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Saradha Scam and Burdwan Blasts Connection

पश्चिम बंगाल का सारधा चिटफंड घोटाला :- लूट, राजनीति, और आतंक का तालमेल

कभी-कभी ऐसा संयोग होता है कि एक साथ दो घटनाएँ अथवा दुर्घटनाएँ होती हैं और उनका आपस में सम्बन्ध भी निकल आता है, जो उस समय से पहले कभी उजागर नहीं हुआ होता. पश्चिम बंगाल में सारधा चिटफंड घोटाला तथा बर्दवान बम विस्फोट ऐसी ही दो घटनाएँ हैं. ऊपर से देखने पर किसी अल्प-जागरूक व्यक्ति को इन दोनों मामलों में कोई सम्बन्ध नहीं दिखाई देगा, परन्तु जिस तरह से नित नए खुलासे हो रहे हैं तथा ममता बनर्जी जिस प्रकार बेचैन दिखाई देने लगी हैं उससे साफ़ ज़ाहिर हो रहा है कि वामपंथियों के कालखंड से चली आ रही बांग्लादेशी वोट बैंक की घातक नीति, पश्चिम बंगाल के गरीबों को गरीब बनाए रखने की नीति ने राज्य की जनता और देश की सुरक्षा को एक गहरे संकट में डाल दिया है.

जब तृणमूल काँग्रेस के गिरफ्तार सांसद कुणाल घोष ने जेल में नींद की गोलियाँ खाकर आत्महत्या करने की कोशिश की तथा उधर उड़ीसा में बीजू जनता दल के सांसद हंसदा को सीबीआई ने गिरफ्तार किया, तब जाकर आम जनता को पता चला कि सारधा चिटफंड घोटाला ऊपर से जितना छोटा या सरल दिखाई देता है उतना है नहीं. इस घोटाले की जड़ें पश्चिम बंगाल से शुरू होकर पड़ोसी उड़ीसा, असम और ठेठ बांग्लादेश तक गई हैं. आरंभिक जांच में पता चला है कि सारधा समूह ने अपने फर्जी नेटवर्क से 279कम्पनियाँ खोल रखी थीं, ताकि पूरे प्रदेश से गरीबों के खून-पसीने की गाढ़ी कमाई को चूसकर उन्हें लूटा जा सके. सीबीआई का प्रारम्भिक अनुमान 2500करोड़ के घोटाले का है, लेकिन जब जाँच बांग्लादेश तक पहुँचेगी तब पता चलेगा कि वास्तव में बांग्लादेश के इस्लामिक बैंकों में कितना पैसा जमा हुआ है और कितना हेराफेरी कर दिया गया है. इस कंपनी की विशालता का अंदाज़ा इसी बात से लग जाता है कि गरीबों से पैसा एकत्रित करने के लिए इनके तीन लाख एजेंट नियुक्त थे. जिस तेजी से इसमें तृणमूल काँग्रेस के छोटे-बड़े नेताओं के नाम सामने आ रहे हैं, उसे देखते हुए इसके राजनैतिक परिणाम-दुष्परिणाम भी कई लोगों को भोगने पड़ेंगे.

