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Channel: महाजाल पर सुरेश चिपलूनकर (Suresh Chiplunkar)
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Honour from Pravakta Portal...

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प्रवक्ता  पोर्टल की ओर से सम्मान... 

प्रवक्ता ने मुझ जैसे "आम आदमी" (बिना टोपी वाले) को लेखक के रूप में सम्मानित किया है यह खुशी की बात है. न तो मैंने कभी पत्रकारिता का कोई कोर्स किया, न किसी अखबार या चैनल में काम किया, न ही मैं पत्रकारिता की परम्परागत भाषा को लिखने में सिद्धहस्त हूँ और न ही मैं दिमाग से लिखता हूँ...

इसके बावजूद सिर्फ "मन"की बात को बेतरतीब और औघड़ पद्धति से लिखने वाले मेरे जैसे व्यक्ति को यदि श्री नरेश भारतीय, श्री राहुल देव, श्री उपासनी जैसे व्यक्तियों के साथ खड़े होने का मौका मिला तो निश्चित ही मैं इसके लिए "न्यू मीडिया"को धन्यवाद का पात्र मानता हूँ... यदि सोशल मीडिया न होता, या मैं इसमें न आया होता, तो संभवतः "संपादकों"की हिटलरशाही तथा राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रति "वैचारिक छुआछूत"एवं "गैंगबाजी"का शिकार हो गया होता... 




"प्रवक्ता"पोर्टल की ओर से सम्मान मिला... सभी का आभार व्यक्त करता हूँ.
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एक बार पुनः भाई संजीव सिन्हा, भारत भूषण जी का आभार, तथा मेरा लिखा हुआ पसंद करने वालों का दिल से धन्यवाद... दिल्ली के इस"अति-संक्षिप्त प्रवास"के दौरान भेंट हुए सभी आत्मीय मित्रों का भी धन्यवाद. 



प्रवक्ता सम्मान ग्रहण करने इंदौर-चंडीगढ़ Holiday स्पेशल ट्रेन से दिल्ली गया था. जाते समय तीन घंटे लेट (सिर्फ दिल्ली तक) और आते समय चार घंटे लेट.. इस प्रकार प्लेटफार्म पर बिताए हुए समय और ट्रेन के सफ़र दोनों को मिलाकर कुल ३२ घंटे भारतीय रेलवे के साथ, और सिर्फ आठ घंटे दिल्ली में बिताए...

भारतीय रेलवे की मेहरबानी से इस लम्बी दूरी की ट्रेन में न तो पेंट्री कार थी और न ही साफ़-सफाई की व्यवस्था. साथ ही यह अलिखित नियम "बोनस"में था कि जो ट्रेन लेट चल रही हो उसे और लेट करते हुए पीछे से आने वाली ट्रेनों को पासिंग व क्रासिंग दिया जाए... इसके अतिरिक्त "दीपावली बोनस"के तौर पर सुविधा यह थी कि आते-जाते दोनों समय B-4 नंबर का एसी कोच रिजर्वेशन होने तथा चार्ट में प्रदर्शित किए जाने के बावजूद शुरू से लगाया ही नहीं गया, ताकि इस कोच के यात्री टीसी के सामने गिडगिडाते रहें. 





अगली बार किसी भी हालीडे स्पेशल ट्रेन में यात्रा करने से पहले तीन बार सोच लेना...

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चित्र में :- दिल्ली से वापसी के समय रात डेढ़-दो बजे तक भाई Saurabh Chatterjeeसाथ बने रहे, उम्दा डिनर भी करवाया. मैंने भी भारतीय रेल की इस "कृपा"(?) का सदुपयोग पराग टोपे लिखित पुस्तक "The Operation Red Lotus"के तीन-चार अध्याय पढने में कर लिया...

Serious Charges and RTI Against UP Cadre IAS Sadakant...

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सूचना बेचने का अभियुक्त यूपी का प्रमुख सचिव सूचना !
(जनहित में प्रकाशित) 

क्या आप यह सोच सकते हैं कि एक ऐसा व्यक्ति जिसके खिलाफ सीबीआई ने देश से  दगाबाजी कर निजी उपक्रमों को संवेदनशील सूचनाएं मुहैया कराकर निजी हित साधने के गंभीर आरोप लगाये हों , जिसके खिलाफ सीबीआई जांच के लिए भारत सरकार ने अनुमति दी हो और सीबीआई की यह जांच वर्ष  2011 से अब तक प्रचलित हो वह व्यक्ति न केबल स्वतंत्र घूम रहा हो बल्कि  प्रदेश सरकार में तीन- तीन विभागों के  प्रमुख सचिव  का पद भी धारित कर नीली  बत्ती की सुविधाओं का उपभोग रहा हो ? अगर आप उत्तर प्रदेश में हैं तो  आप ऐसा बिलकुल सोच सकते हैं l ऐसा ही एक  चौंकाने बाला खुलासा सामाजिक कार्यकर्ता उर्वशी शर्मा की एक आरटीआई से हुआ है l

गौरतलब है कि मूल रूप से उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के निवासी यूपी कैडर के सीनियर आईएएस सदाकांत पर गृह मंत्रालय में ज्वाइंट सेक्रेट्री के रूप में कार्य करते हुए निजी कंपनियों को संवेदनशील सूचनाएं मुहैया कराकर भ्रष्टाचार करने के आरोप लगे थे l आरोप था  कि सदा कांत निहित स्वार्थसिद्धि हेतु नेशनल प्रोजेक्ट कंस्ट्रक्शन कॉर्पोरेशन के एक प्रोजेक्ट में  प्राइवेट कंपनी को गोपनीय जानकारियाँ मुहैया करा रहे थे l
 गृह मंत्रालय ने इस मामले में सदाकांत से पूछताछ के लिए सीबीआई को मंजूरी देते हुए उन्हें वापस उनके कैडर में भेज दिया था ।



सदाकांत 2007 में पांच साल के लिए केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर गए  थे और केंद्र में उनका कार्यकाल 2012 तक था लेकिन भ्रष्टाचार के आरोप लगने के बाद सीबीआई द्वारा सदाकांत के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज किये
जाने के बाद  पांच साल का कार्यकाल पूरा होने से पहले ही सदाकांत  को वापस उनके कैडर में भेज दिया गया था ।


लखनऊ निवासी सामाजिक कार्यकत्री उर्वशी शर्मा ने बीते सितम्बर में भारत  सरकार के गृह मंत्रालय से सदाकांत के कथित भ्रष्टाचार,देश के साथ दगाबाजी कर गोपनीय सूचनाएँ लीक करने,प्राइवेट कंपनी के साथ किये गए कथित करार एवं गृह मंत्रालय द्वारा सदाकांत को उनके मूल कैडर में बापस भेजने संबंधी फाइलों की फोटो कॉपी और पत्राचार की कॉपी माँगी थी l

गृह विभाग ने सदाकांत को उनके मूल कैडर में बापस भेजने संबंधी पत्र  दिनांक 20-05-11 की छायाप्रति  उर्वशी को उपलब्ध करा दी है l गृह मंत्रालय की निदेशक एवं केंद्रीय जन सूचना अधिकारी श्यामला मोहन ने  अन्य चार बिन्दुओं पर सदाकांत के कथित भ्रष्टाचार,देश के साथ दगाबाजी कर गोपनीय सूचनाएँ लीक करने,प्राइवेट कंपनी के साथ किये गए कथित करार गृह मंत्रालय द्वारा सदाकांत को उनके मूल कैडर में बापस भेजने संबंधी फाइलों की फोटो कॉपी इत्यादि देने के सम्बन्ध में अधिनियम की धारा 8(1)(h) के
सन्दर्भ से उर्वशी को सूचित किया है कि ये सूचना देने से सदाकांत के विरुद्ध चल रही जांच की प्रक्रिया वाधित हो सकती है और सूचना देने से मना कर दिया है l आरटीआई अधिनियम की धारा 8(1)(h) के अंतर्गत ऐसी सूचना देने से छूट है जिसके दिए जाने से अपराधियों के अन्वेषण,पकडे जाने या अभियोजन की प्रक्रिया में अड़चन पड़ेगी l

उर्वशी कहती हैं कि गृह विभाग के पत्र से स्पस्ट है कि भारत सरकार का गृह  विभाग आज भी यह मान रहा है कि उनके द्वारा चाही गयी  सूचना दिए जाने से सदाकांत के विरुद्ध चल रहे अभियोजन की प्रक्रिया में अड़चन पड़ेगी यानी भारत सरकार के अनुसार सदाकांत आज भी CBI  द्वारा दायर केस में  अभियुक्त हैं l

उर्वशी ने अपनी इस आरटीआई  के आधार पर उत्तर प्रदेश सरकार की कार्य प्रणाली की शुचिता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए प्रदेश सरकार को पत्र लिखकर सदाकांत को तत्काल निलंबित करने का आग्रह किया है l  सूबे के मुखिया अखिलेश और अन्य  को  भेजे अपने पत्र में उर्वशी ने लिखा है कि यह विडंवना ही है कि प्रदेश सरकार भ्रष्टाचारियो पर इस प्रकार की विशेष कृपा दृष्टि बनाये हुए है कि भारत सरकार का अभियुक्त IAS उत्तर प्रदेश सरकार में तीन-तीन विभागों का प्रमुख बना बैठा है l अपने पत्र में उर्वशी ने भारत सरकार में रहते हुए निजी कंपनियों से सांठ-गाँठ कर भ्रष्टाचार के सीबीआई के आरोपी को उत्तर प्रदेश में आवास एवं शहरी नियोजन विभाग देने और भारत सरकार की गोपनीय सूचना दिए जाने बाले सदाकांत को सूचना विभाग का प्रमुख सचिव बनाये जाने को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए मिड डे मील की गिरती गुणवत्ता का ठीकरा भी बाल विकास एवं पुष्टाहार के प्रमुख सचिव सदाकांत के सर फोड़ा है.... 

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नोट :- समस्त जानकारियाँ एवं तथ्य उर्वशी शर्मा के ई-मेल से प्राप्त हुई हैं, जनहित में इसे मेरे ब्लॉग पर स्थान दिया गयाहै...

Hindu Saints on Target - Conspiracy of Church and Secularists

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सिर्फ हिन्दू संत ही निशाने पर क्यों??...

प्राचीनकाल में राजघराने हुआ करते थे, ज़ाहिर है उन राजघरानों के कई काले कारनामे भी हुआ करते थे. उन राजघरानों की परम्परा के अनुसार एक परिवारही जनता पर अनंतकाल तक शासन किया करता था. जब कभी इन राजघरानों अथवा उनके अत्याचारों के खिलाफ किसी ने आवाज़ उठाई या तो उसे दीवार में चुनवा दिया जाता था, अथवा हाथी के पैरों तले रौंद दिया जाता था.... आज चाहे ज़माना थोड़ा बदल क्यों न गया हो, लेकिनराजघरानोंकी मानसिकता अभी भी वही है, आधुनिक कालखंड में बदलाव सिर्फ इतना आया है किअब विरोधियों को जान से मारने की आवश्यकता कम ही पड़ती है,  उन से निपटने और निपटानेके नए-नए तरीके ईजाद हो गए हैं.

सारी दुनिया में यह बात मशहूर है किचर्चसंस्था (या जिसे हम मिशनरीकहें, एक ही बात है), अपने विरोधियों को खत्म करने के लिए षडयंत्र और चालबाजियाँ करने में माहिर है.चर्च के गुर्गे” (जो पूरी दुनिया में फैले हुए हैं) अपने लक्ष्यके रास्ते में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को येन-केन-प्रकारेण समाप्त करने में विश्वास रखते हैं. वेटिकन को अपना धर्मांतरण मिशनजारी रखने के लिए निर्बाध रास्ता चाहिए होता है, साथ ही चर्च दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता हैवाले सिद्धांत पर काम करते हुए उस प्रत्येक संस्था से गाहे-बगाहे हाथ मिलाता, सहयोग करता चलता है जो उसके उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक होते हैं, फिर चाहे वे नक्सली हों या बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ...

जैसा कि सभी जानते हैं, शंकराचार्य को हिन्दू धर्म में एक उच्च स्थान प्राप्त होता है. शंकराचार्य की पदवी कोई साधारण पदवी नहीं होती, और हिंदुओं के मन में उनके प्रति आदर-सम्मान से अधिक श्रद्धाभाव होता है. लेकिन जब शंकराचार्य जैसे ज्ञानी और संत व्यक्ति को कोई सरकार सिर्फ आरोपों के आधार पर बिना किसी जाँच के, आधी रात को आश्रम से उठाकर जेल में ठूँस दे तो आम हिन्दू को कैसा महसूस होगा?तमिलनाडु में कांची कामकोटि के शंकराचार्य के साथ यही किया गया था. बगैर कोई मौका या सफाई दिए ही शंकराचार्य जैसी हस्ती को एक मामूली जेबकतरे की तरह उठाकर जेल में बंद कर दिया जाता है...


कटटू सीन २– उड़ीसा के घने जंगलों में मिशनरी की संदिग्ध और धर्मांतरण की गतिविधियों के खिलाफ जोरदार अभियान चलाने वाले तथा आदिवासियों को चर्च के चंगुल में जाने से बचाने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या हो जाती है. हालाँकि हत्या होने से पहले स्वामी जी लगातार कई बार उनको मिली हुई धमकियों के बारे में प्रशासन को बताते हैं, लेकिन सरकार कोई ध्यान नहीं देती... कुछ नकाबपोश आधी रात को आते हैं और एक ८२ वर्षीय वयोवृद्ध संन्यासी को गोली मारकर चलते बनते हैं...

कटटू सीन ३– कर्नाटक में सनातन धर्म की अलख जगाए रखने तथा चर्च/मिशनरी के बढ़ते क़दमों को थामने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले ओजस्वी युवा संत नित्यानंद सरस्वती को एक अभिनेत्री के साथ अंतरंग दृश्यों का वीडियो लीककिया जाता है. तत्काल भारत का सेकुलर मीडिया उछल-उछलकर नित्यानंद सरस्वती के खिलाफ एक सुनियोजित अभियान चलाने लगता है.TRPका भूखा, और सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा फेंकी हुई हड्डी चबाने में माहिर यह मीडिया अपना काम(???) बखूबी अंजाम देता है. नित्यानंद सरस्वती को जमकर बदनाम किया जाता है...


कटटू सीन ४– दिल्ली का रामलीला मैदान, सैकड़ों स्त्री-पुरुष-वृद्ध-बच्चे आधी रात को थक-हारकर सोए हुए हैं. अचानक दिल्ली पुलिस उन पर लाठियाँ और आँसू गैस के साथ टूट पड़ती है. बाबा रामदेव को गिरफ्तार कर लिया जाता है. उनके विश्वस्त सहयोगी बालकृष्ण के खिलाफ ढेर सारे मामले दर्ज कर लिए जाते हैं. यहाँ भी मीडिया अपनी दल्लात्मकभूमिका बखूबी निभाता है. यह मीडिया खुद ही केस चलाता है, और स्वयं ही  ही फैसला भी सुना देता है. बालकृष्ण और बाबा रामदेव के खिलाफ एक भी ठोस मामला सामने नहीं आने, किसी भी थाने में मजबूत केस तक न होने और न्यायालय में कहीं भी न टिकने के बावजूद बाबा रामदेव को ठग, चोर, मिलावटी, भगोड़ाइत्यादि से विभूषित किया जाता है.

आसाराम का मामला हो चाहे साध्वी प्रज्ञा का मामला हो...ऐसे और भी कई मामले हैं, लेकिन एक पैटर्नदिखाने के लिए सिर्फ उपरोक्त चारों मामले ही पर्याप्त हैं... आईये देखते हैं कि आखिर यह पैटर्न क्या है???

जैसा कि मैंने पहले बताया, सनातन धर्म में दक्षिण स्थित कांची कामकोटि का पीठ सबसे महत्त्वपूर्ण केन्द्र रहा है. कांची के शंकराचार्य हिन्दू धर्म के प्रचार-प्रसार एवं अध्ययन-पठन हेतु कई केन्द्र चलाते हैं. तमिलनाडु में ब्राह्मण विरोधीया कहें कि द्रविड़ राजनीति की जड़ें बहुत गहरी हैं. इसी प्रकार दक्षिण में चर्च की गतिविधियाँ भी बेहद तेजी से बढ़ी हैं और लगातार अपने पैर पसार रही हैं. चाहे करूणानिधि द्वारा भगवान राम के अस्तित्त्व को नकारना हो अथवा अन्य तमिल पार्टियों द्वारा रामसेतु को तोड़ने में भारी दिलचस्पी दिखाना हो, सभी हिन्दू विरोधी मामलों में द्रविड़ पार्टियाँ खासी सक्रिय रहती हैं. ऐसे में कांची पीठ के सबसे सम्मानित शंकराचार्य को हत्या के मामले में फँसाना, (और न सिर्फ फँसाना, बल्कि ऐसी व्यवस्थाकरना कि उन्हें कम से कम एक रात तो जेल में काटनी ही पड़े) चर्च के लिए बहुत लाभकारी, लेकिन सनातन धर्म के अनुयायियों के लिए बड़ा झटका ही था. उपरोक्त सभी घटनाओं का मकसद यह था कि किसी भी तरह से हिंदुओं की धार्मिक भावनाएँ आहत हों, उनका अपमान हो, उनमें न्यूनता का अहसास करवाया जाए, ताकि धर्मांतरण के आड़े आने वाले (या भविष्य में आ सकने वाले) लोगों को सबक मिले.

दूसरी घटना के बारे में भी तथ्य यह हैं कि - नक्सली कमाण्डर पांडा ने एक उड़िया टीवी चैनल को दी गई भेंटवार्ता में दावा किया कि स्वामी लक्ष्मणानन्द को उन्होंने ही मारा है। पांडा का कहना था कि चूंकि लक्ष्मणानन्द सामाजिक अशांति(???) फ़ैला रहे थे, इसलिये उन्हें खत्म करना आवश्यक था। जिस प्रकार त्रिपुरा में NFLT नाम का उग्रवादी संगठन बैप्टिस्ट चर्च से खुलेआम पैसा और हथियार पाता है, उसी प्रकार अब यह साफ़ हो गया है कि उड़ीसा और देश के दूरदराज में स्थित अन्य आदिवासी इलाकों में नक्सलियों और चर्च के बीच एक मजबूत गठबंधन बन गया है, वरना क्या कारण है कि इन इलाकों में काम करने वाली मिशनरी संस्थाओं को तो नक्सली कोई नुकसान नहीं पहुँचाते, लेकिन गरीब और मजबूर आदिवासियों को नक्सली अपना निशाना बनाते रहते हैं? थोड़ा कुरेदने पर पांडा ने स्वीकार किया कि नक्सलियों के उड़ीसा स्थित कैडर में ईसाई युवकों की संख्या ज्यादा है, उन्होंने माना कि उनके संगठन में ईसाई लोग बहुमत में हैं, उड़ीसा के रायगड़ा, गजपति, और कंधमाल में काम कर रहे लगभग सभी नक्सली ईसाई हैं।

अब स्वामी नित्यानंद वाले मामले पर आते हैं – दक्षिण के एक चैनल ने सबसे पहले इस स्टोरी(??) को दिखाया था. नित्यानंद को जमकर बदनाम किया गया, तरह-तरह के आरोप लगाए गए, अभिनेत्री रंजीता को भी इसमें लपेटा गया. मीडिया ट्रायलकर-करके इस मामले में हिन्दू धर्म, भगवा वस्त्रों इत्यादि को भी जमकर कोसा गया. जैसे-जैसे मामला आगे बढ़ा पता चला कि पुलिस और चैनलों को नित्यानंद की सीडी देकर आरोप लगाने वाला व्यक्ति कुरुप्पन लेनिन एक धर्म-परिवर्तित ईसाई है और यह व्यक्ति पहले एक फ़िल्म स्टूडियो में काम कर चुका है तथा "वीडियो मॉर्फ़िंग"में एक्सपर्ट है जब अमेरिकी लैबोरेट्री में उस वीडियो की जाँच हुई तो यह सिद्ध हुआ कि वह वीडियो नकली था, गढा गया था. प्रणव जेम्सरॉय के चैनल NDTV ने सबसे पहले नित्यानन्द स्वामी के साथ नरेन्द्र मोदी की तस्वीरें दिखाईं और चिल्ला-चिल्लाकर नरेन्द्र मोदी को इस मामले में लपेटने की कोशिश की (गुजरात के दो-दो चुनावों में बुरी तरह से जूते खाने के बाद NDTV और उसके चमचों के पास अब यही एक रास्ता रह गया है मोदी को पछाड़ने के लिये)। लेकिन जैसे ही अगले दिन से ट्विटरपर स्वामी नित्यानन्द की तस्वीरें गाँधी परिवार के चहेते एसएम कृष्णा और एपीजे अब्दुल कलाम के साथ भी दिखाई दीं, तुरन्त NDTV का मोदी विरोधी सुर धीमा पड़ गया. यहाँ तक कि नित्यानन्द के स्टिंग ऑपरेशन मामले को सही ठहराने के लिये NDTV ने नारायणदत्त तिवारी वाले मामले का सहारा भी लिया तथा दोनों को एक ही पलड़े पर रखने की कोशिश की। जबकि वस्तुतः एनडी तिवारी एक संवैधानिक पद पर थे, उन्होंने राजभवन और अपने पद का दुरुपयोग किया और तो और होली के दिन भी वह लड़कियों से घिरे नृत्य कर रहे थे। जबकि नित्यानन्द तथाकथित रूप से जो भी कर रहे थे अपने आश्रम के बेडरूम में कर रहे थे, बगैर किसी प्रलोभन या दबाव के, इसलिये इन दोनों मामलों की तुलना तो हो ही नहीं सकती। परन्तु जब दो-दो “C”अर्थात चर्च और चैनल आपस में मिले हुए हों तो किसी को बदनाम करना इनके बाँए हाथ का खेल है.


5-M (अर्थात मार्क्स, मुल्ला, मिशनरी, मैकालेऔरमार्केट) के हाथों बिके हुए भारतीय मीडिया ने स्वामी नित्यानन्द की सीडी सामने आते ही तड़ से उन्हें अपराधी घोषित कर दिया है, ठीक उसी तरह जिस तरह कभी संजय जोशी और संघ को किया था (हालांकि बाद में उनकी सीडी भी फ़र्जी पाई गई), या जिस तरह से  कांची के वयोवृद्ध शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती को तमिलनाडु की सरकार ने गिरफ़्तार करके सरेआम बेइज्जत किया था। अर्थात जब भी कोई हिन्दू आईकॉनकिसी भी सच्चे-झूठे मामले में फ़ँसे तो मीडिया उन्हें अपराधीघोषित करने में देर नहीं करता और इस समय किसी मानवाधिकारवादी के आगे-पीछे कहीं से भी कानून अपना काम करेगा…” वाला सुर नहीं निकलता। यही हाल मीडिया का भी है, जब हिन्दू संतों को बदनाम करना होगा, खुद की टीआरपी बढानी होगी उस समय तो चीख-चीखकर उनके एंकर टीवी का पर्दा फाड़ देंगे, लेकिन जब वही संत अदालतों द्वारा बेदाग़ बरी कर दिए जाते हैं उस समय यही अखबार और चैनल अपने मुँह में दही जमाकर बैठ जाते हैं. माफीनामा भी पेश करते हैं तो चुपके-चुपके अथवा अखबार के आख़िरी पन्ने पर किसी कोने में.... नित्यानंद की सेक्स सीडी फर्जी पाए जाने पर कोर्ट ने मीडिया को जमकर लताड़ लगाई थी, उनसे माफीनामा भी दिलवाया गया, परन्तु ये भेडियेइतनी आसानी से सुधरने वाले नहीं हैं, क्योंकि इनके सिर पर चर्चऔर सरकार (शायद एक ही बात है) का हाथ है.

अब आते हैं बाबा रामदेव के मामले पर – जिस दिन तक बाबा रामदेव सिर्फ योग सिखाते थे, उस दिन तक तो बाबा रामदेव एकदम पवित्र थे, बाबा के आश्रम में सभी पार्टियों के नेता आते रहे, रामदेव बाबा से योग सीखने-सिखाने का दौर चलता रहा. दो साल पहले जैसे ही बाबा रामदेव ने इस देश के सबसे पवित्र परिवार (अर्थात गाँधी परिवार) और काँग्रेस पर उँगली उठाना शुरू किया उसी दिन से सत्ता के गलियारेमें बैठे हुए अजगर अचानक जागृत हो गए.काले धन को वापस लाने की माँग इन अजगरों को इतनी नागवार गुज़री कि इन्होंने बाबा रामदेव के पीछे देश की सभी एजेंसियाँ लगा डालीं. बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ तो बाबा रामदेव से पहले ही खार खाए बैठी थीं, क्योंकि बाबा रामदेव की वजह से कोक-पेप्सी सहित अन्य कई नकली पदार्थों की बिक्री भी प्रभावित हुई तथा उनकी गढी हुई छविभी खराब हुई. सत्ता के अजगर और निहित स्वार्थों से भरी खून चूसक कंपनियों ने बाबा रामदेव के खिलाफ शिकंजा कसना आरम्भ कर दिया जो आज दिनांक तक जारी है.

धर्मांतरण करवाने वाले चर्चऔर मीडिया की सांठगांठ इतनी मजबूत है कि - जैसे ही मीडिया में आया कि मालेगाँव धमाके में पाई गई मोटरसाईकिल भगवाधारी हिन्दू साध्वी प्रज्ञा की थी (जो काफ़ी पहले उन्होंने बेच दी थी), कि तड़ से हिन्दू आतंकवादनामक शब्द गढ़कर हिन्दुओं पर हमले शुरु। भले ही जेल में टुंडा, मदनी और रियाज़ भटकल ऐश कर रहे हों, लेकिन साध्वी प्रज्ञा को अण्डे खिलाने की कोशिश या गन्दी-गन्दी गालियाँ देना होमहिला आयोग, सारे के सारे फर्जी नारीवादी संगठन सब कहीं दुबक कर बैठ जाते हैं, क्योंकि मीडिया ने तो पहले ही उन्हें अपराधी घोषित कर दिया है। इस नापाक गठबंधन की पोल इस बात से भी खुल जाती है कि आज तक भारत के कितने अखबारों और चैनलों ने वेटिकन और अन्य पश्चिमी देशों में चर्च की आड़ में चल रहे देह शोषण के मामलों को उजागर किया है? चलिये वेटिकन को छोड़िये, जैसा कि ऊपर आँकड़े दिए गए हैं, केरल में ही हत्या-बलात्कार-अपहरण के सैकड़ों मामले सामने आ चुके हैं यह कितने लोगों को पता हैऔर पश्चिम में चर्च तो इतनी तरक्की कर चुका है, कि उधर सिर्फ़ महिलाओं के ही साथ यौन शोषण नहीं होता बल्कि पुरुषों के साथ भी गे-सेक्सके मामले सामने आ रहे हैंइस लिंक पर द गार्जियन की खबर पढ़िये 

http://www.guardian.co.uk/world/2010/mar/04/vatican-gay-sex-scandal 

सरकारी आँकड़ों के मुताबिक भारत में मिशनरी संस्थाओं का सबसे अधिक ज़मीन पर कब्जा है, लेकिन आसाराम की जमीन को लेकर कोहर्रममचाने वाले मीडिया ने कभी हल्ला मचाया? माओवादियों और नक्सलवादियों के कैम्पों में महिला कैडर के साथ यौन शोषण और कण्डोम मिलने की खबरें कितने चैनल दिखाते हैं? लेकिन चूंकि हिन्दू धर्मगुरु के आश्रम में हादसा हुआ है तो मीडिया ऐसे सवालों को सुविधानुसार भुला देता है, और कोशिश की जाती है कि येन-केन-प्रकारेण नरेन्द्र मोदी या संघ या भाजपा का नाम इसमें जोड़ दिया जाये, अथवाकहीं कुछ नहीं मिले तो हिन्दू संस्कृति-परम्पराओं को ही गरिया दिया जाये।

सूचना के अधिकार से प्राप्त जानकारी के अनुसार केरल में 63 पादरियों पर मर्डर, बलात्कार, अवैध वसूली और हथियार रखने के मामले विभिन्न पुलिस थानों में दर्ज हैं। केरल पुलिस द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार पिछले सात वर्षों में दो पादरियों को हत्या के जुर्म में सजा मिल चुकी है, जबकि दस अन्य को हत्या के प्रयासकी धाराओं में चार्जशीट किया गया है। कम्युनिस्टों का नक्सली कैडरऔरचर्च दोनों मिलकर एक घातक कॉम्बिनेशनबनाते हैं। हालाँकि इसके लिये काफ़ी हद तक हमारे आस्तीन में पल रहे नकली सेकुलरभी जिम्मेदार हैं। इस देश में जो भी व्यक्ति चर्च, चर्च के गुर्गोंअथवा पवित्र परिवारके खिलाफ कोई भी अभियान अथवा आंदोलन चलाएगा उसका यही हश्र होगा. स्वाभाविक है कि देश की दुर्दशा को देखते हुए हिन्दू संत अब धीरे-धीरे मुखर होने लगे हैं, इसलिए इन पर गाज गिरने लगी है. हिन्दू संतों के खिलाफ लगातार जारी इस दुष्प्रचार और दोगलेपन को समय-समय पर प्रकाशित और प्रचारित किया ही जाना चाहिये, हमें जनता को बताना होगा कि ये लोग किस तरह से पक्षपाती हैं, पक्के हिन्दू-विरोधी हैं। आए दिन सिर्फ और सिर्फहिन्दू संतों के खिलाफ किये जाने वाले षडयंत्र और विभिन्न मामलों में उन्हें बदनाम करके फँसाने व उनसे बदले की कार्रवाईयाँ एक बड़े खेलकी ओर इशारा करती हैं...  

MP Assembly Elections 2013 - An Overview and Assessment

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विधानसभा चुनाव २०१३ – मध्यप्रदेश का राजनैतिक परिदृश्य और विश्लेषण...

अन्य चार राज्यों के साथ ही मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों की रणभेरी बज चुकी है, और सेनाएँ अपने-अपने अश्वों-हाथियों और प्यादोंके साथ इलाके में कूच कर चुकी हैं. अमूमन राज्यों के चुनाव देश के लिए अधिक मायने नहीं रखते, परन्तु यह विधानसभा चुनाव इसलिए महत्त्वपूर्ण हो गए हैं क्योंकि सिर्फ छह माह बाद ही देश के इतिहास में सबसे अधिक संघर्षपूर्ण लोकसभा चुनाव होने जा रहे हैं, तथा भाजपा द्वारा नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने के बाद यह पहले विधानसभा चुनाव हैं... ज़ाहिर है कि सिर्फ भाजपा ही नहीं नरेंद्र मोदी का भी बहुत कुछ इन विधानसभा चुनावों में दाँव पर लगा है. यदि भाजपा इन पांच में से तीन राज्यों में भी अपनी सरकार बना लेती है, तो पार्टी के अंदर नरेंद्र मोदी का विरोध लगभग खत्म हो जाएगा,और यदि भाजपा सिर्फ मप्र-छग में ही दुबारा सत्ता में वापस आती है तो यह माना जाएगा कि मतदाताओं के मन में मोदी का जादू अभी शुरू नहीं हो सका है. बहरहाल, राष्ट्रीय परिदृश्य को हम बाद में देखेंगे, फिलहाल नज़र डालते हैं मध्यप्रदेश पर.

मप्र में वर्तमान विधानसभा चुनाव इस बार बिना किसी लहर अथवा बिना किसी बड़े मुद्दे के होने जा रहे हैं. २००३ के चुनावों में जनता के अंदर दिग्विजय सिंह के कुशासन विरोधीलहर चल रही थी, जबकि २००८ के चुनावों में भाजपा ने उमा भारती विवाद, बाबूलाल गौर के असफल और बेढब प्रयोग के बाद शिवराज सिंह चौहान जैसे युवा और फ्रेशचेहरे को मैदान में उतारा था. मप्र के लोगों के मन में दिग्गी राजा के अंधियारे शासनकाल का खौफ इतना था कि उन्होंने भाजपा को दूसरी बार मौका देना उचित समझा. देखते-देखते भाजपा शासन के दस वर्ष बीत गए और २०१३ आन खड़ा हुआ है. पिछले दस वर्ष से मप्र-छग-गुजरात में लगातार चुनाव हार रही कांग्रेस के सामने इस बार बहुत बड़ी चुनौती है, क्योंकि अक्सर देखा गया है कि जिन राज्यों में कांग्रेस तीन-तीन चुनाव लगातार हार जाती है, वहाँ से वह एकदम साफ़ हो जाती है – तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, उत्तरप्रदेश, गुजरात और बिहार जैसे जीवंत उदाहरण मौजूद हैं, जहां अब कांग्रेस का कोई नामलेवा नहीं बचा है. स्वाभाविक है कि मप्र-छग में कांग्रेस अधिक चिंतित है, खासकर छत्तीसगढ़ में, जहां कांग्रेस का समूचा नेतृत्व ही नक्सली हमले में मारा गया.


मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस ने शुरुआत में हालांकि एकता रैलीके नाम से प्रदेश के सारे क्षत्रपों को एक मंच पर इकठ्ठा करके, सबके हाथ में हाथ मिलाकर ऊँचा करने की नौटंकी करवाई, लेकिन जैसे-जैसे टिकट वितरण की घड़ी पास आती गई मध्यप्रदेश कांग्रेस के नेताओं का पुराना अनेकताराग शुरू हो गया. सबसे पहली तकलीफ हुई कांतिलाल भूरिया को (जिन्हें दिग्विजय सिंह का डमी माना जाता है), क्योंकि राहुल गांधी चाहते थे कि शिवराज के मुकाबले प्रदेश में युवा नेतृत्व पेश किया जाए, स्वाभाविक ही राहुल की पहली पसंद बने ज्योतिरादित्य सिंधिया. जब चुनाव से एक साल पहले ही कांग्रेस ने सिंधिया को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करना शुरू कर दिया था, तब लोगों को लगने लगा था कि शायद अब भाजपा को चुनावों में कड़ी टक्कर मिलेगी. लेकिन राहुल के आदेशों को धता बताते हुए धीरे-धीरे पुराने घिसे हुए कांग्रेसियों जैसे कमलनाथ, कांतिलाल भूरिया, सुरेश पचौरी, सत्यव्रत चतुर्वेदी, अजय सिंह इत्यादि ने अपने राग-रंग दिखाना शुरू कर दिए, और आग में घीकहिये या करेला वो भी नीम चढाकहिये,रही-सही कसर दिग्विजय सिंह ने पूरी कर दी. कहने को तो वे राहुल गांधी के गुरु कहे जाते हैं, लेकिन उन्हें भी यह कतई सहन नहीं है कि पिछले पांच साल तक लगातार फील्डिंगकरने वाला उनका स्थानापन्न खिलाड़ी अर्थात कांतिलाल भूरिया अंतिम समय पर बारहवाँ खिलाड़ी बन जाए. इसलिए सिंधिया का नाम घोषित होते ही आदिवासीका राग छेड़ा गया. उधर अपने-अपने इलाके में मजबूत पकड़ रखने वाले नेता जैसे कमलनाथ (छिंदवाडा), अरुण यादव (खरगोन), चतुर्वेदी (बुंदेलखंड), अजय सिंह (रीवा) इत्यादि किसी कीमत पर अपना मैदान छोड़ने को तैयार नहीं थे. सो जमकर रार मचनी थी और वह मची भी. कई स्थापित नेताओं ने पैसा लेकर टिकट बेचने के आरोप खुल्लमखुल्ला लगाए, सुरेश पचौरी को विधानसभा का टिकट थमाकर उन्हें दिल्ली से चलता करने की सफल चालबाजी भी हुई. उज्जैन के सांसद प्रेमचंद गुड्डू ने तो कहर ही बरपा दिया, अपने बेटे को टिकिट दिलवाने के लिए जिस तरह की चालबाजी और षडयंत्र पूर्ण राजनीति दिखाई गई उसने राहुल गाँधी की तथाकथित गाईडलाईनकी धज्जियाँ उड़ा दीं और कांग्रेस में एक नया इतिहास रच दिया. ज्योतिरादित्य सिंधिया की व्यक्तिगत छवि साफ़-सुथरी और ईमानदार की है, लेकिन उनके साथ दिक्कत यह है कि उनका राजसी व्यक्तित्व और व्यवहार उन्हें ग्वालियर क्षेत्र के बाहर आम जनता से जुड़ने में दिक्कत देता है.कांग्रेस में इलाकाई क्षत्रपों की संख्या बहुत ज्यादा है,जैसे कि सिंधिया को महाकौशल में कोई नहीं जानता, तो कमलनाथ को शिवपुरी-चम्बल क्षेत्र में कोई नहीं जानता. इसी प्रकार कांतिलाल भूरिया झाबुआ क्षेत्र के बाहर कभी अपनी पकड़ नहीं बना पाए, तो अजय सिंह को अभी भी अपने पिता अर्जुनसिंह की छायासे बाहर आने में वक्त लगेगा. कहने को तो सभी नेता मंचों और रैलियों में एकता का प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन अंदर ही अंदर उन्हें शंका सताए जा रही है कि मानो बिल्ली के भाग से छींका टूटाऔर कांग्रेस सत्ता के करीब पहुँच गई तो निश्चित रूप से ज्योतिरादित्य का पलड़ा भारी रहेगा, क्योंकि कांग्रेस में मुख्यमंत्री दिल्ली से ही तय होता है और वहाँ सिर्फ सिंधिया और दिग्गी राजा के बीच रस्साकशी होगी, बाकी सब दरकिनार कर दिए जाएंगे, सो जमकर भितरघात जारी है.


अब आते हैं भाजपा की स्थिति पर... बीते पांच-सात वर्षों में शिवराज सिंह चौहान ने मध्यप्रदेश में वाकई काफी काम किए हैं, खासकर सड़कों, स्वास्थ्य, लोकसेवा गारंटी और बालिका शिक्षा के क्षेत्र में. बिजली के क्षेत्र में शिवराज उतना विस्तार नहीं कर पाए, लेकिन किसानों को विभिन्न प्रकार के बोनस के लालीपाप पकड़ाते हुए उन्होंने धीरे-धीरे पंचायत स्तर तक अपनी पकड़ मजबूत की हुई है. स्वयं शिवराज की छवि भी तुलनात्मक रूप सेसाफ़-सुथरी मानी जाती है. कांग्रेस के पास ले-देकर शिवराज के खिलाफ डम्पर घोटाले, जमीन हथियाना और खनन माफिया के साथ मिलीभगत के आरोपों के अलावा और कुछ है नहीं. इन मामलों में भी शिवराज ने बहादुरी(?) दिखाते हुए विपक्ष के आरोपों पर जमकर पलटवार किया है और मानहानि के दावे भी ठोंके हैं. लेकिन इस आपसी चिल्ला-चिल्ली के बीच जनता ने नगर निगम व पंचायत चुनावों में शिवराज को स्वीकार किया है. एक मोटा अनुमान है कि प्रदेश के प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में अकेले शिवराज की छवि के नाम पर तीन से चार प्रतिशत वोट मिलेगा. जैसा कि हमने ऊपर देखा जहां कांग्रेस के सामने आपसी फूट और भीतरघात का खतरा है, कम से कम शिवराज के साथ वैसा कुछ नहीं है. प्रदेश में शिवराज का नेतृत्व, पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व ने पूरी तरह स्वीकार किया हुआ है. ना तो प्रभात झा और ना ही नरेंद्र सिंह तोमर, दोनों ही शिवराज की कुर्सी को चुनौती देने की स्थिति में नहीं हैं. इसके अलावा शिवराज ने किसी भी क्षेत्रीय क्षत्रप को उभरने ही नहीं दिया. इसके अलावा सुषमा स्वराज का वरदहस्त भी शिवराज के माथे है ही, क्योंकि सुषमा को विदिशा से लोकसभा में भिजवाना भी शिवराज की ही कारीगरी थी. अर्थात उनका एकछत्र साम्राज्य है. भाजपा ने भी चतुराई दिखाते हुए शिवराज के कामों का बखान करने की बजाय केन्द्र सरकार के मंत्रियों के बयानों और घोटालों पर अधिक फोकस किया है. कांग्रेस को इसका कोई तोड़ नहीं सूझ रहा. यही हाल कांग्रेस का भी है, उसे शिवराज के खिलाफ कुछ ठोस मुद्दा नहीं मिल रहा, इसलिए वह भाजपा के पुराने कर्म खोद-खोदकर निकालने में जुटी है.

लेकिन मध्यप्रदेश भाजपा के सामने चुनौती दुसरे किस्म की है, और वह है पिछले दस साल की सत्ता के कारण पनपे भ्रष्ट गिरोहऔर मंत्रियों-विधायकों से उनकी सांठगांठ. इस मामले में इंदौर के बाहुबली माने जाने वाले कैलाश विजयवर्गीय की छवि सबसे संदिग्ध है. गत वर्षों में इंदौर का जैसा विकास(??) हुआ है, उसमें विजयवर्गीय ने सभी को दूर हटाकर एकतरफा दाँव खेले हैं. इनके अलावा नरोत्तम मिश्र सहित ११ अन्य मंत्रियों पर भी भ्रष्टाचार के कई आरोप लगते रहे हैं, लेकिन केन्द्र में सत्ता होने के बावजूद कांग्रेस उन्हें कभी भी ठीक से भुना नहीं पाई. अब चूंकि भाजपा ने मध्यप्रदेश में टिकट वितरण के समय शिवराज को फ्री-हैंड दिया था, इसी वजह से जनता की नाराजगी कम करने के लिए शिवराज ने वर्तमान विधायकों में से ४८ विधायकों के टिकिट काटकर उनके स्थान नए युवा चेहरों को मौका दिया है, हालांकि फिर भी किसी मंत्री का टिकट काटने की हिम्मत शिवराज नहीं जुटा पाए, लेकिन उन्होंने जनता में अपनी पकड़का सन्देश जरूर दे दिया. शिवराज के समक्ष दूसरी चुनौती हिंदूवादी संगठनों के आम कार्यकर्ताओं में फ़ैली नाराजगी भी है. धार स्थित भोजशाला के मामले को जिस तरह शिवराज प्रशासन ने हैंडल किया, वह बहुत से लोगों को नाराज़ करने वाला रहा. सरस्वती पूजा को लेकर जैसी राजनीति और कार्रवाई शिवराज प्रशासन ने की, उससे न तो मुसलमान खुश हुए और ना ही हिन्दू संगठन. इसके अलावा हालिया रतनगढ़ हादसा, इंदौर के दंगों में उचित कार्रवाई न करना, खंडवा की जेल से सिमी आतंकवादियों का फरार होना और भोपाल में रजा मुराद के साथ मंच शेयर करते समय मोदी पर की गई टिप्पणी जैसे मामले भी हैं, जो शिवराज पर दागलगाते हैं. इसी प्रकार कई जिलों में संघ द्वारा प्रस्तावित उम्मीदवारों को टिकट नहीं मिला, जिसकी वजह से जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं में नाराजगी बताई जाती है. शिवराज के पक्ष में सबसे बड़ी बात है शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में खुद शिवराज और फिर नरेंद्र मोदी की छवि के सहारे मिलने वाले वोट. ये बात और है कि मप्र में शिवराज ने अपनी पूरी संकल्प यात्रा के दौरान पोस्टरों में नरेंद्र मोदी का चित्र लगाने से परहेज किया है. यह भाजपा की अंदरूनी राजनीति भी हो सकती है, हालांकि शिवराज की खुद की छवि और पकड़ मप्र में इतनी मजबूत है कि उन्हें मोदी के सहारे की जरूरत, कम से कम विधानसभा चुनाव में तो नहीं है. हालांकि नरेंद्र मोदी की प्रदेश में २० चुनावी सभाएं होंगी.


कुल मिलाकर, यदि शिवराज अपने मंत्रियों के भ्रष्टाचार को स्वयं की छवि और योजनाओं के सहारे दबाने-ढंकने में कामयाब हो गए तो आसानी से ११६ सीटों का बहुमत बना ले जाएंगे, लेकिन यदि ग्रामीण स्तर पर भाजपा कार्यकर्ताओं ने कड़ी मेहनत नहीं की, तो मुश्किल भी हो सकती है. जबकि दूसरा पक्ष अर्थात कांग्रेस भी यदि आपसी सिर-फुटव्वल कम कर ले, अपने-अपने इलाके बाँटकर चुनाव लड़े, भाजपा की कमियों को ठीक से भुनाए, तो वह भाजपा को चुनौती भी पेश कर सकती है. हालांकि जनता के बीच जाने और बातचीत करने पर यह चुनाव 60-40का लगता है (अर्थात ६०% भाजपा, ४०% कांग्रेस). यदि कांग्रेस में आपस में जूतमपैजार नहीं हुई तो जोरदार टक्कर होगी. वहीं शिवराज यदि ठीक से डैमेज कंट्रोल मैनेजमेंटकर सके, तो आसानी से नैया पार लगा लेंगे. आम भाजपाई उम्मीद लगाए बैठे हैं कि शिवराज के काँधे पर सवार होकर वे पार निकल जाएंगे, जबकि काँग्रेसी सोच रहे हैं कि शायद पिछले दस साल का एंटी-इनकम्बेंसीफैक्टरकाम कर जाएगा.

आगामी ८ दिसंबर को पता चलेगा कि शिवराज सिंह को मप्र की जनता तीसरा मौका देती है या नहीं? और यदि जनता ने शिवराज को तीसरा मौका दे दिया तो समझिए कि कांग्रेस के लिए यह प्रदेश भी भविष्य में एक दुस्वप्न ही बन जाएगा. जबकि खुद शिवराज का कद पार्टी में बहुत ऊँचा हो जाएगा.

Tarun Tejpal, Secularism, Intellectual and Feminist Gang... Few Random Thoughts

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तरुण तेजपाल, सेक्यूलरिज्म, प्रगतिशील "गैंग"और नारीवादी "गिरोह"... 

मेरे फेसबुक पर कुछ छितरे-बिखरे विचार... 

सेक्यूलर गैंग की सदस्या, और "आज की तारीख में सबसे बड़े नैतिक अखबार"तहलका, की पत्रकार निशा सूसन का "पिंक चड्डी अभियान"तो आपको याद ही होगा ना...??.. मंगलोर के एक पब में दारू पीती और छिछोरी हरकतें करती लडकियों पर हमला करने के जुर्म में वामपंथी-प्रगतिशील गिरोह ने, श्रीराम सेना के बहाने समूचे हिन्दू समाज को बदनाम करने तथा श्रीराम सेना और ABVP को "हिन्दू तालिबान"के नाम से पुकारने का काम किया था...

लेकिन आज यही "गिरोह" (त)हलके तरुण तेजपाल को बचाने के लिए तर्क गढ़ रहा है, उसके जुर्म को हल्का साबित करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहा है... उसे गिरफ्तारी से बचाने के लिए बड़े महँगे वकील लाईन लगाए खड़े हैं..

स्टिंग ऑपरेशन में अपनी इज्जत गँवा चुकी AAP पार्टी की शाजिया भी इसके पक्ष में बोल चुकी हैं... केजरीवाल का तो खैर इतिहास ही नक्सलियों और कश्मीरी अतिवादियों के समर्थन का रहा है... इन "तथाकथित ईमानदारों"ने कभी भी यह मांग नहीं की थी कि स्वामी नित्यानंद की फर्जी सीडी का Raw फुटेज जाँचा जाए... नारीवादी होने का ढोंग रचने वाली"पिंक चड्डी सूसन"ने कभी यह मांग नहीं की थी कि अभिनेत्री रंजीता की निजता और स्वाभिमान का ख्याल रखा जाना चाहिए...

तात्पर्य यह है कि यदि आप सेक्यूलर हैं, वामपंथी हैं, यदि आपने संघ-भाजपा-हिंदुत्व के खिलाफ कुछ काम किया है, तो न सिर्फ आपके बलात्कार-डकैती के जुर्म माफ होंगे, बल्कि आपको बचाने के लिए पूरा गिरोह अपनी ताकत झोंक देगा...

क्या आप अब भी हिंदुत्व के पक्ष में खड़ा होना चाहेंगे??? 

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आपने सिर्फ लड़की का पक्ष सुना है... तरुण तेजपाल को भी उसका पक्ष रखने का मौका देना चाहिए... - शोमा चौधरी
- (लेकिन यह नियम किसी भी हिन्दू संत पर लागू नहीं होगा)

एक से बढ़कर एक "सेकुलर", इस छिछोरे तेजपाल के बचाव में फूहड़ और बचकाने तर्क लेकर आ रहे हैं... वाकई... यदि किसी "पत्रकार"(??) या "पुलिस अधिकारी"(??) ने भाजपा और मोदी के खिलाफ बहुत काम किया हो, तो उसे बलात्कार और डकैती की छूट मिल जाती है... उसके बचाव में पूरी "गैंग"जाती है....

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खैर... देखते हैं कि आखिर इसकी गिरफ्तारी कब होती है, और कब इसे मच्छरों से भरी हवालात की कोठरी में दस-बारह दिन जमीन पर सुलाया जाता है... 


क्या जूदेव की आत्मा को शान्ति मिली होगी आज?? मित्रों को याद होगा कि मिशनरियों के खिलाफ जबरदस्त आंदोलन चलाने वाले "असली जमीनी योद्धा"को भाजपा ने आजीवन राजनैतिक वनवास दिया था...

और ये "छिछोरा"माफी(??) मांगकर, छः महीने की पिकनिक मनाकर वापस लौटना चाहता है... लानत तो ये कि इसका "सेकुलर समर्थन"करने वाले भी बुद्धिजीवी भी दिखाई दे रहे हैं... शायद इन लोगों की निगाह में "बेटी की सहेली के साथ यौन शोषण"बड़ा मुद्दा नहीं है...

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"तहलका"और "कोबरा पोस्ट"में इस समय कितनी महिला पत्रकार काम करती हैं?? यदि वे अब भी तेजपाल के खिलाफ अपना मुँह नहीं खोलतीं, तो मुझे उनके साथ सहानुभूति है...

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"उच्च आदर्शों"और "नैतिकता"का ढोल पीट-पीटकर मामले की लीपा-पोती करने का आरम्भ तो हो चुका है... देखना बाकी है कि महिला आयोग कब अपना मुँह खोलता है और तेजपाल की गिरफ्तारी कब होती है... 


"परिस्थितियों का गलत आकलन"तो दिल्ली की उस बस में चार दरिंदों ने भी किया था... उन्हें लगा था कि निर्भया और उसका ब्वाय फ्रेंड मर जाएंगे... तेजपाल ने भी "गलत आकलन"किया कि शायद "इतने महान पत्रकार" (हा हा हा हा) के खिलाफ लड़की अपना मुँह नहीं खोलेगी...

उन चारों को फाँसी की सजा (sorry... उनमें से एक "शांतिदूत"था, इसलिए नाबालिग निकल आया) हो गई और ये महाशय "अपने आंतरिक लोकपाल"के जरिये छः महीने की पिकनिक पर... लानत है.

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गोवा पुलिस कहाँ हो तुम??? आओ ना... एक "सफेदपोश"तड़प रहा है तुम्हारी हवालात में आने को...


कोबरा पोस्ट और तहलका के मालिक तरुण तेजपाल तो एके सर से भी महान निकले... एके सर तो अपनी जाँच खुद के बनाए हुए आंतरिक लोकपाल से करवाते हैं, लेकिन तेजपाल ने खुद को छह माह का इस्तीफ़ा देकर "इतनी बड़ी"सजा भी दे डाली... वाह भाई नैतिकता हो तो ऐसी...

देखना तो यह है कि एक लड़की की कथित जासूसी पर, कथित "चिंता"(???) जताने वाले "कथित बुद्धिजीवी"और कथित नारीवादी संगठन(?) अपनी बेटी की उम्र की कन्या के साथ ऐसी हरकत करने वाले तेजपाल के साथ कैसा सलूक करते हैं...
#Tejpal
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जिनके घर शीशे के होते हैं, उन्हें दूसरे घरों पर पत्थर नहीं फेंकना चाहिए और ना ही लाईट जलाकर कपड़े बदलने चाहिए...
 
 
 

Shahzade Rahul Baba and Chaiwala Narendra Modi...

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शहज़ादेकी नींद हराम करता चायवाला...

हत्यारा, रावण”, “हिटलर, मौत का सौदागर, चाण्डाल, नरपिशाच... आप सोच रहे होंगे कि लेख की शुरुआत ऐसे शब्दों से??? लेकिन माफ कीजिए, उक्त शब्द मेरे नहीं हैं, बल्कि कांग्रेस और अन्य सभीतथाकथित सेकुलर, अनुशासित, लोकतांत्रिक(???) पार्टियों के विभिन्न नेताओं द्वारा समय-समय पर कहे गए हैं, और स्वाभाविक है कि ये सभी शब्द सिर्फ उसी व्यक्ति के लिए कहे जा रहे हैं, जिस व्यक्ति ने अकेले लड़ते हुए, सभी बाधाओं को पार करते हुए इन सेकुलर ढकोसलेबाजनेताओं की रीढ़ की हड्डी में कंपकंपी पैदा कर दी है...यानी वन एंड ओनली नरेंद्र मोदी. क्या नरेंद्र मोदी ने कभी अपने भाषणों में ऐसे शब्दों का उपयोग किया है? मुझे तो याद नहीं पड़ता. पिछले छह माह से नरेंद्र मोदी लगातार कांग्रेस पोषित मीडिया और चैनलीय कैमरेबाज नेताओंके लिए हर हफ्ते एक नया अध्याय लेकर आते हैं. सप्ताह, दो सप्ताह तक उस शब्द अथवा विषय पर बहस होती है... उसके बाद अगला अध्याय दिया जाता है ताकि ड्रामेबाज सेकुलर अपनी-अपनी खोल में बहस करते रहें, टाईम पास करते रहें...

नरेंद्र मोदी द्वारा काँग्रेसी और सेकुलरों की इस ट्यूशनकी शुरुआत हुई थी गाड़ी के नीचे आने वाले कुत्ते के पिल्लेसे, उसके बाद सेकुलरिज्म का बुरकाइत्यादि से होते-होते नेहरू-पटेल, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, खूनी पंजा, माँ बीमार हैऔर शहजादेतक यह अनवरत चली आ रही है. नरेंद्र मोदी द्वारा किये गए शब्दों के चयन का मुकाबला न कर पाने की वजह से ही हताशा में ये बुद्धिमान(?) नेता नरेंद्र मोदी को उपरोक्त घटिया शब्दावली से नवाजते हैं, उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर मोदी का मुकाबला कैसे करें?? जिस तेजी से मोदी की लोकप्रियता बढ़ रही है, कांग्रेस के खिलाफ और मोदी के पक्ष में जनता के बीच अंडर-करंटफैलता जा रहा है उसने कांग्रेस सहित अन्य सभी क्षेत्रीय दलों के नेताओं के माथे पर शिकन पैदा कर दी है. आखिर इन नेताओं में नरेंद्र मोदी को लेकर इतनी बेचैनी क्यों है? जवाब सीधा सा है... सत्ता और कुर्सी हाथ से खिसकने का डर;मुस्लिम वोटों का रुझान किस तरफ होगा इस आशंका का डर;गुजरात से बराबरी न कर पाने की वजह से उनके राज्य के युवाओं में फैलने वाली हताशा का डर;उनके राज्यों से गुजरात जाकर पैसा कमाने वाले मोदी के असली ब्राण्ड एम्बेसडरोंका डर;सोशल मीडिया से धीरे-धीरे रिसते हुए जमीन तक पहुँचने वाली मोदी की मार्केटिंग का डर...

एक तरफ खुद काँग्रेस के भीतर राहुल गाँधी को लेकर बेचैनी है. राहुल गाँधी के भाषणों में घटती भीड़ ने कांग्रेसियों की नींद उड़ा दी है. राहुल गाँधी की भाषण शैली, उनमें मुद्दों की समझ का अभाव और महत्त्वपूर्ण राजनैतिक घटनाक्रम के समय उनकी गुमशुदगी.. सभी कुछ कांग्रेसियों को अस्थिर करने के लिए काफी है. यह एक तथ्य है कि काँग्रेसी उसी के साथ रहते हैं, जो उन्हें सत्ता दिलवा सकता हो, या उसमें वैसी क्षमता हो. राहुल गाँधी के साथ काँग्रेसी उसी समय तक बने रहेंगे जब तक उन्हें विश्वास होगा कि नरेंद्र मोदी को हराने में यह नेता सक्षम है, और यही विश्वास अब शनैः-शनैः दरकने लगा है. दिल्ली की एक सभा में तो शीला दीक्षित को खुलेआम मंच से गुहार लगानी पड़ी कि बहनों, ठहर जाओ, दस मिनट रुक जाओ, राहुल जी को सुनते जाओ...उसके बाद राहुल गाँधी सिर्फ सात मिनट बोलकर चलते बने. दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी को सुनने के लिए बैंगलोर में दस-दस रूपए देकर साढ़े तीन लाख लोगों ने रजिस्ट्रेशन करवाया जिससे पैंतीस लाख रूपए मिले, जो नरेंद्र मोदी ने सरदार पटेल की मूर्ति हेतु अर्पण कर दिए. पैसा देकर भाषण सुनने का यह अमेरिकी प्रयोग भारत में सबसे पहले नरेंद्र मोदी ने आरम्भ किया है, शुरुआत हैदराबाद से हुई थी, जहाँ पांच-पांच रूपए लिए गए थे. उस समय कांग्रेसियों ने इस विचार की जमकर खिल्ली उडाई थी, लेकिन अब राहुल बाबा की सभाओं में घटती भीड़ ने उनके माथे पर बल डाल दिए हैं. इसी तरह पिछले गुजरात चुनावों में भी नरेंद्र मोदी थ्री-डी सभाओं द्वारा भाषण देते हुए मतदाताओं तक पहुँचने की जो नई अवधारणा लेकर आए थे, उसका तोड़ भी काँग्रेस के पास नहीं था. नरेंद्र मोदी में हमेशा नई तकनीक और नई सोच को लेकर जो आकर्षण रहा है उसी ने उन्हें सोशल मीडिया में अग्रणी बना दिया है.जब तक विपक्षी नेता सोशल मीडिया की ताकत को पहचान पाते या उसे भाँप सकते, उससे बहुत  पहले ही नरेंद्र मोदी उस क्षेत्र में दौड़ लगा चुके थे और अब वे बाकी लोगों से मीलों आगे निकल चुके हैं.

गुजरात में सरदार वल्लभभाई पटेल की विशाल प्रतिमा स्थापित करने की घोषणा और उसका भूमिपूजन करके तो मानो नरेंद्र मोदी ने काँग्रेस के ज़ख्मों पर नमक छिडकने का काम ही कर दिया है. देश की सभी प्रमुख योजनाओं, प्रमुख संस्थानों के अलावा बड़ी-बड़ी मूर्तियों-पार्कों-हवाई अड्डों इत्यादि पर अभी तक सिर्फ एक ही विशिष्ट और पवित्र परिवारका एकाधिकार होता था. नरेंद्र मोदी ने पिछले दस साल के दौरान गुजरात में जितनी भी योजनाएँ चलाई हैं उनका नाम विवेकानंद, दीनदयाल उपाध्याय जैसे लोगों के नाम पर रखा है. बची-खुची कसर सरदार पटेल की इस विशालतम मूर्ति की घोषणा ने पूरी कर दी. काँग्रेस को यह कतई सहन नहीं हो रहा है कि पटेल की विरासत को नरेंद्र मोदी हथिया ले जाएँ, इसीलिए जो काँग्रेस अभी तक सरदार पटेल को लगभग भुला चुकी थी अचानक उसका पटेल प्रेम जागृत हो गया. साथ-साथ आडवानी ने भी नरेंद्र मोदी के साथ कदमताल करते हुए अपने ब्लॉग पर लगातार पटेल-नेहरू के संबंधों के बारे में लेख लिखते रहे और काँग्रेस को अंततः चुप ही बैठना पड़ा.

जब से नरेंद्र मोदी को भाजपा ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया है, तब से विपक्षियों में डर और बेचैनी और भी बढ़ गई है. हालांकि ऊपर-ऊपर वे बहादुरी जताते हैं, दंभपूर्ण बयान देते हैं, मोदी की खिल्ली उड़ाते हैं, लेकिन अंदर ही अंदर वे बुरी तरह से हिले हुए हैं. एक सामान्य सी समझ है कि अच्छा राजनीतिज्ञ वही होता है, जो बदलती हुई राजनैतिक हवा को भाँपने का गुर जान जाता है. इसीलिए जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं, दिनोंदिन काँग्रेस का पतन होता जा रहा है और वह गिने-चुने राज्यों में सिमटती जा रही है, वैसे-वैसे क्षेत्रीय दलों के सुर बदलने लगे हैं. उन्हें पता है कि मई २०१४ में ऐसी स्थिति बन सकती है जब उन्हें नरेंद्र मोदी के साथ सत्ता शेयर करनी पड़ सकती है. इसीलिए जयललिता, ममता बनर्जी और पटनायक जैसे पुराने खिलाड़ी फूँक-फूँक कर बयान दे रहे हैं.

जबकि काँग्रेस अपनी उसी सामन्तवादी सोच से बाहर नहीं आ रही कि ईश्वर ने सिर्फ गाँधी परिवार को ही भारत पर शासन करने के लिए भेजा है. ग्यारह साल पहले गुजरात में हुए एक दंगे को लेकर नरेंद्र मोदी को घेरने की लगातार कोशिशें हुईं. तमाम षडयंत्र रचे गए, मोहरे खड़े किये गए, NGOsके माध्यम से नकली शपथ-पत्र दायर हुए... लेकिन न तो कानूनी रूप से और न ही राजनैतिक रूप से काँग्रेस मोदी को कोई नुक्सान पहुंचा पाई. इसके बावजूद इस प्रकार की  घटिया चालबाजियाँ अब भी जारी हैं. अपने सदाबहार ओछे हथकंडे जारी रखते हुए काँग्रेस इस बार किसी पुराने जासूसी कांड को लेकर सामने आई है. दिल्ली में महिलाएं कितनी सुरक्षित हैं यह पूरा देश जानता है, लेकिन काँग्रेस को गुजरात में एक महिला की जासूसी को लेकर अचानक घनघोर चिंता हो गई. इस बार भी अमित शाह को निशाना बनाकर नरेंद्र मोदी को घेरने की कोशिशें जारी हैं. मान लो राजकोट में पानी की समस्या है, तो “...मोदी प्रधानमंत्री पद के लायक नहीं हैं..., यदि सूरत में कोई सड़क खराब है, “...नरेंद्र मोदी इस्तीफ़ा दो...”, मुज़फ्फरनगर में भीषण दंगे हुए तो इसके लिए केन्द्र की काँग्रेस सरकार अथवा राज्य की सपा सरकार जिम्मेदार नहीं है, बल्कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने मुज़फ्फरनगर में ये दंगे भड़काए हैं...इस प्रकार की ऊटपटांग बयानबाजी से काँग्रेस और अन्य दल खुद की ही हँसी उडवा रहे हैं. ऐसा लगता है कि वे देश के युवाओं को मूर्ख समझते हैं. कभी-कभी तो मुझे शक होता है कि यदि किसी नेता के किचन में रखा हुआ दूध बिल्ली आकर पी जाए, तब भी वे यही कहेंगे कि इसके पीछे नरेंद्र मोदी का हाथ है....

आज से दो वर्ष पहले तक मोदी विरोधी कहते थे, भाजपा कभी भी मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं करेगी...यह तो हो गया. फिर कहते थे कि सोशल मीडिया पर काबिज हिंदुत्ववादी युवाओं की टीम से कोई फर्क नहीं पड़ता..अब खुद उन्हें फर्क साफ़ दिखाई दे रहा है. यह भी कहते थे कि नरेंद्र मोदी कोई चुनौती नहीं हैं... अब खुद इनके मंत्री स्वीकार करने लगे हैं कि हाँ मोदी एक गंभीर और तगड़ी चुनौती हैं...| अर्थात पहले विरोधियों द्वारा उपेक्षा, फिर उनके द्वारा खिल्ली उड़ाना... आगे चलकर विरोधियों के दिमाग में चिंता और अब रातों की नींद में भयानक दुस्वप्न... वाकई में नरेंद्र मोदी ने बड़ा लंबा सफर तय कर लिया है.

Kejriwal and AAP - Big Threat to Indian Political Stability...

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आम आदमी पार्टी और केजरीवाल पर कुछ चुनिन्दा फेसबुक पोस्टें... 


भिंडरावाले को खड़ा किया था... नतीजा सामने है
"आप"को खड़ा किया... नतीजा फिर सामने है...

दूसरों के कंधे पर बन्दूक रखकर गढ्ढा खोदोगे... तो यही होगा...


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8 December 2013 

आज दिन भर आप लोगों ने चैनल बदल-बदलकर परिणाम देखे ही होंगे... सच-सच एक बात बताईयेगा मित्रों... कितनी बार आप लोगों ने भगवा झंडे लहराते हुए, भाजपा का झण्डा लहराते हुए, पटाखे फोड़ते हुए भाजपा कार्यकर्ताओं की तस्वीरें या क्लिप्स देखीं, और कितनी बार??? यह भी ध्यान में लाने की कोशिश कीजिए कि इन्हीं चैनलों पर आपने कितनी बार AAP वालों के जश्न, कुमार विश्वास के जयकारे इत्यादि के बारे में देखा??

विभिन्न चैनलों पर मध्यप्रदेश-राजस्थान में "एकतरफा और सुनामीयुक्त"जीत को कमतर करके दिखाने की कोशिश की गई... जहाँ दाँव नहीं चला, वहाँ मोदी-शिवराज के बीच तुलना की गई, चाहे जैसे भी हो मोदी को "अंडर-एस्टीमेट"करके दिखाने के कुत्सित प्रयास भी हुए...

सच में इन वामपन्थी/सेकुलर बुद्धिजीवियों पर कभी-कभी तरस आता है... "भगवा शक्ति"के उभार और सोशल मीडिया की ताकत को नकारना तो खैर इनका शगल है ही, लेकिन दीवार पर लिखी साफ़ इबारत तक नहीं पढ़ सकते ये मूर्ख...

मई २०१४ में हमारा मुकाबला और कड़ा होगा, मित्रों कमर कस लीजिए...
#PaidMediaअपनी पूरी ताकत झोंक देगा...  



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10 December 2013 
 
#AAPक्या कोई इस बात की गारंटी ले सकता है, कि दोबारा चुनाव होने के बाद किसी पार्टी को बहुमत मिल ही जाएगा?? फिर दोबारा चुनाव करवाने की जिद क्यों??

जब काँग्रेस AAP को बिना शर्त (वो भी बाहर से) समर्थन देने को तैयार है, तो यह "भगोड़ा"व्यवहार क्यों??? यदि AAP को खुद के कार्यक्रमों और कार्यशैली पर इतना ही भरोसा है, तो काँग्रेस से समर्थन लो... अगले छह महीने में लोकपाल पास करो, बिजली के बिल ५०% कम करो, रोजाना प्रति परिवार ७०० लीटर पानी दो... यदि कामकाज नहीं जमे (यानी सरकार चलाना नहीं आया, और तुम्हारे मंत्री भ्रष्टाचार में लिप्त न हुए) तो छह माह बाद सरकार भंग करने का विकल्प भी तो AAP के पास है ही...

फिर सत्ता संभालने और जिम्मेदारी उठाने में इतना डर क्यों??? 




 

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10 December 2013 

हे महामूर्ख बुद्धिजीवियों, दिल्ली का हश्र देखकर समझ जाईये... कि "आप"लोग जिसे हवा देना चाहते हैं... मई २०१४ में यदि वैसा कोई तीसरा मोर्चा(??) बना (और उसे वोट भी मिले), तो देश के राजनैतिक हालात कितने अनिश्चित और अराजकता भरे हो जाएंगे...

बड़ी मुश्किल से तो 1989 और 1996 के दुर्दिनों को भुला पाया है यह देश... आप लोग फिर से उसे वहीं झोंकना चाहते हो क्या???

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"सेक्यूलरिज्म"के नाम पर पहले ही देश को बहुत खसोट चुके हो...
अब तो बख्श दो...

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NDTV और बाकी मीडिया की इस "जलन"और कजरिया बैंड पार्टी की "तपन"का असली कारण मैं बताता हूँ... -- सिर्फ दो-तीन माह पहले की बात है, विजय गोयल दिल्ली भाजपा के प्रमुख थे, पूरी भाजपा मरणासन्न थी, संगठन मारा हुआ था और खुद भाजपा का लगभग हर कार्यकर्ता मान चुका था कि दिल्ली में भाजपा नहीं आ रही... इसी बात को लेकर "झाडूवाले"भी उत्साहित थे, कि अब उनकी सरकार बनना तय है.

