सिर्फ जल संरक्षण नहीं, जल संचय,प्रबंधन और बचत भी आवश्यक...
- Suresh Chiplunkar, Ujjain
आधुनिक युग में जैसा कि हम देख रहे हैं, प्रकृति हमारे साथ भयानक खेल कर रही है, क्योंकि मानव ने अपनी गलतियों से इस प्रकृति में इतनी विकृतियाँ उत्पन्न कर दी हैं, कि अब वह मनुष्य से बदला लेने पर उतारू हो गई है. केदारनाथ की भूस्खलन त्रासदी हो, या कश्मीर की भीषण बाढ़ हो, अधिकांशतः गलती सिर्फ और सिर्फ मनुष्य के लालच और कुप्रबंधन की रही है.
बारिश के पानी को सही समय पर रोकना, उचित पद्धति से रोकना ताकि वह भूजल के रूप में अधिकाधिक समय तक सुरक्षित रह सके तथा छोटे-छोटे स्टॉप डैम, तालाब इत्यादि संरचनाओं के द्वारा ग्रामीण इलाकों में किसानों को आत्मनिर्भर बनाने की विभिन्न प्रक्रियाओं पर लगातार विचार किया जाता रहा है और आगे भी इस दिशा में कार्य किया ही जाता रहेगा, क्योंकि जल हमारी अर्थव्यवस्था, हमारे जीवन, हमारे सामाजिक ताने-बाने, हमारी सांस्कृतिक गतिविधियों का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है. ज़ाहिर है कि समय-समय पर इस विषय को लेकर कई जल विशेषज्ञ, इंजीनियर एवं समाजशास्त्रियों द्वारा उल्लेखनीय कार्य किया गया है. परन्तु मेरा मानना है कि हमें जल संरक्षण के साथ-साथ जल बचत पर भी उतनी ही गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है.चूँकि मैं मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले से हूँ, अतः इस सम्बन्ध में मैं आपके समक्ष इसी क्षेत्र को उदाहरण के रूप में पेश करता हूँ, ताकि इस उदाहरण को देश के अन्य जिलों की सभी जल संरचनाओं पर समान रूप से लागू किया जा सके.
जैसा कि सभी जानते हैं, उज्जैन एक प्राचीन नगरी है जहाँ ज्योतिर्लिंग भगवान महाकालेश्वर स्थित हैं, तथा प्रति बारह वर्ष के पश्चात यहाँ कुम्भ मेला आयोजित होता है, जिसे “सिंहस्थ” कहा जाता है. उज्जैन में आगामी कुम्भ मेला अप्रैल-मई २०१६ में लगने जा रहा है, अर्थात अब सिर्फ डेढ़ वर्ष बाकी है. उज्जैन नगर को जलप्रदाय करने अर्थात इसकी प्यास बुझाने का एकमात्र स्रोत है यहाँ से कुछ दूरी पर बना हुआ बाँध जो 1992वाले कुम्भ के दौरान गंभीर नदी पर बनाया गया था. उल्लेखनीय है कि गंभीर नदी, चम्बल नदी की सहायक नदी है, जो कि नर्मदा नदी की तरह वर्ष भर “सदानीरा”नहीं रहती, अर्थात सिर्फ वर्षाकाल में ही इसमें पानी बहता है और इसी पानी को वर्ष भर संभालना होता है. कहने को तो यहाँ शिप्रा नदी भी है, परन्तु वह भी सदानीरा नहीं है और उसे भी स्थान-स्थान पर स्टॉप डैम बनाकर पानी रोका गया है जो सिंचाई वगैरह के कामों में लिया जाता है, पीने के योग्य नहीं है क्योंकि सारे उज्जैन का कचरा और मल-मूत्र इसमें आकर गिरता है. पेयजल के एकमात्र स्रोत अर्थात गंभीर बाँध की मूल क्षमता 2250 McFTहै.1992में इसके निर्माण के समय यह कहा गया था कि, अब अगले तीस-चालीस साल तक उज्जैन शहर को पानी के लिए नहीं तरसना पड़ेगा. इंजीनियरों द्वारा ये भी कहा गया था कि इस बाँध को एक बार पूरा भर देने के बाद, यदि दो साल तक लगातार बारिश नहीं भी हो, तब भी कोई तकलीफ नहीं आएगी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. वर्ष 2004में जलसंकट और वर्ष 2007में यह प्राचीन नगरी अपने जीवनकाल का सबसे भयानक सूखा झेल चुकी है.उस वर्ष जून से सितम्बर तक औसत से 40%कम वर्षा हुई थी. तो फिर ऐसा क्या हुआ, कि मामूली सा जलसंकट नहीं, बल्कि सात-सात दिनों में एक बार जलप्रदाय के कारण शहर से पलायन की नौबत तक आ गई? कारण वही है, कुप्रबंधन, राजनीति और दूरगामी योजनाओं का अभाव.
