मुख्य मुद्दे को दरकिनार कर, आपसी उठापटक (सन्दर्भ – भाजपा का चरैवेति प्रकरण)
चर्च संस्था की समस्याओं और अनियमितताओं पर नियमित रूप से अपनी सशक्त लेखनी चलाने वाले "पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट" के अध्यक्ष आर एल फ्रांसिस ने मप्र भाजपा की पत्रिका "चरैवेति" में जो लेख लिखा है, उसकी चंद पंक्तियाँ इस प्रकार हैं... -
फ्रांसिस ने आयोग के हवाले से ननों की स्थिति बेहतर बनाने के लिए जो सुझाव हैं वे भी पेश किए - जैसे कि
१) जो माँ-बाप अपनी नाबालिग बेटियों को जबरन नन बनने के लिए मजबूर करते हैं, उन पर कार्रवाई हो...
२) ननों की संपत्ति से बेदखली रोकी जाए ताकि यदि कोई नन सामान्य जीवन में लौटना चाहे तो उसे अपने पिता की संपत्ति में अधिकार मिल सके...
३) यह जाँच की जाए कि केरल में कितनी नाबालिग ननें बनीं हैं और उनमें से कितनी वापस पारिवारिक जीवन में लौटना चाहती हैं... इत्यादि...
फ्रांसिस ने अपने लेख में कई उदाहरण दिए हैं, जिसमें सिस्टर जेस्मी की आत्मकथा "आमीन", कई वर्ष पहले की गई सिस्टर अभया की हत्या, कोल्लम की सिस्टर अनुपा मैरी की आत्महत्या जैसे उदाहरण शामिल हैं...
भला इस लेख में आपत्ति जताने लायक क्या है?? और भाई फ्रांसिस से ज्यादा कौन जान सकता है कि चर्च के भीतर क्या चल रहा है?? लेकिन ईसाई संगठनों ने अपनी गिरेबान में झाँकने की बजाय "चरैवेति" पर ही वैमनस्यता फ़ैलाने का आरोप मढ़ दिया...भोपाल के ईसाई संगठनों को चर्च के अंदर की यह "कड़वी सच्चाई" नहीं सुहाई, और वे "चरैवेति" पत्रिका की शिकायत लेकर पुलिस के पास पहुँच गए....
यहाँ तक तो सब ठीक था, किसी भी धर्म या संस्था में हो रही गडबड़ी अथवा समस्याओं को उजागर करना कोई गलत काम नहीं है... लेकिन जैसा कि अक्सर होता आया है, अचानक पता नहीं कहाँ से भाजपा के भीतर से ही “सेकुलरिज्म” की चिंताएँ उभरने लगीं. एक ईसाई लेखक द्वारा चर्च की समस्याओं को उजागर करने वाले लेख के प्रकाशन से, भाजपा के ही एक वर्ग को "आपत्ति" हो गई. कुछ लोगों को प्रदेश के मुठ्ठी भर ईसाई वोटों की चिंता सताने लगी, और इस लेख में प्रस्तुत मूल मुद्दों (अर्थात चर्च में ननों के शोषण और उनकी दयनीय स्थिति) पर चर्चा करने (या करवाने) की बजाय भाजपा के एक वर्ग ने चरैवेति पत्रिका के मालिकाना हक और विज्ञापनों को लेकर निरर्थक किस्म की बयानबाजी और अखबारी युद्ध छेड़ दिया... जिसकी कोई तुक नहीं थी.वेबसाइटों का हिसाब रखने वाली वेबसाईट whois.comके अनुसार Charaiveti.inके नाम से 19.04.2012को साईट रजिस्टर हुई है, जबकि Charaiveti.netके नाम से जो वेबसाईट है वह 12.10.2012को, अर्थात बाद में रजिस्टर हुई है... मजे की बात यह है कि दोनों वेबसाईटों में पत्राचार का पता E-2.दीनदयाल परिसर, अरेरा कालोनी भोपाल ही दिया है. यह तो जाँच से ही पता चलेगा कि पहले रजिस्टर हुई साईट को असली माना जाए या बाद में रजिस्टर हुई साईट को? (हालांकि सामान्य समझ तो यही कहती है कि जिसने चरैवेति नाम से पहले रजिस्टर कर लिया, वही मूल साईट है, बाद में रजिस्टर होने वाली नक़ल मानी जाती है. खासकर उस स्थिति में जबकि Charaiveti.inके बारे में जानकारी बताती है कि, इस साईट के एडमिनिस्ट्रेटर के रूप में अनिल सौमित्र का नाम है, और तो और रजिस्ट्रेशन में जो ई-मेल पता दिया है, वह भी चरैवेति पत्रिका में नियमित रूप से प्रकाशित होता है).