फिर मंच पर पदार्पण होता है नरेंद्र मोदी का... आते ही उन्होंने पहले तो कार्यकर्ताओं में जोश भरा... रोतलू विजय गोयल को हटाकर साफ़-सुथरी छवि वाले डॉ हर्षवर्धन को आगे किया. सिर्फ इतना करने भर से कजरिया की ईमानदारी के ढोल में छेद हो चुका था. इसके बाद उत्साहित कार्यकर्ताओं ने लगातार दो माह तक कड़ी मेहनत की... नतीजा सामने है, दिल्ली ने भाजपा को अधिक सीटें दीं... AAP-मीडिया-काँग्रेस की मिलीभगत का "खेल"बिगाड़ दिया.

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कहने का तात्पर्य यह है कि वास्तव में कजरिया ने भाजपा का खेल नहीं बिगाड़ा है, बल्कि मोदी-हर्षवर्धन ने मिलकर "कजरिया बैंड पार्टी के बेसुरे नगाड़े"फाड़ दिए हैं. काँग्रेस जानती थी कि उसके खिलाफ जो गुस्सा है उसे "विचलित और वितरित"करने के लिए AAP नामक जमूरा एकदम फिट है, जिसे लोकसभा चुनाव में भी उपयोग किया जाए, इसलिए उसने केजरीवाल को बड़े आराम से लोगों के बिजली कनेक्शन जोड़ने दिए... अभी आप लोग दिल्ली में जो "कपड़ाफाड़-छातीकूट"प्रोग्राम देख रहे हैं, वह इस खेल के मटियामेट होने की खिसियाहट है... 



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अब तो कांग्रेस बिना शर्त समर्थन देने को तैयार हो गई है (भाजपा को नहीं दिया, AAP को दिया)... कम से कम अब तो बिल से बाहर निकलो और दिल्लीवासियों के बिजली बिल आधे करो...

- ये कहेंगे :- भाजपा अपनी जिम्मेदारी से भाग रही है...

"राजा हरिश्चंद्र के एकमात्र और अंतिम अवतार"ने कहा है कि अपनी-अपनी पार्टी में विद्रोह करके हमारे साथ आओ...गंगाजल छिड़क कर आपको पवित्र कर देंगे... (इसे तोड़-फोड़ या जोड़-तोड़ नहीं माना जाएगा, क्योंकि ये पेशकश खुद "स्वयंभू हरिश्चंद्र"ने की है)...

- ये कहेंगे :- भाजपा अपनी जिम्मेदारी से भाग रही है...

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निष्कर्ष :- NGO's गैंग के सरगना की कार्यशैली बड़ी रोचक है... स्वाभाविक है भई, "दल्लात्मक मीडिया"का साथ भी तो खुलकर मिल रहा है... 

Indian Space Programme under Threat - Prof Nambi Narayan Case

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भारत का अंतरिक्ष विज्ञान विदेशी निशाने पर – प्रोफ़ेसर नम्बी नारायणन मामला...


बहुत वर्ष पहले एक फिल्म आई थी, “एक डॉक्टर की मौत”. इस फिल्म में पंकज कपूर का बेहतरीन अभिनय तो था ही, प्रमुखतः फिल्म की कहानी बेहतरीन थी. इस फिल्म में दर्शाया गया था कि किस तरह एक प्रतिभाशाली डॉक्टर, भारत की नौकरशाही और लाल-फीते के चक्कर में उलझता है, प्रशासन का कोई भी नुमाइंदा उस डॉक्टर से सहानुभूति नहीं रखता और अंततः वह डॉक्टर आत्महत्या कर लेता है. एक और फिल्म आई थी गोविन्द निहलानी की, नाम था “द्रोहकाल”, फिल्म में बताया गया था कि किस तरह भारत के शीर्ष प्रशासनिक पदों तथा सेना के वरिष्ठ स्तर तक भ्रष्टाचार और देश के दुश्मनों से मिलीभगत फ़ैली हुई है. दुर्भाग्य से दोनों ही फिल्मों की अधिक चर्चा नहीं हुई, दोनों फ़िल्में हिट नहीं हुईं.

भारत के कितने लोग सचिन तेंडुलकर को जानते हैं, लगभग सभी. लेकिन देश के कितने नागरिकों ने प्रसिद्ध वैज्ञानिक एस नम्बी नारायण का नाम सुना है? शायद कुछेक हजार लोगों ने ही सुना होगा. जबकि नारायण साहब भारत की रॉकेट तकनीक में तरल ईंधन तकनीक को बढ़ावा देने तथा क्रायोजेनिक इंजन का भारतीयकरण करने वाले अग्रणी वैज्ञानिक हैं. ऊपर जिन दो फिल्मों का ज़िक्र किया गया है, वह नम्बी नारायण के साथ हुए अन्याय (बल्कि अत्याचार कहना उचित होगा) एवं भारत की प्रशासनिक मशीनरी द्वारा उनके साथ जो खिलवाड़ किया गया है, का साक्षात प्रतिबिम्ब है. उन दोनों फिल्मों का मिलाजुला स्वरूप हैं प्रोफ़ेसर एस नम्बी नारायण...

आईये पहले जान लें कि श्री नम्बी नारायण कौन हैं तथा इनकी क्या और कितनी बौद्धिक हस्ती है. 1970में सबसे पहले भारत में तरल ईंधन रॉकेट तकनीक लाने वाले वैज्ञानिक नम्बी नारायण हैं, जबकि उस समय तक एपीजे अब्दुल कलाम की टीम ठोस ईंधन पर ही काम कर रही थी. नम्बी नारायण ने अपनी तीक्ष्ण बुद्धि और दूरदृष्टि से समझ लिया था कि आने वाले वक्त में इसरो को तरल ईंधन तकनीक पर जाना ही पड़ेगा. नारायण को तत्कालीन इसरो चेयरमैन सतीश धवन और यूआर राव ने प्रोत्साहित किया और इन्होने लिक्विड प्रोपेलेंट मोटर तैयार कर दी, जिसे 1970में ही छोटे रॉकेटों पर सफलतापूर्वक परीक्षण कर लिया गया.


1992में भारत ने रूस के साथ क्रायोजेनिक इंजन तकनीक हस्तांतरण का समझौता किया. उस समय यह सौदा मात्र 235करोड़ में किया गया, जबकि यही तकनीक देने के लिए अमेरिका और फ्रांस हमसे 950करोड़ रूपए मांग रहे थे.भारत की रॉकेट तकनीक में संभावित उछाल और रूस के साथ होने वाले अन्य समझौतों को देखते हुए, यहीं से अमेरिका की आँख टेढ़ी होना शुरू हुई. रूसी दस्तावेजों के मुताबिक़ जॉर्ज बुश ने इस समझौते पर आपत्ति उठाते हुए तत्कालीन रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन को धमकी दी, कि यदि यह तकनीक भारत को दी गई तो वे रूस को जी-फाइव देशों के क्लब से ब्लैक-लिस्टेड कर देंगे. येल्तसिन इस दबाव के आगे हार मान गए और उन्होंने भारत को क्रायोजेनिक इंजन तकनीक देने से मना कर दिया.

अमेरिका-रूस के इस एकाधिकार को खत्म करने के लिए भारत ने क्रायोजेनिक इंजन भारत में ही डिजाइन करने के लिए वैश्विक टेंडर मंगाए. समिति की छानबीन के बाद भारत की ही एक कंपनी केरल हाईटेक इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड द्वारा सबसे कम दरों पर इस इंजन का निर्माण करवाना तय किया गया. लेकिन क्रायोजेनिक इंजन का यह प्रोजेक्ट कभी शुरू न हो सका, क्योंकि अचानकमहान वैज्ञानिक नंबी नारायण को जासूसी और सैक्स स्कैंडल के आरोपों में फँसा दिया गया.नम्बी नारायणन की दो दशक की मेहनत बाद में रंग लाई, जब उनकी ही टीम ने विकासनाम का रॉकेट इंजन निर्मित किया, जिसका उपयोग इसरो ने PSLVको अंतरिक्ष में पहुंचाने के लिए किया. इसी विकासइंजन का उपयोग भारत के चन्द्र मिशन में GSLVके दुसरे चरण में भी किया गया, जो बेहद सफल रहा.

1994में वैज्ञानिक नंबी नारायण पर झूठे आरोप लगाए गए, कि उन्होंने भारत की संवेदनशील रक्षा जानकारियाँ मालदीव की दो महिला जासूसों मरियम रशीदा और फौजिया हसन को दी हैं. रक्षा सूत्रों के मुताबिक़ यह डाटा सैटेलाईट और रॉकेट की लॉन्चिंग से सम्बंधित था. नारायण पर आरोप था कि उन्होंने इसरो की गुप्त सूचनाएँ करोड़ों रूपए में बेचीं. हालांकि न तो उनके घर से कोई बड़ी राशि बरामद हुई और ना ही उनकी या उनके परिवार की जीवनशैली बहुत खर्चीली थी. डॉक्टर नंबी नारायण को पचास दिन जेल में गुज़ारने पड़े. अपने शपथ-पत्र में उन्होंने कहा है कि आईबी के अधिकारियों ने उनके साथ बहुत बुरा सलूक किया और उन्हें मानसिक रूप से तोड़ने की पूरी कोशिश की, विभिन्न प्रकार से प्रताड़ित किया गया. अंततः वे हवालात में ही गिर पड़े और बेहोश हो गए व् उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा. शपथ पत्र में उनकी प्रमुख शिकायत यह भी थी कि तत्कालीन इसरो प्रमुख कस्तूरीरंगन ने उनका बिलकुल साथ नहीं दिया.


मई 1996में उन पर लगाए गए सभी आरोप झूठ पाए गए. सीबीआई जांच में कुछ भी नहीं मिला औरसुप्रीम कोर्ट ने भी उन्हें अप्रैल 1998में पूर्णरूप से आरोप मुक्त कर दिया. लेकिन क्रायोजेनिक इंजन प्रोजेक्ट और चंद्रयान मिशन को जो नुक्सान होना था, वह तो हो चुका था. सितम्बर 1999में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने केरल की सरकार के खिलाफ कड़ी टिप्पणी करते हुए उनका चमकदार कैरियर खराब करने का दोषी ठहराते हुए एक करोड़ रूपए का मुआवजा देने का निर्देश दिया, लेकिन केरल सरकार और प्रशासन के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगी, एक पैसा भी नहीं दिया गया.इस बीच वैज्ञानिक नारायण का परिवार तमाम मुश्किलें झेलता रहा. इन सभी आरोपों और झमेले के कारण वैज्ञानिक ससिकुमार और नारायणन को त्रिवेंद्रम से बाहर तबादला करके उन्हें डेस्क जॉबसौंप दिया गया. अर्थात प्रतिभाशाली और उत्तम वैज्ञानिकों को बाबूबनाकर रख दिया गया. 2001में नंबी नारायणन रिटायर हुए. हमारे देश की प्रशासनिक मशीनरी इतनी असंवेदनशील और मोटी चमड़ी वाली है कि गत वर्ष सितम्बर2012में नंबी नारायण की अपील पर केरल हाईकोर्ट ने उन्हें हर्जाने के बतौर दस लाख रूपए की राशि देने का जो आदेश दिया था, अभी तक उस पर भी अमल नहीं हो पाया है.

इसरो वैज्ञानिक नम्बी नारायण ने केरल हाईकोर्ट में शपथ-पत्र दाखिल करके कहा है कि जिन पुलिस अधिकारियों ने उन्हें जासूसी और सैक्स स्कैंडल के झूठे आरोपों में फंसाया, वास्तव में ये पुलिस अधिकारी किसी विदेशी शक्ति के हाथ में खिलौने हैं और देश में उपस्थिति बड़े षड्यंत्रकारियों के हाथ की कठपुतली हैं. इन पुलिस अधिकारियों ने मुझे इसलिए बदनाम किया ताकि इसरो में क्रायोजेनिक इंजन तकनीक पर जो काम चल रहा था, उसे हतोत्साहित किया जा सके, भारत को इस विशिष्ट तकनीक के विकास से रोका जा सके.

नम्बी नारायण ने आगे लिखा है कि यदि डीजीपी सीबी मैथ्यू द्वारा उस समय मेरी अन्यायपूर्ण गिरफ्तारी नहीं हुई होती, तो सन2000में ही भारत क्रायोजेनिक इंजन का विकास कर लेता. श्री नारायण ने कहा, “तथ्य यह है कि आज तेरह साल बाद भी भारत क्रायोजेनिक इंजन का सफल परीक्षण नहीं कर पाया है. केरल पुलिस की केस डायरी से स्पष्ट है कि “संयोगवश” जो भारतीय और रशियन वैज्ञानिक इस महत्त्वपूर्ण प्रोजेक्ट से जुड़े थे उन सभी को पुलिस ने आरोपी बनाया”. 30नवम्बर 1994को बिना किसी सबूत अथवा सर्च वारंट के श्री नम्बी नारायण को गिरफ्तार कर लिया गया. नम्बी नारायण ने कहा कि पहले उन्हें सिर्फ शक था कि इसके पीछे अमेरिका की ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए है, लेकिन उन्होंने यह आरोप नहीं लगाया था. लेकिन जब आईबी के अतिरिक्त महानिदेशक रतन सहगल को आईबी के ही अरुण भगत ने सीआईए के लिए काम करते रंगे हाथों पकड लिया और सरकार ने उन्हें नवम्बर 1996में सेवा से निकाल दिया,तब उन्होंने अपने शपथ-पत्र में इसका स्पष्ट आरोप लगाया कि देश के उच्च संस्थानों में विदेशी ताकतों की तगड़ी घुसपैठ बन चुकी है, जो न सिर्फ नीतियों को प्रभावित करते हैं, बल्कि वैज्ञानिक व रक्षा शोधों में अड़ंगे लगाने के षडयंत्र रचते हैं. इतने गंभीर आरोपों के बावजूद देश की मीडिया और सत्ता गलियारों में सन्नाटा है, हैरतनाक नहीं लगता ये सब?


नम्बी नारायणन के ज़ख्मों पर नमक मलने का एक और काम केरल सरकार ने किया. अक्टूबर 2012में इन्हें षडयंत्रपूर्वक फँसाने के मामले में आरोपी सभी पुलिस वालों के खिलाफ केस वापस लेने का फैसला कर लिया. इस मामले के सर्वोच्च अधिकारी सिबी मैथ्यू वर्तमान में केरल के मुख्य सूचना आयुक्त हैं. पिछले कुछ समय से, जबसे भारत का चंद्रयान अपनी कक्षा में चक्कर लगा रहा है, इस प्रोजेक्ट से जुड़े प्रत्येक छोटे-बड़े वैज्ञानिक को पुरस्कार मिले, सम्मान हुआ, इंटरव्यू हुए... लेकिन जो वैज्ञानिक इस चंद्रयान की लिक्विड प्रोपल्शन तकनीककी नींव का पत्थर था,अर्थात नंबी नारायणन, वे इस प्रसिद्धि और चमक से दूर रखे गए थे, यह देश का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या था?इतना होने के बावजूद बड़ा दिल रखते हुए नम्बी कहते हैं कि “...चंद्रयान की सफलता मेरे लिए बहुत खुशी की बात है, दर्द सिर्फ इतना है कि वरिष्ठ इसरो अफसरों और वैज्ञानिकों ने इस अवसर पर मेरा नाम लेना तक मुनासिब नहीं समझा....इसरो के अधिकारी स्वीकार करते हैं कि यदि नारायणन को केरल पुलिस ने गलत तरीके से से नहीं फँसाया होता और जासूसी व् सैक्स स्कैंडल का मामला लंबा नहीं खिंचता, तो निश्चित ही नम्बी नारायणन को चंद्रयान का प्रणेता कहा जाता.

आज की तारीख में नम्बी नारायण को गिरफ्तार करने, उन्हें परेशान करने तथा षडयंत्र करने वाले छः वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों में प्रमुख, सीबी मैथ्यू केरल के मुख्य सूचना आयुक्त हैं, जबकि आर श्रीकुमार गुजरात में उच्च पदस्थ रहे. ये आर श्रीकुमार साहब वही “सज्जन” हैं जो तीस्ता सीतलवाद के साथ मिलकर नरेंद्र मोदी के खिलाफ बयानबाजी और पुलिसिया कार्रवाई करने में जुटे हैं, और सुप्रीम कोर्ट से लताड़ खा चुके हैं.

अमेरिकी लॉबी के हाथ कितने मजबूत हैं, यह इस बात से भी समझा जा सकता है कि स्वयं सीबीआई ने प्रधानमंत्री कार्यालय से उन सभी SITअफसरों के खिलाफ कार्रवाई करने की अनुशंसा की थी, जो नारायणन को फँसाने में शामिल थे. जबकि हुआ क्या है कि पिछले साल केरल में सत्ता संभालने के सिर्फ 43दिनों बाद उम्मन चाँडी ने इन अफसरों के खिलाफ पिछले कई साल से धूल खा रही फाईल को बंद कर दिया, केस वापस ले लिए गए. इस बीच कांग्रेस और वामपंथी दोनों प्रकार की सरकारें आईं और गईं, लेकिन नम्बी नारायणन की हालत भी वैसी ही रही और संदिग्ध पुलिस अफसर भी मजे लूटते रहे.

जैसा कि पहले बताया गया सीबी मैथ्यू, वर्तमान में केरल के मुख्य सूचना आयुक्त हैं, आरबी श्रीकुमार को कई पदोन्नतियाँ मिलीं और वे गुजरात में मोदी के खिलाफ एक हथियार बनकर भी उभरे. इसके अलावा इंस्पेक्टर विजयन, केके जोशुआ जैसे पुलिस अधिकारियों का बाल भी बाँका न हुआ. अप्रैल 1996में में हाईकोर्ट ने और 1998 में सुप्रीम कोर्ट ने इन संदिग्ध अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने हेतु निर्देश दी थे... आज तक कुछ नहीं हुआ. यह फाईलें तत्कालीन वामपंथी मुख्यमंत्री ईके नयनार के सामने भी आईं थीं, उनकी भी हिम्मत नहीं हुई कि एक बेक़सूर वैज्ञानिक को न्याय दिलवा सकें.


किसी भी देश के वैज्ञानिक, इंजीनियर, आर्किटेक्ट, लेखक इत्यादि उस देश की बौद्धिक संपत्ति होते हैं. यदि कोई देश इस बेशकीमती संपत्तिकी रक्षा नहीं कर पाए तो उसका पिछड़ना स्वाभाविक है. पिछले वर्ष जब ईरान के परमाणु कार्यक्रम से जुड़े दो वैज्ञानिकों की रहस्यमयी परिस्थितियों में मौत हुई थी, तब ईरान ने समूचे विश्व में तहलका मचा दिया था. सारे पश्चिमी और अरब जगत के समाचार पत्र इन वैज्ञानिकों की संदेहास्पद मृत्यु की ख़बरों से रंग गए थे. इधर भारत का हाल देखिये... अक्टूबर 2013में ही विशाखापत्तनम के बंदरगाह पर भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र के दो युवा वैज्ञानिक एके जोश और अभीष शिवम रेल की पटरियों पर मृत पाए गए थे. ग्रामीणों द्वारा संयोगवश देख लिए जाने की वजह से उनके शव ट्रेन से कटने से बच गए. पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पता चला कि दोनों वैज्ञानिकों को ज़हर दिया गया था.उक्त दोनों युवा वैज्ञानिक भारत की परमाणु पनडुब्बी अरिहंतप्रोजेक्ट से जुड़े हुए थे. 23फरवरी 2010को BARCसे ही जुड़े एक प्रमुख इंजीनियर एम अय्यर की मौत भी ऐसी ही संदिग्ध परिस्थितियों में हुई. हत्यारे ने उनके बंगले की डुप्लीकेट चाबी से रात को दरवाजा खोला और उन्हें मार दिया. स्थानीय पुलिस ने तत्काल से आत्महत्याका मामला बताकर फाईल बंद कर दी. सामाजिक संगठनों की तरफ से पड़ने वाले दबाव के बाद अंततः मुम्बई पुलिस ने हत्या का मामला दर्ज किया, लेकिन परमाणु कार्यक्रमों से जुड़े इंजीनियर की मौत की जाँच भी भारत की पुलिसिया रफ़्तार से ही चल रही है, जबकि अय्यर के केस में डुप्लीकेट चाभी और फिंगरप्रिंट का उपलब्ध न होना एक उच्च स्तरीय पेशेवरहत्याकी तरफ इशारा करता है. इसी प्रकार 29अप्रैल 2011को भाभा परमाणु केन्द्र की वैज्ञानिक उमा राव की आत्महत्या को उनके परिजन अभी भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं. उनका मानना है कि उमा ऐसा कर ही नहीं सकती, जरूर कुछ गडबड है.

यह बात कोई बच्चा भी बता सकता है कि, एक वैज्ञानिक को रास्ते से हटा देने पर ही किसी प्रोजेक्ट को कई वर्ष पीछे धकेला जा सकता है, भारत के क्रायोजेनिक इंजन, चंद्रयान, मिसाईल कार्यक्रम, परमाणु ऊर्जा और मंगल अभियान इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं. जो कार्य हमारे वैज्ञानिक और इंजीनियर सन 2000में ही कर लेते, वह अब भी लडखडाते हुए ही चल रहा है. भारत सरकार ने खुद माना है कि पिछले दो वर्ष के अंदर भाभा केन्द्र और कैगापरमाणु केन्द्र के नौ वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की मृत्यु को स्वाभाविक मौत नहीं माना जा सकता, लेकिन जहाँ तक पुख्ता जाँच अथवा जिम्मेदारों को पकड़ने की बात है, सभी मामलों में शून्यही हाथ में है. दिक्कत की बात यह है कि भारत सरकार के शीर्ष लोग यह मानने को ही तैयार नहीं हैं कि इन हत्याओं (संदिग्ध हत्याओं और आत्महत्याओं) के पीछे कोई विदेशी हाथ हो सकता है. जबकि 1994से ही, अर्थात जब से क्रायोजेनिक इंजन के बारे में भारत-रूस की सहमति बनी थी, तभी से इस प्रकार के मामले लगातार सामने आए हैं. ईरान ने अपने दुश्मनों के कारनामों से सबक लेकर अपने सभी वैज्ञानिकों की सुरक्षा पुख्ता कर दी है, उनकी छोटी से छोटी शिकायतों पर भी तत्काल ध्यान दिया जाता है, उनके निवास और दफ्तर के आसपास मोबाईल जैमर लगाए गए हैं... दूसरी तरफ भारत सरकार नम्बी नारायणजैसे घटिया उदाहरण पेश कर रही है. किसी और देश में यदि इस प्रकार की संदिग्ध मौतों के मामले आते, तो मीडिया और प्रबुद्ध जगत में ख़ासा हंगामा हो जाता. लेकिन जब भारत की सरकार को उक्त मौतें सामान्य दुर्घटनाया आत्महत्याही नज़र आ रही हों तो कोई क्या करे?जबकि देखा जाए तो यदि वैज्ञानिकों ने आत्महत्या की है तो उसकी भी तह में जाना चाहिए, कि इसके पीछे क्या कारण रहे, परन्तु भारत की सुस्त और मक्कार प्रशासनिक मशीनरी और वैज्ञानिक ज्ञान शून्य राजनैतिक बिरादरी को इससे कोई मतलब ही नहीं है. पश्चिमी देशों ने आर्थिक प्रलोभन देकर अक्सर भारतीय प्रतिभाओं का दोहन ही किया है. जब वे इसमें कामयाब नहीं हो पाते, तब उनके पास नम्बी नारायणन के खिलाफ उपयोग किए गए हथकंडे भी होते हैं. 


हाल ही में भारत रत्न से सम्मानित वैज्ञानिक प्रोफ़ेसर राव ने भारत के नेताओं को बेशर्म और मूर्खकहा था, वास्तव में प्रोफेसर साहब हकीकत के काफी करीब हैं. देश में विज्ञान, वैज्ञानिक सोच, शोध की स्थितियाँ तो काफी पहले से बदतर हैं ही, लेकिन जो वैज्ञानिक अपनी प्रतिभा, मेहनत और असाधारण बुद्धि के बल पर देश के लिए कुछ करते हैं, तो उन्हें विदेशी ताकतें इस प्रकार से निपटा देती हैं. यह कहना जल्दबाजी होगी कि देश के शीर्ष राजनैतिक नेतृत्व में विदेशी हस्तक्षेप बहुत बढ़ गया है, लेकिन यह बात तो पक्की है कि शीर्ष प्रशासनिक स्तर और नेताओं की एक पंक्ति निश्चित रूप से इस देश का भला नहीं चाहती. पूरे मामले की सघन जाँच किए बिना, अपने एक महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक पर भरोसा करने की बजाय, उन्हें सीधे जेल में डालना छोटे स्तर पर नहीं हो सकता. खासकर जब उस वैज्ञानिक की उपलब्धियाँ और क्रायोजेनिक इंजन पर चल रहे कार्य को ध्यान में रखा जाए. जनरल वीके सिंह पहले ही हथियार लॉबी को बेनकाब कर चुके हैं, इसीलिए शक होता है कि कहीं जानबूझकर तो देश के वैज्ञानिकों के साथ खिलवाड़ नहीं किया जा रहा? हथियार और जासूसी लॉबी इस देश को पिछड़ा ही बनाए रखने के लिए कुछ भी कर सकती हैं, कर रही हैं.अब समय आ गया है कि इन षडयंत्रकारी शक्तियोंको बेनकाब किया जाए, अन्यथा भारत की वैज्ञानिक सफलता इसी प्रकार लडखडाते हुए आगे बढेगी. जो काम हमें 1990में ही कर लेना चाहिए था, उसके लिए 2013तक इंतज़ार करना क्या एक राष्ट्रीय अपराधनहीं है? क्या इस मामले की गंभीर जाँच करके सीआईए के गुर्गों की सफाई का वक्त नहीं आ गया है??

NSG Commando PV Manesh and Insensitive Bureaucracy

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NSGकमांडो की बहादुरी और असंवेदनशील नौकरशाही...




हाल ही में देश ने मुम्बई हमले (२६/११) की पाँचवीं बरसी मनाई, लेकिन देशवासियों के लिए शर्म की बात यह है कि उस हमले में कई जाने बचाने वाला एक जाँबाज कमांडो आज भी हमारे देश की भ्रष्ट नौकरशाही और घटियातम राजनीति का शिकार होकर पैरेलिसिस और अन्याय से जूझ रहा है...

हजार लानत भेजने लायक किस्सा यूं है कि 26/11 के मुम्बई हमले के समय कमांडो पीवीमनेश, ओबेरॉय होटल में आतंकवादियों से भिड़े थे। उन्हें अहसास हुआ कि एककमरे में कोई आतंकवादी छिपा हुआ है, जान की परवाह न करते हुए मनेश गोलियाँबरसाते हुए उस कमरे में घुसे, परन्तु अंधेरा होने की वजह से वे तुरन्त भाँपनहीं सके कि आतंकवादी किधर छिपा है। इस बीच आतंकवादी ने एक ग्रेनेड मनेशकी ओर उछाला, जो कि मनेश के हेलमेट के पास आकर फ़टा, हालांकि मनेश ने त्वरितकार्रवाई करते हुए उस आतंकवादी को मार गिराया, लेकिन हेलमेट पर अत्यधिकदबाव और धमाके की वजह से पीवी मनेश को अंदरूनी दिमागी चोट लगी और उनके शरीरकी दाहिनी बाजू पक्षाघात से पीड़ित हो गई।ग्रेनेडकी चोट कितनी गम्भीर थी इसका अंदाज़ा इसी बात से लग सकता है कि हेलमेट केतीन टुकड़े हो गये और मनेश चार माह तक कोमा में रहेउनके शरीर का दांया हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया. होटल ओबेरॉय में NSGऑपरेशन के दौरान मनेश ने अकेले ही सूझबूझ से चालीस लोगों की जान बचाई और दो आतंकवादियों को मार गिराया था. कोमा से बाहर आने के बाद व्हीलचेयर पर ही उन्हें शौर्य चक्र से सम्मानित किया गया. इसके पश्चात मनेश की पोस्टिंग उनके गृहनगर कन्नूर की प्रान्तीय सेना यूनिट में किया गया, ताकि उनकी देखभाल और इलाज जारी रहे. मनेश की मूल नियुक्ति सेना की सत्ताईसवीं मद्रास रेजिमेंट की है, और उसे NSGमें उसकी फिटनेस की वजह से भेजा गया था. 


दिल्ली एवं मुम्बई के विभिन्न सेना अस्पतालों में इस वीर का इलाज चलता रहा, परन्तु एलोपैथिक दवाईयों से जितना फ़ायदा हो सकता था उतना ही हुआ। अन्त मेंलगभग सभी डॉक्टरों ने मनेश को आयुर्वेदिक इलाज करवाने की सलाह दी। मनेशबताते हैं कि उन्हें उनके गृहनगर कन्नूर से प्रति पंद्रह दिन में 300 किमीदूर पलक्कड जिले के एक विशेष आयुर्वेदिक केन्द्र में इलाज एवं दवाओं हेतुजाना पड़ता है, जिसमें उनके 2000 रुपये खर्च हो जाते हैं इस प्रकार उन्हेंप्रतिमाह 4000 रुपये आयुर्वेदिक दवाओं पर खर्च करने पड़ते हैं।रक्षा मंत्रालय के नियमों के अनुसारआयुर्वेदिक इलाज के बिल एवं दवाओं का खर्च देने का कोई प्रावधान नहीं है...सैनिक या तो सेना के अस्पताल में इलाज करवाए या फ़िर एलोपैथिक इलाज करवाये।इस बेतुके नियम की वजह से कोई भी अफ़सर इस वीर सैनिक को लगने वाले 4000 रुपये प्रतिमाह के खर्च को स्वीकृत करने को तैयार नहीं है। २००९ के अंत तक मनेश ने आयुर्वेदिक दवाओं के शानदार नतीजों के कारण धीरे-धीरे बगैर सहारे के चलना और बोलना शुरू कर दिया था. परन्तु सेना ने उनके आयुर्वेदिक इलाज पर हुए खर्चों के बिलों को चुकाने से मना कर दिया (वे कहते रहे कि नियम नहीं हैं). हालांकि बाद में दिल्ली हाईकोर्ट की लताड़ के बाद सेना के अधिकारियों ने “स्पेशल केस” मानते हुए मनेश की दवाओं का खर्च उन्हें दे दिया. लेकिन इसके लिए भी मनेश को तकलीफें, अधिकारियों की मनमानी सहनी पड़ीं और अंततः न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ा.

इस बहादुर कमांडो के साथ यह अन्याय करने के बावजूद नौकरशाही का मन नहीं भरा तो अब उन्हें उनके गृहनगर से दिल्ली तबादला कर दिया गया है, साथ ही एक सरकारी सहायक जो उन्हें मिला था, वह सुविधा भी छीन ली गई है. मजबूरी में मनेश ने दिल्ली हाईकोर्ट की शरण ली, जिसने मानवीयता दिखाते हुए उसके तबादले पर २४ जनवरी तक की रोक लगा दी है, और सरकार से इसका कारण बताने को कहा है. हो सकता है कि सरकार और सेना के अधिकारियों के पास कोई तकनीकीऔर कानूनीदांवपेंच हो, जिसके सहारे वे अपने इस निर्णय का बचाव कर ले जाएँ, परन्तु हकीकत यही है कि आज भी पीवी मनेश के शरीर का एक हिस्सा ठीक से काम नहीं कर रहा और उसे चौबीसों घंटे देखभाल की आवश्यकता है. हालांकि दिल्ली हाईकोर्ट ने मनेश को तात्कालिक राहत दे दी हो, परन्तु सेना के अधिकारियों ने उसे लगातार परेशान करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी. मनेश ने रक्षामंत्री एंटोनी के सामने भी अर्जी लगाई हुई है, परन्तु उधर से भी कोई जवाब नहीं है.

१७ सितम्बर २०१३ को दिए गए इस आदेश के मुताबिक़ पीवी मनेश को आने घर कन्नूर से सैकड़ों किमी दूर दिल्ली में ज्वाइन करना है. आश्चर्यजनक बात तो यह है कि १० सितम्बर को ही मनेश की पत्नी सीमा ने एके एंटोनी से मुलाक़ात करके उन्हें उसकी शारीरिक तकलीफों के बारे में बताकर उनसे गृहनगर में ही रखने की अपील की थी. एंटोनी ने भी रक्षा मंत्रालय में सम्बन्धित अधिकारियों को बुलाकर स्पेशल केस मानते हुए मनेश को उसके गृहनगर में ही रखने के आदेश दिए थे, परन्तु वे सब आदेश नौकरशाही की मर्जी के सामने हवा हुए. अधिकारियों ने मनेश को फरमान सुना दिया कि उन्हें किसी भी हालत में ३० अक्टूबर को दिल्ली के सेना मुख्यालय में रिपोर्ट करना है. सारे दरवाजे बंद होने के बाद मनेश ने न्यायालय की शरण ली. जहाँ जस्टिस गीता मित्तल और जस्टिस वीपी वैश्य ने मनेश के ट्रांसफर आदेश पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी, और अगली सुनवाई २४ जनवरी २०१४को रखी गई है. शारीरिक तकलीफों के बावजूद ट्रांसफर करने की शिकायत के अलावा अपनी याचिका में मनेश ने आरोप लगाया है कि मद्रास यूनिट के कमान्डिंग ऑफिसर ने उनके साथ बहुत बुरा व्यवहार और मानसिक प्रताड़ना का आरोप भी लगाया है. पत्नी सीमा ने भी एंटोनी को लिखे अपने पत्र में कहा है कि ऑफिसर के ऐसे व्यवहार के कारण उनके पति को अत्यधिक सिरदर्द व चक्कर की शिकायत भी बढ़ गई है. फिलहाल मनेश अपने पाँच साल के बेटे और वृद्ध माता-पिता के साथ कन्नूर में रहते हैं, जहाँ से उन्हें महीने में दो बार २०० किमी दूर आयुर्वेदिक इलाज के लिए जाना पड़ता है.


