत” वाली पहली भाजपा सरकार के साथ “समन्वय बैठक” करना कोई अजूबा नहीं था, न है और न होना चाहिए.

असल में मीडिया में इस प्रकार के विवाद पैदा होने का एक प्रमुख कारण संघ की मीडिया से दूरी बनाए रखने की नीति भी है. जब भी RSS की कोई प्रमुख बैठक होती है, अथवा चिंतन शिविर होता है अथवा विशिष्ट पदाधिकारियों के साथ भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ कोई समन्वय बैठक होती है तो संघ की “परंपरा” के अनुसार मीडिया को उससे बाहर रखा जाता है. ऐसा करने से मीडिया में सिर्फ वही बात आती है, जो बाद में एक प्रेस विज्ञप्ति के जरिये उन्हें बता दी जाती है और उसका अर्थ वे लोग अपने-अपने स्वार्थों एवं अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार लगाकर जनता के समक्ष पेश करते हैं. संघ की इस “मीडिया दुत्कारो नीति” को लेकर जानकारों में मतभेद हैं, कुछ लोगों का मानना है कि संघ की अंदरूनी बातें मीडिया तक नहीं पहुँचनी चाहिए, इसलिए यह इंतजाम ठीक है. जबकि कुछ लोगों का मानना है कि ऐसा करने से मीडिया अपनी मनमर्जी के अनुसार संघ की छवि गढ़ता है या विकृत करता है. वर्तमान में चाहे कोई भी देश हो, मीडिया एक प्रमुख हथियार है और यदि कोई संगठन इस हथियार से ही दूरी बनाकर रखे तो यह सही नहीं है.लेकिन संघ ने शुरू से ही मीडिया और जनता के सामने स्वयं को रहस्य के आवरण में ढँका हुआ है. इसके निर्णय तभी सामने आते हैं जब उन पर अमल शुरू हो जाता है. 


दिल्ली में जो “समन्वय” बैठक हुई, वह भी रहस्य के आवरणों में ही लिपटी हुई थी. इस तीन दिवसीय बैठक में स्वयं संघ प्रमुख और कई अन्य प्रमुख पदाधिकारी उपस्थित थे. इस बैठक में संघ के पूर्व प्रवक्ता और फिलहाल जम्मू-कश्मीर प्रभारी राम माधव एक समन्वयक के रूप में मौजूद थे, जबकि सत्ता केन्द्र के सभी प्रमुख मंत्री अर्थात श्रीमती सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, राजनाथ सिंह, मनोहर पर्रीकर और नितिन गड़करी एक के बाद एक पधारे और उन्होंने अपनी बात रखी, जिसे समन्वय नाम दिया गया. लेकिन चूँकि भारत के (अधिकांशतः हिन्दू विरोधी) मीडिया को नरेंद्र मोदी नाम की “रतौंधी” है, इसलिए सबसे अधिक हल्ला उस बात पर मचा, जब यह निश्चित हुआ कि इस समन्वय बैठक के अंतिम दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इसमें भाग लेंगे. वर्षों से एक परिवार द्वारा पार्टी पर कब्ज़ा जमाए रखने वाले उमर अब्दुल्लाने ट्वीट करके व्यंग्य किया कि यह सरकार की “अप्रेज़ल मीटिंग” है, जिसमें मंत्रियों और प्रधानमंत्री के कामकाज की समीक्षा होगी और तदनुसार उनका कद बढ़ाया (अथवा घटाया) जाएगा. जबकि योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण को बुरी तरह बेइज्जत करके बाहर निकालने तथा अपनी आलोचना सुनने की बर्दाश्त न रखने वाले तानाशाह केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने इसे संविधान के खिलाफ ही बता दिया.वहीं दूसरी तरफ पिछले साठ वर्षों से एक परिवार पर आश्रित, तथा पिछले दस वर्ष तक “महारानी सोनिया गाँधी” के किचन से चलने वाली NAC (राष्ट्रीय सलाहकार परिषद्) जैसी असंवैधानिक संस्था और प्रेस कांफ्रेंस में सरेआम प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का अपमान करते हुए कागज़ फाड़ने वाले युवराज की पार्टी, काँग्रेस भी संघ-भाजपा की इस बैठक की आलोचना करने से नहीं चूकी. 

