नरेन्द्र मोदी प्रवृत्ति का उदभव एवं विकास (भाग-4)
पिछले अंक से आगे… (पिछला भाग पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें... http://blog.sureshchiplunkar.com/2012/10/rise-of-narendra-modi-phenomena-part-3.html)
मित्रों… जैसा कि हम पिछले भागों में देख चुके हैं कि 1984 से लेकर 1998 तक ऐसी तीन-चार प्रमुख घटनाएं और व्यवहार हुए जिन्होंने यह साबित किया कि देश में मुस्लिम तुष्टिकरण न सिर्फ़ बढ़ रहा था, बल्कि वोट बैंक की घृणित राजनीति और “सेकुलरिज़्म”की विकृत परिभाषा ने भाजपा-संघ-हिन्दुत्व को “अछूत”बना दिया।
1984 से 1998 की लोकसभा चुनाव तक का इतिहास हम देख चुके हैं, जिसमें शाहबानो मामला, रूबिया सईद अपहरण मामला, चरार-ए-शरीफ़ और आतंकवादी मस्त गुल का मामला, कश्मीर से षडयंत्रपूर्वक और धर्म के नाम पर हजारों कश्मीरी हिन्दुओं को यातनाएं देकर भगाना और अपने ही देश में शरणार्थी का जीवन जीने को मजबूर करना… और 1998 में सेकुलरिज़्म के नाम पर जिस तरह “सिर्फ़ एक वोट”से वाजपेयी जी की सरकार गिराई गई… ऐसी कई घटनाओं ने हिन्दुओं के मन में आक्रोश भी भरा और उनके अंतःकरण को छलनी भी किया।
1999 के आम चुनावों में भी भाजपा का “प्रतिबद्ध वोटर”उसके साथ ही रहाऔर उसने 1998 की ही तरह भाजपा को 182 सीटें देकर पहले नम्बर पर ही रखा। जबकि कांग्रेस 114 सीटों के ऐतिहासिक न्यूनतम संख्या पर पहुँच गई। ध्यान रहे कि इस समय तक जिस “प्रवृत्ति”की हम बात कर रहे हैं, वह नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय परिदृश्य में कहीं भी नहीं थे, बल्कि मोदी का राष्ट्रीय स्तर पर प्रादुर्भाव 2002 में, अर्थात NDA सरकार बनने के तीन साल बाद हुआ था, लेकिन हिन्दुओं के दिल में “मोदी प्रवृत्ति”का निर्माण तो शाहबानो मामले से ही हो गया था, जो धीमे-धीमे बढ़ता जा रहा था।
बहरहाल, हम बात कर रहे थे 1999 के आम चुनावों की… भाजपा के प्रतिबद्ध हिन्दू वोटरों का भाजपा की सरकार से पहली बार मोहभंग होना यहीं से शुरु हुआ। 182 सीटें जीतने के बाद तथा लगातार दो बार (पहले 13 दिन और फ़िर 13 माह) की सरकारें गिर जाने के बाद भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व यह साबित करना चाहता था कि वह भी गठबंधन सरकार बनाकर कांग्रेस की ही तरह पूरे पाँच साल सरकार चला सकते हैं। इस गठबंधन सरकार को बनाने (अर्थात कई सेकुलर दलों का समर्थन हासिल करने के लिए) भाजपा ने अपने तीन प्रमुख मुद्दे (अर्थात राम मन्दिर निर्माण, कश्मीर से धारा 370 की समाप्ति की माँग और समान नागरिक संहिता), जिनसे पार्टी की “पहचान”थी, उन्हीं को तिलांजलि दे डाली।इन तीनों ही मुद्दों को भाजपा ने सत्ता हासिल करने और “कैसे भी हो पाँच साल सरकार चलाकर दिखाएंगे”की जिद की खातिर, ठण्डे बस्ते में डाल दिया। हिन्दू वोटरों के दिल से भाजपा का विश्वास हिलने और “मोदी प्रवृत्ति”के विकास में इस “विश्वासघात”ने गहरा असर किया, क्योंकि अभी तक (अर्थात 1998 तक) हिन्दुओं को लगता था कि जिस तरह अन्य पार्टियाँ अपने मुद्दों पर ठोस स्वरूप में खड़ी रहती हैं, भाजपा भी वैसा ही करेगी, परन्तु जब उसने देखा कि सिर्फ़ सरकार बनाने की जिद और पार्टी में धीरे-धीरे बढ़ते सत्ता-लोभ के कारण उसके हृदय को छूने वाले तीनों प्रमुख मुद्दे ही पार्टी ने दरकिनार कर दिए हैं, तो उसका दिल खट्टा हो गया। 