हालांकि पीवी मनेश के पास शौर्य चक्र विजेता होने की वजह से रेल में मुफ़्तयात्रा का आजीवन पास है, परन्तु फ़िर भी एक-दो बार टीसी ने उन्हें आरक्षितस्लीपर कोच से बेइज्जत करके उतार दिया था। रूँधे गले से पीवी मनेश कहते हैंकि भले ही यह देश मुझे भुला दे, परन्तु फ़िर भी देश के लिए मेरा जज़्बा औरजीवन के प्रति मेरा हौसला बरकरार हैमेरी अन्तिम आशा अब आयुर्वेदिकइलाज ही है, पिछले एक वर्ष में अब मैं बिना छड़ी के सहारे कुछ दूर चलने लगाहूँ तथा स्पष्ट बोलने और उच्चारण में जो दिमागी समस्या थी, वह भी धीरे-धीरेदूर हो रही है

इस बहादुर सैनिक के सिर में उस ग्रेनेड के तीन नुकीले लोहे के टुकड़े धँसगये थे, दो को तो सेना के अस्पताल में ऑपरेशन द्वारा निकाला जा चुका है, परन्तु डॉक्टरों ने तीसरा टुकड़ा निकालने से मना कर दिया, क्योंकि उसमें जानका खतरा था। दिलेरी की मिसाल देते हुए, पीवी मनेश मुस्कुराकर कहते हैं किउस लोहे के टुकड़े को मैं 26/11 की याद के तौर पर वहीं रहने देना चाहताहूँ, मुझे गर्व है कि मैं देश के उन चन्द भाग्यशाली लोगों में से हूँजिन्हें शौर्य चक्र मिला हैऔर मेरी इच्छा है कि मैं अपने जीवनकाल में कमसे कम एक बार ओबेरॉय होटल में पत्नी-बच्चों समेत लंच लूं और उसी कमरे मेंआराम फ़रमाऊँ, जिसमें मैने उस आतंकवादी को मार गिराया था

अपनी जान पर खेलकर देश के दुश्मनों से रक्षा करने वाले सैनिकों के प्रतिसरकार और नौकरशाही का संवेदनहीन रवैया जब-तब सामने आता रहता हैसभी को याद है कि संसद पर हमले को नाकाम करने वाले जवानों की विधवाओं को चार-पाँच साल तकचक्कर खिलाने और दर्जनों कागज़ात/सबूत मंगवाने के बाद बड़ी मुश्किल सेपेट्रोल पम्प दिये गयेजबकि इससे पहले भीलद्दाख में सीमा पर ड्यूटी दे रहे जवानों हेतु जूते खरीदने की अनुशंसाकी फ़ाइल महीनों तक रक्षा मंत्रालय में धूल खाती रही, जब जॉर्ज फ़र्नांडीस नेसरेआम अफ़सरों को फ़टकार लगाई, तब कहीं जाकर जवानों को अच्छी क्वालिटी केबर्फ़ के जूते मिले

दूसरी तरफ(??) की मौज का ज़िक्र किए बिना लेख पूरा नहीं होगा... आपको याद होगा कि कैसे न्यायालय के आदेश परकर्नाटक के एक रिसोर्ट में कोयम्बटूर बम धमाके के मुख्य आरोपीअब्दुल नासेर मदनी का सरकारी खर्च पर पाँच सितारा आयुर्वेदिक इलाजचल रहा हैजबकि 26/11 के मुम्बई हमले के समय बहादुरी दिखाने वालेजाँबाज़ कमाण्डो शौर्य चक्र विजेता पीवी मनेश को भारत की सरकारी मशीनरी औरबड़े-बड़े बयानवीर नेता आयुर्वेदिक इलाज के लिये प्रतिमाह 4000 रुपये कीविशेष स्वीकृतिनहीं दे रहे हैंउधर अब्दुलनासेर मदनी पाँच सितारा आयुर्वेदिक मसाज केन्द्र में मजे कर रहा है, क्योंकि उसके पास वकीलों की फ़ौज तथा सेकुलर गैंगका समर्थन है।
जिस तरह से अब्दुल नासेर मदनी, अजमल कसाब और अफ़ज़ल गुरु कीखातिरदारीहमारे सेकुलर और मानवाधिकारवादी कर रहे हैंतथा कश्मीर, असम, मणिपुर और नक्सल प्रभावित इलाकों में कभी जवानों को प्रताड़ित करके, तो कभीआतंकवादियों और अलगाववादियों के साथियों-समर्थकोंसे हाथ मिलाकर, उन्हेंसम्मानित करकेवीर जवानों के मनोबल को तोड़ने में लगे हैं, ऐसे में तो लगताहै कि पीवी मनेश धीरे-धीरे अपनी जमापूँजी भी अपने इलाज पर खो देंगेक्योंकि नौकरशाही और सरकार द्वारा उन्हीं की सुनी जाती है, जिनके पास लॉबिंगहेतु पैसा, ताकत, भीड़ और दलालहोते हैंमुझे चिंता इस बात की है कि देश के लिए जान की बाजी लगाने वाले जांबाजो केसाथ नौकरशाही और नेताओं का यही रवैया जारी रहा, तो कहीं ऐसा न हो कि किसीदिन किसी जवान का दिमाग सटकजाये और वह अपनी ड्यूटी गन लेकर दिल्ली केसत्ता केन्द्र नॉर्थ-साउथ ब्लॉक पहुँच जाएदेखना है कि इस बहादुर की तकलीफों का अंत कब होता है, और हमारी नौकरशाही में शामिल हरामखोरों को कब अक्ल आती है, और कब उन्हें कोई सजा मिलती है.

Congress - A Sinking Titanic....

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डूबता टाईटैनिक : भगदड़, बदहवासी और गलतियाँ...

टाईटैनिक जैसे विशाल जहाज के बारे में कहा जाता था कि वह इतना विशाल और सुरक्षित है कि कभी डूब नहीं सकता, लेकिन बर्फ की एक चट्टान से टकराने भर से उसमें जो छेद हुआ, वह उसके डूबने के लिए पर्याप्त रहा. जब टाईटैनिक डूबा तो उसका कप्तान निराश, असहाय अवस्था में चुपचाप अपने केबिन में जा बैठा था... टाईटैनिक जहाज के हश्र को देखकर 2014के आम चुनावों में जाने वाली काँग्रेस की याद आ जाती है. हालांकि अभी लोकसभा के आम चुनाव लगभग तीन माह दूर हैं, परन्तु काँग्रेस नामक टाईटैनिक जहाज के कप्तान मनमोहन सिंह ने पार्टी की शोकांतिका पिछले माह ही लिख दी थी. अपनी दुर्लभ किस्म कीपत्रकार वार्ता में हताश दिखाई दे रहे मनमोहन सिंह ने अपना विदाई भाषण भी पढ़ दिया और यह भी साफ़ कर दिया कि अगले आम चुनावों के बाद वे राजनैतिक परिदृश्य पर दिखाई नहीं देंगे. 

जापान की एक निजी जनसंपर्क एवं विज्ञापन कंपनी देन्त्सूजब राहुल गाँधी को यह सलाह देती है कि उन्हें काँग्रेस का घोषणापत्र जारी करने के लिए आम जनता के बीच जाना चाहिए, तो कभी वे कुलियों के बीच पहुँच जाते हैं तो कभी भोपाल की महिलाओं के बीच. परन्तु राहुल गाँधी के इस स्टंटको ठीक तरीके से निभाने के लिए उनमें जो प्रतिभा और वाकचातुर्य होना चाहिए, उसका उनमें सख्त अभाव है. देन्त्सू कंपनी ने कट्टर सोच नहीं, युवा जोशके नाम से तमाम शहरों के होर्डिंग्स, चैनलों, अखबारों एवं वेबसाईटों पर जो विज्ञापन अभियान समय से पहले ही आरम्भ कर दिया है, जनता में उसकी बहुत ठंडी प्रतिक्रिया मिली. खासकर जब हसीबा अमीन जैसी युवा काँग्रेस कार्यकर्ता को राहुल गाँधी के साथ दिखाया गया तो भाजपा की सोशल मीडिया टीम ने तत्काल हसीबा अमीन के पुराने अस्थि-पंजर खोलकर उसके तमाम घोटालों की लिस्ट जनता के सामने रख दी.जल्दी ही हसीबा अमीन की विदाई कर दी गई, और उसके स्थान पर दूसरे युवाओं को जगह दी गई, लेकिन जब खुद कप्तान ने ही टाईटैनिक में इतने छेद कर दिए हों, तो नए-नवेले कप्तान के भरोसे इतना बड़ा जहाज कैसे संभलेगा? 



महँगाई और भ्रष्टाचार ये दो इतने बड़े-बड़े छेद हैं कि दस साल से लगातार भारी होते जा रहे यूपीए के जहाज को डुबोने के लिए काफी हैं. फिर इसके अलावा इस सरकार के मंत्रियों (जैसे कपिल सिब्बल, सलमान खुर्शीद, मनीष तिवारी आदि) का अहंकारी रवैया, काँग्रेस के प्रवक्ताओं की पाँच रूपए थाली, बारह रूपए में भरपेट भोजनजैसी ऊलजलूल बयानबाजी तथा लगातार नरेंद्र मोदी और गुजरात को कोसने-गरियाने की वजह से आम चुनावों में काँग्रेस का सूपड़ा साफ़ होना लगभग तय है. कोयला, २जी, हेलीकॉप्टर और कॉमनवेल्थ ये चार दाग ही इतने बड़े-बड़े हैं कि काँग्रेस अपनी चादर किसी भी कोने में छिपाने की कोशिश करे, दिख ही जाएँगे. साथ ही आर्थिक नीतियों को लेकर अनिर्णय और मंत्रालयों की आपसी खींचतान ने काँग्रेस के जयन्ती नटराजन टैक्सको जन्म दिया है. उद्योगपतियों को अपनी योजनाओं की मंजूरी हेतु पर्यावरण मंत्रालय के चक्कर कटवाए जा रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ अपने चहेतों को पिछले दरवाजे से पुरस्कृत किया जा रहा है. विदेश नीति पर विभिन्न देशों के हाथों सतत हो रही पिटाई की वजह से देश के मतदाता के मन में एक क्रोध का भाव है. बची-खुची कसर भाजपा की चायवालारणनीति एवं तेलंगाना बिल ने पूरी कर ही दी है. जब मणिशंकर अय्यर ने अपनी चिर-परिचित हेकड़ी और सनक वाले अंदाज़ में नरेंद्र मोदी को चाय बेचने वाला कभी देश का प्रधानमंत्री नहीं बन सकताकहा होगा, उस समय तो वे खुद को अपनी हाईकमान की निगाहों में हीरो बना हुए समझ रहे होंगे...लेकिन मणिशंकर अय्यर को अनुमान नहीं था कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी इसी मुद्दे को लेकर अपनी प्रचार रणनीति में ऐसा नया मसाला ले आएँगे कि काँग्रेस के राजकुमारतक को मजबूरी में कहना पड़ेगा कि चायवाले की इज्जत करो. विभिन्न राज्यों के लोकसभा इलाकों में लगने वाले चाय के नमो टी स्टॉलतथा भाजपा की चाय पर चर्चानामक विज्ञापन रणनीति ने काँग्रेस में उच्च स्तर पर होश फाख्ता कर दिए हैं. इस हडकंप का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि खुद राहुल गाँधी और अहमद पटेल तक को मैदान में उतरना पड़ा. अहमद पटेल ने बाकायदा बयान जारी करके झूठ बोलने की कोशिश की, कि नरेंद्र मोदी कभी चाय नहीं बेचते थे, बल्कि कैंटीन के ठेकेदार थे. हालांकि काँग्रेस की प्रतिष्ठा इतनी गिर चुकी है कि अहमद पटेल की बातों पर शायद ही किसी ने यकीन किया होगा. इस बीच नरेंद्र मोदी ने अपनी आक्रामक शैली के चलते देश में चारों तरफ तूफानी दौरे करके भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच जोश तो भर ही दिया है, साथ ही कई सीटों पर आरंभिक आकलन, प्रत्याशियों की क्षमता तथा संगठन के बारे में जानकारी का पहला राउंड पूरा कर लिया है. काँग्रेस को नरेंद्र मोदी की चाय बेचने वालेतथा पिछड़ा वर्गइन दो तथ्यों की काट नहीं मिल रही. 

जैसा कि ऊपर ज़िक्र किया काँग्रेस ने तेलंगाना और सीमान्ध्र जैसे 42सीटों वाले महत्त्वपूर्ण राज्य में अपने हाथों अपनी कब्र खुद ही खोद ली है. पाठकों को याद होगा कि जिस समय राजशेखर रेड्डी जीवित थे, उन्होंने आंध्रप्रदेश में काँग्रेस को इतना मजबूत कर दिया था कि यहीं के सांसदों के बल पर काँग्रेस केन्द्र में सत्तारूढ़ हुई थी. लेकिन सोनिया गाँधी और उनके निकटस्थ चाटुकारों ने आंधप्रदेश व तेलंगाना में ऐसा बचकाना और अनुभवहीन खेल खेला कि अब काँग्रेस को न माया मिली, न रामजैसे मुहावरे की याद आएगी. दोनों हाथों में लड्डू रखनी की चाहत वाली सनातन काँग्रेसी रणनीति ने काँग्रेस का बंटाधार करके रखा हुआ है. तेलंगाना और सीमान्ध्र में भी यही दुर्भाग्यपूर्ण काँग्रेसी चाल चली गई और जहाँ अटल बिहारी वाजपेयी ने बड़े ही शांतिपूर्ण एवं सामंजस्यपूर्ण तरीके से तीन राज्यों का गठन कर लिया, वहीं काँग्रेस को एक राज्य के विभाजन में ही पसीने आ गए हैं जो आगामी लोकसभा चुनावों में उसे बहुत भारी पड़ेंगे. भाजपा को इन दोनों राज्यों में अधिक नुक्सान इसलिए नहीं है क्योंकि यहाँ भाजपा पहले से ही लगभग अदृश्य है और उसे चंद्रबाबू या जगनमोहन में से किसी एक को चुनना भर बाकी है, जो कि नतीजों पर निर्भर करेगा. 


मप्र-राजस्थान-गुजरात और छग इन चारों राज्यों में भाजपा सर्वाधिक मजबूत है, हाल ही में शिवराज-रमण सिंह और वसुंधरा राजे ने खासी सफलता अर्जित की है, इसलिए फिलहाल नरेंद्र मोदी के नाम पर यहाँ से भाजपा को सीटें मिलना जितना आसान है, काँग्रेस के लिए उतना ही कठिन. इसलिए काँग्रेस यहाँ कोई चमत्कार की उम्मीद लगाए ही बैठी रहेगी. उधर दिल्ली में AAPवालों ने पहले ही भाजपा से अधिक काँग्रेस को नुक्सान पहुँचाया हुआ है, इसलिए वहाँ दावे से कुछ नहीं कहा जा सकता. हरियाणा में जिस तरह आए दिन हुड्डा पर जूते फेंके जा रहे हैं या अस्थायी शिक्षक उन्हें तमाचा मारने की जुगाड़ में लगे हुए हैं वहाँ भी काँग्रेस का भविष्य कुछ उज्जवल नहीं दीखता. हिमाचल और उत्तराखंड में काँग्रेस की हालत इस बात पर निर्भर करेगी कि हाल ही में सत्ता हासिल करने के बाद वीरभद्र सिंह ने कितना काम किया है, तथा बहुगुणा को हटाने का कोई फायदा हुआ है कि नहीं. सत्ता हासिल करने की दृष्टि से देश के दो सबसे प्रमुख राज्यों यूपी और बिहार में काँग्रेस की हालत पिछले बीस वर्षों से खस्ता ही है, मई २०१४ में भी हालात में कोई विशेष परिवर्तन की उम्मीद कम ही है. सपा-बसपा के परम्परागत जाति आधारित वोटों, मुज़फ्फरनगर के बहुचर्चित दंगों की काली छाया तथा नरेंद्र मोदी के वाराणसी सीट से चुनाव लड़ने की अटकलों ने पहले से ही काँग्रेस के दम-गुर्दे की हवा खराब कर रखी है. ऊपर से काँग्रेसी खेमे में रीता बहुगुणा, प्रमोद तिवारी और पूनिया की आपसी खींचतान तथा राहुल गाँधी के सामने हवाहवाईउम्मीदवार कुमार विश्वास ने माहौल बिगाड़ने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है. काँग्रेस का यही हाल बिहार में भी है, काँग्रेस को उम्मीद थी कि भाजपा से गठबंधन टूटने के बाद नीतीश पके हुए आम की तरह अपने-आप उसकी झोली में आ गिरेंगे. लेकिन नीतीश फिलहाल अपने पत्ते खोलना नहीं चाहते और उधर लालू-पासवान ने भी काँग्रेस पर दबाव बना रखा है. उम्मीद यही है कि बिहार में असली मुकाबला काँग्रेस-लालू गठबंधन तथा भाजपा के बीच होगा, और पाँच साल की शासन-विरोधी लहर एवं नरेंद्र मोदी के बढते प्रभाव की वजह से नीतीश सिर्फ वोट-कटवा बनकर रह जाएँगे. झारखंड में भी काँग्रेस की हालत उतनी अच्छी नहीं कही जा सकती, क्योंकि पहले भी और अब भी मधु कौड़ा के जेल जाने के बाद वहाँ कांग्रेस को अक्सर झामुमो की पिछलग्गू बनकर ही रहना पड़ता है...| पश्चिम बंगाल में हाल ही में सम्पन्न पंचायत चुनावों ने ममता की राजनैतिक पकड़ को और मजबूत किया है तथा काँग्रेस और वाम मोर्चे को कोई मौका नहीं मिला है. सपा के मुलायम की तरह ही ममता भी चाहेंगी कि आने वाली केन्द्र सरकार में सत्ता की चाभी उनके हाथ में हो. इसलिए उन्होंने अन्ना हजारे पर सफलतापूर्वक डोरे डालकर उन्हें अपने पाले में कर लिया है. ज़ाहिर है कि बंगाल में भी काँग्रेस बहुत अधिक की उम्मीद नहीं कर सकती. दूसरी तरफ बाबा रामदेव नामक शख्स हैं, जो रामलीला मैदान से खदेड़ा जाना कतई भूले नहीं हैं. चाहे कोई बड़बोले बाबा रामदेव को पसंद करे या ना करे, लेकिन उनकी बात मानने वाले लाखों अनुयायी देश में मौजूद हैं. इसलिए बाबा रामदेव अपने संगठन भारत स्वाभिमानतथा पतंजलि दवाओं के हजारों आऊटलेट के जरिये कभी फुसफुसाते हुए, तो कभी गरजते हुए, कभी डॉक्टर सुब्रह्मण्यम स्वामी के साथ मंच साझा करते हुए काँग्रेस की जड़ों में बखूबी मठ्ठा डाल रहे हैं. उत्तर भारत में निश्चित रूप से बाबा रामदेव कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य छोड़ेंगे. 

अब आते हैं काँग्रेस के सदैव मजबूत गढ़ रहे दक्षिण में. जैसा कि मैंने पहले ही अपने विश्लेषण में बताया कि तेलंगाना और सीमान्ध्र में काँग्रेस को जितनी भी सीटें मिलेंगी वह एक तरह से उसके लिए बोनसही होगा, क्योंकि विश्लेषकों का अनुमान है कि आंध्र-तेलंगाना की संयुक्त 42सीटों में से काँग्रेस को इस बार आठ-दस भी मिल जाएँ तो बहुत है. अतः आंध्रप्रदेश से होने वाली सीटों के नुकसान की भरपाई काँग्रेस को कर्नाटक और महाराष्ट्र से करनी पड़ेगी. महाराष्ट्र में शरद पवार पहले ही काँग्रेस पर आँखें तरेर रहे हैं और मोदी से मुलाक़ात करने की धमकी भर से गठबंधन में उन्होंने पिछले चुनावों जितनी सीटें काँग्रेस से अपने खाते में हथिया ली हैं. महाराष्ट्र में भाजपा ने RPIके अध्यक्ष रामदास आठवले को राज्यसभा में पहुँचाकर पहले ही अपने गठबंधन की रूपरेखा तय कर दी है. सेना-भाजपा-रिपाई का यह गठबंधन पिछले पन्द्रह साल से सत्तारूढ़ काँग्रेस के लिए खासी मुश्किलें खड़ी करने वाला है. हालांकि दिल्ली में केजरीवाल की ही तरह महाराष्ट्र में भी काँग्रेस राज ठाकरे को वोट-कटवाके रूप में तैयार कर रही है, परन्तु आदर्श सोसायटी घोटाले के गहरे दाग तथा अजीत पवार द्वारा बांधों को पेशाब से भरने जैसे फूहड़ बयान उसे निश्चित ही भारी पड़ेंगे.यह कहना मुश्किल है कि आन्ध्र के नुक्सान की भरपाई महाराष्ट्र से आसानी से हो पाएगी. उड़ीसा में बीजद की पकड़ ढीली नहीं हुई है. वह काँग्रेस-भाजपा को इतनी आसानी से पैर जमाने नहीं देगी. इसी प्रकार तमिलनाडु में तो सिर्फ द्रविड़ पार्टियों का ही सिक्का चलता है, दोनों राष्ट्रीय दल इनमें से जीते हुए दल के पिछलग्गू बनकर ही रहते हैं. अब भी यही होगा. किंगमेकर कहलाने का जो सपना फिलहाल मुलायम, मायावती और ममता देख रहे हैं, ठीक वही जयललिता भी देख रही हैं... प्रत्येक दल का सपना है किसी तरह से २५-३० सीटें आ जाएँ तो बात बन जाए. लगभग सभी चुनावी पंडितों का अनुमान है कि 2014में त्रिशंकु सरकार बनेगी. ऐसे में केजरीवाल को भी बीस-पच्चीस सीटों का सपना देखने की पूरी छूट हासिल है. सभी इसी कोशिश में रहेंगे कि जिस तरह NDAकी पहली सरकार को चंद्रबाबू नायडू ने जमकर दुहाथा, वैसा ही उसे भी दुहने को मिल जाए, तो दो-चार पीढियाँ तर जाएँ... लेकिन सभी पार्टियाँ नरेंद्र मोदी के प्रभाव और अदृश्य लहर को भाँपने में फिलहाल असमर्थ पाती हैं. नरेंद्र मोदी अकेले के करिश्मे पर भाजपा को कितनी सीटें दिलवा पाते हैं, इसका अनुमान अभी कोई भी सही-सही नहीं लगा पा रहा. यदि भाजपा का प्रत्याशी चयन अच्छा रहा तो चुनाव परिणाम अप्रत्याशित भी हो सकते हैं. अभी भी आम चुनाव में लगभग दो-तीन माह बचे हैं, नरेंद्र मोदी की सभाओं में उमड़ने वाली भीड़, तथा जनता के बीच बहता हुआ अंडर-करंटअभी और भी बढ़ेगा. नमो टी स्टॉल लगाकर तथा RSSके समर्पित स्वयंसेवकों की फ़ौज अब पूरी तरह से मोदी के पक्ष में अभियान चलाने में जुट गई है. आगामी दो माह में यदि कोई बहुत बड़ी अप्रत्याशित घटना नहीं घटी, या काँग्रेस के पक्ष में सहानुभूति लहरचलने लायक कोई दुर्घटना नहीं हुई, तो काँग्रेस का सफाया तय जानिये. 



यानी समूचे परिदृश्य पर एक बार संक्षिप्त निगाह डालें, तो काँग्रेस के पास अच्छी मात्र में सीटें दिलाने लायक फिलहाल चार-पाँच राज्य ही हैं, हिमाचल, उत्तराखंड, हरियाणा, महाराष्ट्र और कर्नाटक. जबकि पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, यूपी, तमिलनाडु, केरल, कश्मीर, झारखंड जैसे राज्यों में तीसरा मोर्चा के बिखरे हुए खिलाड़ी बाजी मार सकते हैं. सिर्फ इन राज्यों के भरोसे तो केन्द्र में काँग्रेस की सरकार बनेगी नहीं. ज़ाहिर है कि वह भी चाहेगी कि तीसरा मोर्चा अधिक से अधिक सीटें लाए. इसीलिए वह परदे के पीछे से केजरीवाल को हीरो बनाकर उसकी मदद कर रही है, जबकि राज ठाकरे को भी इसी पद्धति से सेना-भाजपा के वोट काटने के लिए हीरो बना रही है. जिस प्रकार हारती हुई सेना वापस जाते-जाते मारकाट, तबाही और लूट मचाते हुए जाती है, उसी प्रकार काँग्रेस भी आने वाली सरकार के लिए विशाल राजकोषीय घाटे और महँगाई के रूप में दो राक्षस छोड़े जा रही है.खाद्यान्न सुरक्षा बिल तथा स्ट्रीट वेंडर बिल वह पास करवा चुकी है क्योंकि कोई भी दल उसका राजनैतिक रूप से विरोध करने की स्थिति में ही नहीं था. जबकि साम्प्रदायिक हिंसा रोकथाम अधिनियम को भी वह सूची में ले आई है, ताकि मुस्लिम वोटरों को लुभाया जा सके. इसके अलावा अल्पसंख्यक कल्याण, राजीव आवास योजना तथा सब्सिडी वाले बारह गैस सिलेंडर करके वह निम्न-माध्यम वर्ग को लुभाने की पूरी तैयारी कर चुकी है, इसमें भले ही देश की अर्थव्यवस्था चौपट ही क्यों ना हो जाए, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता. 

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन द्वारा वर्ष 2009-10 के आंकड़ों के आधारपर जारी की गई रिपोर्ट के अनुसार माध्यमिक स्तर की शिक्षा प्राप्त कर चुकेग्रामीण युवकों में बेरोजगारी दर पांच प्रतिशत और युवतियों में करीब सात प्रतिशतरही। शहरी क्षेत्रों के युवकों में बेरोजगारी दर 5.9 प्रतिशत और महिलाओं में 20.5 प्रतिशत है। अर्थात शहरी क्षेत्रों में युवकों की अपेक्षायुवतियों में बेरोजगारी दर करीब चार गुना अधिक है। शहरी क्षेत्रों के युवकों में बेरोजगारी दर 11 प्रतिशत और युवतियों में 19 प्रतिशत दर्ज की गयी। स्नातक या उससे आगे की पढ़ाई करचुकी युवतियों में बेरोजगारी दर युवकों की बेरोजगारी दर से लगभग दोगुनीहै। ग्रामीण क्षेत्र के स्नातक युवकों में बेरोजगारी दर 16.6 प्रतिशत औरयुवतियों में 30.4 प्रतिशत रही। शहरी क्षेत्रों के ऐसे युवकों में बेरोजगारीदर 13.8 प्रतिशत और युवतियों में 24.7 प्रतिशत दर्ज की गई है। एक मोटे अनुमान के अनुसार आगामी लोकसभा चुनावों में शहरी और ग्रामीण इलाकों में लगभग 35%मतदाता 25वर्ष की आयु से कम वाले होंगे, जबकि लगभग 15-18प्रतिशत मतदाता 25से 40वर्ष की आयु के होंगे. जरा सोचिये, राहुल गाँधी जो तथाकथित युवा नेता हैं, फिर भी देश के युवाओं को आकर्षित नहीं कर पा रहे हैं... उधर देश के युवा जो विज्ञान, उद्योग एवं ज्ञान आधारित कार्यों में तेजी से आगे बढ़ना चाहते हैं, उन्हें नरेंद्र मोदी अपने भाषणों तथा गुजरात मॉडल से लुभाए चले जा रहे हैं. यह विशाल मतदाता वर्ग (इनमें से भी कई युवा पहली बार लोकसभा चुनेंगे) जो बेरोजगारी और देश की हालत से त्रस्त है क्या वह इतनी आसानी से काँग्रेस को बख्श देगा?? 

आम चुनावों को लेकर अभी से विभिन्न संस्थाओं, चैनलों एवं अखबारों ने अपने-अपने स्तर पर चुनाव पूर्व सर्वे आरम्भ कर दिए हैं. सी-वोटर हो या इण्डिया-टुडे हो अथवा जागरण समूह हो, लगभग सभी के चुनाव-पूर्व सर्वे में दिखाया जा रहा है कि काँग्रेस इस बार अपने ऐतिहासिक निम्नतम स्तर अर्थात सौ सीटों से भी नीचे सिमट जाएगी. दिसम्बर में हुए सर्वे के अनुसार विश्लेषक लोग भाजपा को 150सीटें दे रहे थे, लेकिन फरवरी आते-आते दो सर्वे और हुए, जिसमें भाजपा को मिलने वाली सीटों की संख्या 200-210तक आँकी जा रही है. इन सर्वे के नतीजों पर बहसियाने और बकबकाने वाले अधिकाँश तथाकथित बुद्धिजीवी (लेकिन वास्तव में काँग्रेसी प्रवक्ता)भी इन नतीजों से मोटे तौर पर सहमत हैं. इसी से पता चलता है कि देश में काँग्रेस विरोधी एक लहर चल रही है, जनता अब इनसे बुरी तरह उकता चुकी है, और पहला मौका पाते ही यूपीए को सत्ता से उखाड़ फेंकना चाहती है. मई २०१४ में देश का नया गैर-काँग्रेसी प्रधानमंत्री कौन होगा, यह भविष्य के गर्भ में है. 

Narendra Modi - The Magnet for Power and Coalition

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मोदी का जादू – मिल रहे हैं साथी, बढ़ रहा है कारवाँ...


जिस दिन भाजपा ने नरेंद्र मोदी को लोकसभा चुनावों हेतु प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया था, उसी दिन से लगातार तमाम चुनाव विश्लेषक और अकादमिक बुद्धिजीवी इस बात पर कयास लगाते रहे थे कि ऐसा करने से भाजपा अलग-थलग पड़ जाएगी. इन सेक्युलर(?) विश्लेषकों की निगाह में नरेंद्र मोदी अछूत हैं. यही वे बुद्धिजीवी थे जिन्होंने भविष्यवाणी कर दी थी कि भाजपा कभी भी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं करेगी, लेकिन न सिर्फ वैसा हुआ, बल्कि भाजपा ने मोदी को प्रचार समिति की कमान सौंप दी. इसके अलावा जब टिकट वितरण की बारी आई, तब भी कुछेक मामलों को छोड़कर नरेंद्र मोदी को लगभग फ्री-हैंड दिया गया. स्वाभाविक है कि ऐसा होने पर इन चुनाव विश्लेषकों की सिट्टी-पिट्टी गुम होनी ही थी. इसलिए इन्होंने हार ना मानते हुए “मोदी के रहते भाजपा को कोई सहयोगी नहीं मिलेगा” का राग दरबारी शुरू किया. लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि इनके दुर्भाग्य से नरेंद्र मोदी – अमित शाह की जुगलबंदी ने इस राग दरबारी के सारे सुर बिगाड़ने की पूरी तैयारी कर ली है.

      जैसा कि सभी जानते हैं, लोकसभा चुनाव २०१४ में जीत के झंडे गाड़ने के लिए उत्तरप्रदेश और बिहार यह दो राज्य सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं. मोदी-शाह की जोड़ी ने पिछले एक साल से ही इस दिशा में कार्य करना शुरू कर दिया था. जिस दिन मोदी को कमान सौंपी गई, उसी दिन अमित शाह को उत्तरप्रदेश का प्रभारी बनाने का निर्णय हो गया था. हालांकि गुजरात और यूपी-बिहार की स्थानीय राजनीति में जमीन-आसमान का अंतर है, परन्तु फिर भी अमित शाह जैसे व्यक्ति जिसने आज तक दर्जनों चुनाव जीते हों, एक भी चुनाव ना हारा हो तथा बेहद कुशल रणनीतिकार हो... उसे यूपी का प्रभार देने से यह स्पष्ट हो गया कि वे नरेंद्र मोदी के सबसे विश्वसनीय व्यक्ति हैं. नरेंद्र मोदी ने जब बिहार पर अपना ध्यान केन्द्रित किया तब किसी ने सोचा भी नहीं था कि रामविलास पासवान भाजपा का दामन थाम लेंगे, परन्तु ऐसा हुआ. भले ही विश्लेषकों को इस समय यह लग रहा हो कि भाजपा ने पासवान को सात और कुशवाहा को तीन सीटें देकर अपना नुक्सान कर लिया, लेकिन वास्तव में इसे नरेंद्र मोदी का “मास्टर स्ट्रोक” ही कहा जाएगा. रामविलास पासवान के भाजपा के साथ आने से दो फायदे हुए हैं. पहला तो यह कि “नरेंद्र मोदी अछूत हैं”, “उनकी साम्प्रदायिक छवि के कारण कोई उनके साथ नहीं जाएगा”, जैसे मिथक भरभराकर टूटे. पासवान के इस कदम से नीतीश कुमार, जिन्हें भाजपा चुनाव से पहले गठबंधन तोड़कर “जोर का झटका धीरे से” दे चुकी थी, उन्हें एक और झटका लगा. मोदी के इस मास्टर स्ट्रोक का सुनामी जैसा असर कांग्रेस-लालू गठबंधन पर पड़ा. कांग्रेस-लालू-पासवान की तिकड़ी यदि समय रहते अपने मतभेद भुलाकर किसी समझौते पर पहुँच जाती तो यह भाजपा के लिए बहुत नुकसानदेह होता. इन तीनों के वोट प्रतिशत एवं जातिगत गणित तथा नीतीश कुमार के अति-पिछड़े एवं महा-दलित कार्ड का मुकाबला भाजपा सिर्फ नरेंद्र मोदी की छवि और नीतीश के कुशासन से नहीं कर सकती थी. इसीलिए नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने परदे के पीछे से रामविलास पासवान को लुभाने की कोशिशें जारी रखीं और इसमें सफलता भी मिली. असल में नीतीश कुमार का दांव यह था कि वे भाजपा को दूर करके मुस्लिम वोटरों तथा महादलित-अतिपिछडे के गणित के सहारे वैतरणी पार करना चाहते थे. परन्तु रामविलास पासवान के भाजपा के साथ आने से जहां एक तरफ कांग्रेस-लालू खेमे में हड़कम्प मचा, वहीं दूसरी और नीतीश के खेमे का गणित भी छिन्न-भिन्न हो गया और मजबूरी में नीतीश को “बिहार स्पेशल पॅकेज” और “बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दो” जैसी राजनीति पर उतरना पड़ा. अब बिहार में स्थिति यह है कि भाजपा-पासवान-कुशवाहा गठबंधन की 29-7-3सीटों पर पासवान-कुशवाहा के वोट भाजपा को ट्रांसफर होंगे, जबकि बाकी का काम नीतीश सरकार से नाराजी और नरेंद्र मोदी की छवि और धुंआधार रैलियों से पूरा हो जाएगा.