बहरहाल, ऐसी आलोचनाएँ करना तो विपक्ष का धर्म और परंपरा ही है, इसलिए उस पर ध्यान देने की बजाय फोकस इस बात पर होना चाहिए कि आखिर संघ-भाजपा की इस महत्त्वपूर्ण बैठक में क्या हुआ होगा? किन प्रमुख मुद्दों पर चर्चा हुई होगी? संघ किन मंत्रियों से खुश है और किससे नाखुश है? ज़ाहिर है कि ये सारे सवाल गहरे रहस्य के परदे में हैं. किसी को नहीं पता कि आखिर इस बैठक में क्या हुआ, लेकिन सभी “तथाकथित” विद्वान अपनी-अपनी लाठियाँ भाँजने में लगे हुए हैं. बैठक की समाप्ति के पश्चात दत्तात्रय होसबोले द्वारा जो प्रेस विज्ञप्ति “पढ़ी एवं वितरित” की गई, उसके अनुसार केन्द्र सरकार “सही दिशा” में जा रही है और ठीक काम कर रही है. विज्ञप्ति की प्रमुख बात यह थी कि अभी सरकार को सिर्फ 14 माह ही हुए हैं, इसलिए जल्दबाजी में इससे परिणामों की अपेक्षा करना ठीक नहीं है, परन्तु कई क्षेत्रों में सुधार और तेजी की आवश्यकता है.अब प्रत्येक विश्लेषक अपनी-अपनी समझ के अनुसार इस प्रेस विज्ञप्ति का अर्थ निकालने में लगा हुआ है. मैं इस बात पर नहीं जाऊँगा कि संघ-भाजपा (यानी सरकार) के बीच ऐसी कोई बैठक उचित अथवा संवैधानिक है या नहीं, क्योंकि ठेठ कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक पिछले साठ वर्षों से हमारे सामने सभी राजनैतिक दलों के उदाहरण मौजूद हैं जिन्होंने अपनी पार्टी के “आंतरिक लोकतंत्र” की कैसी धज्जियाँ उड़ाई हैं और “कैसे-कैसे परिवार” सत्ता पर काबिज रहे हैं. उन नेताओं और पार्टियों के मुकाबले भाजपा काफी लोकतांत्रिक है और RSS भी कोई अछूत या व्यवस्था से अनधिकृत संस्था नहीं है, क्योंकि इसके लाखों सदस्य भी भारत के नागरिक ही हैं. 


छन-छन कर आने वाली ख़बरों, कुछ सूत्रों और अनुमानों के आधार पर इस समन्वय बैठक को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है. पहला है संघ की सरकार (या मंत्रियों) से अपेक्षा और नाराजी तथा दूसरे और अंतिम भाग (अर्थात प्रधानमंत्री के आगमन पश्चात) में संतुष्टि और सलाह. प्रधानमंत्री और सरकार का एजेंडा राजनैतिक होता है जबकि संघ का एजेंडा हिंदुत्व और राष्ट्रवाद को मजबूत करने का होता है, ऐसे में नीतियों को लेकर समन्वय स्थापित करना बेहद जरूरी हो जाता है, वर्ना बैलगाड़ी के दोनों बैल एक ही दिशा में एक साथ कैसे चलेंगे? नरेंद्र मोदी की चिंता यह है कि भूमि अधिग्रहण बिल और GST क़ानून कैसे पास करवाया जाए औरराज्यसभा में बहुमत हासिल करने के लिए बिहार और उत्तरप्रदेश में किस प्रकार की जातीय अथवा साम्प्रदायिक अरहर दाल पकाई जाए, जिसमें “विकास” का तड़का लगाकर लक्ष्य को हासिल किया जा सके. एक बार राज्यसभा में भी इस सरकार का बहुमत स्थापित हो गया तो फिर बल्ले-बल्ले ही समझिए.जबकि संघ की चिंता यह है कि संगठन और भाजपा का विस्तार उन राज्यों में कैसे किया जाए, जहाँ इनकी उपस्थिति नहीं के बराबर है. इसके अलावा राम मंदिर, धारा 370 तथा समान नागरिक क़ानून इत्यादि जैसे “हार्डकोर” मुद्दों को सुलझाने (अथवा निपटाने) हेतु सरकार की क्या-क्या योजनाएँ हैं. क्या मोदी सरकार इन तीन प्रमुख मुद्दों पर कुछ कर रही है अथवा फिलहाल राज्यसभा में बहुमत का इंतज़ार कर रही है? 