दोनों ही वेबसाईट सरसरी तौर से देखने पर एक जैसी लगती हैं, दोनों में भाजपा और संगठन से सम्बन्धित ख़बरें और तस्वीरें हैं, ऐसे में सवाल उठता है कि वास्तव में मध्यप्रदेश जनसंपर्क विभाग से किस वेबसाईट को विज्ञापन मिल रहे हैं? कौन सी वेबसाईट को भुगतान हुआ है और कौन सी वेबसाईट “जनसेवा” के तौर पर खामख्वाह सरकारी प्रचार कर रही है? यह जानकारियाँ और जाँच तो दोनों पक्षों को साथ बैठाकर दस मिनट में ही संपन्न हो सकती थी... यह तो पार्टी का अंदरूनी मामला होना चाहिए था, इसके लिए चौराहे पर जाकर कपड़े धोने की क्या जरूरत थी?
इस “फोकटिया अखबारी युद्ध” के कारण फ्रांसिस साहब के लेख और चर्च की अनियमितताओं संबंधी मुद्दों पर जैसी “हेडलाइंस” बननी चाहिए थीं, उनका फोकस हटकर “चरैवेति” और विज्ञापनों पर आकर टिक गया... फ्रांसिस को खामख्वाह अपनी सफाई पेश करनी पड़ी और मूल मुद्दा तो पता नहीं कहाँ गायब हो गया. भोपाल से प्रकाशित होने वाले लगभग प्रत्येक बड़े अखबार ने फ्रांसिस के लेख और उसमें दर्शाई गई चर्च की गंभीर समस्याओं पर शायद ही कुछ छापा हो, किसी भी अखबार के “संवाददाता”(?) ने यह ज़हमत नहीं उठाई कि वह थोड़ी खोजबीन करके पिछले दस साल के दौरान केरल में चर्च की गतिविधियों के बारे में कोई खबर या लेख लिखता... लेकिन “चरैवेति” के अनावश्यक विवाद पर अखबारों ने जरूर चार-चार कॉलम भर दिए, यह कैसा रहस्य है? जिन तत्वों ने यह खबर प्लांट करवाई है, उन्हें उस समय मायूसी हुई होगी जब मप्र जनसंपर्क विभाग ने बाकायदा घोषणा की, कि चरैवेति.इन को और चरैवेति.नेट, दोनों को ही किसी प्रकार का भुगतान नहीं किया गया है. यानी “सूत न कपास, जुलाहों में लठ्ठमलट्ठा”, और चर्च की मुख्य समस्या पर चर्चा गायब!!!!
भोपाल के अधिकाँश अखबारों की हेडलाइन है :- “चर्च में ननों का शोषण – चरैवेति में छपे लेख से भाजपा में हडकंप”... क्या??? भाजपा में हडकंप???? - क्यों भाई, जहाँ हडकंप मचना चाहिए (यानी की चर्च में) वहाँ तो हडकंप मचा नहीं, इस खबर से भाजपा में हडकंप कैसे मच सकता है? और क्यों मचना चाहिए?उल्लेखनीय है कि “चरैवेति” नामक पत्रिका, भाजपा के लगभग एक लाख कार्यकर्ताओं, व जिला-मंडल कार्यालयों में भेजी जाती है. तो फिर इस पत्रिका में एक ईसाई समाज सुधारक द्वारा लिखे गए लेख से इतना विवाद क्योंकर हुआ? क्या भाजपा की “अपनी आंतरिक पत्रिका” को भी “सेकुलरिज्म की बीमारी” से घिर जाना चाहिए, जहाँ चर्च से जुडी हर खबर “पवित्र” ही हो, वर्ना न हो? जाहिर है कि यह मामला भाजपा की अंदरूनी उठापटक का है, जिसके लिए फ्रांसिस साहब के इतने महत्वपूर्ण लेख को दरकिनार करते हुए असली-नकली वेबसाईट और उसे मिलने वाले विज्ञापन जैसे बकवास मुद्दों को षडयंत्रपूर्वक तूल दे दिया गया.
ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा के गढ़ भोपाल तक में ईसाई संगठनों का दबदबा इतना बढ़ चुका है कि अब प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उनसे सम्बन्धित किसी भी नकारात्मक खबर को दबाने में उन्हें सफलता मिलने लगी है. जैसा कि हम राष्ट्रीय स्तर पर भी देख चुके हैं कि भारत सरकार के बाद देश में “जमीन” का सबसे बड़ा मालिक होने के बावजूद चर्च की आमदनी और विदेशों से आने वाले अकूत धन पर सरकार का न तो कोई अंकुश है और ना ही नियंत्रण. आए दिन केरल से ननों के शोषण की ख़बरें आती हैं, लेकिन सब बड़ी सफाई से दबा दी जाती हैं.