      इसी से मिलता-जुलता काम मोदी-शाह की जोड़ी ने यूपी में भी किया. अपने हिन्दू धर्म विरोधी बयानों एवं धर्मांतरण के समर्थक विचार रखने वाले दलित नेता उदित राज को भाजपा के झंडे तले लाकर उन्हें दिल्ली से टिकट देने का भी महत्त्वपूर्ण कार्य किया गया. ज्ञातव्य है कि दलितों के एक बड़े वर्ग में उदित राज की छवि एक पढ़े-लिखे सुलझे अधिकारी एवं विचारक की है. हालांकि उदित राज को भाजपा में लाने पर भाजपा के कई वर्गों एवं संस्थाओं में बेचैनी महसूस की गई, लेकिन चुनावी राजनीति की दृष्टि से तथा विभिन्न चैनलों पर बहस-मुबाहिसे तथा लेखों की कीमत पर  देखा जाए तो उदित राज भाजपा के लिए फायदे का सौदा ही साबित होंगे. हालांकि उदित राज की हस्ती इतनी बड़ी भी नहीं है कि वे मायावती को चुनौती दे सकें या उनके स्थानापन्न बन सकें, परन्तु उदित राज के साथ आने से भाजपा की जो परम्परागत “ब्राह्मण-बनिया पार्टी” वाली छवि थी उसमें थोड़ी दलित चमक आई, तथा विपक्षी हमलों की धार भोथरी हुई है. दिल्ली की सुरक्षित सीट पर उदित राज, कृष्णा तीरथ एवं राखी बिडालान का मुकाबला करेंगे तो स्वाभाविक है कि उसकी आतंरिक आंच यूपी की कुछ सीटों पर अपना प्रभाव जरूर छोड़ेगी. मोदी का दलित कार्ड और गठबंधन सहयोगी बढ़ाओ अभियान यहीं तक सीमित नहीं रहा, वह महाराष्ट्र में भी जा पहुंचा. रिपाई (रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इण्डिया) के रामदास आठवले को भाजपा ने अपनी मदद से राज्यसभा में पहुंचाया और उनसे गठबंधन कर लिया, इस तरह महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना-रिपाई का एक मजबूत ढांचा तैयार हो चूका है. चूंकि राज ठाकरे भी मोदी लहर से अछूते नहीं रह सकते थे, इसीलिए उन्होंने चुनावों से पहले ही घोषित कर दिया है कि वे चुनावों के बाद मोदी का समर्थन करेंगे. अलबत्ता जिस तरह से शरद पवार लगातार शिवसेना में सेंधमारी कर रहे हैं, उसे देखते हुए लगता है कि 2019के आम चुनाव आते-आते महाराष्ट्र में भाजपा बगैर गठबंधन के ही और भी मजबूत होकर उभरेगी. बहरहाल... यूपी में मोदी-शाह की जोड़ी तथा संघ के पूर्ण समर्थन से एक और बड़ा मास्टर स्ट्रोक खेला गया, और वह है नरेंद्र मोदी को वाराणसी सीट से चुनाव लड़वाना. कुछ मित्रों को याद होगा कि मैंने गत वर्ष ही एक लेख में यह लिख दिया था कि यूपी-बिहार में अपने जीवन का सबसे बड़ा दांव खेलने जा रहे नरेंद्र मोदी को लखनऊ अथवा बनारस से चुनाव लड़ना चाहिए. बहरहाल इस मुद्दे पर चर्चा थोड़ी देर बाद... पहले दक्षिण की तरफ चलते हैं...

      तेलंगाना के निर्माण के पश्चात उसका क्रेडिट लेने के लिए बेताब कांग्रेस को सबसे पहला तगड़ा झटका टीआरएस ने ही दे दिया. कांग्रेस यह मानकर चल रही थी कि टीआरएस-कांग्रेस का गठबंधन हो गया तो कम से कम तेलंगाना में उसकी इज्जत बची रहेगी. लेकिन यहाँ चंद्रशेखर राव ने कांग्रेस को ठेंगा दिखा दिया है और वे अकेले ही चुनाव लड़ेंगे. राव ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि आम चुनावों के परिणामों के बाद हे वे अपनी अगली रणनीति तय करेंगे. ज़ाहिर है कि यदि नरेंद्र मोदी अकेले दम पर 225से अधिक सीटें ले आते हैं तो चंद्रशेखर राव को विशेष पॅकेज के नाम पर NDAमें खींच लाना कतई मुश्किल नहीं होगा. उधर सीमान्ध्र और रायलसीमा में कांग्रेस की दूकान तो पहले ही लगभग बंद हो चुकी है. मुख्यमंत्री किरण कुमार ने अपनी नई क्षेत्रीय पार्टी बना ली है, जबकि चंद्रबाबू नायडू दो बार नरेंद्र मोदी के साथ मंच पर आ चुके हैं और उनकी आपसी सहमति एवं समझबूझ काफी विकसित हो चुकी है. इसके अलावा चिरंजीवी के भाई कमल की नई पार्टी भले ही कुछ ख़ास न कर पाए, लेकिन कांग्रेस के ताबूत में कीलें ठोंकने का काम बखूबी करेगी. अर्थात जो आँध्रप्रदेश यूपीए-२ के गठन में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था, वहीं पर कांग्रेस अनाथ की स्थिति में पहुँच चुकी है. फिलहाल नए राज्य की खुमारी में तेलंगाना की सभी सीटों पर TRSके जीतने के पूरे आसार हैं, जबकि सीमान्ध्र में कांग्रेस दो-तीन सीटें भी ले आए तो बहुत है. अर्थात वहां पर भाजपा के पास खोने के लिए कुछ नहीं है. इसीलिए नरेंद्र मोदी ने चंद्रशेखर राव और चंद्रबाबू नायडू दोनों को बराबरी का महत्त्व दे रखा है. दोनों में से जो भी अधिक सीटें लाएगा उसे “स्पेशल पॅकेज” मिलेगा और NDAमें जगह भी. तमिलनाडु में भी भाजपा ने पहली बार तीन क्षेत्रीय दलों को साथ मिलाने में सफलता हासिल कर ली है. प्रख्यात अभिनेता विजयकांत की MDMKपार्टी सबसे बड़ी भागीदार रहेगी, इसके अलावा पीएमके को भी उचित स्थान मिला है. जयललिता और करूणानिधि के सामने यह गठबंधन कुछ ख़ास कर पाएगा, इसकी उम्मीद बहुत लोगों को नहीं है. परन्तु यह गठबंधन तमिलनाडु में कई सीटों पर “खेल बिगाड़ने” की स्थिति में जरूर रहेगा. यदि टूजी घोटाले की वजह से तमिल जनता का नज़ला करूणानिधि-राजा-कनिमोझी पर गिरा तो इस गठबंधन को चालीस में से चार-पांच सीटें जरूर मिल सकती हैं. साथ ही उत्साहजनक बात यह भी है कि जयललिता कह चुकी हैं कि वे यूपीए-३  की बजाय नरेंद्र मोदी को प्राथमिकता देंगी. कर्नाटक में येद्दियुरप्पा के आने के पश्चात भाजपा को किसी गठबंधन की जरूरत नहीं है, और केरल, जहाँ पार्टी ने अकेले लड़ने का फैसला किया है, वहां भी वह कांग्रेस-मुस्लिम लीग अथवा वाम गठबंधन में से किसी एक का खेल बिगाड़ने की स्थिति में रहेगी.

      जो विश्लेषक और बुद्धिजीवी नरेंद्र मोदी की वजह से भाजपा को अछूत मानने या अस्पृश्य सिद्ध करने पर तुले हुए थे, वे यह देखकर आश्चर्यचकित हैं कि ऐसा कैसे हो रहा है? और क्यों हो रहा है? इसका सीधा सा जवाब यही है कि राजनीति का कच्चे से कच्चा जानकार भी बता सकता है कि कांग्रेस संभवतः 100सीटों के आसपास सिमट जाएगी, जबकि NDTVजैसे धुर भाजपा विरोधी चैनल भी अपने सर्वे में भाजपा को 225सीटें दे रहे हैं, तो स्वाभाविक है कि बहती हुई हवा के लपेटे में सारे नए और बेहद छोटे क्षेत्रीय दल नरेंद्र मोदी के साथ जुड़ते चले जा रहे हैं. बड़े क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन करने के अपने नुकसान होते हैं. उदाहरणार्थ जयललिता-ममता-पटनायक जैसी पार्टियों के साथ यदि चुनाव पूर्व या चुनाव बाद का गठबंधन किया जाए तो इनकी शर्तें और नखरे इतने अधिक होते हैं कि ये लोग नाक में दम कर देते हैं. बेचारे वाजपेयी जी ऐसे ही लालची क्षेत्रीय दलों की वजह से अपने दोनों घुटने कमज़ोर करवा बैठे थे, लेकिन इनकी मांगें लगातार बढ़ती ही जातीं. नरेंद्र मोदी इस स्थिति से अच्छी तरह वाकिफ हैं, इसीलिए वे छोटे-छोटे दलों गठबंधन कर रहे हैं. इसके अलावा ऐसे-ऐसे लोगों को (उदाहरणार्थ – सतपाल महाराज, जगदम्बिका पाल, उदित राज इत्यादि) भाजपा में प्रवेश दे रहे हैं अथवा सीट शेयरिंग कर रहे हैं, जिनके बारे में कभी सोचा भी नहीं गया था.सेकुलरिज़्म की रतौंधी से युक्त पुरोधाओं को जम्मू-कश्मीर से भी तगड़ा झटका लगा है, मुफ्ती मोहम्मद सईद ने भी कह दिया है कि कश्मीर की समस्याओं के बारे में UPAकी बजायNDAकी सरकार में अधिक समझ थी. अर्थात वे अभी से अगली NDAसरकार में अपनी खिड़कीखुली रखना चाहते हैं. ज़ाहिर है कि नरेंद्र मोदी की बहती हवा और NDAसरकार बनने की सर्वाधिक संभावना देखते हुए बहुत सारी पार्टियाँ और ढेर सारे नेता अब जाकर धीरे-धीरे नरेंद्र मोदी के खिलाफ कोई अत्यधिक कड़वी बात कहने से बच रहे हैं. सभी को दिखाई दे रहा है कि अगली सरकार बगैर नरेंद्र मोदी की मर्जी के बगैर बनने वाली नहीं है. कहीं भाजपा 250सीटें पार कर गई तब तो उसे किसी भी ब्लैकमेलरकी जरूरत नहीं पड़ेगी. परन्तु यदि जैसा कि भाजपा के कुछ भितरघाती तथा तीसरे मोर्चे(???) के कुछ अवसरवादी अपनी यह इच्छा बलवती बनाए हुए हैं कि किसी भी तरह से काँग्रेस को सौ सीटों के आसपास तथा भाजपा को 200सीटों के आसपास रोक लिया जाए तो पाँच साल के लिए उन लोगों की चारों उँगलियाँ घी में, सिर कढाई में और पाँव मखमल पर आ जाएँगे. स्वाभाविक है कि गुजरात में अपनी शर्तों पर बारह साल तक सत्ता चलाने वाले नरेंद्र मोदी इतने बेवकूफ तो नहीं हैं, कि वे इन बैंगनों-लोटोंतथा सामने से मुस्कुराकर पीठ में खंजर घोंपने को आतुर लोगों की घटिया चालें समझ ना सकें.

      अब हम आते हैं नरेंद्र मोदी और भाजपा की सबसे महत्त्वपूर्ण रणभूमि अर्थात यूपी-बिहार की तरफ. अगले प्रधानमंत्री का रास्ता यहीं से होकर गुजरने वाला है. यह बात नरेंद्र मोदी और संघ-भाजपा सभी जानते हैं, इसीलिए जैसा कि मैंने ऊपर लिखा, बनारस से नरेंद्र मोदी को लड़वाने का फैसला एक मास्टर स्ट्रोक साबित होने वाला है. सामान्यतः सेकुलर सोच वाले बुद्धिजीवियों ने सोचा था कि नरेंद्र मोदी गुजरात की किसी भी सुरक्षित सीट से चुनाव लड़ेंगे, परन्तु सभी को गलत साबित करते हुए नरेंद्र मोदी ने लखनऊ भी नहीं, सीधे वाराणसी को चुना. वाराणसी सीट का अपना एक अलग महत्त्व है, ना सिर्फ राजनैतिक, बल्कि रणनीतिक और धार्मिक भी. काशी से नरेंद्र मोदी के खड़े होने का जो “प्रतीकात्मक” महत्त्व है वह भाजपा कार्यकर्ताओं के मन में गुदगुदी पैदा करने वाला तथा यूपी-बिहार में घुसे बैठे जेहादियों के दिल में सुरसुरी पैदा करने वाला है. यहाँ के प्रसिद्द संकटमोचन मंदिर में हुए बम विस्फोट की यादें अभी लोगों के दिलों में ताज़ा हैं, साथ ही काशी विश्वनाथ मंदिर अपने-आप में एक विराट हिन्दू “आईकॉन” है ही. धार्मिक मुद्दे फिलहाल इस चुनाव में इतने हावी नहीं हैं, परन्तु वाराणसी सीट का राजनैतिक महत्त्व बहुत ज्यादा है. बिहार और पूर्वांचल की सीमा के पास स्थित होने के कारण नरेंद्र मोदी के यहाँ से लड़ने का फायदा पूर्वांचल की लगभग तीस सीटों पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से पड़ेगा. पिछले चुनावों में भाजपा इस इलाके में बहुत कमजोर साबित हुई थी. नरेंद्र मोदी की उपस्थिति से कार्यकर्ताओं का मनोबल भी उछाल मार रहा है. विरोधियों में कैसा हडकंप मचा हुआ है, यह इसी बात से साबित हो जाता है कि इसी घोषणा के बाद मुलायम सिंह को भी अपनी रणनीति बदलते हुए मैनपुरी के साथ-साथ आजमगढ़ से चुनाव लड़ने की घोषणा करनी पड़ी. मुलायम के आजमगढ़ से मैदान में उतरने का फायदा जहाँ एक तरफ सपा के यादव-मुस्लिम वोट बैंक को हो सकता है, वहीं उनके लिए खतरा यह भी है कि आजमगढ़ की विशिष्टछविके कारण पूर्वांचल में धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण की संभावनाएं भी बढ़ जाएँगी, जो मोदी-भाजपा के लिए फायदे का सौदा ही होंगी. उधर लालू भी अपने सदाबहार अंदाज़ में “साम्प्रदायिक शक्तियों(???) को रोकने के नाम पर ताल ठोंकने लगे हैं. जबकि अनुमान यह लगाया जा रहा है कि बिहार में लालू की पार्टी इन चुनावों में तीसरे स्थान पर रह सकती है. नरेन्द्र मोदी के वाराणसी में उतरने के कारण बहुतों की योजनाएं गड़बड़ा गई हैं, सभी को उसी के अनुसार फेरबदल करना पड़ रहा है. परन्तु इतना तो तय है कि यूपी-बिहार 120सीटों में से यदि भाजपा साठ सीटें नहीं जीत पाई, तो उसके लिए दिल्ली का रास्ता मुश्किल सिद्ध होगा. इसीलिए नरेंद्र मोदी ने हिम्मत दिखाते हुए बनारस से लड़ने का फैसला किया है, जबकि यहाँ से मुरलीमनोहर जोशी पिछला चुनाव बमुश्किल 17,000वोटों से ही जीत सके थे. लेकिन यह जुआ खेलना बहुत जरूरी था, क्योंकि वाराणसी से मोदी की जीत भविष्य में बहुत से सेकुलरों-बुद्धिजीवियों और विश्लेषकों का मुँह सदा के लिए बंद कर देगी.

क्रिकेट की भाषा में अक्सर भाजपा को दक्षिण अफ्रीकाकी टीम कहा जाता है, जो बड़े ही दमदार तरीके से जीतते हुए फाईनल तक तो पहुँचती है, परन्तु फाईनल में आकर उसे पता नहीं क्या हो जाता है और उसके खिलाड़ी अचानक खराब खेलकर टीम हार जाती है. कुछ-कुछ ऐसा ही इस आम चुनाव में भी हो रहा है. चार विधानसभा में तीन में सुपर-डुपर जीत तथा दिल्ली में सबसे बड़ी पार्टी बनने के बाद एवं नरेंद्र मोदी की लगातार जारी धुँआधार रैलियों और काँग्रेस पर हमले की वजह से आज भाजपा फ्रंट-रनरके रूप में सामने है, लेकिन टीम के कुछ गरिष्ठ खिलाड़ियोंको  कैप्टन के निर्णय पसंद नहीं आ रहे हैं. कुछ खिलाड़ी सीधे सामने आकर, जबकि कुछ खिलाड़ी परदे के पीछे से लगातार इस कोशिश में लगे हुए हैं कि किसी भी तरह फाईनल में यह टीम 200रनके आसपास ही उलझकर रह जाए, ताकि मैच के अंतिम ओवरों में विपक्षी टीम के कुछ अन्य खिलाड़ियोंके साथ मिलकर मैच फिक्सिंग करते हुए जीत की वाहवाही भी लूटी जा सके.

नरेंद्र मोदी इस बात को समझते हैं कि विरोधी खेमे में भगदड़ का फायदा उठाने वाली इस रणनीति का सिर्फ तात्कालिक फायदा है, और वह है किसी भी सूरत में भाजपा (एवं NDA) को 272+तक ले जाना. यदि उत्तर-पश्चिम भारत में मोदी का जादू मतदाताओं के सर चढ़कर बोला और अकेले भाजपा अपने दम पर 225-235तक भी ले आती है, तो निश्चित जानिये कि ढेर सारे “थाली के बैंगन” और “बिन पेंदे के लोटे” तैयार बैठे मिलेंगे, जो मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए खुद अपनी तरफ से जी-जान लगा देंगे, आखिर सत्ता ही सबसे बड़ी मित्र होती है, और वक्त की दीवार पर साफ़-साफ़ लिखा है कि नरेंद्र मोदी सत्ता में आ रहे हैं. गुजरात दंगों को लेकर पिछले बारह साल से जो गाल-बजाईचल रही थी, उसका अंत होने ही वाला है. जिस तरह सेकुलर गिरोहने 1996में वाजपेयी को अछूत बनाकर घृणित चाल चली थी, ठीक उसी प्रकार या कहें कि उससे भी अधिक घृणित चालें चलकर मुस्लिमों को डराकर, सेकुलरिज़्म के नाम पर मीडिया और NGOsकी गैंग की मदद से नरेंद्र मोदी को लगातार राजनैतिक अछूतबनाने की असफल कोशिश की गई. इस अभियान में नीतीश कुमार से लेकर दिग्विजयसिंह सभी ने अपनी-अपनी आहुतियाँ डालीं लेकिन नरेंद्र मोदी शायद किसी और ही मिट्टी के बने हुए हैं, डटकर अकेले मुकाबला करते रहे और अब जीत उनके करीब है. महाभारत वाला अभिमन्यु तो बहादुरी से लड़ते हुए चक्रव्यूह में मारा गया था, लेकिन नरेंद्र मोदी नामक यह आधुनिक अभिमन्यु इस कुटिल चक्रव्यूहको तोड़कर न सिर्फ बाहर निकल आया है, बल्कि अब तो सभी कथित महारथियों को धूल चटाते हुए हस्तिनापुर पर शासन भी करेगा.

Narendra Modi Magic :Mandal, Mandir and Marketing Combination

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मोदी का मैजिक– भगवा क्रान्ति, जो सिर चढ़कर बोले...

सत्तर के दशक में भारतीय फिल्मों के दर्शक राजेश खन्ना के आँखें मटकाने वाले रोमांस, देव आनंद के झटके खाते संवादों से लगभग ऊब चले थे. उसी दौरान भारत में इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में जो काँग्रेस सरकार चल रही थी, उसके कारनामों से भी आम जनता बेहद परेशान, त्रस्त, बदहाल और हताश हो चुकी थी. ठीक उसी समय रुपहले परदे पर अमिताभ बच्चन नामक एंग्री-यंगमैन का प्रादुर्भाव हुआ जो युवा वर्ग के गुस्से, निराशा और आक्रोश का प्रतीक बना. थाने में रखी कुर्सी को अपनी बपौती समझने वाले शेर खान के सामने ही गरजकर उस कुर्सी को लात मारकर गिराने वाले इस महानायक का भारत की जनता ने जैसा स्वागत किया, वह आज तक न सिर्फ अभूतपूर्व है, बल्कि आज भी जारी है. जी हाँ, आप बिलकुल सही समझे... सभी पाठकों के समक्ष अमिताभ बच्चन का यह उदाहरण रखने का तात्पर्य लोकसभा चुनाव 2014के हालात और नरेंद्र मोदी की जीत से तुलना करना ही है.


विगत दस वर्ष में यूपीए-१ एवं यूपीए-२ के कार्यकाल में देश का बेरोजगार युवा, व्यापारी वर्ग, ईमानदार नौकरशाह, मजदूर तथा किसान जिस तीव्रता से निराशा और उदासीनता के गर्त में जा रहे थे, उसकी मिसाल विगत शताब्दी के राजनैतिक इतिहास में मिलना मुश्किल है. लूट, भ्रष्टाचार, कुशासन, मंत्रियों की अनुशासनहीनता, काँग्रेस की मनमानी इत्यादि बातों ने इस देश के भीतर गुस्से की एक अनाम, अबूझ लहर पैदा कर दी थी. फिर इस परिदृश्य पर आगमन हुआ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्रभाई दामोदरदास मोदी का... और इस व्यक्ति ने अपने ओजस्वी भाषणों, अपनी योजनाओं, अपने सपनों, अपने नारों, अपनी मुद्राओं से जनमानस में जो लहर पैदा की, उसकी तुलना अमिताभ बच्चन के प्रति निराश-हताश युवाओं दीवानगी से की जा सकती है.काँग्रेस से बुरी तरह क्रोधित और निराश भारत की जनता ने नरेंद्र मोदी में उसी अमिताभ बच्चन की छवि देखी और नरेंद्र मोदी ने भी इस गुस्से को भाँपने में कतई गलती नहीं की.

भारत के इतिहास में इस आम चुनाव से पहले कोई चुनाव ऐसा नहीं था, जिसके परिणामों को लेकर जनमानस में इतनी अधिक उत्सुकता रही हो. क्योंकि इन चुनावों में जहाँ एक तरफ काँग्रेसी कुशासन एवं यूपीए घटक दलों की महालूट के खिलाफ खड़ा युवा एवं मध्यमवर्ग था... वहीं दूसरी तरफ पिछले दस वर्ष में मनरेगा, खाद्य सुरक्षा, शिक्षा का अधिकार जैसे कानूनों द्वारा अल्प लाभान्वित लेकिन अधिकाँशतः बरगलाया हुआ निम्न वर्ग था. परिणामों वाले दिन अर्थात 16मई की सुबह से ही वातावरण में सनसनी थी. चौराहों-गाँवों-शॉपिंग मॉल्स-चाय की दुकानों पर चहुँओर सिर्फ इसी बात की उत्सुकता थी कि भाजपा को कितनी सीटें मिलती हैं? काँग्रेस की विदाई का विश्वास तो सभी को था, परन्तु साथ ही मन में एक आशंका भी थी कि कहीं देश पुनः 1996-1998वाली खिचड़ीऔर भानुमती के कुनबेजैसी तीसरा मोर्चा सरकारों के युग में न जा धँसे. कहीं नरेंद्र मोदी को 272से कम सीटें मिलीं तो क्या वे खुले हाथ से काम कर सकेंगे या जयललिता-माया और ममता वाजपेयी सरकार की तरह ही नरेंद्र मोदी को ब्लैकमेल करने में कामयाब हो जाएँगी? तमाम आशंकाएँ, कुशंकाएँ, भय निर्मूल सिद्ध हुए और NDAको 334सीटें मिलीं जिसमें भाजपा को अकेले ही 284सीटें मिल गईं.


16मई 2014की सुबह नौ बजे के आसपास टीवी स्क्रीन पर जो पहला चुनाव परिणाम झलका, वह था कि पश्चिमी उप्र की बागपत सीट से चौधरी अजित सिंह को मुम्बई के पुलिस कमिश्नर सत्यपाल सिंह ने पराजित कर दिया है. जाट बहुल बेल्ट में, एक पूर्व प्रधानमंत्री के बेटे और केन्द्रीय मंत्री अजित सिंह अपने-आप में एक बड़ी हस्ती हैं. नौकरी छोड़कर राजनीति में कदम रख रहे मुम्बई पुलिस कमिश्नर, जिन्हें चुनावी छक्के-पंजे मालूम नहीं, पहली बार चुनाव लड़ रहे हों, अजित सिंह की परम्परागत सीट पर चुनौती दे रहे हों... इसके बावजूद वे जीत जाएँ, यह टीवी देख रहे राजनैतिक पंडितों और विश्लेषकों के लिए बेहद चौंकाने वाला था. उसी समय लग गया था, कि यूपी में कुछ ऐतिहासिक होने जा रहा है.

और वैसा ही हुआ... दोपहर के तीन बजते-बजते यूपी के चुनाव परिणामों ने दिल्ली में काँग्रेस और गाँधी परिवार को झकझोरना आरम्भ कर दिया. भाजपा की बम्पर 71सीटें, जबकि मुलायम सिंह सिर्फ अपने परिवार की पाँच सीटें तथा सोनिया-राहुल अपनी-अपनी सीटें बचाने में ही कामयाब रहे. सबसे अधिक भूकम्पकारी परिणाम रहा बहुजन समाज पार्टी का. जाति से बुरी तरह ग्रस्त यूपी में मायावती की बसपा अपना खाता भी न खोल सके, यह बात पचाने में बहुत लोगों को काफी समय लगा. इसी प्रकार जैसे-जैसे यूपी के परिणाम आते गए यह स्पष्ट होता गया, कि इस बार यूपी में एक भी मुस्लिम प्रतिनिधि चुनकर नहीं आने वाला. हालांकि भाजपा के कट्टर से कट्टर समर्थक ने भी यूपी में 71सीटों का अनुमान या आकलन नहीं किया था. लेकिन यह जादू हुआ और नमोके इस जादू की झलक पूर्वांचल तथा बिहार की उन सीटों पर भी दिखाई दी, जो बनारस के आसपास थीं.



आखिर यूपी-बिहार में ऐसी कौन सी लहर चली कि 120सीटों में से NDAको 100से अधिक सीटें मिल गईं. बड़े-बड़े दिग्गज धूल चाटते नज़र आए. न ही जाति चली और ना ही सेकुलर धर्मचला, न कोई चालबाजी चली और ना ही EVMमशीनों की हेराफेरी या बूथ लूटना काम आया. यह नमोलहर थी या नमोसुनामी थी? गहराई से विश्लेषण करने पर दिखाई देता है कि जहाँ एक तरफ मुज़फ्फरनगर के दंगों में सपा की विफलता, मीडिया तथा काँग्रेस द्वारा जानबूझकर हिन्दू-मुस्लिम के बीच खाई पैदा करने की कोशिश, भाजपा के विधायकों पर मुक़दमे तथा बसपा और सपा के विधायकों को वरदहस्त प्रदान करने से पश्चिमी उप्र में जमकर ध्रुवीकरण हुआ. संगठन में जान फूंकने में माहिर तथा कुशल रणनीतिकार अमित शाह की उपस्थिति ने इसमें घी डाला, तथा बनारस सीट से नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी ने यूपी में जमकर ध्रुवीकरण कर दिया.रही-सही कसर बोटी काटने वाले इमरान मसूद, बेनीप्रसाद वर्मा, नरेश अग्रवाल, राशिद अल्वी जैसे कई नेताओं ने खुलेआम नरेंद्र मोदी के खिलाफ अपशब्द कहे, जिस तरह उनकी खिल्ली उड़ाई... उससे महँगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त हो चुकी जनता और भी नाराज हो गई. जनता ने देखा-सोचा और समझा कि आखिर अकेले नरेंद्र मोदी के खिलाफ पिछले बारह साल से केन्द्र सरकार तथा अन्य सभी पार्टियों के नेता किस कारण आलोचना से भरे हुए हैं. कसाई, रावण, मौत का सौदागर, भस्मासुरजैसी निम्न श्रेणी की उपमाओं के साथ-साथ मोदी को गुजरात से बाहर जानता कौन है?, भारत की जनता कभी साम्प्रदायिक व्यक्ति को स्वीकार नहीं करेगी, अडानी-अंबानी का आदमी है, अगर ये आदमी किसी तरह 200सीटें ले भी आया, तो सुषमा-राजनाथ इसे कभी प्रधानमंत्री बनने नहीं देंगे, दूसरे दलों का समर्थन कहाँ से लाएगा?जैसी ऊलजलूल बयानबाजियां तो जारी थी हीं, लेकिन इससे भी पहले नरेंद्र मोदी के पीछे लगातार कभी CBI ,कभी इशरत जहाँ,कभी सोहराबुद्दीन मुठभेड़, कभी बाबू बजरंगी- माया कोडनानी, अशोक भट्ट, डीडी वंजारा, बाबूभाई बोखीरिया, महिला जासूसी कांड जैसे अनगिनत झूठे मामले लगातार चलाए गए… मीडिया तो शुरू से काँग्रेस के शिकंजे में था ही. इनके अलावा ढेर सारे NGOsकी गैंग, जिनमें तीस्ता जावेद सीतलवाड़, शबनम हाशमी सहित तहलका के आशीष खेतान और तरुण तेजपाल जैसे लोग शामिल थे.. सबके सब दिन-रात चौबीस घंटे नरेंद्र मोदी के पीछे पड़े रहे, जनता चुपचाप सब देख रही थी.लेकिन नरेंद्र मोदी जिस मिट्टी के बने हैं और जैसी राजनीति वे करते आए हैं, उनका कोई भी कुछ बिगाड़ नहीं पाया, और यही काँग्रेस की ईर्ष्या और जलन की सबसे बड़ी वजह भी रही.

दूसरी तरफ यूपी-बिहार की अपनी तमाम जनसभाओं में नरेंद्र मोदी ने अक्सर विकास को लेकर बातें कीं. बिजली कितने घंटे आती है? गाँव में सड़क कब से नहीं बनी है? ग्रामीण युवा रोजगार तलाशने के लिए मुम्बई, पंजाब और गुजरात क्यों जाते हैं? जैसी कई बातों से नरेंद्र मोदी ने जातिवाद से ग्रस्त इस राज्य की ग्रामीण और शहरी जनता के साथ तादात्म्य स्थापित कर लिया. इसी कारण मोदी की तूफानी सभाओं के बाद सपा-बसपा-काँग्रेस-जदयू के प्रत्याशियों को अपने इलाके में इस बात की सफाई देना मुश्किल हो रहा था, कि आखिर पिछले बीस-पच्चीस साल के शासन और उससे पहले काँग्रेस के शासन के बावजूद गन्ना उत्पादक, चूड़ी कारीगर, पीतल कारीगर, बनारस के जुलाहे सभी आर्थिक रूप से विपन्न और परेशान क्यों हैं? बचा-खुचा काम दिल्ली-गुजरात-मप्र से गए भाजपा कार्यकर्ताओं ने पूरा कर दिया, गाँव-गाँव घूम-घूमकर उन्होंने लोगों के मन में यह सवाल गहरे रोप दिया कि जब गुजरात में चौबीस घंटे बिजली आती है तो यूपी-बिहार में क्यों नहीं आती? आखिर इस राज्य में क्या कमी है? धीरे-धीरे लगातार दो-तीन माह के सघन प्रचार अभियान, तगड़ी मार्केटिंग और अमित शाह, संघ-विहिप कार्यकर्ताओं तथा सोशल मीडिया के हवाई हमलों के कारण यूपी-बिहार की जनता को समझ में आ गया कि देश को एक मजबूर और कमज़ोर नहीं बल्कि मजबूत और निर्णायक प्रधानमंत्री चाहिए. हालांकि ऐसा भी नहीं कि नरेंद्र मोदी ने काँग्रेस और विपक्षी दलों की चालबाजी का समुचित जवाब नहीं दिया हो. शठे शाठ्यं समाचरेतकी नीति अपनाते हुए मोदी ने भी फैजाबाद की आमसभा में मंच के पीछे प्रस्तावित राम मंदिर का फोटो लगाकर उन्होंने कईयों की नींद हराम की. जबकि अमेठी-रायबरेलीमें बैठकर मीडियाई हवाई हमले करने वाली प्रियंका गाँधी ने जैसे ही नीच राजनीतिशब्द का उच्चारण किया, नरेंद्र मोदी ने तत्काल इस शब्द को पकड़ लिया और नीचशब्द को लेकर जैसे शाब्दिक हमले किए, खुद को नीच जातिका प्रोजेक्ट करते हुए चुनाव के अंतिम दौर में यूपी में सहानुभूति बटोरी वह काँग्रेसी शैली में मुंहतोड़ जवाब देने का अदभुत उदाहरण था. असम और पश्चिम बंगाल में अवैध बांग्लादेशियों का मुद्दा जोरशोर से उठाकर उन्होंने तरुण गोगोई और ममता बनर्जी को ख़ासा परेशान किया. इस मुहिम का फायदा भी उन्हें मिला और असम में भाजपा को ऐतिहासिक जीत मिली. जबकि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी समझ गईं कि अगले विधानसभा चुनावों में वाम दलों की बजाय भाजपा भी उसकी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी बनने जा रही है, और इसीलिए ममता ने नरेंद्र मोदी के खिलाफ लगातार अपने मुँह का मोर्चा खोले रखा. हालांकि इसके बावजूद वे आसनसोल से बाबुल सुप्रियो को जीतने से रोक न सकीं.


तमिलनाडु, सीमान्ध्र, तेलंगाना, उड़ीसा, अरुणाचल एवं कश्मीर-लद्दाख जैसे नए-नए क्षेत्रों में भाजपा को पैर पसारने में नरेंद्र मोदी के तूफानी दौरों ने काफी मदद की. मात्र दस माह में लाईव और 3-Dकी मिलाकर 3800से अधिक रैलियाँ करते हुए नरेंद्र मोदी ने समूचे भारत को मथ डाला. असाधारण ऊर्जा और परिश्रम का प्रदर्शन करते हुए उन्होंने नौजवानों को मात दी और एक तरह से अकेले ही भाजपा का पूरा चुनावी अभियान कारपोरेट स्टाईल में चलाया.नतीजा भाजपा का अब तक का सर्वोच्च बिंदु, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक प्रचारक पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ दिल्ली के तख़्त पर काबिज हुआ. पहले स्वयंसेवक अटल जी थे, लेकिन उन्हें ममता-माया-जयललिता-नायडू ने इतना ब्लैकमेल किया, इतना दबाया कि उनके घुटने खराब हो गए थे. परन्तु इस बार इनकी दाल नहीं गलने पाई. नरेंद्र मोदी जिस कार्यशैलीके लिए जाने-माने जाते हैं, वह आखिरकार उन्हें दिल्ली में भी जनता ने सौंप दी है.