1998 से पहले हिन्दुओं के दिल पर “गैरों”ने ठेस लगाई थी, 1999 की सरकार बनाते समय पहले मजबूरी में आडवाणी की जगह अटल जी को लाने और बाद में इन तीनों मुद्दों को त्यागने की वजह से पहली बार हिन्दू वोटरों का विश्वास भाजपा से हिल गया, तब से लेकर आज तक पार्टी की फ़िसलन लगातार जारी है।
हालांकि पार्टी के बाहर से एक आम भाजपाई वोटर लगातार इस बात की पैरवी करता रहा कि चूंकि भाजपा के पास 182 सीटें हैं और कांग्रेस के पास सिर्फ़ 114, तो ऐसी स्थिति में भाजपा को अन्य क्षेत्रीय पार्टियों के सामने इतना झुकने की आवश्यकता कतई नहीं थी, क्योंकि उस स्थिति में भाजपा के बिना कोई भी सरकार बन ही नहीं सकती थी,पहले करगिल युद्ध जीतने और कांग्रेस की छवि एकदम रसातल में पहुँच जाने के बाद यदि भाजपा चाहती, तो उस समय इन तीनों मुद्दों पर अड़ सकती थी, लेकिन भाजपा के रणनीतिकारों को क्षेत्रीय दलों से “सौदेबाजी”करना नहीं आया। उस समय भाजपा को गठबंधन करना ही था तो “अपनी शर्तों”पर करना था, लेकिन हुआ उल्टा। सत्ता प्राप्त करने की जल्दी में भाजपा ने अपने “कोर”मुद्दे तो छोड़ दिए, जबकि ममता बनर्जी, चन्द्रबाबू नायडू जैसे क्षेत्रीय नायकों की “वसूली की कीमत”के आगे झुकती चली गई, जबकि यदि भाजपा इस बात पर ज़ोर देती कि जो भी क्षेत्रीय दल इन तीनों मुद्दों पर हमारी बात मानेगा, हम सिर्फ़ उसी का समर्थन लेंगे… तो मजबूरी में ही सही कई दलों को अपनी “सेकुलरिज़्म”की परिभाषा को सुविधानुसार बदलने पर मजबूर होना ही पड़ता तथा भाजपा की छवि “अपने कोर वोटरों”के बीच चमकदार बनी रहती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, और धीरे-धीरे 1999 से 2004 के बीच पार्टी पर “प्रमोद महाजन टाइप”के लोगों का कब्जा होता चला गया…आडवाणी, कल्याण सिंह, उमा भारती इत्यादि खबरों में तो रहे, लेकिन भाजपा को डस चुके “सेकुलरिज़्म”के नाग ने इन्हें दोबारा कभी भी निर्णायक भूमिका में आने ही नहीं दिया। (नोट :- प्रमोद महाजन “टाइप”का अर्थ भी एक “विशिष्ट प्रवृत्ति”ही है, जिसने भाजपा को 1999 के बाद अंदर से खोखला किया है, प्रमोद महाजन तो सिर्फ़ इस प्रवृत्ति का एक रूप भर हैं… इस पर आगे किसी अन्य लेख में बात होगी… ठीक उसी प्रकार जैसे कि नरेन्द्र मोदी भी “मोदी प्रवृत्ति”का एक रूप भर हैं… अर्थात महाजन न होते तो कोई और होता, और यदि मोदी न होते तो कोई और होता…)।
खैर… किसी तरह भाजपा ने NDA नामक “कुनबा”जोड़-तोड़कर 1999 में सरकार बना ली, और जिस “कोर”हिन्दू वोटर ने जिन मुद्दों पर विश्वास करके भाजपा को वहाँ तक पहुँचाया था, वह बेचारा मन मसोसकर “सेकुलरिज़्म के ब्लैकमेल”, भाजपा के सत्ता प्रेम और अपने ही मुद्दों को छोड़ने की “तथाकथित”मजबूरी को देखता-सहता रहा।