सारधा चिटफंड स्कीम को अंगरेजी में “पोंजी” स्कीम कहा जाता है. यह नाम अमेरिका के धोखेबाज व्यापारी चार्ल्स पोंजी के नाम पर पड़ा, क्योंकि सन 1920में उसी ने इस प्रकार की चिटफंड योजना का आरम्भ किया था, जिसमें वह निवेशकों से वादा करता था कि पैंतालीस दिनों में उनके पैसों पर 50%रिटर्न मिलेगा और नब्बे दिनों में उन्हें 100%रिटर्न मिलेगा. भोलेभाले और बेवकूफ किस्म के लोग इस चाल में अक्सर फँस जाते थे क्योंकि शुरुआत में वह उन्हें नियत समय पर पैसा लौटाता भी था. ठीक यही स्कीम भारत में चल रही सैकड़ों चिटफंड कम्पनियाँ भी अपना रही हैं. बंगाल का सारधा समूह भी इन्हीं में से एक है. ये कम्पनियाँ पुराने निवेशकों को योजनानुसार ही पैसा देती हैं, जबकि नए निवेशकों को बौंड अथवा पॉलिसी बेचकर उन्हें लंबे समय तक बेवकूफ बनाए रखती हैं. जाँच एजेंसियों ने पाया है कि सारधा समूह ने प्राप्त पैसों को लाभ वाले क्षेत्रों अथवा शेयर मार्केट अथवा फिक्स डिपॉजिट में न रखते हुए, जानबूझकर ऐसी फर्जी अथवा घाटे वाली मीडिया कंपनियों में लगाया जहाँ से उसके डूबने का खतरा हो. फिर इन्हीं कंपनियों को घाटे में दिखाकर सारा पैसा धीरे-धीरे बांग्लादेश की बैंकों में विस्थापित कर दिया गया.NIAतथा गंभीर आर्थिक मामलों की जाँच एजेंसी SFIOने केन्द्र सरकार से कहा है कि चूंकि पश्चिम बंगाल पुलिस उनका समुचित सहयोग नहीं कर रही है, इसलिए कम से कम तीन प्रमुख मीडिया कंपनियों सारधा प्रिंटिंग एंड पब्लिकेशंस प्रा.लि., बंगाल मीडिया प्रा.लि. तथा ग्लोबल ऑटोमोबाइल प्रा.लि. के सभी खातों, लेन-देन तथा गतिविधियों की जाँच सीबीआई द्वारा गहराई से की जाए. SFIOने अपनी जाँच में पाया कि सारधा समूह का अध्यक्ष सुदीप्तो सेन (जो फिलहाल जेल में है) 160कंपनियों में निदेशक था, जबकि उसका बेटा सुभोजित सेन 64कंपनियों में निदेशक के पद पर था.

सीबीआई को अपनी जाँच में पता चला है कि भद्र पुरुष जैसा दिखाई देने वाला और ख़ासा भाषण देने वाला सुदीप्तो सेन वास्तव में एक पुराना नक्सली है. सुदीप्तो सेन का असली नाम शंकरादित्य सेन था. नक्सली गतिविधियों में संलिप्त होने तथा पुलिस से बचने के चक्कर में 1990में इसने अपनी प्लास्टिक सर्जरी करवाई और नया नाम सुदीप्तो सेन रख लिया.बांग्ला भाषा पर अच्छी पकड़ रखने तथा नक्सली रहने के दौरान अपने संबंधों व संपर्कों तथा गरीबों की मानसिकता समझने के गुर की वजह से इसने दक्षिण कोलकाता में 2000लोगों को जोड़ते हुए इस पोंजी स्कीम की शुरुआत की. सुदीप्तो सेन की ही तरह सारधा समूह की विशेष निदेशक देबजानी मुखर्जी भी बेहद चतुर लेकिन संदिग्ध महिला है. इस औरत को सारधा समूह के चेक पर हस्ताक्षर करने की शक्ति हासिल थी. देबजानी मुखर्जी पहले एक एयर होस्टेस थी, लेकिन 2010में नौकरी छोड़कर उसने सारधा समूह में रिसेप्शनिस्ट की नौकरी आरम्भ की, और सभी को आश्चर्य में डालते हुए, देखते ही देखते पूरे समूह की एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर बन बैठी. सारधा समूह की तरफ से कई राजनैतिक पार्टियों को नियमित रूप से चन्दा दिया जाता था. कहने की जरूरत नहीं कि सर्वाधिक चन्दा प्राप्त करने वालों में तृणमूल काँग्रेस के सांसद ही थे. खुद कुणाल घोष प्रतिमाह 26,000डॉलर की तनख्वाह प्रतिमाह पाते थे. इसी प्रकार सृंजय बोस नामक सांसद महोदय सारधा समूह की मीडिया कंपनियों में सीधा दखल रखते थे. इनके अलावा मदन मित्रा नामक सांसद इसी समूह में युनियन लीडर बने रहे और इसी समूह में गरीब मजदूरों का पैसा लगाने के लिए उकसाते और प्रेरित करते रहे. ममता बनर्जी की अदभुत एवं अवर्णनीयकही जाने वाली पेंटिंग्स को भी सुदीप्तो सेन ने ही अठारह करोड़ में खरीदा था. बदले में ममता ने आदेश जारी करके राज्य की सभी सरकारी लायब्रेरीयों में सारधा समूह से निकलने वाले सभी अखबारों एवं पत्रिकाओं को खरीदना अनिवार्य कर दिया था.सूची अभी खत्म नहीं हुई है, सारधा समूह ने वफादारी दिखाते हुए राज्य के कपड़ा मंत्री श्यामपद मुखर्जी की बीमारू सीमेंट कंपनी को खरीदकर उसे फायदे में ला दिया. ऐसा नहीं कि वामपंथी दूध के धुले हों, उनके कार्यकाल में भी सारधा समूह ने वित्त मंत्री के विशेष सहायक गणेश डे को आर्थिक मदद(?) दी थी. सारधा समूह ने पश्चिम बंगाल से बाहर अपने पैर कैसे पसारे?? असम स्वास्थ्य एवं शिक्षा मंत्री हिमंता बिस्वा सरमा को सारधा की पोंजी स्कीम से लगभग पच्चीस करोड़ रूपए का भुगतान हुआ. असम से पूर्व काँग्रेसी मंत्री मातंग सिंह की पत्नी श्रीमती मनोरंजना सिंह को बीस करोड़ के शेयर मिले, जबकि उनके पिता केएन गुप्ता को तीस करोड़ रूपए के शेयर मिले जिसे बेचकर उन्होंने सारधा के ही एक टीवी चैनल को खरीदा. जाँच अधिकारियों के अनुसार जब जाँच पूरी होगी, तो संभवतः धन के लेन-देन का यह आँकड़ा दोगुना भी हो सकता है. सभी विश्लेषक मानते हैं कि गरीबों के पैसों पर यह लूट बिना राजनैतिक संरक्षण के संभव ही नहीं थी, इसलिए काँग्रेस-वामपंथी और खासकर तृणमूल काँग्रेस के सभी राजनेता इस बात को जानते थे, लेकिन चूँकि सभी की जेब भरी जा रही थी, इसलिए कोई कुछ नहीं बोल रहा था.