यूपी-बिहार के बाद भाजपा को सबसे बड़ी सफलता हाथ लगी महाराष्ट्र में. यहाँ भी नरेंद्र मोदी की रणनीति काम आई, उन्होंने चुनाव से पहले ही भाँप लिया था कि दलित वोटों का नुक्सान कम से कम करने के लिए आरपीआई के रामदास आठवले से गठबंधन फायदे का सौदा रहेगा. इसी प्रकार राज ठाकरे से ‘दो हाथ की दूरी’ बनाए रखना भी लाभकारी ही सिद्ध हुआ, क्योंकि यूपी-बिहार में राज ठाकरे के खिलाफ गुस्से की एक लहर मौजूद है. इसके अलावा महाराष्ट्र की जनता कांग्रेस-राकांपा के पंद्रह साल के कुशासन, बांधों में मूतने की बात करने वाले उनके घमंडी मंत्रियों से बेहद परेशान थी. नतीजा, कांग्रेस सिर्फ चार सांसदों पर सिमट गई, जो कि आपातकाल के बाद हुए चुनावों से भी कम है. यह नरेंद्र मोदी की सुनामी नहीं तो और क्या है, कि जिस राज्य में शकर लॉबी की सहकारी संस्थाओं और शकर मिलों के जरिये कांग्रेस ने वोटों का महीन जाल बुन रखा है उसी राज्य में ऐसी दुर्गति कि जनता ने कांग्रेस की अर्थी उठाने के लिए सिर्फ चार सांसद भेजे? और वो भी तब जबकि विधानसभा के चुनाव सर पर आन खड़े हैं. नरेंद्र मोदी ने विदर्भ-मराठवाड़ा और मुम्बई क्षेत्र में स्थानीय समस्याओं को सही तरीके से भुनाया.

गुजरात की २६ में से २६ सीटें मिलना अधिक आश्चर्यजनक नहीं था, लेकिन राजस्थान की २५ में से २५ सीटें जरूर कई विश्लेषकों को हैरान कर गईं. जाट-ठाकुर-मीणा जैसे जातिगत समीकरणों तथा जसवंत सिंह जैसे कद्दावर नेता द्वारा सार्वजनिक रूप से ख़म ठोकने के कारण खुद भाजपा के नेता भी बीस सीटों का ही अनुमान लगा रहे थे. जबकि उधर मध्यप्रदेश में सिर्फ सिंधिया और कमलनाथ ही अपनी इज्जत बचाने में कामयाब हो सके.

तमाम चुनाव विश्लेषकों ने इस आम चुनाव से पहले सोशल मीडिया की ताकत को बहुत अंडर-एस्टीमेट किया था. अधिकाँश विश्लेषकों का मानना था कि सोशल मीडिया सिर्फ शहरी और पढ़े=लिखे मतदाताओं को आंशिक रूप से प्रभावित कर सकता है. उनका आकलन था कि सोशल मीडिया, लोकसभा की अधिक से अधिक सौ सीटों पर कुछ असर डाल सकता है. जबकि नरेंद्र मोदी ने आज से तीन वर्ष पहले ही समझ लिया था कि मुख्यधारा के मीडिया द्वारा फैलाए जा रहे दुष्प्रचार एवं संघ-द्वेष से निपटने में सोशल मीडिया बेहद कारगर सिद्ध हो सकता है.जिस समय कई पार्टियों के नेता ठीक से जागे भी नहीं थे, उसी समय अर्थात आज से दो वर्ष पहले ही नरेंद्र मोदी ने अपनी सोशल मीडिया टीम को चुस्त-दुरुस्त कर लिया था. कई बैठकें हो चुकी थीं, रणनीति और प्लान ले-आऊट तैयार किया जा चूका था. ऐसी ही एक बैठक में नरेंद्र मोदी ने इस लेखक को भी आमंत्रित किया था. जहाँ IITऔर IIMसे पास-आऊट युवाओं की टीम के साथ, ठेठ ग्रामीण इलाकों में मोबाईल के सहारे कार्य करने वाले कम पढ़े-लिखे कार्यकर्ता भी मौजूद थे. नरेंद्र मोदी ने प्रत्येक कार्यकर्ता के विचार ध्यान से सुने. जिस बैठक में मैं मौजूद था, वह तीन घंटे चली थी. उस पूरी बैठक के दौरान नरेंद्र मोदी जी ने प्रत्येक बिंदु पर विचार किया, विस्तार से चर्चा की और अन्य सभी प्रमुख कार्य सचिवों पर छोड़ दिए. जिस समय अन्य मुख्यमंत्री गरीबों-मजदूरों को बेवकूफ बनाकर अथवा झूठे वादे या मुफ्त के लैपटॉप-मंगलसूत्र बाँटने की राजनीति पर मंथन कर रहे थे, उससे काफी पहले ही नरेंद्र मोदी ने ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्स एप्प, हैंग-आऊट, स्काईप को न सिर्फ आत्मसात कर लिया था, बल्कि ई-कार्यकर्ताओं की एक ऐसी सेवाभावी सशक्त फ़ौज खड़ी कर चुके थे जो नरेंद्र मोदी के खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी, बल्कि तमाम बुद्धिजीवियों को ताबड़तोड़ और त्वरित गति से तथ्यों के साथ जवाब देने में सक्षम भी थी. ऐसे ही हजारों सोशल मीडिया कार्यकर्ताओं ने दिन-रात मेहनत करके नरेंद्र मोदी की काफी मदद की. हालांकि सोशल मीडिया ने वास्तविक रूप से कांग्रेस को कितनी सीटों का नुक्सान पहुँचाया, यह पता लगाना अथवा इसका अध्ययन करना लगभग असंभव ही है, परन्तु जानकार इस बात पर सहमत हैं कि इस माध्यम का उपयोग सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी ने ही प्रभावशाली रूप से किया. कहने का तात्पर्य यह है कि चाहे 3D  हो या फेसबुक.. आधुनिक तकनीक के सही इस्तेमाल और युवाओं से सटीक तादात्म्य स्थापित करने तथा समय से पहले ही उचित कदम उठाने और विरोधियों की चालें भांपने में माहिर नरेंद्र मोदी की जीत सिर्फ वक्त की बात थी. मजे की बात ऐसी कि यह पूरी मुहीम अकेले नरेंद्र मोदी के दिमाग की देन थी, आरएसएस तो अभी भी अपनी परम्परागत जमीनी तकनीक और “मैन-टू-मैन मार्किंग” पर ही निर्भर था.

विगत दस वर्ष में भारत की राजनीति एवं समाज पर 3M अर्थात “मार्क्स-मुल्ला-मिशनरी” का प्रभाव बढ़ता ही जा रहा था.नक्सलियों के लगातार बढ़ते जा रहे लाल गलियारे हों, सिमी और इन्डियन मुजाहिदीन के स्लीपर सेल हों अथवा स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या सहित ईसाई धर्मांतरण के बढ़ते मामले हों... इन तीनों “M”ने भारत को काफी नुक्सान पहुँचाया है इसमें कोई शक नहीं है. 3M के इस घातक विदेशी कॉम्बिनेशन का मुकाबला संघ-भाजपा ने अपनी स्टाईल के 3Mसे किया, अर्थात “मंदिर-मंडल-मार्केटिंग”.संक्षेप में कहा जाए तो इसका अर्थ है पहला M = मंदिर अर्थात संघ के परम्परागत कैडर और भाजपा के स्थायी वोटरों को हिंदुत्व और राम मंदिर के नाम पर गोलबंद किया... फिर उसमें मिलाया दूसरा M= मंडल, अर्थात नरेंद्र मोदी की पिछड़ी जाति को प्रोजेक्ट किया और अंतिम दो दौर में तो सीधे नीच जाति का हूँकहकर मायावती-मुलायम के वोट बैंक पर चोट कर दी... और सबसे महत्त्वपूर्ण रहा तीसरा M=मार्केटिंग. नरेंद्र मोदी को हिंदुत्व-मंडल और विकास के मार्केट मॉडलकी पन्नी में लपेटकर ऐसा शानदार तरीके से पेश किया गया, कि लुटी-पिटी जनता ने थोक में भाजपा को वोट दिए. जनता माफ नहीं करेगी, अबकी बार, अच्छे दिन आने वाले हैं, चाय पर चर्चाजैसे सामान्य व्यक्ति के दिल को छूने वाले स्लोगन एवं जनसंपर्क अभियानों के जरिये नरेंद्र मोदी की छवि को लार्जर देन लाईफबनाया गया. बहरहाल, यह सब करना जरूरी था, वर्ना विदेशी 3M(मार्क्स-मुल्ला-मिशनरी) का घातक मिश्रण अगले पाँच वर्ष में भारत के हिंदुओं को अँधेरे की गर्त में धकेलने का पूरा प्लान बना चुका था.

कुल मिलाकर कहा जाए तो लोकसभा का यह चुनाव जहाँ एक तरफ काँग्रेसी कुशासन, भ्रष्टाचार, निकम्मेपन और घमण्ड के खिलाफ जनमत था, परन्तु ये भी सच है कि नरेंद्र मोदी की यह विजय भाजपा-संघ के कार्यकर्ताओं, अमित शाह की योजनाओं एवं संगठन, भारतीयकारपोरेट जगत द्वारा उपलब्ध करवाए गए संसाधनों, नारों-भाषणों-आक्रामक मुद्राओं के बिना संभव नहीं थी. यह संघ-मोदी की शिल्पकारी में बुनी गई एक खामोश क्रान्तिथी, जिसमें 18से 30वर्ष के करोड़ों मतदाताओं ने अपना योगदान दिया. जिस पुरोधा को देश की जनता ने अपना बहुमत दिया, वह बिना रुके, बिना थके शपथ लेने से पहले ही काम पर लग गया. देश ने पहली बार एक चुने हुए प्रधानमंत्री को गंगा आरती करते देखा, वर्ना अभी तक तो मजारों पर चादर चढाते हुए ही देखा था. देश ने पहली बार किसी नेता को लोकतंत्र के मंदिर अर्थात संसद की सीढ़ियों पर मत्था टेकते भी देखा. नरेंद्र मोदी ने 19मई को ही गृह सचिव से मुलाक़ात कर ली, तथा 21मई को कैबिनेट सचिव के माध्यम से सभी प्रमुख मंत्रालयों के सचिवों को निर्देश प्राप्त हो गए हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीपहले सप्ताह में ही उनके द्वारा पिछले पाँच वर्ष में किए गए कार्यों, उनके सुझाव, कमियों एवं योजनाओं के बारे में पावर पाईंट प्रेजेंटेशन देखेंगे. सुस्त पड़ी नौकरशाही में मोदी के इस कदम के कारण जोश भी है और घबराहट भी. देखना यही है कि उनके द्वारा जनता से माँगे गए 60महीने में वे उम्मीदों के इस महाबोझपर कितना खरे उतर पाते हैं? यूपीए-१ और २ की सरकारों ने बहुत कचरा फैलाया है, कई समस्याओं को जन्म दिया और कुछ पुरानी समस्याओं को उलझाया-पकाया है. इसे समझने में ही नरेंद्र मोदी का शुरुआती समय काफी सारा निकल ही जाएगा. अलबत्ता उनके समक्ष उपस्थित प्रमुख चुनौतियाँ महँगाई, भ्रष्टाचार पर नकेल, बेरोजगारी, आंतरिक सुरक्षा और षडयंत्रकारियों इत्यादि से निपटना है.

1967में तमिलनाडु में बुरी तरह हारने के बाद काँग्रेस आज तक वहाँ कभी उबर नहीं सकी है, बल्कि आज तो उसे वहाँ चुनाव लड़ने के लिए सहयोगी खोजने पड़ते हैं. उड़ीसा में नवीन पटनायक भी काँग्रेस का लगभग समूल नाश कर चुके हैं. यूपी-बिहार में पिछले बीस वर्ष में काँग्रेस लगभग नदारद ही रहती है. पश्चिम बंगाल में वामपंथियों की खाली की गई जगह पर ममता ने कब्ज़ा किया है वहाँ भी काँग्रेस कहीं नहीं है. तेलंगाना-सीमान्ध्र में काँग्रेस को दोनों हाथों में लड्डू रखने की चाहत भारी पड़ी है, फिलहाल अगले पाँच वर्ष तो काँग्रेस वहाँ भी साफ ही है. भाजपा शासित राज्यों जैसे गुजरात-मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में काँग्रेस का संगठन चरमरा चुका है और ये तीनों राज्य भी लगभग काँग्रेस-मुक्तहो चुके हैं. अर्थात नरेंद्र मोदी द्वारा आव्हान किए गए काँग्रेस-मुक्तभारत की दिशा में भारत की लगभग 250सीटों ने तो मजबूती से कदम बढ़ा दिया है. अब यदि नरेंद्र मोदी अगले पाँच वर्ष में केन्द्र की सत्ता के दौरान कोई चमत्कार कर जाते हैं, कोई उल्लेखनीय कार्य कर दिखाते हैं, तो उन्हें अगला मौका भी मिल सकता है और यदि ऐसा हुआ तो निश्चित जानिये 2024आते-आते काँग्रेस के बुरे दिन और डरावनी रातें शुरू हो जाएँगी.

सबसे बड़ा सवाल यही है कि इतने दबावों, इतनी अपेक्षाओं, भयानक उम्मीदों, आसमान छूती आशाओं के बीच नरेंद्र मोदी भारत की तकदीर बदलने के लिए क्या-कितना और कैसा कर पाते हैंयह ऐसा यक्ष-प्रश्न है जिसके जवाब का करोड़ों लोग दम साधे इंतज़ार कर रहे हैं...


Modi Budget - First Step towards Brand India

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मोदी सरकार का बजट : ब्राण्ड इण्डियाकी तरफ पहला कदम


जब घर में नई बहू आती है, तो परिवार के प्रत्येक सदस्य की उससे अति-अपेक्षाएँ होती हैं, जो कि स्वाभाविक भी है. सास सोचती है कि बहू रोज उसके पैर दबाएगी, ससुर सोचते हैं कि सुबह-सुबह वह उन्हें चाय लाकर देगी, ननद सोचती है कि वह भाभी की सारी साड़ियों की स्वयंभू हकदार हो गई है... नरेंद्र मोदी सरकार नामक नई बहूको लेकर भी देश के विभिन्न तबकों की अपेक्षाएँ यही थीं. ऐसा इसलिए, क्योंकि नई बहू के आने से पहले ही ससुराल में यह माहौल बना दिया गया था कि बस!! बहू के घर में पहला कदम रखते ही अब अच्छे दिन आने वाले हैं. वास्तविकता में ऐसा नहीं होता. जिस प्रकार नई बहू को ससुराल की तमाम व्यवस्थाएँ समझने में समय लगता है, सभी पुराने जमे-जमाए सदस्यों के व्यवहार और मूड को भाँपने में समय लगता है, घाघ-कुटिल-शातिर किस्म के रिश्तेदारों की आंतरिक राजनीति समझने में वक्त लगता है, ठीक वैसा ही वक्त इस समय नरेंद्र मोदी सरकार के पास है.

सत्ता सूत्र संभालने के दो माह बाद मोदी सरकार ने अपना पहला बजट पेश किया. जैसा कि हम जानते हैं प्रत्येक वर्ष भारत के बजट निर्माण की प्रक्रिया सितम्बर-अक्टूबर से ही शुरू हो जाती है. चूँकि इस वर्ष लोकसभा चुनाव होने थे, इसलिए पूर्ण बजट पेश नहीं किया जा सका, सिर्फ लेखानुदान से काम चलाया गया. परन्तु सितम्बर २०१३ से मार्च २०१४ तक बजट की जो प्रक्रिया चली, जो सुझाव आए, यूपीए-२ सरकार (जिसे पता था कि अब वह सत्ता में वापस नहीं आ रही) के वित्तमंत्री चिदंबरम द्वारा रखे गए प्रस्तावों से मिलकर एक खुरदुरा साबजट खाका तैयार था. नरेंद्र मोदी सरकार के पास सिर्फ दो माह का समय था, कि वे इस बजट को देश की वर्तमान अर्थव्यवस्था की चुनौतियों और संसाधनों तथा धन की कमी की सीमाओं को देखते हुए इस बजट को चमकीला और चिकनाबनाएँ... और यह काम मोदी-जेटली की जोड़ी ने बखूबी किया.


हालाँकि बजट पेश करने से पहले ही पिछले दो माह में मोदी सरकार ने कई महत्त्वपूर्ण निर्णय और ठोस कदम उठा लिए थे, जिनका ज़िक्र मैं आगे करूँगा, लेकिन बजट पेश होने और उसके प्रावधानों को देखने के बाद समूचे विपक्ष का चेहरा उतरा हुआ था. उन्हें सूझ ही नहीं रहा था कि आखिर विरोध किस बात पर, कहाँ और कैसे करें. जबकि उद्योग जगत, मझोले व्यापारी, सेना सहित लगभग सभी तबकों ने बजट की भूरि-भूरि प्रशंसा की, आलोचनाओं के कतिपय स्वर भी उठे, लेकिन इतने बड़े देश में यह तो स्वाभाविक है. इस प्रकार नरेंद्र मोदी ने अगले पाँच साल में देश को एक मजबूत ब्राण्ड इण्डियाबनाने की तरफ सफलतापूर्वक पहला कदम बढ़ा दिया.आईये देखें कि बजट से पहले और बजट के भीतर नरेंद्र मोदी सरकार ने कौन-कौन से जरूरी और त्वरित कदम उठा लिए हैं. ये सभी निर्णय आने वाले कुछ ही वर्षों में भारत के लिए एक गेम चेंजरसाबित होने वाले हैं.

     नरेंद्र मोदी सरकार ने सबसे पहले अपना ध्यान सेनाओं की तरफ केंद्रित किया है. रक्षा मंत्रालय ने भारत-चीन की विवादित सीमाओं पर तत्काल प्रभाव से सड़कों के निर्माण हेतु मंजूरी दे दी है. इसी प्रकार कर्नाटक में कारवाड नौसेना बेस को अत्याधुनिक बनाने के लिए २०० करोड़ रूपए की तात्कालिक राशि उपलब्ध करवा दी है, ताकि नौसेना का यह बेस मुम्बई बंदरगाह पर आ रहे बोझ को थोड़ा कम कर सके. अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में एक नए उन्नत किस्म के राडार और दूरबीन की मंजूरी दे दी गई है. जहाँ से चीन, बांग्लादेश और इंडोनेशिया तक नज़र रखी जा सकती है. यह निर्णय बजट से पहले के हैं, जिनमें संसद की मंजूरी जरूरी नहीं, लेकिन बजट प्रावधान रखते ही नरेंद्र मोदी ने सेना की वर्षों से लंबित एक रैंक एक पेंशनकी माँग को पूरा कर दिया. उल्लेखनीय है कि यह मुद्दा भाजपा के घोषणापत्र और जनरल वीके सिंह की इच्छाओं के अनुरूप है.

     मोदी सरकार हिन्दुत्व और विकास के मुद्दों पर सत्ता में आई है. जैसा कि ऊपर लिखा है, वर्तमान बजट की प्रक्रिया पिछली सरकार के दौर में ही आरम्भ हो चुकी थी और मोदी सरकार के पास सिर्फ दो माह का ही समय था, इसलिए देखा जाए तो देश के आर्थिक व सामाजिक विकास हेतु उनका पूरा खाका अगले बजट में और भी स्पष्ट होगा. परन्तु फिर भी दो महीने में ही नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से ताबड़तोड़ निर्णय लिए हैं वह उनकी निर्णय क्षमता और सोच को पूर्णतः प्रदर्शित करता है, उदाहरण के तौर पर नर्मदा बाँध की ऊँचाई 121मीटर से बढ़ाकर 138मीटर करने का निर्णय. यह मामला पिछले कई वर्ष से यूपीए सरकार की अनिर्णयनीति के कारण लटका हुआ था. मेधा पाटकर के नेतृत्व में चल रहे NGOsका दबाव तो था ही, साथ ही यूपीए सरकार के कारिंदे सोच रहे थे कि कहीं इस मुद्दे का फायदा नरेंद्र मोदी विधानसभा चुनावों में ना ले लें. मोदी सरकार ने आते ही गुजरात और मध्यप्रदेश हेतु पानी, सिंचाई और बिजली की समस्या को देखते हुए इसे तत्काल मंजूरी दे दी और उधर बाँध पर काम भी शुरू हो गया. अब जब तक सम्बन्धित पक्ष सुप्रीम कोर्ट, ट्रिब्यूनल वगैरह जाएँगे नर्मदा बाँध पर काफी तेजी से काम पूरा हो चुका होगा. मोदी सरकार का पूरा ध्यान बिजली, सिंचाई, सड़कों और स्वास्थ्य पर है... विकास के यही तो पैमाने होते हैं. जबकि यूपीए सरकार देश के विशाल मध्यमवर्ग को समझ ही नहीं पाई और मनरेगाके भ्रष्टाचार एवं आधार कार्ड जैसे अनुत्पादक कार्यों में अरबों रूपए लुटाती रही.


     यूपीए सरकार के कार्यकाल में ही CAGऔर FICCIकी एक आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट आई थी, जिसमें बताया गया था कि NDAके पाँच साल में राष्ट्रीय राजमार्गों पर जितना काम हुआ, यूपीए के दो कार्यकालों में उससे आधी सड़कें भी नहीं बनीं थी. NDA, अन्य राज्यों की भाजपा सरकारों तथा गुजरात के अनुभवों को देखते हुए नरेंद्र मोदी ने अर्थव्यवस्था के मुख्य इंजन अर्थात सड़कों पर अधिक बल देने की कोशिश की है. इसीलिए बजट में राष्ट्रीय राजमार्गों के लिए 37800करोड़ रूपए रखे गए हैं, जो अगले चार वर्ष में और बढ़ेंगे. ज़ाहिर है कि पाँच साल में नरेंद्र मोदी देश में चौड़ी सड़कों का जाल और बिजली का उत्पादन बढ़ाने की फिराक में हैं. राजमार्गों की इस भारी-भरकम राशि के अलावा उन्होंने इन राजमार्गों के किनारे वाले गाँवों के बेरोजगार युवाओं हेतु दो सौ करोड़ अलग से रखे हैं, जो इन राजमार्गों पर पेड़-पौधे लगाने हेतु दिए जाएँगे और इन दो सौ करोड़ रूपए को मनरेगा से जोड़ दिया जाएगा, ताकि कोई उत्पादक कार्य शुरू हो. एक लाख किमी के राजमार्गों को हरा-भरा करने की इस प्रक्रिया में लगभग तीस लाख युवाओं को संक्षिप्त ही सही, लेकिन रोजगार मिलेगा. मनरेगा को उत्पादकताएवं कार्य लक्ष्यसे जोड़ना बहुत जरूरी हो गया था, अन्यथा पिछले पाँच साल से यह अरबों-खरबों की राशि सिर गढ्ढे खोदने और पुनः उन्हें भरने में ही खर्च हो रहे थे. सरकार का यह कदम इसलिए बेहतरीन कहा जा सकता है, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क, पुल, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र निर्माण, वृक्षारोपण आदि कामों में मनरेगा के धन, ऊर्जा और मानव श्रम का उपयोग किया जाएगा, न कि सरपंचों और छुटभैये नेताओं का घर भरने में.

     तम्बाकू, सिगरेट, शराब पर टैक्स बढ़ाना या व्यक्तिगत आयकर की छूट बढ़ाना जैसे कदम तो प्रत्येक सरकार अपने बजट में देती ही है. बजट का असली उद्देश्य होता है जनता को, उद्योगों को एवं विदेशों को क्या सन्देश दिया जा रहा है. इस दिशा में जेटली-मोदी की जोड़ी ने बहुत ही दूरदर्शितापूर्ण बजट पेश किया है. राष्ट्रीय राजमार्गों के लिए भारी धनराशि के साथ ही उत्तर-पूर्व में रेलवे विकास हेतु अभी प्रारंभिक तौर पर 1000करोड़ रूपए रखे गए हैं, इसी प्रकार ऊर्जा के मामले में पूरे देश को गैस के संजाल से कवर करने हेतु 15,000किमी गैस पाईपलाइन बिछाने की पब्लिक-प्रायवेट पार्टनरशिपयोजना का पायलट प्रोजेक्ट आरम्भ कर दिया गया है. इसके अलावा तमिलनाडु और राजस्थान के तेज़ हवा वाले इलाकों में पवन एवं सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए पाँच सौ करोड़ रूपए रखे हैं. अपने शुरुआती वर्ष में नरेंद्र मोदी का पूरा ध्यान सिर्फ ढांचागत (इंफ्रास्ट्रक्चर) सुधार एवं विकास में लगने वाला है, क्योंकि इस दिशा में यूपीए-२ सरकार ने बहुत अधिक अनदेखी की है. चूँकि मोदी वाराणसी से चुन कर आए हैं तो उन्होंने इलाहाबाद से हल्दिया तक गंगा में बड़ी नौकाएं या छोटे जहाज चलाने की महत्त्वाकांक्षी जल मार्ग विकास परियोजनाके सर्वेक्षण एवं आरंभिक क्रियान्वयन हेतु 4200करोड़ रुपए आवंटित किये हैं.

अब मुड़ते हैं शिक्षा के क्षेत्र में, नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने बजट में शिक्षा क्षेत्र में बजट की मात्रा जो 3%से बढ़ाकर 6%की जाने की माँग थी, वह तो पूरी नहीं की, परन्तु कई आधारभूत और ठोस योजनाओं को हरी झंडी दिखा दी है. विभिन्न राज्यों में पाँच नए आईआईटी और पाँच नए आईआईएम, मध्यप्रदेश में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नाम पर एक सर्वसुविधायुक्त उद्यमिता  विकास केंद्र, चार नए एम्स (आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल, विदर्भ और पूर्वांचल क्षेत्र) हेतु ५०० करोड़ और छह नवनिर्मित एम्सको पूर्ण कार्यकारी बनाने हेतु धन दिया जा रहा है. आंध्रप्रदेश और राजस्थान में नए कृषि विश्वविद्यालय, हरियाणा और तेलंगाना में नई होर्टिकल्चर विश्वविद्यालयों की स्थापना हेतु 200करोड़ मंजूर हुए हैं. इसी प्रकार मिट्टी के परीक्षण हेतु समूचे देश की राजधानियों में मिट्टी परीक्षण प्रयोगशालाओं को उन्नत बनाने के लिए 156करोड़ रूपए दिए जा रहे हैं. देश को स्वस्थ रखने के लिए डॉ हर्षवर्धन के साथ मिलकर नरेंद्र मोदी ने बजट से परे यह निर्णय लिया है कि मधुमेह, उच्च रक्तचाप एवं ह्रदय रोग से सम्बन्धित अति-आवश्यक 156दवाएं पूरे देश में सरकारी अस्पतालों से मुफ्त में दी जाएँगी. हालाँकि यह निर्णय लेने आसान नहीं था, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय स्तर की कई फार्मास्युटिकल कम्पनियाँ इसे लागू नहीं करने का दबाव बना रही थीं, क्योंकि ऐसा करने पर कई बड़ी कंपनियों के मुनाफे में भारी कमी आने वाली है, परन्तु मोदी सरकार ने एक कदम और आगे बढ़ाते हुए गरीबी रेखा से नीचे वालों के लिए सरकारी अस्पतालों में एक्सरे, एमआरआई तथा सीटी स्कैन को मुफ्त बना दिया.

शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, इंफ्रास्ट्रक्चर, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दों पर जेटली-मोदी ने जो ध्यान दिया है और आरंभिक योजनाएँ बनाई हैं, वे तो खैर अपनी जगह पर उत्तम हैं ही साथ ही मोदी द्वारा देश के भविष्य की चिंताओं और उनके दृष्टिकोण को प्रदर्शित करती ही हैं, परन्तु देश के इतिहास में पहली बार नरेंद्र मोदी ने जाना-समझा है कि यदि की देश आर्थिक व्यवस्था मजबूत करना तथा बेरोजगारी हटाते हुए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चीन से मुकाबला करना है तो देश के कुटीर एवं छोटे उद्योगों को मजबूत करना होगा.बजट भाषण के पैराग्राफ 102में नरेंद्र मोदी के इस आईडिया को संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है, लेकिन जब यह आईडिया अपना पूर्ण आकार ग्रहण करेगा, तब भारत में उद्यमिता एवं विनिर्माण का जो दौर चलेगा, वह निश्चित रूप से चीन को चिंता में डालने वाला बनेगा. लघु एवं कुटीर उद्योगों की इस विराट अर्थव्यवस्था पर जरा एक संक्षिप्त निगाह तो डालिए – आधिकारिक आंकड़े के अनुसार देश में लगभग ऐसी साढ़े पाँच करोड़ यूनिट्स कार्यरत हैं, कृषि क्षेत्र को छोड़कर. इन सभी का राजस्व जोड़ा जाए तो यह लगभग 6.28लाख करोड़ बैठता है, जो कि अर्थव्यवस्था का लगभग 70%है और ग्रामीण क्षेत्रों में पन्द्रह से अठारह करोड़ लोगों को रोजगार प्रदान करती हैं. इन छोटी यूनिट्स में से दो-तिहाई सेवा और मेनुफैक्चरिंग क्षेत्र में हैं, और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत इन इकाईयों में अधिकांशतः अजा-अजजा-ओबीसी वर्ग ही मालिक हैं.

मोदी सरकार की इस नवीनतम तथा क्रान्तिकारी योजना में कहा गया है कि – लघु विनिर्माण संस्थाएँ और कम्पनियाँ देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं. आज की तारीख में छोटे असंगठित उद्योग देश के अधिकाँश औद्योगिक उत्पादन तथा रोजगार का जिम्मा संभाले हुए हैं, लेकिन सदैव सभी सरकारों द्वारा उपेक्षित ही रहे. इनमें से अधिकाँश उद्योग चार-छः-दस-बीस व्यक्तियों को रोजगार तथा देश को राजस्व मुहैया करवा रहे हैं और मजे की बात यह है कि जिसे अंग्रेजी में SME (Small and Micro Enterprises) कहा जाता है, इनमें से अधिकाँश यूनिट अजा-अजजा- एवं पिछड़ा वर्ग द्वारा संचालित हैं. एशिया-पैसिफिक इक्विटी रिसर्च द्वारा प्रकाशित जर्नल के अनुसार भारत में बड़े उद्योगों एवं कारपोरेट हाउस ने देश की अर्थव्यवस्था में जो योगदान दिया है वह इसके आकार को देखते हुए सिर्फ पूँछबराबर है. रिसर्च के अनुसार विशाल उद्योगों एवं आईटी क्षेत्र की दिग्गज सेवा कंपनियों ने देश की सिर्फ 15%अर्थव्यवस्था को ही अपना योगदान दिया है. रोजगार एवं राजस्व में बाकी का 85%देश की लघु और कुटीर उद्योगों ने ही दिया है, इसके बावजूद लगभग सभी सरकारों ने टैक्स में भारी छूट, रियायती जमीनें और कर्ज माफी अक्सर बड़े उद्योगों को ही दिया. यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि विराट उद्योगों द्वारा देश की तमाम बैंकों को खरबों रूपए का चूना लगाया जा चुका है. बैंक वाले जिसे अपनी भाषा में NPA (Non Performing Asset)कहते हैं, उसका महत्त्वपूर्ण डूबत खाता बड़े उद्योगों के हिस्से में ही है. कई बड़े कारपोरेट हाउस कर्ज डुबाने और न चुकाने के लिए बदनाम हो चुके हैं. जबकि छोटे एवं कुटीर उद्योगों के साथ ऐसा नहीं है. देखा गया है कि लघु उद्योग का मालिक बड़े उद्योगों के मुकाबले, बैंक अथवा अन्य वित्तीय संस्थाओं का कर्ज उतार ही देता है. बीमा कागज़ जमानत रखकर अथवा जमीन-जायदाद गिरवी रखकर छोटे उद्योगों को दिया गया ऋण सामान्यतः वापस आ जाता है.संक्षेप में कहा जाए तो अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डीलघु और कुटीर उद्योग ही हैं. जैसा कि ऊपर बताया, देश की अर्थव्यवस्था, राजस्व और रोजगार में 70%हिस्सा रखने वाला यह क्षेत्र हमेशा से असंगठित और उपेक्षित ही रहा है.  अब चीन से सबक लेकर एक सधे हुए गुजराती व्यापारीकी तरह नरेंद्र मोदी ने इस क्षेत्र की संभावनाओं पर ध्यान देने का फैसला किया है. चीन ने अपने विनिर्माण क्षेत्र को इसी तरह बढ़ाया और मजबूत किया. नरेंद्र मोदी की योजना ऐसी ही लघु-कुटीर एवं ग्रामीण इकाईयों को सस्ते ऋण, जमीन एवं शासकीय परेशानियों व लाईसेंस से मुक्ति दिलाने की है, यदि अगले पाँच वर्ष में मोदी के इस विचार ने जड़ें पकड़ लीं, तो देखते ही देखते हम विनिर्माण क्षेत्र में चीन को टक्कर देने लगेंगे. इस बजट में यह प्रस्ताव रखा गया है कि ऐसे ग्रामीण-लघु-कुटीर उद्योगों का सर्वेक्षण करके उन्हें सभी सुविधाएँ प्रदान की जाएँगी. इसीलिए अनुसूचित जाति-जनजाति की शिक्षा एवं विकास के लिए इस बजट में 50,548करोड़ रूपए का जबरदस्त प्रावधान किया गया है. कहने का तात्पर्य यह है कि नरेंद्र मोदी की टीम के पास अगले दस साल का पूरा रोड मैप तैयार है.ब्रांड इण्डियाबनने की तरफ मोदी सरकार का यह तो पहला ही कदम है, अगले दो वर्ष के बजट पेश होने के बाद इस देश की दशा और दिशा में आमूलचूल परिवर्तन आना निश्चित है.

जहाँ एक तरफ नरेंद्र मोदी का पूरा ध्यान सिर्फ विकास के मुद्दों पर है, वहीं दूसरी ओर जिस जमीनी कैडर और सोशल मीडिया के जिन रणबांकुरों की मदद से भाजपा को सत्ता मिली है, वे हिंदुत्व के मुद्दों को ठन्डे बस्ते में डालने की वजह से अन्दर ही अन्दर बेचैन और निराश हो रहे हैं. नरेंद्र मोदी की जिस हिन्दुत्ववादी छवि से मोहित होकर तथा यूपीए-२ तथा वामपंथियों एवं सेकुलरों के जिस विध्वंसकारी नीतियों एवं अकर्मण्यता से निराश होकर कई तटस्थ युवा मोदी से चमत्कार की आशाएं लगाए बैठे थे, वे भी दबे स्वरों में इस सरकार पर उंगलियाँ उठाने लगे हैं. इस कैडर को उम्मीद थी कि नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने पर तुरंत ही धारा ३७०, सामान नागरिक संहिता, गौवध पर प्रतिबन्ध, गौमांस निर्यात पर पूर्ण प्रतिबन्ध, राम जन्मभूमि मामले में त्वरित प्रगति जैसे मूल हिंदूवादीमुद्दों पर प्रगति या निर्णयों की शुरुआत होगी. परन्तु पिछले दो माह में नरेंद्र मोदी ने इन मुद्दों पर एकदम चुप्पी साध रखी है, साथ ही भाजपा और संघ ने भी उनका पूरा साथ दिया है. हालांकि यह स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती, परन्तु फिर भी जानकारों का मानना है कि पहले नरेंद्र मोदी दिल्ली सिंहासन के जटिल प्रशासनिक ढाँचे को अच्छे से समझना चाहते हैं और अपनी पकड़ मजबूत करना चाहते हैं. संभवतः यह स्थिति अगले दो वर्ष तक बरकरार रहे, उसके बाद शायद नरेंद्र मोदी गुजरात की तरह अपने पत्ते खोलें और अपना शिकंजा कसने की शुरुआत करें.