सन् 2000 के दिसम्बर में भाजपा नेतृत्व (अर्थात अटल-आडवाणी) को हिन्दू वोटरों तथा समूचे देश के दिलों में अमिट छाप छोड़ने का एक अवसर मिला था, लेकिन अफ़सोसनाक और शर्मनाक तरीके से वह भी गँवा दिया गया। जैसा कि हम सभी जानते हैं, दिसम्बर 2000 के अन्तिम सप्ताह में IC-814 नामक फ़्लाइट का अपहरण करके उसे कंधार ले जाया गया था, जहाँ पर भारत सरकार को पाँच खूंखार आतंकवादियों को छोड़ना पड़ा था। हालांकि इस घटना के बारे में काफ़ी कुछ पहले ही लिखा जा चुका है, परन्तु चूंकि मैं यहाँ भाजपा की गिरावट और “मोदी प्रवृत्ति”के उठाव के बारे में लिख रहा हूँ, इसलिए अधिक विस्तार से इस घटना में न जाते हुए, संक्षेप में भाजपा पर पड़ने वाले इस घटना के दुष्परिणामों के बारे में जानेंगे…
सन् 2000 आते-आते हमारे 24 घण्टे चलने वाले न्यूज़ चैनल और खबरों के प्रति उनकी भूख और “लाइव तथा सबसे तेज”के प्रति उनकी अत्यधिक “वासना”के चलते, कंधार काण्ड में भी इस मीडिया ने NDA सरकार (यानी वाजपेयी-आडवाणी-जसवंत सिंह) को गहरे दबाव में ला दिया था। उस समय भीभारत के मीडिया ने लगातार इस विमान अपहरण के बारे में “ब्रेकिंग न्यूज़”दे-देकर, विमान में सवार यात्रियों के परिजनों के इंटरव्यू दिखा-दिखाकर और प्रधानमंत्री निवास के सामने कैमरायुक्त धरने देकर, सरकार को इतना दबाव में ला दिया था कि सरकार ने पाँच बेहद खतरनाक आतंकवादियों को छोड़ने का फ़ैसला कर लिया। हालांकि जो भाजपा का “कोर हिन्दू वोटर”था, उसका मन इसकी गवाही नहीं देता था, लेकिन भाजपा ने तो उस वोटर के “साथ और सलाह”दोनों को कभी का त्याग दिया था, उस वोटर से पूछता ही कौन था?अंततः बड़े ही अपमानजनक तरीके से एक रिटायर्ड फ़ौजी जसवन्त सिंह अपने साथ पाँच खूंखार आतंकवादियों हवाई जहाज़ में बैठाकर कंधार ले गए, और वहाँ से उन “धनिकों और उच्चवर्गीय लोगों”को “छुड़ाकर”(???) लाए, जिन्होंने अपने जीवन में शायद कभी भी भाजपा को वोट नहीं दिया होगा (ध्यान रहे कि सन 2000 में हवाई यात्रा करने वाले अधिकांश लोग धन्ना सेठ और उच्चवर्गीय लोग ही होते थे), लेकिन जब प्रधानमंत्री निवास के सामने रात-दिन इन धनवान लोगों ने रोना-पीटना मचा रखा हो, तमाम चैनल लगातार वाजपेयी सरकार की असफ़लता(?) को गिनाए जा रहे हों, हर तरफ़ यह “डरपोक माहौल”बना दिया गया हो कि यदि आतंकवादियों को नहीं छोड़ा तो “कयामत”का दिन नज़दीक आ जाएगा… इत्यादि के भौण्डे प्रदर्शन से कैसी भी सरकार हो, दबाव में आ ही जाती। ऊपर से महबूबा मुफ़्ती अपहरण के समय छोड़े गए आतंकवादियों का “अलौकिक उदाहरण”(?) पहले से मौजूद था ही, सो सारे तथाकथित पत्रकारों ने (जो खुद को देशभक्त बताते नहीं थकते थे) “आतंकवादियों को छोड़ो… आतंकवादियों को छोड़ो… नागरिकों की जान बचाओ… यात्रियों को सकुशल वापस लाओ…”जैसा विधवा प्रलाप सतत 8 दिन तक किए रखा।