(चित्र :- उज्जैन नगर को पेयजल आपूर्ति करने वाला गंभीर बाँध
जो शहर से लगभग १८ किमी दूर है)
जल संरक्षण के साथ-साथ जिस जल संचय एवं जल बचत के बारे में मैंने कहा, अब उसे सभी बड़े शहरों एवं नगरों में लागू करना बेहद जरूरी हो गया है. उज्जैन में 2007 के भीषण जलसंकट के समय प्रशासन का पहला कुप्रबंधन यह था कि जब उन्हें यह पता था कि माह सितम्बर तक औसत से बहुत कम बारिश हुई है, तो उन्हें “लिखित नियमों” के अनुसार बाँध के गेट खुले रखने की क्या जरूरत थी? पूछने पर प्रशासनिक अधिकारियों ने कहा कि यह शासकीय नियम है कि वर्षाकाल में माह जुलाई से पन्द्रह सितम्बर तक बाँध के गेट खुले रखना जरूरी है, लेकिन यह एक सामान्य समझ है कि इस नियम को तभी लागू किया जाना चाहिए, जब लगातार बारिश हो रही हो. ऊपर से बारिश नहीं हुई और इधर बाँध से पानी बहता रहा. दूसरी गलती यह रही कि नवंबर से जनवरी के दौरान गेहूँ की फसल के लिए इसी बाँध से आसपास के किसानों ने पानी की जमकर चोरी की और प्रशासन तथा राजनीति मूकदर्शक बने देखते रहे, क्योंकि किसान एक बड़ा वोट बैंक है. हालाँकि दिखावे के लिए बाँधों के आसपास स्थित गाँवों में समृद्ध किसानों की चंद मोटरें और पम्प जब्त किए जाते हैं, लेकिन यह बात सभी जानते हैं कि जल संसाधन विभाग के कर्मचारी इसमें कितनी रिश्वतखोरी करते हैं और आराम से पानी चोरी होने देते हैं. यह तो हुई राजनीती और कुप्रबंधन की बात, अब आते हैं दूरगामी योजनाओं के अभाव के बारे में.
इस वर्ष भी उज्जैन और आसपास बारिश कम हुई है. गंभीर बाँध जिसकी क्षमता 2250McFTहै वह इस बार सिर्फ 1700McFTही भर पाया है (वह भी इंदौर के यशवंत सागर तालाब की मेहरबानी से). अब जबकि यह स्पष्ट हो चुका है, कि आगे और बारिश होने वाली नहीं है तथा समूचे उज्जैन शहर को इतना ही उपलब्ध पानी जुलाई 2015के पहले सप्ताह तक चलाना है तो फिर अक्टूबर के माह में रोजाना जलप्रदाय की क्या जरूरत है?जी हाँ!!!, उज्जैन में पिछले वर्ष भी पूरे साल भर रोजाना एक घंटा नल दिए गए, फिर जब इस वर्ष बारिश में देरी हुई तो हाय-तौबा मचाई गई. इस साल भी बारिश कम हुई है, तब भी एक दिन छोड़कर जलप्रदाय के निर्णय में पहले देर की गई और अब त्यौहारों का बहाना बनाकर रोजाना जलप्रदाय किया जा रहा है. सार्वजनिक नल कनेक्शन की दुर्दशा के बारे में तो सभी जानते हैं. अतः रोजाना जो जलप्रदाय किया जा रहा है, वह खराब या टूटी हुई टोंटियों से नालियों में बेकार बहता जा रहा है, अथवा इस जलप्रदाय का फायदा सिर्फ उन मुफ्तखोरों को मिल रहा है, जो पानी बिल तक नहीं चुकाते. ऐसे में उज्जैन की जनता को आगामी मई-जून 2015के भविष्य की कल्पना भी डरा देती है. मेरा प्रस्ताव यह है कि पूरे देश में जहाँ भी किसी शहर की जलप्रदाय व्यवस्था सिर्फ एक स्रोत पर निर्भर हो, वहाँ साल भर एक दिन छोड़कर नलों में पानी दिया जाए. वैसे भी ठण्ड के दिनों में अर्थात नवंबर से फरवरी तक पानी की खपत कम ही रहती है. इसलिए इस दौरान जल संचय या जल बचत का यह फार्मूला जनता को मई-जून-जुलाई में राहत देगा, बशर्ते इसमें राजनीति आड़े ना आए.