मोदी सरकार ने कश्मीर में जिस तरह अपने समर्थकों के विरोध की परवाह न करते हुए PDP के साथ मिलकर सरकार बनाई है तथा मृदुभाषी लेकिन फुल खाँटी संघी और युवा राम माधव को संघ से मुक्त करते हुए कश्मीर का प्रभारी बनाया है, उससे यह तो निश्चित है कि धारा 370 को लेकर RSS-मोदी के दिमाग में कोई न कोई खिचड़ी जरूर पक रही है. नेशनल कांफ्रेंस और PDP की अंदरूनी उठापटक, विरोधाभास और हुर्रियत की पाकिस्तान परस्त बेचैनी को देखते हुए साफ़ ज़ाहिर हो रहा है कि कश्मीर में शह-मात का खेल खेला जा रहा है.यदि कोई अनहोनी घटना अथवा आग भड़काने वाली कोई “विशिष्ट चिंगारी” नहीं भड़की, तो अगले पाँच वर्ष में इस मुद्दे पर कुछ न कुछ ठोस न सही हल्का-पतला जरूर निकलकर सामने आएगा. तीनों प्रमुख मुद्दों में से यही मुद्दा समन्वय बैठक में सर्वोच्च वरीयता प्राप्त रहा. 

ये बात संघ भी जानता है और मोदी भी जानते हैं कि सिर्फ “विकास” के सहारे चुनाव नहीं जीते जाते. यहाँ तक कि 2014 में जीता हुआ लोकसभा का चुनाव में भी नरेंद्र मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व और भाषणों अथवा सोशल मीडिया के सहारे नहीं जीता गया, बल्कि इसमें सदा की तरह RSS के जमीनी और हवाई कैडर ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी.इनके अलावा काँग्रेस के कुकर्म ही इतने अधिक बढ़ चुके थे और प्रचार पा चुके थे कि काँग्रेस नामक मिट्टी के ढेर को हल्का सा धक्का देने भर की जरूरत थी. यह काम संघ के कैडर ने पूरी ताकत के साथ किया. लेकिन चुनाव जीतने के लिए विकास की नहीं धर्म-जाति के गणित भी ध्यान में रखने पड़ते हैं. पिछले दस वर्ष में UPA सरकार के दौरान जिस तरह पूरी बेशर्मी के साथ हिंदुओं की भावनाओं एवं उनके सम्मान का दमन किया गया, उससे इस युवा देश की बड़ी आबादी के बीच आक्रोश फ़ैल चुका था. उस आक्रोश को सही दिशा में घुमाकर लोकसभा चुनाव जीतना भी मोदी की विशेष सफलता थी. इसलिए “कैडर” और “हिन्दू नेटीजनों” को संतुष्ट रखना संघ का पहला कर्त्तव्य है.सूत्रों के अनुसार समन्वय बैठक में अरुण जेटली पर सर्वाधिक सवाल दागे गए. संघ का एक बड़ा तबका जेटली को नापसंद करता रहा है, और इस सरकार में मोदी की शह पर दो-दो महत्त्वपूर्ण मंत्रालय कब्जे में रखे हुए जेटली, संघ की हिंदूवादी नीतियों के रास्ते में कंकर-काँटा बने हुए हैं. यह कोई रहस्य नहीं रह गया है कि देश के अधिकाँश मीडिया घराने “हिन्दू विरोधी” हैं. ऐसे में सूचना-प्रसारण मंत्रालय जेटली के पास में होने के बावजूद ऊलजलूल ख़बरें परोसना और सरकार विरोधी माहौल बनाने की कोशिश के बावजूद कुछ नहीं कर पाने को लेकर संघ में जेटली के कामकाज को लेकर बेचैनी है. स्वयं जेटली भी कह चुके हैं कि उनके स्वास्थ्य के कारण उन पर दो-दो मंत्रालयों का बोझ ठीक नहीं है, अतः बिहार चुनावों के बाद वहाँ के परिणामों के आधार पर मंत्रिमंडल में फेरबदल हो सकता है. यदि भाजपा (यानी NDA) पूर्ण बहुमत से बिहार में सत्ता पा जाता है तो केन्द्र में मंत्रियों के विभागों में मामूली फेरबदल हो सकता है, लेकिन यदि भाजपा बिहार में चुनाव हार जाती है तो “सर्जरी” किस्म का फेरबदल होगा, और बिहार से सम्बन्धित वर्तमान मंत्रियों में से कुछ को दरवाजा दिखाया जा सकता है. 