ऐसे कठिन समय में देश के गृहमंत्री अर्थात आडवाणी से जिस कठोर मुद्रा की अपेक्षा की जा रही थी, वह कहीं नहीं दिखाई दे रही थी। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस मुद्दे को मिलने वाले कवरेज के कारण लगातार हो रही जगहँसाई के सामने एक भी भाजपाई नेता नहीं दिखा, जो तनकर खड़ा हो जाए और कह दे कि “हम आतंकवादियों की कोई माँग नहीं मानेंगे… उन्हें जो करना हो कर लें”। भाजपा का कोर हिन्दू वोटर जो एक मजबूत देश का मजबूत प्रधानमंत्री चाहता था, वह अपेक्षित करता था कि वाजपेयी-आडवाणी की जोड़ी, व्लादिमीर पुतिन (चेचन्या के आतंकवादियों द्वारा किया गया थियेटर बंधक काण्ड) की तरह ठोस और तत्काल निर्णय लेकर या तो आतंकवादियों के सामने झुकने से साफ़ इंकार कर दे, या फ़िर इज़राइल की तरह कमाण्डोज़ भेजकर उन्हें कंधार में ही खत्म करवा दे… लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।वाजपेयी-आडवाणी-जसवन्त की तिकड़ी ने 31 दिसम्बर 2000 को पाँच आतंकवादियों को रिहा कर दिया और हमारे तथाकथित “युवा”और “जोशीले”भारत ने बड़े ही पिलपिले, शर्मनाक और लुँज-पुँज तरीके से 21वीं सदी में कदम रखा। उस दिन अर्थात 1 जनवरी 2001 को भारत के युवाओं और हताश-निराश भाजपा समर्थकों के मन में एक “दबंग”प्रधानमंत्री की लालसा जाग उठी थी…। ध्यान रहे कि इस समय तक भी नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय परिदृश्य में कहीं नहीं थे, परन्तु जैसी दबंगई नरेन्द्र मोदी ने, पिछले दस वर्षों में मीडिया, NGOs तथा निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा उनके खिलाफ़ चलाए जा रहे अभियानों के दौरान दिखाई है… मध्यवर्गीय हिन्दू युवा इसी दबंगई के दीवाने हुए हैं एवं “मोदी प्रवृत्ति”इसी का विस्तारित स्वरूप है।कल्पना कीजिए कि यदि उस समय वाजपेयी-आडवाणी-जसवन्त सिंह कठोर निर्णय ले लेते, तो आज भाजपा के माथे पर एक सुनहरा मुकुट होता तथा आतंकवाद से लड़ने की उसकी प्रतिबद्धता के बारे में लोग उसे सर-माथे पर बैठाते… लेकिन भाजपा तो मुफ़्ती मोहम्मद सईद और नरसिम्हाराव की कतार में जाकर बैठ गई, जिसने हिन्दू मानस को बुरी तरह आहत किया…।
1998 से पहले तक, “पराए”शर्मनिरपेक्षों ने हिन्दू मन पर कई घाव दिए थे, लेकिन 1999 से 2001 के बीच जिस तरह से भाजपा के नेताओं ने “गठबंधन सरकार चलाने की मजबूरी”(?)(?) के नाम पर प्रमुख मुद्दों से समझौते किए, उसे “अपनों द्वारा ही, अपनों पर घाव”की तरह लिया गया… ज़ाहिर है कि जब कोई अपना चोट पहुँचाता है तो तकलीफ़ अधिक होती है। इसलिए धीरे-धीरे हिन्दू कोर वोटर (जो आडवाणी की रथयात्रा से उपजा था) जिसने भाजपा को 182 सीटों तक पहुँचाया था, भाजपा से छिटकने लगा और भाजपा की ढलान शुरु हो गई, जो आज तक जारी है…।लेकिन हिन्दू दिलों में “नरेन्द्र मोदी प्रवृत्ति”का प्रादुर्भाव, जो कि 1985 में “शाहबानो मसले”से शुरु हुआ था, वह 15 साल में “कंधार काण्ड”तथा खासकर “तीन कोर मुद्दों”को त्यागकर, सेकुलरिज़्म की राह पकड़ने की कोशिशों की वजह से, मजबूती से जम चुका था…।
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मित्रों… 2001 से आगे हम अगले अंक में देखेंगे… क्योंकि 2002 में नरेन्द्र मोदी का पहले गुजरात और फ़िर राष्ट्रीय परिदृश्य पर आगमन हुआ…। जबकि 2001 से 2004 के बीच भी NDA की सरकार के कार्यकाल में कुछ और भी “कारनामे”हुए, जिसने अप्रत्यक्ष रूप से “दबंगई स्टाइल वाली मोदी प्रवृत्ति”को ही बढ़ावा दिया था।