ऐसा क्यों होता है कि सत्ता में आते ही भाजपा के कुछ लोगों पर “सेकुलरिज्म” की अफीम चढ़ जाती है? वर्ना क्या कारण है कि भाजपा की अपनी ही पत्रिका में छपे लेख पर पार्टी न सिर्फ सफाई देती फिरे, न सिर्फ बैकफुट पर चली जाए, बल्कि मूल मुद्दे को छोड़कर उनके आपसी विवाद अखबारों की हेडलाइंस बन जाएँ? निश्चित रूप से कहीं न कहीं आपसी समन्वय की कमी (बल्कि उठापटक कहिये) और “विचारधारा का क्षरण”, साफ़ दिखाई देता है...
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विशेष नोट :-बात निकली ही है तो यहाँ यह बताना उचित होगा कि कुछ माह पहले यह समाचार प्रकाशित हुआ था और जिसकी पुष्टि भी हुई थी कि मप्र के जनसंपर्क विभाग ने किसी नामालूम सी वेबसाईट www.mppost.comको पन्द्रह लाख का भुगतान, विज्ञापन मद में कर दिया था. इस खबर के चित्र भी साथ में संलग्न हैं. यही हाल चरैवेति की दोनों वेबसाईटों का है. इन वेबसाईटों पर पाठकों के नाम पर कव्वे उड़ते रहते हैं, शायद भाजपा के कार्यकर्ता तक इन साईटों पर झाँकते नहीं होंगे.
Mppost.comसे सम्बन्धित इस खबर पर उस समय प्रतिक्रिया व्यक्त करते समय मैंने टिप्पणी भी की थी, कि एक अनजान सी वेबसाईट को न जाने किस “सेटिंग” और “जुगाड़” के चलते लाखों का भुगतान हो जाता है, और मेरे जैसे लोग जिसके ब्लॉग का ट्रेफिक और लोकप्रियता इन साईटों के मुकाबले कहीं अधिक है, लेकिन मुझे आज तक मप्र जनसंपर्क की तरफ से फूटी कौड़ी भी नहीं मिली है,क्योंकि मुझे न तो जुगाड़ आती है, न सेटिंग करना आता है और किसी अफसर या नेता की चाटुकारिता तो बिलकुल भी नहीं आती. स्वाभाविक है कि मुझे अपना ब्लॉग चलाने के लिए इधर-उधर भीख मांगकर काम चलाना पड़ता है... “विचारधारा” के लिए लड़ने वाले मेरे जैसे सामान्य कार्यकर्ता दर-दर की ठोकरें खाते हैं, और इधर भोपाल में बैठे लोग ईसाईयों से सम्बन्धित मुद्दे पर एकजुटता दिखाने और चर्च के कुप्रचार/दबाव का मुकाबला करने की बजाय, आपसी सिर-फुटव्वल में लगे हुए हैं... इसे क्या कहा जाए??
कम से कम एक बात तो स्पष्ट है कि सोशल मीडिया के लिए, मप्र जनसंपर्क विभाग द्वारा जारी किए जाने विज्ञापनों की नीति और भुगतान के सम्बन्ध में गहन जाँच होनी आवश्यक है...
Mppost.comसे सम्बन्धित इस खबर पर उस समय प्रतिक्रिया व्यक्त करते समय मैंने टिप्पणी भी की थी, कि एक अनजान सी वेबसाईट को न जाने किस “सेटिंग” और “जुगाड़” के चलते लाखों का भुगतान हो जाता है, और मेरे जैसे लोग जिसके ब्लॉग का ट्रेफिक और लोकप्रियता इन साईटों के मुकाबले कहीं अधिक है, लेकिन मुझे आज तक मप्र जनसंपर्क की तरफ से फूटी कौड़ी भी नहीं मिली है,क्योंकि मुझे न तो जुगाड़ आती है, न सेटिंग करना आता है और किसी अफसर या नेता की चाटुकारिता तो बिलकुल भी नहीं आती. स्वाभाविक है कि मुझे अपना ब्लॉग चलाने के लिए इधर-उधर भीख मांगकर काम चलाना पड़ता है... “विचारधारा” के लिए लड़ने वाले मेरे जैसे सामान्य कार्यकर्ता दर-दर की ठोकरें खाते हैं, और इधर भोपाल में बैठे लोग ईसाईयों से सम्बन्धित मुद्दे पर एकजुटता दिखाने और चर्च के कुप्रचार/दबाव का मुकाबला करने की बजाय, आपसी सिर-फुटव्वल में लगे हुए हैं... इसे क्या कहा जाए??
कम से कम एक बात तो स्पष्ट है कि सोशल मीडिया के लिए, मप्र जनसंपर्क विभाग द्वारा जारी किए जाने विज्ञापनों की नीति और भुगतान के सम्बन्ध में गहन जाँच होनी आवश्यक है...