मीडिया की हिन्दू विरोधी बौखलाहट पर नियंत्रण के अलावा इस समन्वय बैठक में NGOs के मकड़जाल और काँग्रेस के शासन में दीमक की तरह फैले पैंतीस लाख NGOs की गतिविधियों पर भी बात हुई. जैसा कि अब धीरे-धीरे सामने आने लगा है यूपीए सरकार के दौरान सोनिया गाँधी की शरण में चल रही NAC नामक सर्वोच्च संस्था (जो सीधे मनमोहन सिंह को निर्देशित करती थी), कुछ और नहीं सिर्फ NGOs चलाने वालों का ही एक “गिरोह” था. अरुणा रॉय, हर्ष मंदर, शबनम हाशमी, तीस्ता सीतलवाड जैसे कई लोग NAC के सदस्य रहे और इन्होंने ग्रीनपीस और फोर्ड फाउन्डेशन जैसे महाकाय NGOs के साथ “तालमेल” बनाकर विभिन्न ऊटपटांग योजनाएँ बनाईं और देश को अच्छा ख़ासा चूना लगाया.इसके अलावा इन्हीं NGOs के माध्यम से कतिपय लोगों ने जमकर पैसा भी कूटा और साथ ही अपना हिन्दू-विरोधी एजेंडा भी जमकर चलाया. RSS के विचारक और कार्यकर्ता NGOs के खिलाफ नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा जारी कार्रवाई से संतुष्ट तो नहीं थे, परन्तु यह भी मानते हैं कि ग्रीनपीस और फोर्ड फाउन्डेशन जैसे “दिग्गजों” की नकेल कसना इतना आसान नहीं है, इसलिए इस मामले सरकार को और समय देना होगा. फिलहाल सरकार सही दिशा में कदम उठाने लगी है. 


सुषमा स्वराज, नितिन गड़करी और मनोहर पर्रीकर के मंत्रालयों की समीक्षा के दौरान अधिक माथापच्ची नहीं करनी पड़ी, क्योंकि इनके काम से संघ में लगभग सभी लोग संतुष्ट हैं. संघ के लिए तीन मंत्रालय सबसे महत्त्वपूर्ण हैं, गृह, सूचना-प्रसारण और मानव संसाधन. राजनाथ सिंह से भी कई मुद्दों पर जवाबतलबी हुई है, क्योंकि पिछले एक वर्ष में कुछ ऐसे मुद्दे उभरकर सामने आए, जिसमें गृह मंत्रालय या तो ढीला साबित हुआ, या फिर खामख्वाह विवादों में रहा. परन्तु चूँकि अरुण जेटली की ही तरह राजनाथ सिंह का रवैया भी उनके मीडिया मित्रों के प्रति “दोस्ताना” रहता है, इसलिए मीडिया ने कभी भी इन दोनों को निशाना नहीं बनाया और ना ही विवादों को अधिक हवा दी. मीडिया की आलोचना और समालोचना का सारा फोकस पिछले चौदह साल से नरेंद्र मोदी पर ही है. 