कांग्रेस और अन्य सभी कथित सेकुलर पार्टियाँ अभी भी हार के सदमे से बाहर नहीं आ पाई हैं, और उन्हें अभी भी यह विश्वास नहीं हो रहा कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन चुके हैं. इसीलिए खिसियाहट में वे भाजपा सरकार के प्रत्येक निर्णय, प्रत्येक नियुक्ति, प्रत्येक बयान पर पहले दिन से ही लगातार अंध-विरोध किए जा रहे हैं. जिस तेजी और सफाई से नरेंद्र मोदी अपनी गोटियाँ चल रहे हैं, वह हैरान करने वाला है. सरकार बनने के पहले ही दिन से इस गैंग””ने स्मृति ईरानी मामले को लेकर अपनी छाती कूटना शुरू किया था, तभी से लगने लगा था कि मोदी के अगले पांच साल इतने आसान नहीं रहेंगे. ये बात और है कि नरेंद्र मोदी चुपचाप अपना काम करते रहे. जैसे कि, ICHR में सुदर्शन राव की नियुक्ति का मामला हो, चाहे दिल्ली विवि के मामले में UGCकी बांह मरोड़ना हो, मोदी सरकार ने कुंठित विपक्षकी परवाह किए बिना, अपना मनचाहा काम किया. सुप्रीम कोर्ट में गोपाल सुब्रह्मण्यम की नियुक्ति को भी सफलतापूर्वक वीटो किया गया, इसी प्रकार पांच-छह राज्यों के कुर्सी-प्रेमीकांग्रेसी राज्यपालों को ना-नुकुर के बावजूद सफाई से निपटाया गया. हताश विपक्ष ने नृपेन्द्र मिश्र की नियुक्ति पर भी बवाल खड़ा करने की कोशिश की, लेकिन यहाँ भी मोदी ने राज्यसभा में सपा-बसपा-एनसीपी को साथ लेकर उनके मंसूबे कामयाब नहीं होने दिए. ज़ाहिर है कि जिस तरह यूपीए-२ कार्यकाल में मुलायम-मायावती की नकेल सोनिया के हाथ में थी, उसी प्रकार शायद अब मोदी के हाथ में है. विश्लेषक मानते हैं कि आगामी कुछ माह में कई प्रमुख राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं. यदि इन राज्यों में भाजपा को आशातीत सफलता मिल जाती है और उसके विधायकों की संख्या पर्याप्त रूप से इतनी बढ़ जाए कि अगले वर्ष के अंत तक भाजपा का राज्यसभा में भी बहुमत पूर्ण हो जाए, संभवतः उसके बाद ही नरेंद्र मोदी अपने हिंदुत्व के मुद्दों पर आएँगे.

हाल-फिलहाल सरकार नई है, मोदी को अभी यह भांपने में समय लगेगा कि प्रशासन में कौन उनका मित्र है और कौन शत्रु है. इसीलिए नरेंद्र मोदी जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाना चाहते. अभी इस सरकार को सिर्फ दो-तीन माह हुए हैं, फिर भी माहौलको भांपने हेतु समान नागरिक संहिता पर एक अशासकीय प्रस्ताव एक भाजपा सांसद की तरफ से संसद में पेश किया जा चुका है. लेकिन जिस तरह से मोदी सरकार ने मदरसों को आधुनिक बनाने के लिए सौ करोड़ रूपए का प्रावधान किया, जिस तरह से यूपी में लगातार भाजपा के जमीनी नेताओं की हत्याओं पर चुप्पी साधे रखी, अमरनाथ में लंगरों पर हमले के मामले में कश्मीर सरकार से कोई जवाब-तलब तक नहीं किया, गौमांस निर्यात रोकने हेतु एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया, इन सभी से हिंदूवादी लॉबी और कार्यकर्ता नाराज चल रहे हैं. चूंकि अभी मोदी नए-नए हैं, इसलिए यह कैडर उन्हें कुछ समय देना चाहता है, परन्तु मन ही मन आशंकित भी है कि, कहीं मोदी सरकार भी पूर्ववर्ती सरकारों की तरह फर्जी सेकुलरिज्म””के जाल में न फँस जाए. जबकि नरेंद्र मोदी का पूरा ध्यान देश की अर्थव्यवस्था और प्रशासनिक पकड़ बनाने पर है.

उधर प्रशासनिक सर्जरीकी शुरुआत कर दी गई है.लुटेरे जीजाके होश ठिकाने लगाने वाले अशोक खेमका तथा चर्चित अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल को प्रधानमंत्री कार्यालय में लाया जा रहा है. मंत्रालयों के सचिवों को सीधे प्रधानमंत्री से मिल सकने की सुविधा प्रदान कर दी गई है. मंत्रियों को अपने निजी स्टाफ में अपना कोई भी रिश्तेदार रखने की अनुमति नहीं है. बहुत से कार्यक्षम तथा ईमानदार आईएएस अधिकारी अपने-अपने राज्यों को छोड़कर केंद्र में प्रतिनियुक्ति हेतु लगातार आवेदन दे रहे हैं. उन्हें पता है कि नरेंद्र मोदी ही ऐसे नेता हैं जो उनका सम्मान बनाए रखते हुए भी अधिकारियों से उचित काम लेना जानते हैं. निश्चित है कि देश का भविष्य उज्जवल है, बस येजरूर है कि अति-उत्साही और अति-महत्त्वाकांक्षी कार्यकर्ताओं को थोडा सब्र रखना होगा, नरेंद्र मोदी को थोडा समय देना होगा. क्योंकि पिछले दस वर्ष से जमा हुआ कूड़ा-करकटसाफ़ करने में थोडा वक्त तो लगेगा ही... अगले दो-तीन वर्ष में जब मोदी अपनी पकड़ मजबूत कर लेंगे, राज्यसभा में बहुमत हासिल हो जाएगा, उस समय कश्मीर, धारा ३७०, राम मंदिर, समान नागरिक संहिता, गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध जैसे कई कदम निश्चित ही उठाए जाएँगे.

मोदी की कार्यशैली का एक संक्षिप्त उदाहरण - सरकार ने त्वरित निर्णय लेते हुए यह निश्चित किया है कि देश-विदेश में आयोजित होने वाली किसी भी विज्ञान गोष्ठी अथवा तकनीकी सेमीनार इत्यादि के दौरान सरकारी प्रतिनिधिमंडल में सिर्फ स्थापित वैज्ञानिक एवं तकनीकी लोग ही जाएंगे, कोई नेता या अफसर नहीं. इस निर्णय पर लगभग नए अंदाज में अमल करते हुए स्वयं नरेंद्र मोदी, ब्राजील में संपन्न BRICSसम्मेलन में अपने साथ सिर्फ विदेश विभाग के अधिकारियों तथा दूरदर्शन एवं PTIके संवाददाताओं को ही ले गए. किसी भी निजी चैनल अथवा अखबार के पत्रकार को सरकारी धन पर सैरसपाटे की इजाजत नहीं दी गई. सन्देश साफ़ है – मुफ्तखोरीनहीं चलेगी, काम करके दिखाना होगा. ब्राण्ड इण्डियाकी तरफ पहला कदम सफलतापूर्वक बढ़ाया जा चुका है... अब युवाओं को अपनी उद्यमिता दिखानी होगी.

-         सुरेश चिपलूनकर, उज्जैन


Laxman Rao : Writing of Common Man

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फुटपाथ से राष्ट्रपति भवन तक...


पतंजलि हरिद्वार में स्वामी रामदेव जी द्वारा आयोजित सोशल मीडिया शिविर में भाग लेने के पश्चात २८ जुलाई को उज्जैन वापसी के समय मुझे निजामुद्दीन स्टेशन से ट्रेन पकड़नी थी. मैं हरिद्वार से शाम सात बजे ही दिल्ली पहुँच चुका था, जबकि ट्रेन का समय रात सवा नौ बजे का था. इस बीच पत्रकार भाई आशीष कुमार अंशु से फोन पर बातचीत करके चार-छह राष्ट्रवादी मित्रों का तात्कालिक मिलन समारोह आयोजित कर लिया गया था. आशीष भाई अपने दफ्तर नेहरू प्लेस से मुझे बाईक पर बैठाकर भाई रविशंकर के दफ्तर ले चले... हमारी राजनैतिक चर्चा के साथ हल्की-हल्की बारिश की फुहारें जारी थीं.

आईटीओ के पास हिन्दी भवन आते ही आशीष ने मुझसे पूछा कि आप साहित्यकार लक्ष्मण राव से मिलना चाहेंगे?? कम से कम समय में मैं अधिकाधिक लोगों से मिलजुलकर समय का सदुपयोग करना चाहता था.. मैंने तुरंत हामी भर दी. चूँकि आशीष भाई ने साहित्यकारलक्ष्मण राव कहा था, और मुझसे मिलवाने की इच्छा ज़ाहिर की थी सो मुझे भी उत्सुकता थी कि ये सज्जन कौन हैं? थोड़ी देर बाद आशीष ने एक चाय की गुमटी पर बाईक रोकी और कहा, आईये चाय पीते हैं. हरिद्वार से थका हुआ आया था, बारिश में भीग भी रहे थे, चाय की तलब भड़क रही थी, इसलिए वह आग्रह अमृत समान लगा. गुमटी के सामने बाईक पार्क करके हम दोनों वहाँ पहुँचे, जहाँ एक अधेड़ आयु वर्ग का आदमी फुटपाथ पर एक छोटी सी छतरी के नीचे गर्मागर्म चाय-पकौड़े बना रहा था. मैंने सोचा कि शायद आशीष भाई ने जिन साहित्यकार लक्ष्मण राव को मुझसे मिलवाने हेतु कहा है, और वे आसपास की किसी बहुमंजिला इमारत से उतरकर हमसे मिलने यहीं इसी गुमटी पर आएँगे. मैं चारों तरफ निगाहें दौड़ाता रहा कि अब लक्ष्मण राव आएँगे फिर आशीष उनका और मेरा परिचय करवाएँगे.

उधर गुमटी पर चाय तैयार हो चुकी थी और हल्की-फुल्की भीड़ के बीच हमारा नंबर आने ही वाला था. जब मैं और आशीष चाय लेने पहुँचे, तो अनायास मेरा ध्यान पास खड़ी एक साईकल पर गया. साईकिल के कैरियर पर बारिश से बचाने की जुगत में प्लास्टिक की पन्नी लगी हुई ढेरों पुस्तकें दिखाई दीं. चाय की गुमटी के पास किताबों से लदी हुई लावारिस साईकिल, बड़ा ही विरोधाभासी चित्र प्रस्तुत कर रही थी. मेरी नज़रों में प्रश्नचिन्ह देखकर आखिरकार आशीष से रहा नहीं गया. बोला, भाई जी अब आपकी बेचैनी और सस्पेंस दूर कर ही देता हूँ... जिन साहित्यकार लक्ष्मण राव जी से मैं आपको मिलवाने लाया हूँ, वे आपके सामने ही बैठे हैं. मैं भौंचक्का था... और खुलासा करते हुए आशीष ने कहा, चाय की गुमटी पर जो सज्जन चाय बना रहे हैं, वही हैं श्री लक्ष्मण राव... ज़ाहिर है कि मैं हैरान था, सोचा नहीं था ऐसा धक्का लगा था. दो मिनट बाद इस झटके से उबरकर मैंने लक्ष्मण राव जी से हाथ मिलाया, उनके साथ तस्वीर खिंचवाई और गौरवान्वित महसूस किया...


जी हाँ, आईटीओ के पास हिन्दी भवन के नीचे पिछले कई वर्षों से चाय-पान की गुमटी लगाने वाले सज्जन का नाम है लक्ष्मण राव. महाराष्ट्र के अमरावती से रोजी-रोटी की तलाश में भटकते-भटकते सूत मिल में मजदूरी, भोपाल में पाँच रूपए रोज पर बेलदारी, कभी ढाबे पर बर्तन माँजते हुए १९७५ में दिल्ली आ गए और इसी फुटपाथ पर जम गए. इतने संघर्षों के बावजूद पढ़ाई-लिखाई के प्रति उनका जूनून कम नहीं हुआ. मराठी में माध्यमिक तक शिक्षा हो ही चुकी थी. गाँव के पुस्तकालय में हिन्दी की अच्छी-अच्छी पुस्तकें पढ़ने को मिलती थीं. दिल्ली आने के बाद चाय-सिगरेट बेचकर आजीविका और परिवार पालने के बाद बचे हुए पैसों से दरियागंज जाकर शेक्सपीयर, गुरुदेव रविन्द्रनाथ, मुंशी प्रेमचंद, गुलशन नंदा आदि की पुस्तकें खरीद लाते और पढ़ते. साथ-साथ रात को अपने विचार लिखते भी जाते. लक्ष्मण राव का पहला उपन्यास नईदुनिया की नई कहानी१९७९ में प्रकाशित हुआ, उस समय वे चर्चा का विषय बन गए. लोगों को भरोसा नहीं होता था कि एक चायवाला और उपन्यासकार?? लेकिन जल्दी ही टाईम्स ऑफ इण्डिया के रविवारीय संस्करण में उनका संक्षिप्त परिचय छपा, इसके बाद तो धूम मच गई. १९८४ में इनकी मुलाक़ात श्रीमती इंदिरा गाँधी से हुई तथा २००९ में राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने भी राष्ट्रपति भवन में बुलाकर लक्ष्मण राव जी की भूरि-भूरि प्रशंसा की. लक्ष्मण राव जी को कई सम्मान, पुरस्कार एवं प्रशंसा-पत्र प्राप्त हो चुके हैं. अभी तक दर्जनों लेख तथा २३ उपन्यास-पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं.



कोई भी व्यक्ति जब चाहे तब उनसे इसी चाय की गुमटी पर सुबह सात से रात्रि नौ बजे तक बड़े आराम से भेंट कर सकता है... लक्ष्मण राव जैसे व्यक्तियों को देखकर लगता है कि समय की कमीनामक कोई चीज़ नहीं होती, एवं लगन तथा रूचि बरकरार हो, तो व्यक्ति अपने शौक पूरे करने के लिए समय निकाल ही लेता है. न तो गरीबी उसे रोक सकती है, और ना ही संघर्ष और मुश्किलें उसकी राह में बाधा बन सकते हैं... 

Pizza

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पिज्जा... 


पत्नी ने कहा - आज धोने के लिए ज्यादा कपड़े मत निकालना…

- क्यों?? उसने कहा..

- अपनी काम वाली बाई दो दिन नहीं आएगी…

- क्यों??

- गणपति के लिए अपने नाती से मिलने बेटी के यहाँ जा रही है, बोली थी…

- ठीक है, अधिक कपड़े नहीं निकालता…

- और हाँ!!! गणपति के लिए पाँच सौ रूपए दे दूँ उसे? त्यौहार का बोनस..

- क्यों? अभी दिवाली आ ही रही है, तब दे देंगे…

- अरे नहीं बाबा!! गरीब है बेचारी, बेटी-नाती के यहाँ जा रही है, तो उसे भी अच्छा लगेगा… और इस महँगाई के दौर में उसकी पगार से त्यौहार कैसे मनाएगी बेचारी!!

- तुम भी ना… जरूरत से ज्यादा ही भावुक हो जाती हो…

- अरे नहीं… चिंता मत करो… मैं आज का पिज्जा खाने का कार्यक्रम रद्द कर देती हूँ… खामख्वाह पाँच सौ रूपए उड़ जाएँगे, बासी पाव के उन आठ टुकड़ों के पीछे…

- वा, वा… क्या कहने!! हमारे मुँह से पिज्जा छीनकर बाई की थाली में??



तीन दिन बाद…पोंछा लगाती हुई कामवाली बाई से पति ने पूछा...

- क्या बाई?, कैसी रही छुट्टी?

- बहुत बढ़िया हुई साहब… दीदी ने पाँच सौ रूपए दिए थे ना.. त्यौहार का बोनस..

- तो जा आई बेटी के यहाँ…मिल ली अपने नाती से…?

- हाँ साब… मजा आया, दो दिन में ५०० रूपए खर्च कर दिए…

- अच्छा!! मतलब क्या किया ५०० रूपए का??

- नाती के लिए १५० रूपए का शर्ट, ४० रूपए की गुड़िया, बेटी को ५० रूपए के पेढे लिए, ५० रूपए के पेढे मंदिर में प्रसाद चढ़ाया, ६० रूपए किराए के लग गए.. २५ रूपए की चूड़ियाँ बेटी के लिए और जमाई के लिए ५० रूपए का बेल्ट लिया अच्छा सा… बचे हुए ७५ रूपए नाती को दे दिए कॉपी-पेन्सिल खरीदने के लिए… झाड़ू-पोंछा करते हुए पूरा हिसाब उसकी ज़बान पर रटा हुआ था…

- ५०० रूपए में इतना कुछ??? वह आश्चर्य से मन ही मन विचार करने लगा...

उसकी आँखों के सामने आठ टुकड़े किया हुआ बड़ा सा पिज्ज़ा घूमने लगा, एक-एक टुकड़ा उसके दिमाग में हथौड़ा मारने लगा… अपने एक पिज्जा के खर्च की तुलना वह कामवाली बाई के त्यौहारी खर्च से करने लगा… पहला टुकड़ा बच्चे की ड्रेस का, दूसरा टुकड़ा पेढे का, तीसरा टुकड़ा मंदिर का प्रसाद, चौथा किराए का, पाँचवाँ गुड़िया का, छठवां टुकड़ा चूडियों का, सातवाँ जमाई के बेल्ट का और आठवाँ टुकड़ा बच्चे की कॉपी-पेन्सिल का..

आज तक उसने हमेशा पिज्जा की एक ही बाजू देखी थी, कभी पलटाकर नहीं देखा था कि पिज्जा पीछे से कैसा दिखता है… लेकिन आज कामवाली बाई ने उसे पिज्जा की दूसरी बाजू दिखा दी थी… पिज्जा के आठ टुकड़े उसे जीवन का अर्थ समझा गए थे… “जीवन के लिए खर्च” या “खर्च के लिए जीवन”का नवीन अर्थ एक झटके में उसे समझ आ गया…

Islamization and Conversion in Karnataka Police Station

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पुलिस थाने के अंदर खुलेआम इस्लाम का प्रचार...


शुरू में एक सच्ची घटना जान लीजिए, ताकि आप आसानी से समाझ सकें कि “सेकुलरिज़्म” किस तरह से इस देश को तोड़ने और देशद्रोहियो की मदद कर रहा है. कुछ दिनों पहले की ही घटना है उत्तरप्रदेश के वाराणसी शहर से भगाकर लाई गई एक लड़की के बारे में उसके माता-पिता को जानकारी मिली कि वह कर्नाटक के मंगलोर शहर में है. यह जानकारी भी उन्हें तब मिली, जब उसे भगाकर लाने वाले अली मोहम्मद नामक आदमी ने उनसे फिरौती माँगना शुरू किया. लड़की के परिवार ने उसका पता लगाया और कर्नाटक के पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट लिखवाई. कर्नाटक पुलिस ने लड़की को बरामद किया और थाने में लाकर सभी के सामने उसे पुनः हिन्दू धर्म में शामिल करवाया. लेकिन जैसा कि हमेशा से होता आया है, तथाकथित सेकुलर मीडिया ने अपनी घृणित हताशा और मंदबुद्धि के चलते इस बात पर हंगामा खड़ा कर दिया कि पुलिस के संरक्षण में “सेकुलरिज़्म खतरे में है” (ठीक उसी प्रकार जैसे मस्जिदों से अक्सर नारा दिया जाता है, इस्लाम खतरे में है). इस सेकुलर मीडिया ने अपना दबाव इतना अधिक बढ़ाया कि सरकार को इस मामले में चार पुलिसकर्मियों को निलंबित करना पड़ा.ये तो सिर्फ एक घटना है, ऐसी कई घटनाएँ हो चुकी हैं, जहाँ पुलिस का मनोबल तोड़ने की सोची-समझी चालें चली जा रही हैं.

अब एक नया मामला सामने आया है, जिसमें पुलिस के जवानों का ही इस्लामीकरण शुरू किया जा रहा है. कर्नाटक में नवनिर्वाचित कांग्रेस सरकार की नाक के नीचे, धर्म परिवर्तन की कोशिशें खुलेआम शुरू हो चुकी हैं. ऐसी ही एक असंवैधानिक घटना को कर्नाटक के एक स्थानीय अखबार ने “लाईव” कैमरों पर पकड़ा.इस्लामिक गतिविधियों का बड़ा केन्द्र बन चुके कर्णाटक के मैंगलोर शहर में एक संगठित जेहादी गिरोह ने समाज, व्यवस्था और विशेषकर पुलिस सिस्टम को प्रदूषित करने का अभियान चलाया हुआ है, ताकि खाड़ी से मिलने वाले पैसों के जरिये भारत में भी उनकी देशद्रोही गतिविधियाँ चलती रहें.


प्रस्तुत चित्र उसी मीडिया वेबसाइट से लिए गए हैं. चित्र में दिखाई दे रहा शख्स है मोहम्मद ईशाक, जो स्वयं को हिन्दू धर्म से इस्लाम में धर्म परिवर्तित कहता है और अपना पूर्व नाम गिरीश बताता है. ये व्यक्ति अपनी मीठी-मीठी बातों से न सिर्फ सामाजिक संगठनों में बल्कि कुछ हिन्दू संगठनों में भी अपनी घुसपैठ बना चुका है. हिंदुओं के भोलेपन और उदारता का फायदा उठाते हुए, इसे जहाँ भी मौका मिलता है, ये कुरान बाँटने लगता है और धर्म प्रचार शुरू कर देता है. इशाक मोहम्मद “स्ट्रीट-दावाह” नामक संस्था की मैंगलोर शाखा का प्रमुख है. स्ट्रीट-दावाह नामक संस्था, सड़क पर आते-जाते राहगीरों को कुरआन बाँटने का कार्य करती है तथा सड़कों पर ही रहने वाले गरीबों और बच्चों को इस्लाम का ज्ञानदेती है. पिछले कुछ माह में मोहम्मद ईशाक ने कर्नाटक के सैकड़ों थानों में दिनदहाड़े जाकर सभी के सामने इस्लाम का प्रचार किया, थाने में ऑन-ड्यूटी पुलिस अधिकारियों को कुरान और हदीस बाँटी. लेकिन हमारे तथाकथित सेकुलर मीडिया ने इस पर चूं भी नहीं की.अक्सर श्रीराम सेना और बजरंग दल को गरियाने वाले, रोटी और टोपी जैसे फालतू मुद्दों पर दिन-रात छाती पीटने वालों तथा संघ को कोसने वाले मीडिया में बैठे कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों को इसमें कोई आपत्ति नज़र नहीं आई.

तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और केरल के कई थानों में बड़ी संख्या में पुलिसकर्मी धर्म-परिवर्तित हो चुके हैं. हिन्दू जनजागृति समिति ने सबूतों के साथ ऐसे पुलिसकर्मियों की शिकायत की तो उन्हीं के कार्यकर्ताओं को फर्जी धाराओं में फंसाकर अंदर कर दिया गया. कथित मुख्यधाराका मीडिया लगातार ऐसे मुद्दों को छिपा जाता है, सोशल मीडिया पर गाहे-बगाहे ऐसे मुद्दों बाकायदा तस्वीरों सहित दिखाए जाते हैं. कर्नाटक सरकार को पुलिस थानों में ऐसे खुलेआम जारी धर्म प्रचार और कुरआन बाँटने की जाँच करनी चाहिए, तथा जो पुलिसकर्मी इसमें सहयोगी हैं उन्हें बर्खास्त किया जाना चाहिए.


सन्दर्भ :- http://www.covertwires.com/index.php/articles/the-islamization-of-karnataka-police-and-silence-of-vigilant-media#sthash.KLzrWb8l.12p8Wqc6.dpuf

Fate of Sanskrit and Sanskrit University

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देवभाषा  संस्कृत के पतन का कारण और नौकरशाही का रवैया...


संस्कृत को देवभाषा कहा जाता है. और इसे यह दर्जा यूँ ही किसी के कहने भर से नहीं मिल गया है, बल्कि भारतीय संस्कृति, आध्यात्म, वास्तुकला से लेकर तमाम धार्मिक आख्यान संस्कृत में रचे-लिखे और गत कई शताब्दियों से पढ़े गए हैं, मनन किए गए हैं. आज़ादी के समय से ही संस्कृत को पीछे धकेलकर अंग्रेजी को बढ़ाने की साज़िश प्रगतिशीलता और सेकुलरिज़्म के नाम पर होती आई है. कुतर्कियों का तर्क है कि यह भाषा ब्राह्मणवाद को बढ़ावा देती है तथा यह सिर्फ आर्यों की भाषा है. ये बात और है कि संस्कृत भाषा में उपलब्ध ज्ञान को चीन से आए हुए विद्वानों ने भी पहचाना और जर्मनी के मैक्समुलर ने भी. इसीलिए तत्कालीन नालन्दा और तक्षशिला के विराट पुस्तकालयों से संस्कृत भाषा के कई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ चीनी यात्री घोड़ों पर लादकर चीन ले गए और उनका मंदारिन भाषा में अनुवाद किया. अधिक दूर जाने जरूरत नहीं है, 1940 तक जर्मनी सहित कई यूरोपीय देशों के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में एक संस्कृत विभाग अवश्य होता था,आज भी कई विश्वविद्यालयों में है. कथित प्रगतिशीलों के कुतर्क को भोथरा करने के लिए एक तथ्य ही पर्याप्त है कि जब भारत के संविधान की रचना हो रही थे, उस समय सिर्फ दो लोगों ने संस्कृत को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता देने का प्रस्ताव रखा था, और वे थे डॉ भीमराव अम्बेडकर तथा ताजुद्दीन अहमद, हालाँकि बाद में इस प्रस्ताव को नेहरू जी ने अज्ञात कारणों से खारिज करवा दिया था.

संक्षेप में की गई इस प्रस्तावना का अर्थ सिर्फ इतना है कि जिस भाषा का लोहा समूचा विश्व आज भी मानता है, उसी देवभाषा संस्कृत को बर्बाद करने और उसकी शिक्षा को उच्च स्थान दिलाने के लिए हमारी सरकारें कितनी गंभीर हैं यह इसी बात से स्पष्ट है कि भारत देश में संस्कृत भाषा के उत्थान एवं शिक्षण हेतु स्थापित केन्द्रीय अभिकरण एवं मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार से सीधे सम्बद्ध, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान (वेबसाईटwww.sanskrit.nic.in) की स्थिति आज अत्यन्त दयनीय एवं करुणापूर्ण है.


हिन्दी की एक लोकोक्ति "आगे नाथ न पीछे पगहा"यहाँ पूर्णतः चरितार्थ हो रही है | विश्व के सबसे बडे संस्कृत विश्वविद्यालय के रूप में प्रतिष्ठित, इस विश्वविद्यालय में न ही कोई स्थायी कुलपति है, और न ही समग्र रूप से स्थायी प्राध्यापक हैं|  इसके बावजूद इस संस्थान के छात्र छात्रायें बडी ही विनम्रता, सरलता, धीरता, के साथ कोई आपत्ति उठाये बिना यहाँ अध्ययन कर रहे हैं| क्या भारत में संस्कृत भाषा का एक भी योग्य विद्वान नहीं है,  जिसे इस राष्ट्रीय स्तर के संस्कृत संस्थान का कुलपति बनाया जा सके? जब संस्कृत की ऐसी प्रमुख संस्था का ये हाल है, तो सोचिये संस्कृत की अन्य छोटी छोटी संस्थाओं की क्या हालत होगी?



इस सन्दर्भ में मुझे एक बात यह समझ नहीं आती, कि संस्कृत के बडे बडे प्रकाण्ड पण्डित इस विषय में मौन क्यों हैं ? क्या राष्ट्रपति पुरस्कार, बादरायण पुरस्कार, कालिदास पुरस्कार, व्यास पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार, इत्यादि पुरस्कारों को प्राप्त करने के बाद इन प्रकाण्ड पण्डितों का संस्कृत के प्रति कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता? ये विद्वान अपनी आवाज़ बुलंद क्यों नहीं करते? 



प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी द्वारा हिन्दी को बढ़ावा देने तथा भारतीय संस्कृति के प्रति उनके रुझान को देखते हुए आशा बंधी थी, कि शायद इस मामले में कुछ विशिष्ट प्रगति हो, लेकिन वर्तमान सरकार भी आडम्बर में व्यस्त है| संस्कृत भाषा के विकास का दिखावा करने के लिए वह लाखों रुपयों के भव्य आयोजन कर सकती है, संस्कृत सप्ताह तो मना सकती है, नालन्दा और तक्षशिला को पुनर्जीवित करने के नाम पर करोड़ों रूपए अनुदान तत्काल दिया जा सकता हैपरन्तु  संस्कृत के अध्यापकों को देने के लिए इस सरकार के पास रुपयों का नितान्त अभाव है
ऐसा कैसे? क्या नौकरशाही अभी भी इतनी मजबूत है कि वह अपनी मनमर्जी चला सके?

राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के अलावा अन्य संस्कृत विश्वविद्यालयों की भी लगभग यही स्थिति है. इस सूची में श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठसम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय आदि. संस्कृत के अधिकांश संस्थानों में ऐसे-ऐसे लोग काबिज हैं, जिनका संस्कृत से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है. जिस समय श्री राधावल्लभ त्रिपाठी यहाँ कुलपति थे तब यह संस्थान नई ऊँचाई को छू रहा था, किन्तु अब धीरे-धीरे दुरावस्था की तरफ बढ़ रहा है. संस्कृत जगत के सभी दिग्गज मूक होकर संस्कृत के पतन का तमाशा देख रहे है। नाम न छापने की शर्त पर एक तदर्थ शिक्षक कहते हैंराष्ट्रीय संस्कृत संस्थान में विगत सात वर्षो से अपनी सेवाएँ देने के बाद भी यदि हमे अपने भविष्य को लेकर चिंतित होना पड़ेगा तो में यही कहूँगा कि संस्कृत पढने और संस्कृत संस्थानों में पढ़ाने का कोई लाभ नहीं है... अपील करता हूँ सभी संस्कृत के विद्यार्थियों से की वे संस्कृत पढना छोड कर कोई और विषय पढ़ें.. ऐसे तमाम शिक्षकों का कोई रखवाला नही है। कई शिक्षक दस-दस साल से संस्थान में कार्यरत हैं और सेवा दे रहे हैं, परन्तु महीने का तदर्थ टेम्पररी कॉन्ट्रेक्ट देकर व मनमाने इंटरव्यू ले लेकर नियुक्तियाँ होती है.सत्र प्रारंभ होने के दो-दो माह तक शिक्षक की नियुक्तियां नहीं,  कर्मचारियों का भविष्य अधर में है। इसके अलावा एक नया तुगलकी फरमान जारी किया है की केवल सेवानिवृत्त रिटायर्ड लोगों की नियुक्ति ही की जाए, क्योंकि शायद सेवानिवृत्त शिक्षक अपनी पुनर्नियुक्ति को बोनस ही मानता है और प्रबंधन अथवा प्रशासन के खिलाफ कोई शिकायत नहीं करता. लेकिन उन युवा शिक्षकों अथवा अधेड़ आयु के कर्मचारियों का क्या, जिनके सामने अभी पूरा जीवन पड़ा है?

एक और मजेदार बात... सारी दुनिया कंप्यूटर युग में है. कई शोधों से यह सिद्ध हो चुका है कि संस्कृत भाषा कंप्यूटर प्रोग्रामिंग तथा एप्लीकेशंस के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है. लेकिन यहाँ आलम यह है कि संस्कृत विषयों के साथ हमेशा से ही पढाये जा रहे कंप्यूटर विषय जिसकी आधुनिक तकनीकी युग में सभी छात्रों के लिए नितांत आवश्यकता है, संस्कृत संरक्षण व सह-शैक्षणिक गतिविधियों में कंप्यूटर शिक्षकों तथा कर्मचारियों का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है,  NAAC तथा UGC की निरीक्षण समिति ने भी जहाँ आधुनिक विषयों में कंप्यूटर को सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताया था वहीं विद्वान रजिस्ट्रार महोदय द्वारा कंप्यूटर विषय को पूर्णतः समाप्त करके संस्कृत क्षेत्र को नुकसान पहुंचाने का अदभुत षडयंत्र किया है।

एक विडंबना देखिये कि जहाँ एक तरफ हम संस्कृत को बचाने और बढ़ाने के लिए झगड़ रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ ईरान के दिल्ली स्थित सांस्कृतिक केन्द्र के बाहर ईरान की तरफ से संस्कृत में बैनर लगाया जाता है... 


मानव संसाधन विकास मन्त्रालयभारत सरकार के अधीन राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान (मानित विश्वविद्यालय) जिसकी कुलाध्यक्ष (प्रेसिडेंट) मानव संसाधन विकास मंत्री माननीय श्रीमती स्मृति जुबिन ईरानी हैं विश्व में संस्कृत शिक्षण का सर्वाधिक बड़ा विश्वविद्यालय है भारत में इसके 10 परिसर हैं तथा अनेकों आदर्श संस्कृत महाविद्यालय इस विश्वविद्यालय के अंतर्गत चलते हैंवर्तमान में यह सरकार की अनदेखी व दुर्नीतियों के कारण अनेकों परेशानियों से जूझ रहा है.

