प्रोफ़ेसर गणेश देवी ने साहित्य अकादमी सम्मान क्यों लौटाया??
आजकल देश के साहित्यकारों-लेखकों में सम्मान-पुरस्कार लौटाने की होड़ बची हुई है. बड़े ही नाटकीय अंदाज़ में देश को यह बताने की कोशिश की जा रही है कि भारत में “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में है”, “लेखकों को दबाया जा रहा है”, “कलम को रोका जा रहा है”... आदि-आदि-आदि. इस सम्मान लौटाने की नौटंकी के बाद कम से कम देश को यह तो पता चला कि “अच्छा!!! इसे भी पुरस्कार मिला हुआ है??”, “अच्छा!!! इसे कब सम्मान मिल गया, लिखता तो दो कौड़ी का भी नहीं है..”. साथ ही इसी बहाने ऐसे सभी सम्मान पुरस्कार लौटाऊ साहित्यकारों की “पोलमपोल” लगातार खुलती जा रही है. इसी कड़ी में एक नाम है वडोदरा के सयाजीराव विवि के भूतपूर्व प्रोफेसर गणेश देवी साहब का...
गणेश देवी को भी साहित्य अकादमी सम्मान मिला हुआ है, और आपको भले ही जानकारी नहीं हो गणेश देवी साहब को कोई पद्म पुरस्कार भी मिला हुआ है.गणेश देवी ने सिर्फ साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाया है, पद्म पुरस्कार नहीं लौटाया... और अकादमी पुरस्कारों के साथ मिली हुई मोटी राशि मय ब्याज तो लौटाने के बारे में सोचा भी नहीं है. बहरहाल, अब जैसी कि “परंपरा” है, उसी के अनुसार गणेश देवी साहब का एक NGO भी है. NGO का नाम है “भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर”, बताते हैं कि इस NGO के तहत देवी साहब भारतीय भाषाओं पर काम करते हैं. गणेश देवी साहब प्रभावशाली और अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त लेखक बताए जाते हैं, इसलिए इनका यह NGO विदेशों से भी अनुदान एवं सहायता प्राप्त करता है (यह भी उसी परंपरा का ही एक अंग है).पिछले आठ वर्षों से इनके NGO “भाषा” को लगातार मोटी रकम विदेशों से अनुदान के रूप में प्राप्त होती रही है... लेकिन NGO के बही-खाते के अनुसार इस वर्ष, अर्थात नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद, अर्थात 2014-15 में... अर्थात नरेंद्र मोदी द्वारा विदेशी फोर्ड फाउन्डेशन जैसे संदिग्ध दानदाताओं की नकेल कसने तथा NGOs के खातों एवं खर्चों को अपडेट रखने के निर्देश देने के बाद से इन्हें सिर्फ और सिर्फ 31 लाख रूपए का ही चंदा मिला... “सिर्फ” 31 लाख??जी हाँ, 31 लाख जैसी मोटी रकम को मैंने “सिर्फ” क्यों लिखा, यह आप जल्दी ही समझ जाएँगे.
2014-15के खातों के अनुसार गणेश देवी साहब के NGO को "सिर्फ" 31 लाखरूपए मिले...
जबकि 2013-14में “भाषाओं के उत्थान” के लिए इस NGO को एक करोड़ चौबीस लाख रूपएमिले थे, जिसमें से 56 लाख रूपए तो अकेले फोर्ड फाउन्डेशन नेदिए थे...
उससे पहले 2012-13में गणेश देवी साहब को एक करोड़ नब्बे लाख रूपएका चन्दा मिला था, इस रकम में भी 55 लाख रूपए फोर्ड फाउन्डेशन ने दिए थे, जबकि नीदरलैंड के एक और संदिग्ध दानदाता ने भी खासी मोटी रकम दान में दी थी...
सन 2011-12के रिकॉर्ड के अनुसार देवी साहब के NGO को एक करोड़ 67 लाख रूपएमिले, जिसमें से 42 लाख रूपए फोर्ड फाउन्डेशन ने दिए थे. इसके अलावा “एक्शन होम्स, जर्मनी” ने भी एक मोटी रकम दी है.
सन 2010-11में चन्दे की रकम एक करोड़ 99 लाख रूपएतक पहुँची थी. इसमें से लगभग 45 लाख रूपए फोर्ड फाउन्डेशन ने, जबकि 50 लाख रूपए का दान “कैथोलिक रिलीफ सर्विस” नामक संस्था ने दिए थे.
सन 2009-10में गणेश देवी साहब को विदेशों से दो करोड़ चौबीस लाख रूपएमिले. इसमें फोर्ड फाउन्डेशन ने 56 लाख रूपए दिए, फ्रांस की एक संस्था ने 66 लाख रूपए वोकेशनल ट्रेनिंग, मोटर रिपेयरिंग, कंप्यूटर खरीदी आदि के लिए दिए, जबकि कैथोलिक रिलीफ सर्विस ने सेमिनार आयोजित करने के लिए सात लाख रूपए दिए थे.
सन 2008-09में देवी साहब के NGO को एक करोड़ 55 लाख रूपएमिले थे, जिसमें से 25 लाख फोर्ड फाउन्डेशन ने, जबकि अमेरिका की “एक्शन एड” नामक संस्था ने 46 लाख रूपए का चंदा दिया (सनद रहे कि “एक्शन एड” वही संस्था है, जिसने नर्मदा बचाओ आंदोलन और अरविन्द केजरीवाल के NGO को भी मोटी रकम प्रदान की थी).
सन 2007-08में NGO “भाषा” ने एक करोड़ 15 लाखका दान हासिल किया था, जिसमें फोर्ड फाउन्डेशन ने दो किस्तों में 25 लाख और 27 लाख की रकम प्रदान की थी.
कहने का तात्पर्य यह है कि पिछले आठ साल से लगातार गणेश देवी साहब को विदेशों से एक करोड़, सवा करोड़, डेढ़ करोड़, दो करोड़ जैसे मोटे-मोटे चन्दे मिल रहे थे (भगवान जाने इस रकम का कितना, कैसा और कहाँ उपयोग उन्होंने किया होगा?)... लेकिन बुरा हो नरेंद्र मोदी का, जिनके आने के बाद इसी वर्ष उन्हें “सिर्फ और सिर्फ” 31 लाख रूपए का चन्दा ही मिल पाया, जिसमें फोर्ड फाउन्डेशन ने फूटी कौड़ी भी नहीं दी...
अब बताईये, ऐसे माहौल में साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाना बनता है कि नहीं?? मोदी ने कुछ साहित्यकारों(??) को ऐसी गरीबी और भुखमरी की स्थिति में ला पटका है, कि वे क्या तो साहित्य रचें, क्या तो भाषा के लिए काम करें और क्या तो खर्चा-पानी चलाएँ और क्या सेमीनार करें?? ज़ाहिर है कि चन्दे में भारी कमी से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में आनी ही थी, फोर्ड फाउन्डेशन को “तड़ीपार” करने से लोकतंत्र का गला घुटना ही है...इससे अच्छा है कि “स्वामिभक्ति” दिखाते हुए पुरस्कार ही लौटा दिया जाए, कम से कम “दानदाताओं” की निगाह में छवि तो बनी रहेगी और देश की जनता भी यह जान लेगी कि वे “सम्मानित बुद्धिजीवी” हैं...
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