बताया जाता है कि केन्द्र में जिस मंत्री से RSS सर्वाधिक खफ़ा है, वे हैं मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी. लगातार अपने बयानों और टीवी शो में उनकी विवादित उग्रता को छोड़ भी दिया जाए, तो स्मृति ईरानी ने अभी तक पिछले चौदह माह में मानव संसाधन मंत्रालय में कोई विशेष छाप नहीं छोड़ी है. शिक्षा संस्थानों और विश्वविद्यालयों में पिछले साठ वर्ष में जिस तरह से वामपंथी विचारधारा ने अपनी गहरी पैठ बनाई है उसे देखते हुए ईरानी से अपेक्षा थी कि वे तेजी से काम करेंगी, परन्तु ऐसा हो नहीं रहा.क्योंकि ना तो इधर स्मृति ईरानी और ना ही उधर राज्यवर्धनसिंह राठौर को वामपंथी साहित्यकारों, फिल्मकारों और लेखकों की धूर्तता और “कब्जाऊ नीयत एवं नीति” के बारे में समुचित जानकारी है. चाहे IIT चेन्नई का मामला हो, या FTII का मामला हो अथवा JNU में बैठे “बौद्धिक घुसपैठियों” का मामला हो, सभी मोर्चों पर स्मृति ईरानी तथा जेटली-राठौर जोड़ी लगभग असफल ही सिद्ध हुए हैं. अतः ऐसी संभावना बन रही है कि बिहार चुनावों के बाद स्मृति ईरानी का मंत्रालय बदल दिया जाएगा. 


अब सबसे अंत में सबसे प्रमुख बात. कुछ “तथाकथित” विश्लेषक फिलहाल इस बात पर कलम घिस रहे हैं कि RSS और नरेंद्र मोदी में मतभेद हो गए हैं. वास्तव में ऐसे बुद्धिजीवियों की सोच पर तरस भी आता है और हँसी भी आती है. ये कथित सेकुलर विश्लेषक यह भूल जाते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनावों हेतु जिस समय आडवाणी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी हेतु ख़म ठोंक रहे थे, उस समय “नागपुर” की हरी झंडी की बदौलत ही नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी सुनिश्चित हुई. मोहन भागवत और नरेंद्र मोदी लगभग हमउम्र हैं, और उनकी आपसी “ट्यूनिंग” काफी बेहतर है.यदि संघ उस समय अपना रुख स्पष्ट नहीं करता तो आडवाणी गुट पूरा रायता फैला सकता था, लेकिन जैसे ही संघ मजबूती से मोदी के पीछे खड़ा हुआ, सब ठंडे हो गए. प्रधानमंत्री बनने के बाद भी एक बार नरेंद्र मोदी सरेआम कह चुके हैं कि “उन्हें संघ का स्वयंसेवक होने का गर्व है”, यदि फिर भी कोई बुद्धिजीवी यह सोचता फिरे कि मोदी और संघ के बीच कोई खटास है, तो उसका भगवान ही मालिक है. आज की तारीख में RSS और उसके लाखों स्वयंसेवक “चुनाव जिताने” का एक विशाल ढाँचा हैं. अन्य पार्टियों को लाखों-करोड़ों रूपए फूँक कर कार्यकर्ता खरीदने पड़ते हैं, जबकि भाजपा सुखद स्थिति में है कि उसे RSS के रूप में गाँव-गाँव की ख़ाक छानने वाले मुफ्त के कार्यकर्ता मिल जाते हैं, जो “साम-दाम-दण्ड-भेद” की राजनीति में भी माहिर हैं. ऐसे में यदि कोई सोचे कि वह संघ को नाराज करके अपना काम चला लेगा तो निश्चित ही वह नासमझ होगा.वर्ष में एक बार ऐसी समन्वय बैठकें इसीलिए की जाती हैं कि सरकार, संगठन और पार्टी में तालमेल बना रहे, कहाँ-कहाँ के पेंच-बोल्ट ढीले हो रहे हैं इसकी जानकारी मिल जाए और भविष्य की रणनीति पर सभी एक साथ मिलजुलकर चलें. चूँकि सरकार को सिर्फ पन्द्रह माह हुए हैं अतः संघ भी समझता है कि पिछले साठ वर्षों की “काँग्रेसी प्रशासनिक दुर्गन्ध” को साफ करने में वक्त लगेगा, फिर भी इस समन्वय बैठक में राम मंदिर सहित भाजपा के मूल मुद्दों पर चर्चा करके संघ ने दिशा तय कर दी है, अब सिर्फ “उचित समय” और “सही गोटियों” का इंतज़ार है ताकि 2017 के अंत तक अगली चाल चली जाए.


Viewing all articles
Browse latest Browse all 168

Trending Articles