इस विश्वविद्यालय की चंद प्रमुख समस्याएँ संक्षेप में निम्नलिखित हैं -

1. विश्व के सबसे बड़े संस्कृत विश्वविद्यालय के रूप में प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय जो कि NAAC एवं UGC से ‘A’ श्रेणी प्राप्त है में समग्र रूप से स्थाई प्राध्यापकों की भारी कमी हैऔर तो और लगभग एक वर्ष से स्थाई कुलपति की नियुक्ति भी नहीं हुई है|

2. कुलपति की अनुपस्थिति में संस्थान के फैसले रजिस्ट्रार के द्वारा लिए जा रहे हैं जबकि वर्तमान रजिस्ट्रार (कुलसचिव) का संस्कृत जगत से दूर दूर तक कभी कोई सम्बन्ध नहीं रहा हैयह इसी तरह है की कोई पराया आदमी आकर किसी के घर के फैसले करने लगे|

3. संस्कृत के संरक्षण एवं प्रचार हेतु पहले से ही चल रहे कई प्रोजेक्ट तथा अनुसन्धान कार्य बिना किसी कारण के अचानक ही बंद करा दिए गये हैं जिससे संस्कृत संरक्षण कार्यों की क्षति हुई है व इनसे जुड़े कितने ही कर्मचारियों की नौकरियां ख़त्म हो गयी हैं |

4. प्रबल व प्रामाणिक साक्षात्कारों में एक से अधिक बार उत्तीर्ण हो कर एवं यू.जी.सी. की सम्पूर्ण योग्यताओं के साथ आठ से बारह वर्षों से संस्थान को अपनी उत्कृष्ट सेवाएँ दे रहे विभिन्न विषयों के संविदागत व अतिथि अध्यापकों की इस बार मात्र तीन महीने की ही नियुक्ति दी गई जो पूर्व में 11 महीने की दी जाती थीइसके साथ ही विगत कई वर्षों से ये शिक्षक अपने-अपने विषयों का अध्यापन एवं स्वकार्योंउत्तरदायित्वों का समुचित ढंग से निर्वहन कर रहे हैं । जिसकी पुष्टि प्रत्येक परिसर के उत्कृष्ट परीक्षा परिणामों से की जा सकती है।

5. 8 से 12 वर्षों का अनुभव रखने वाले इन अध्यापको का सत्र के मध्य में पुनः साक्षात्कार लिया जाएगा जिससे उनका भविष्य इतने वर्षों की उत्कृष्ट सेवा देने के बाद भी आशंकित है व घोर मानसिक तनाव झेल रहे हैं|

6. सत्र प्रारंभ होने के 2-2 महीनो बाद तक शिक्षकों की नियुक्ति न होने के कारण पढ़ाई का नुकसान झेल चुके छात्रों को फिर से पढ़ाई का नुकसान झेलना पड़ेगा क्योंकि शिक्षकों का महीनों का अनुबंध सत्र के बीच ही ख़त्म हो जाएगा|

7. रजिस्ट्रार (कुलसचिव) का यह आदेश अत्यंत हास्यास्पद और गंभीर था की संविदागत शिक्षक पदों पर सेवानिवृत्त लोगों की ही नियुक्ति की जाएज़ाहिर है कि यह बेरोजगारी को बढ़ावा देने वाला कदम है|

8. अनुबंध पर लगे शिक्षको में वेतन को लेकर भी भारी विसंगतियाँ हैंसमान योग्यताकार्य एवं समय होते हुए भी व पूर्व में जो सभी कर्मचारी समान वेतन पा रहे थे अब उनमें से कुछ को बहुत कम व कुछ को अधिक वेतन दिया जा रहा हैजहाँ प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी हर क्षेत्र में तकनीकी शिक्षा के प्रबल हिमायती हैं वहीँ यहाँ तकनीकी कर्मचारियों के साथ पूर्णतः सौतेला व्यवहार किया जा रहा है|

देश के लाखों संस्कृत प्रेमियों तथा इस क्षेत्र से जुड़े विद्वानों की यह उम्मीद बेमानी नहीं है कि अब स्वयं माननीय मंत्री श्रीमती स्मृति ईरानी इस तरफ विशेष ध्यान देंगी, ताकि संस्कृत भाषा के साथ जैसा बर्ताव और जैसी उसकी अवस्था की जा रही है, उस पर न सिर्फ रोक लगे, बल्कि संस्कृत शिक्षण का प्राचीन वैभव पुनः स्थापित किया जा सके.

नोट :- सबसे अंत में सबसे विशेष –
इस विश्वविद्यालय के कुलसचिव के बारे में खास बात

डॉ. बिनोद कुमार सिंह कुलसचिवराष्ट्रिय संस्कृत संस्थान नई दिल्ली - ये साहब 1992 से 1998 तक बंगलौर में सरकारी सेवा में रहे... इसी बीच 1995 में इन्होंने भोपाल के रवीन्द्र महाविद्यालय से नियमित छात्र के रूप में एलएलबी की परीक्षा पास की, तथा 1995 में ही राजस्थान के मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय से पीएच.डी. (सामाजिक विज्ञान) की उपाधि प्राप्त की. स्थायी कुलपति के अभाव में संस्कृत से जुड़े मामलों पर सारे अधिकार गैर-संस्कृत वाले सज्जन के पास... आखिर क्यों? दूसरी बात यह कि ऐसा पता चला है कि सिंह साहब की डिग्रीयों के फर्जी होने का मामला भी अदालत में लम्बित है... बताया जाता है कि विश्वविद्यालय का लगभग समूचा स्टाफ इनकी कार्यशैली से नाराज चल रहा है. बहरहाल, यदि व्यक्तिवादको थोड़ी देर दरकिनार भी कर दें, तब भी संस्कृत भाषा के साथ जैसा सौतेला व्यवहार फिलहाल चल रहा है, उसमें तत्काल प्रभाव से सुधार की आवश्यकता है...

Hats Off to Patriotic Young Scientist PV Arun

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देशभक्त युवा वैज्ञानिक पीवी अरुण को सलाम

जब भारत के अधिकाँश कूल ड्यूड युवा अमेरिका में अच्छी नौकरी, स्थायी वीज़ा और नागरिकता की आस लगाए रहते हैं, ऐसे समय पर केरल के इस युवा ने एक नई मिसाल कायम की है. अमेरिका की प्रतिष्ठित स्पेस एजेंसी NASA को भी इस युवा के जज्बे को देखते हुए अपने नियम शिथिल करने पड़े. जी हाँ, बात हो रही है, केरल के पीवी अरुण की.

भोपाल की NIITसंस्थान MANITसे बीटेक की डिग्री लेने के बाद, अरुण ने छात्रवृत्ति द्वारा अमेरिका की नंबर एक यूनिवर्सिटी मैसाचुएट्स इंजीनियरिंग से अपनी पी.एचडी. पूरी की. उनकी अपार प्रतिभा और बुद्धि को देखते हुए NASAके अधिकारियों ने अरुण को स्थाई नौकरी, मोटी तनख्वाह और आवास आदि की पेशकश की.परन्तु जैसा कि नासाका नियम है, वहाँ पर स्थायी नौकरी हेतु व्यक्ति को अपनी वर्तमान नागरिकता छोड़कर अमेरिका की नागरिकता लेना जरूरी है, यह पता चलते ही पीवी अरुण ने नासा के सामने यह शर्त रख दी कि वे अपनी भारतीय नागरिकता नहीं छोड़ेंगे, यदि नासा को मंजूर हो तो ठीक वर्ना वे पी.एचडी. के बाद का अपना शोध भारत में ही करेंगे. बहरहाल, प्रतिभाशाली वैज्ञानिक को नासा खोना नहीं चाहती थी, इसलिए इतिहास में पहली बार नासा ने राष्ट्रपति की विशेष अनुमति से अपने नियमों में ढील दी और अरुण को NASAमें शोध एवं उसकी मर्जी होने तक नौकरी जारी रखने की अनुमति दी है.
अब पीवी अरुण नासाके रिमोट सेंसिंग द्वारा ब्रह्माण्ड में अलौकिक जीवन की खोजनामक नए शोध कार्यक्रमका हिस्सा होंगे. यहाँ पर पीवी अरुण को स्वयं का एक अलग वर्क स्टेशन प्रदान किया जाएगा, तथा उनके काम में कोई भी अधिकारी हस्तक्षेप नहीं कर सकेगा. अखबारों से बात करते हुए अरुण ने बताया कि उन्हें बचपन से ही कंप्यूटर साईंस में रूचि थी. भोपाल की MANITसे पास-आउट होने के बाद उन्होंने इन्फोसिस, IBMजैसी प्रतिष्ठित कंपनियों की आकर्षक पॅकेज वाली नौकरी ठुकरा दी थी. उनका सपना अंतरिक्ष विज्ञान में कुछ विशेष करने का था. ऐसे में उनके परिवार ने भी उनका पूरा साथ दिया और उन्हें आगे की पढ़ाई हेतु अमेरिका की MITमें डॉक्टरेट के लिए भेजा. अरुण आगे बताते हैं कि उन्हें कृत्रिम बुद्धिजैसे नए क्षेत्र में अनुसंधान करने की तीव्र इच्छा थी, वे आईटी कंपनियों के बंधे-बँधाए मार्ग और बोरिंग नौकरी पर चलना नहीं चाहते थे.

पीवी अरुण का उत्साह सभी परिजनों तथा शिक्षकों ने बढ़ाया. इसके अलावा अरुण के आदर्श डॉ अब्दुल कलाम ने भी उसकी हौसला-अफज़ाई की. एमटेक करने के दौरान पूर्व इसरो अध्यक्ष वैज्ञानिक डॉ अब्दुल कलाम से अक्सर उसने अपने कई प्रोजेक्ट्स पर चर्चा की. इस प्रतिभाशाली युवा का कहना है कि विज्ञान सरलतम होना चाहिए, ताकि सामान्य व्यक्ति भी इसमें रस ले सके. जब मैं नासामें ख़ासा अनुभव हासिल कर लूँगा, तब भारत वापस लौटकर इसरोमें काम करना पसंद करूँगा. अरुण के अनुसार जिस प्रकार सबसे कम खर्च में भारत ने मंगल यान सफलतापूर्वक लॉन्च किया है, स्पष्ट है कि अगले सात-आठ वर्ष में भारत का ISROविश्व विज्ञान शक्ति का एक केन्द्र होगा.
पीवी अरुण की इस देशभक्ति को नासा ने स्वीकार किया और उसके साथ निर्धारित अवधि का अनुबंधकिया और यह सुविधा भी दी कि वे जब चाहें तब भारत लौट सकते हैं. जानी-मानी कम्प्यूटर वैज्ञानिक डॉ बारबरा लिस्कोव ने अरुण की इस भावना के बारे गृहमंत्री राजनाथ सिंह को बताया तो उन्होंने तत्काल इसकी सूचना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दी. मोदी ने अरुण को दस मिनट भेंट करने हेतु समय देकर प्रधानमंत्री निवास पर आमंत्रित किया, लेकिन यह मुलाक़ात आधे घंटे से भी अधिक चली. नरेंद्र मोदी ने पीवी अरुण को उनके उज्जवल भविष्य हेतु शुभकामनाएँ प्रदान कीं और कहा कि ISROके दरवाजे उनके लिए सदैव खुले हुए हैं...

ऐसे देशभक्त को मेरा सलाम... 

Water Management of Gambhir Dam Ujjain is Must

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सिर्फ जल संरक्षण नहीं, जल संचय,प्रबंधन और बचत भी आवश्यक...

- Suresh Chiplunkar, Ujjain 

आधुनिक युग में जैसा कि हम देख रहे हैं, प्रकृति हमारे साथ भयानक खेल कर रही है, क्योंकि मानव ने अपनी गलतियों से इस प्रकृति में इतनी विकृतियाँ उत्पन्न कर दी हैं, कि अब वह मनुष्य से बदला लेने पर उतारू हो गई है. केदारनाथ की भूस्खलन त्रासदी हो, या कश्मीर की भीषण बाढ़ हो, अधिकांशतः गलती सिर्फ और सिर्फ मनुष्य के लालच और कुप्रबंधन की रही है. 

बारिश के पानी को सही समय पर रोकना, उचित पद्धति से रोकना ताकि वह भूजल के रूप में अधिकाधिक समय तक सुरक्षित रह सके तथा छोटे-छोटे स्टॉप डैम, तालाब इत्यादि संरचनाओं के द्वारा ग्रामीण इलाकों में किसानों को आत्मनिर्भर बनाने की विभिन्न प्रक्रियाओं पर लगातार विचार किया जाता रहा है और आगे भी इस दिशा में कार्य किया ही जाता रहेगा, क्योंकि जल हमारी अर्थव्यवस्था, हमारे जीवन, हमारे सामाजिक ताने-बाने, हमारी सांस्कृतिक गतिविधियों का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है. ज़ाहिर है कि समय-समय पर इस विषय को लेकर कई जल विशेषज्ञ, इंजीनियर एवं समाजशास्त्रियों द्वारा उल्लेखनीय कार्य किया गया है. परन्तु मेरा मानना है कि हमें जल संरक्षण के साथ-साथ जल बचत पर भी उतनी ही गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है.चूँकि मैं मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले से हूँ, अतः इस सम्बन्ध में मैं आपके समक्ष इसी क्षेत्र को उदाहरण के रूप में पेश करता हूँ, ताकि इस उदाहरण को देश के अन्य जिलों की सभी जल संरचनाओं पर समान रूप से लागू किया जा सके.

जैसा कि सभी जानते हैं, उज्जैन एक प्राचीन नगरी है जहाँ ज्योतिर्लिंग भगवान महाकालेश्वर स्थित हैं, तथा प्रति बारह वर्ष के पश्चात यहाँ कुम्भ मेला आयोजित होता है, जिसे सिंहस्थकहा जाता है. उज्जैन में आगामी कुम्भ मेला अप्रैल-मई २०१६ में लगने जा रहा है, अर्थात अब सिर्फ डेढ़ वर्ष बाकी है. उज्जैन नगर को जलप्रदाय करने अर्थात इसकी प्यास बुझाने का एकमात्र स्रोत है यहाँ से कुछ दूरी पर बना हुआ बाँध जो 1992वाले कुम्भ के दौरान गंभीर नदी पर बनाया गया था. उल्लेखनीय है कि गंभीर नदी, चम्बल नदी की सहायक नदी है, जो कि नर्मदा नदी की तरह वर्ष भर सदानीरानहीं रहती, अर्थात सिर्फ वर्षाकाल में ही इसमें पानी बहता है और इसी पानी को वर्ष भर संभालना होता है. कहने को तो यहाँ शिप्रा नदी भी है, परन्तु वह भी सदानीरा नहीं है और उसे भी स्थान-स्थान पर स्टॉप डैम बनाकर पानी रोका गया है जो सिंचाई वगैरह के कामों में लिया जाता है, पीने के योग्य नहीं है क्योंकि सारे उज्जैन का कचरा और मल-मूत्र इसमें आकर गिरता है. पेयजल के एकमात्र स्रोत अर्थात गंभीर बाँध की मूल क्षमता 2250 McFTहै.1992में इसके निर्माण के समय यह कहा गया था कि, अब अगले तीस-चालीस साल तक उज्जैन शहर को पानी के लिए नहीं तरसना पड़ेगा. इंजीनियरों द्वारा ये भी कहा गया था कि इस बाँध को एक बार पूरा भर देने के बाद, यदि दो साल तक लगातार बारिश नहीं भी हो, तब भी कोई तकलीफ नहीं आएगी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. वर्ष 2004में जलसंकट और वर्ष 2007में यह प्राचीन नगरी अपने जीवनकाल का सबसे भयानक सूखा झेल चुकी है.उस वर्ष जून से सितम्बर तक औसत से 40%कम वर्षा हुई थी. तो फिर ऐसा क्या हुआ, कि मामूली सा जलसंकट नहीं, बल्कि सात-सात दिनों में एक बार जलप्रदाय के कारण शहर से पलायन की नौबत तक आ गई? कारण वही है, कुप्रबंधन, राजनीति और दूरगामी योजनाओं का अभाव.


(चित्र :- उज्जैन नगर को पेयजल आपूर्ति करने वाला गंभीर बाँध 
जो शहर से लगभग १८ किमी दूर है) 

जल संरक्षण के साथ-साथ जिस जल संचय एवं जल बचत के बारे में मैंने कहा, अब उसे सभी बड़े शहरों एवं नगरों में लागू करना बेहद जरूरी हो गया है. उज्जैन में 2007 के भीषण जलसंकट के समय प्रशासन का पहला कुप्रबंधन यह था कि जब उन्हें यह पता था कि माह सितम्बर तक औसत से बहुत कम बारिश हुई है, तो उन्हें “लिखित नियमों” के अनुसार बाँध के गेट खुले रखने की क्या जरूरत थी? पूछने पर प्रशासनिक अधिकारियों ने कहा कि यह शासकीय नियम है कि वर्षाकाल में माह जुलाई से पन्द्रह सितम्बर तक बाँध के गेट खुले रखना जरूरी है, लेकिन यह एक सामान्य समझ है कि इस नियम को तभी लागू किया जाना चाहिए, जब लगातार बारिश हो रही हो. ऊपर से बारिश नहीं हुई और इधर बाँध से पानी बहता रहा. दूसरी गलती यह रही कि नवंबर से जनवरी के दौरान गेहूँ की फसल के लिए इसी बाँध से आसपास के किसानों ने पानी की जमकर चोरी की और प्रशासन तथा राजनीति मूकदर्शक बने देखते रहे, क्योंकि किसान एक बड़ा वोट बैंक है. हालाँकि दिखावे के लिए बाँधों के आसपास स्थित गाँवों में समृद्ध किसानों की चंद मोटरें और पम्प जब्त किए जाते हैं, लेकिन यह बात सभी जानते हैं कि जल संसाधन विभाग के कर्मचारी इसमें कितनी रिश्वतखोरी करते हैं और आराम से पानी चोरी होने देते हैं. यह तो हुई राजनीती और कुप्रबंधन की बात, अब आते हैं दूरगामी योजनाओं के अभाव के बारे में.

इस वर्ष भी उज्जैन और आसपास बारिश कम हुई है. गंभीर बाँध जिसकी क्षमता 2250McFTहै वह इस बार सिर्फ 1700McFTही भर पाया है (वह भी इंदौर के यशवंत सागर तालाब की मेहरबानी से). अब जबकि यह स्पष्ट हो चुका है, कि आगे और बारिश होने वाली नहीं है तथा समूचे उज्जैन शहर को इतना ही उपलब्ध पानी जुलाई 2015के पहले सप्ताह तक चलाना है तो फिर अक्टूबर के माह में रोजाना जलप्रदाय की क्या जरूरत है?जी हाँ!!!, उज्जैन में पिछले वर्ष भी पूरे साल भर रोजाना एक घंटा नल दिए गए, फिर जब इस वर्ष बारिश में देरी हुई तो हाय-तौबा मचाई गई. इस साल भी बारिश कम हुई है, तब भी एक दिन छोड़कर जलप्रदाय के निर्णय में पहले देर की गई और अब त्यौहारों का बहाना बनाकर रोजाना जलप्रदाय किया जा रहा है. सार्वजनिक नल कनेक्शन की दुर्दशा के बारे में तो सभी जानते हैं. अतः रोजाना जो जलप्रदाय किया जा रहा है, वह खराब या टूटी हुई टोंटियों से नालियों में बेकार बहता जा रहा है, अथवा इस जलप्रदाय का फायदा सिर्फ उन मुफ्तखोरों को मिल रहा है, जो पानी बिल तक नहीं चुकाते. ऐसे में उज्जैन की जनता को आगामी मई-जून 2015के भविष्य की कल्पना भी डरा देती है. मेरा प्रस्ताव यह है कि पूरे देश में जहाँ भी किसी शहर की जलप्रदाय व्यवस्था सिर्फ एक स्रोत पर निर्भर हो, वहाँ साल भर एक दिन छोड़कर नलों में पानी दिया जाए. वैसे भी ठण्ड के दिनों में अर्थात नवंबर से फरवरी तक पानी की खपत कम ही रहती है. इसलिए इस दौरान जल संचय या जल बचत का यह फार्मूला जनता को मई-जून-जुलाई में राहत देगा, बशर्ते इसमें राजनीति आड़े ना आए.

दूरगामी योजनाओं के अभाव की दूसरी मिसाल है बाँधों में जमा होने वाली गाद, जिसे अंगरेजी में हम “सिल्ट” कहते हैं, की सफाई नहीं होना. प्रकृति का नियम है कि नदी में बारिश के दिनों में बहकर आने वाला पानी अपने साथ रेत, मिट्टी के बारीक-बारीक कण लेकर आता है, जो धीरे-धीरे बाँध की तलहटी में बैठते, जमा होते जाते हैं और जल्दी ही एक मोटी परत का रूप धारण कर लेते हैं. मैंने उज्जैन के जिस गंभीर बाँध का यहाँ उदाहरण दिया है, उसकी क्षमता 2250McFTबताई जाती है. उज्जैन नगर को पानी पिलाने में रोजाना का खर्च होता है लगभग 6-7 McFT. यदि मामूली हिसाब भी लगाया जाए, तो पता चलता है कि यदि शहर को रोजाना भी पानी दिया जाए तो वर्ष में लगभग 320-350दिनों तक जलप्रदाय किया जा सकता है (माह सितम्बर में बाँध भरने के दिन से गिनती लगाई जाए तो). लेकिन पिछले दस वर्ष में ऐसा कभी नहीं हुआ कि जुलाई माह आते-आते बाँध के खाली होने की नौबत ना आ जाती हो. ऐसा क्यों होता है?? ज़ाहिर है कि, जिस बाँध की क्षमता 2250MCFTबताई जा रही है, उसकी क्षमता उतनी है ही नहीं... यह क्षमता इसलिए कम हुई है, क्योंकि बाँध की तलहटी के एक बड़े हिस्से में खासी गाद जमा हो चुकी है, जिसकी सफाई वर्षों से आज तक नहीं हुई.यदि एक मोटा अनुमान भी लगाया जाए तो पता चलता है कि पिछले बीस वर्ष में गंभीर बाँध में गाद की एक खासी मोटी परत जमा हो गई है, जिसके कारण बाँध की वास्तविक क्षमता बेहद घट चुकी है, लेकिन अधिकारी और प्रशासन उसी पुराने स्केल पर मीटर की गहराई नाप रहा है जो बरसों पहले दीवार पर पेंट की गई है. कहने का तात्पर्य यह है कि जिस बाँध की क्षमता 2250बताई जा रही है वह शायद 1500 या उससे भी कम रह गई हो, अन्यथा सितम्बर से लेकर जुलाई तक सिर्फ 270दिनों में ही, हर साल बाँध का पानी खत्म क्यों हो जाता है? अतः मेरा दूसरा सुझाव यह है कि देश के सभी बाँधों में जमा गाद की गर्मियों में नियमित सफाई की जाए. गर्मियों के दिनों में जब बाँधों का पानी लगभग खत्म हो चुका होता है, उसी समय आठ दिनों के सामाजिक श्रमदान एवं प्रशासनिक सहयोग तथा आधुनिक उपकरणों के जरिये बाँधों को गहरा किया जाना चाहिए. यह पता लगाया जाना चाहिए कि बाँध की वास्तविक क्षमता क्या है?


(प्रस्तुत चित्र 2007 के जलसंकट के समय का है, साफ़ देखा जा सकता है कि बाँध की तलहटी में कितनी गाद जम चुकी है, जिसके कारण इसकी भराव क्षमता कम हुई है). 

तीसरी एक और महत्त्वपूर्ण बात यह है, कि बढ़ते शहरीकरण के कारण बाँध के पानी के उपयोग की प्राथमिकताओं में कलह होने लगा है. यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि बाँध का पानी सिंचाई के लिए है या पेयजल के लिए, अर्थात शहरी और ग्रामीण हितों का टकराव न होने पाए. अक्सर देखा गया है कि समृद्ध किसान नवंबर से फरवरी के दौरान अपनी फसलों के लिए बाँधों से पानी चोरी करते हैं. इसे रोका जाना चाहिए. इस पर रोक लगाने के लिए सिर्फ प्रशासनिक अमला काफी नहीं है, राजनैतिक इच्छाशक्ति भी जरूरी है, क्योंकि जैसा मैंने पहले कहा किसान एक बड़ा वोट बैंक है.

अंत में संक्षेप में सिर्फ तीन बिंदुओं में कहा जाए तो – १) शहरों में रोजाना जलप्रदाय की कतई आवश्यकता नहीं है, एक दिन छोड़कर जलप्रदाय किया जाना चाहिए... २) गर्मियों के दिनों में बाँधों की तलछट में जमा हुई गाद की नियमित सफाई होनी चाहिए, ताकि बाँध गहरा हो सके और उसकी क्षमता बढे... और ३) बाँध से पानी की चोरी रोकना जरूरी है, यह सुनिश्चित हो कि पानी का उपयोग पेयजल हेतु ही हो, ना कि सिंचाई के लिए.... यदि सभी शहरों में इन तीनों बिंदुओं पर थोड़ा भी ध्यान दिया जाएगा, तो मुझे विश्वास है कि “जल-संचय” एवं “जल-बचत” के माध्यम से भी हम काफी कुछ जल संरक्षण का लक्ष्य हासिल कर सकेंगे. मैं इस मीडिया चौपाल के माध्यम से अपने समस्त पत्रकार मित्रों एवं मीडिया समूहों से आव्हान करना चाहता हूँ कि सभी बड़े नगरों में इन तीन बिंदुओं पर अवश्य विचार किया जाए. इसमें मीडिया का दबाव कारगर होता है, और स्वाभाविक है कि जब हम कहते हैं कि जल ही जीवन है, तो अपने जीवन हेतु हमें सम्मिलित प्रयास करने ही होंगे... भूजल संरक्षण के साथ ही जो जल भण्डार हमें वर्षाकाल में उपलब्ध होते हैं उस पानी की बचत और समुचित प्रबंधकीय संचय करना भी जरूरी है.

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---____ :-  सुरेश चिपलूणकर, उज्जैन 

Hinduism Or Nationalistic is not a Right Winger...

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हिन्दू धर्म का समर्थक, दक्षिणपंथीनहीं कहा जा सकता...

(आदरणीय विद्वान डॉक्टर राजीव मल्होत्रा जी के लेख से साभार, एवं अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवादित)
अनुवादकर्ता : सुरेश चिपलूनकर, उज्जैन (मप्र)

मित्रों...

अक्सर आपने कथितबुद्धिजीवियों (कथितइसलिए लिखा, क्योंकि वास्तव में ये बुद्धिजीवी नहीं, बल्कि बुद्धि बेचकर जीविका खाने वाले व्यक्ति हैं) को राईट विंगअथवा दक्षिणपंथीशब्द का इस्तेमाल करते सुना होगा. इस शब्द का उपयोग वे खुद को वामपंथी अथवा बुद्धिजीवी साबित करने के लिए करते हैं, अर्थात 2+2=4सिद्ध करने के लिए वामपंथी का उल्टा दक्षिणपंथी. ये लोग अक्सर इस शब्द का उपयोग, हिन्दूवादियोंएवं राष्ट्रवादियोंको संबोधित करने के लिए करते हैं.

अब सवाल उठता है कि ये दोनों शब्द (अर्थात वामपंथ एवं दक्षिणपंथ) आए कहाँ से?? क्या ये शब्द भारतीय बुद्धिजीवियों की देन हैं? क्या इन शब्दों का इतिहास तमाम विश्वविद्यालयों में वर्षों से जमे बैठे लाल कूड़ेने कभी आपको बताया?? नहीं बताया!. असल में पश्चिम और पूर्व से आने वाले ऐसे ढेर सारे शब्दों को, जिनमें पश्चिमी वर्चस्व अथवा पूर्वी तानाशाही झलकती हो, उसे भारतीय सन्दर्भों से जबरदस्ती जोड़कर एक स्थानीय पायजामापहनाने की बौद्धिक कोशिश सतत जारी रहती है. इन बुद्धिजीवियों के अकादमिक बहकावे में आकर कुछ हिंदूवादी नेता भी खुद को राईट विंग या दक्षिणपंथीकहने लग जाते हैं.जबकि असल में ऐसा है नहीं. आईये देखें कि क्यों ये दोनों ही शब्द वास्तव में भारत के लिए हैं ही नहीं...

फ्रांस की क्रान्ति के पश्चात, जब नई संसद का गठन हुआ तब किसानों और गरीबों को भी संसद का सदस्य होने का मौका मिला, वर्ना उसके पहले सिर्फ सामंती और जमींदार टाईप के लोग ही सांसद बनते थे. हालाँकि चुनाव में जीतकर आने के बावजूद, रईस जमींदार लोग संसद में गरीबों के साथ बैठना पसंद नहीं करते थे. ऐसा इसलिए कि उन दिनों फ्रांस में रोज़ाना नहाने की परंपरा नहीं थी. जिसके कारण गरीब और किसान सांसद बेहद बदबूदार होते थे. जबकि धनी और जमींदार किस्म के सांसद कई दिनों तक नहीं नहाने के बावजूद परफ्यूम लगा लेते थे और उनके शरीर से बदबू नहीं आती थी. परफ्यूम बेहद महँगा शौक था और सिर्फ रईस लोग ही इसे लगा पाते थे और परफ्यूम लगा होना सामंती की विशेष पहचान था. तब यह तय किया गया कि संसद में परफ्यूम लगाए हुए अमीर सांसद अध्यक्ष की कुर्सी के एक तरफ बैठें और जिन्होंने परफ्यूम नहीं लगाया हुआ है, ऐसे बदबूदार गरीब और किसान सांसद दूसरी तरफ बैठें.



चूँकि ये दोनों ही वर्ग एक-दूसरे को नाम से नहीं जानते थे और ना ही पसंद करते थे, इसलिए संसद में आने वाले लोगों तथा रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों ने अध्यक्ष के दाँयी तरफ बैठे लोगऔर अध्यक्ष के बाँई तरफ बैठे लोगकहकर संबोधित करना और रिपोर्ट करना शुरू कर दिया. आगे चलकर स्वाभाविक रूप से अनजाने में हीयह मान लिया गया, कि बाँई तरफ बैठे बदबूदार सांसद गरीबों और किसानों की आवाज़ उठाते हैं अतः उन्हें लेफ्ट विंग (अध्यक्ष के बाँई तरफ) कहा जाने लगा. इसी विचार के व्युत्क्रम में दाँयी तरफ बैठे सांसदों को राईट विंग (अध्यक्ष के सीधे हाथ की तरफ बैठे हुए) कहा जाने लगा. यह मान लिया गया कि खुशबूदार लोगसिर्फ अमीरों और जमींदारों के हितों की बात करते हैं.

एक व्याख्यान के पश्चात JNUके एक छात्र ने गर्व भरी मुस्कान के साथ मुझसे पूछा कि, मैं तो वामपंथी हूँ, लेकिन आपका लेखन देखकर समझ नहीं आता कि आप राईट विंग के हैं या लेफ्ट विंग के? तब मैंने जवाब दिया कि, चूँकि भारतीय संस्कृति में रोज़ाना प्रातःकाल नहाने की परंपरा है, इसलिए मुझे परफ्यूम लगाकर खुद की बदबू छिपाने की कोई जरूरत नहीं है. इसलिए ना तो आप मुझे खुशबूदारकी श्रेणी में रख सकते हैं और ना ही बदबूदारकी श्रेणी में. भारत के लोग सर्वथा भिन्न हैं, उन्हें पश्चिम अथवा पूर्व की किसी भी शब्दावली में नहीं बाँधा जा सकता.

पश्चिमी बुद्धिजीवियों और लेखकों द्वारा बना दी गई अथवा थोप दी गई सामान्य समझके अनुसार दक्षिणपंथी अर्थात धार्मिक व्यक्ति जो पूँजीवादी व्यवस्था और कुलीन सामाजिक कार्यक्रमों का समर्थक है. जबकि उन्हीं बुद्धिजीवियों द्वारा यह छवि बनाई गई है कि वामपंथीका अर्थ ऐसा व्यक्ति है जो अमीरों के खिलाफ, धर्म के खिलाफ है.

ऐसे में सवाल उठता है कि पश्चिम द्वारा बनाए गए इस खाँचे और ढाँचेके अनुसार मोहनदास करमचंद गाँधी को ये बुद्धिजीवी किस श्रेणी में रखेंगे? लेफ्ट या राईट?क्योंकि गाँधी तो गरीबों और दलितों के लिए भी काम करते थे साथ ही हिन्दू धर्म में भी उनकी गहरी आस्था थी. एक तरफ वे गरीबों से भी संवाद करते थे, वहीं दूसरी तरफ जमनादास बजाज जैसे उद्योगपतियों को भी अपने साथ रखते थे, उनसे चंदा लेते थे. इसी प्रकार सैकड़ों-हजारों की संख्या में हिन्दू संगठनहैं, जो गरीबों के लिए उल्लेखनीय काम करते हैं साथ ही धर्म का प्रचार भी करते हैं. दूसरी तरफ भारत में हमने कई तथाकथित सेकुलर एवं लेफ्ट विंग के ऐसे लोग भी देख रखे हैं, जो अरबपति हैं, कुलीन वर्ग से आते हैं. अतः वामऔर दक्षिणदोनों ही पंथों को किसी एक निश्चित भारतीय खाँचे में फिट नहीं किया जा सकता, लेकिन अंधानुकरण तथा बौद्धिक कंगाली के इस दौर में, पश्चिम से आए हुए शब्दों को भारतीय बुद्धिजीवियों द्वारा न सिर्फ हाथोंहाथ लपक लिया जाता है, बल्कि इन शब्दों को बिना सोचे-समझे अधिकाधिक प्रचार भी दिया जाता है... स्वाभाविकतः हिंदुत्व समर्थकों अथवा राष्ट्रवादी नेताओं-लेखकों को राईट विंग (या दक्षिणपंथी) कहे जाने की परंपरा शुरू हुई.

हिन्दू ग्रंथों में इतिहास, धर्म, अर्थशास्त्र, वास्तु इत्यादि सभी हैं, जिन्हें सिर्फ संभ्रांतवादी नहीं कहा जा सकता. यह सभी शास्त्र इस पश्चिमी वर्गीकरण में कतई फिट नहीं बैठते. प्राचीन समय में जिस तरह से एक ब्राह्मण की जीवनशैली को वर्णित किया गया है, वह इस अमेरिकी दक्षिणपंथीश्रेणी से कतई मेल नहीं खाता. अतः हिंदुओं को स्वयं के लिए उपयोग किए जाने वाले दक्षिणपंथीशब्द को सीधे अस्वीकार करना चाहिए. एक हिन्दू होने के नाते मुझमें तथाकथित अमेरिकी दक्षिणपंथके भी गुण मौजूद हैं और अमेरिकी वामपंथके भी. मैं स्वयं को किसी सीमा में नहीं बाँधता, मैं दोनों ही तरफ की कई विसंगतियों से असहमत हूँ और रहूँगा. हाँ!!! अलबत्ता यदि कोई वामपंथी मित्र स्वयं को गर्व से वामपंथी कहता है तो उसे खुशी से वैसा करने दीजिए, क्योंकि वह वास्तव में वैसा ही है अर्थात पूँजी विरोधी, धर्म विरोधी और बदबूदार.

पुनश्च :- (आदरणीय विद्वान डॉक्टर राजीव मल्होत्रा जी के लेख से साभार एवं अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवादित)

अनुवादकर्ता : सुरेश चिपलूनकर, उज्जैन (मप्र) 
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