दूरगामी योजनाओं के अभाव की दूसरी मिसाल है बाँधों में जमा होने वाली गाद, जिसे अंगरेजी में हम “सिल्ट” कहते हैं, की सफाई नहीं होना. प्रकृति का नियम है कि नदी में बारिश के दिनों में बहकर आने वाला पानी अपने साथ रेत, मिट्टी के बारीक-बारीक कण लेकर आता है, जो धीरे-धीरे बाँध की तलहटी में बैठते, जमा होते जाते हैं और जल्दी ही एक मोटी परत का रूप धारण कर लेते हैं. मैंने उज्जैन के जिस गंभीर बाँध का यहाँ उदाहरण दिया है, उसकी क्षमता 2250McFTबताई जाती है. उज्जैन नगर को पानी पिलाने में रोजाना का खर्च होता है लगभग 6-7 McFT. यदि मामूली हिसाब भी लगाया जाए, तो पता चलता है कि यदि शहर को रोजाना भी पानी दिया जाए तो वर्ष में लगभग 320-350दिनों तक जलप्रदाय किया जा सकता है (माह सितम्बर में बाँध भरने के दिन से गिनती लगाई जाए तो). लेकिन पिछले दस वर्ष में ऐसा कभी नहीं हुआ कि जुलाई माह आते-आते बाँध के खाली होने की नौबत ना आ जाती हो. ऐसा क्यों होता है?? ज़ाहिर है कि, जिस बाँध की क्षमता 2250MCFTबताई जा रही है, उसकी क्षमता उतनी है ही नहीं... यह क्षमता इसलिए कम हुई है, क्योंकि बाँध की तलहटी के एक बड़े हिस्से में खासी गाद जमा हो चुकी है, जिसकी सफाई वर्षों से आज तक नहीं हुई.यदि एक मोटा अनुमान भी लगाया जाए तो पता चलता है कि पिछले बीस वर्ष में गंभीर बाँध में गाद की एक खासी मोटी परत जमा हो गई है, जिसके कारण बाँध की वास्तविक क्षमता बेहद घट चुकी है, लेकिन अधिकारी और प्रशासन उसी पुराने स्केल पर मीटर की गहराई नाप रहा है जो बरसों पहले दीवार पर पेंट की गई है. कहने का तात्पर्य यह है कि जिस बाँध की क्षमता 2250बताई जा रही है वह शायद 1500 या उससे भी कम रह गई हो, अन्यथा सितम्बर से लेकर जुलाई तक सिर्फ 270दिनों में ही, हर साल बाँध का पानी खत्म क्यों हो जाता है? अतः मेरा दूसरा सुझाव यह है कि देश के सभी बाँधों में जमा गाद की गर्मियों में नियमित सफाई की जाए. गर्मियों के दिनों में जब बाँधों का पानी लगभग खत्म हो चुका होता है, उसी समय आठ दिनों के सामाजिक श्रमदान एवं प्रशासनिक सहयोग तथा आधुनिक उपकरणों के जरिये बाँधों को गहरा किया जाना चाहिए. यह पता लगाया जाना चाहिए कि बाँध की वास्तविक क्षमता क्या है?
(प्रस्तुत चित्र 2007 के जलसंकट के समय का है, साफ़ देखा जा सकता है कि बाँध की तलहटी में कितनी गाद जम चुकी है, जिसके कारण इसकी भराव क्षमता कम हुई है).
तीसरी एक और महत्त्वपूर्ण बात यह है, कि बढ़ते शहरीकरण के कारण बाँध के पानी के उपयोग की प्राथमिकताओं में कलह होने लगा है. यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि बाँध का पानी सिंचाई के लिए है या पेयजल के लिए, अर्थात शहरी और ग्रामीण हितों का टकराव न होने पाए. अक्सर देखा गया है कि समृद्ध किसान नवंबर से फरवरी के दौरान अपनी फसलों के लिए बाँधों से पानी चोरी करते हैं. इसे रोका जाना चाहिए. इस पर रोक लगाने के लिए सिर्फ प्रशासनिक अमला काफी नहीं है, राजनैतिक इच्छाशक्ति भी जरूरी है, क्योंकि जैसा मैंने पहले कहा किसान एक बड़ा वोट बैंक है.
अंत में संक्षेप में सिर्फ तीन बिंदुओं में कहा जाए तो – १) शहरों में रोजाना जलप्रदाय की कतई आवश्यकता नहीं है, एक दिन छोड़कर जलप्रदाय किया जाना चाहिए... २) गर्मियों के दिनों में बाँधों की तलछट में जमा हुई गाद की नियमित सफाई होनी चाहिए, ताकि बाँध गहरा हो सके और उसकी क्षमता बढे... और ३) बाँध से पानी की चोरी रोकना जरूरी है, यह सुनिश्चित हो कि पानी का उपयोग पेयजल हेतु ही हो, ना कि सिंचाई के लिए.... यदि सभी शहरों में इन तीनों बिंदुओं पर थोड़ा भी ध्यान दिया जाएगा, तो मुझे विश्वास है कि “जल-संचय” एवं “जल-बचत” के माध्यम से भी हम काफी कुछ जल संरक्षण का लक्ष्य हासिल कर सकेंगे. मैं इस मीडिया चौपाल के माध्यम से अपने समस्त पत्रकार मित्रों एवं मीडिया समूहों से आव्हान करना चाहता हूँ कि सभी बड़े नगरों में इन तीन बिंदुओं पर अवश्य विचार किया जाए. इसमें मीडिया का दबाव कारगर होता है, और स्वाभाविक है कि जब हम कहते हैं कि “जल ही जीवन है”, तो अपने जीवन हेतु हमें सम्मिलित प्रयास करने ही होंगे... भूजल संरक्षण के साथ ही जो जल भण्डार हमें वर्षाकाल में उपलब्ध होते हैं उस पानी की बचत और समुचित प्रबंधकीय संचय करना भी जरूरी है.
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---____ :- सुरेश चिपलूणकर, उज्जैन