ये तो हुई घोटाले, उसकी कड़ियाँ एवं विधि के बारे में जानकारी, पाठकगण सोच रहे होंगे कि इस लूट और भ्रष्टाचार का इस्लामी आतंक और बम विस्फोटों से क्या सम्बन्ध?? असल में हुआ यूँ कि इस घोटाले की जाँच काफी पहले शुरू हुई जिसे SFIOनामक एजेंसी चला रही थी. लेकिन बंगाल में बर्दवान जिले के खाग्रागढ़ नामक स्थान पर एक मोहल्ले में अब्दुल करीम और उसकी साथी जेहादी महिलाओं के हाथ से कोई गलती हुई और बम का निर्माण करते हुए जबरदस्त धमाका हो गया. हालाँकि पश्चिम बंगाल की वफादार पुलिस ने इसे मामूलीधमाका बताते हुए छिपाने की पूरी कोशिश की, अपनी तरफ से जितनी देर हो सकती थी वह भी की. लेकिन विस्फोट के आसपास के रहवासियों ने समझ लिया था कि यह विस्फोट कोई सामान्य गैस टंकी का विस्फोट नहीं है. ज़ाहिर है कि इसकी जाँच पहले सीबीआई ने और फिर जल्दी ही NIAने अपने हाथ में ले ली. अब SFIOघोटाले की तथा NIAविस्फोट की जाँच के रास्ते पर चल निकले. उन्हें क्या पता था कि दोनों के रास्ते जल्दी ही आपस में मिलने वाले हैं.

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल, जो कि भूतपूर्व जासूस और कमांडो रह चुके हैं, खुद उन्होंने विस्फोट के घटनास्थल का दौरा किया और एजेंसी तुरंत ही ताड़ गई कि मामला बहुत गंभीर है. इस बीच सितम्बर 2014 में आनंदबाजार पत्रिका ने लगातार अपनी रिपोर्टों में तृणमूल सांसद अहमद हसन इमरान के बारे में लेख छापे. सांसद इमरान पहले ही स्वीकार कर चुका है कि वह प्रतिबंधित संगठन सिमीका संस्थापक सदस्य है और बांग्लादेश में प्रतिबंधित जमात-ए-इस्लामी से उसके सम्बन्ध हैं. सारधा घोटाले तथा बर्दवान विस्फोटों के बारे में जाँच की भनक लगते ही बांग्लादेश की सरकार भी सक्रिय हो गई और उन्होंने पाया कि ढाका स्थिति इस्लामिक बैंक के तार भी इस समूह से जुड़े हुए हैं. यहाँ भी ममता बनर्जी ने अपनी टांग अडाने का मौका नहीं छोड़ा, और उन्होंने बांग्लादेश के डिप्टी हाई कमिश्नर को विरोध प्रकट करने तथा प्रोटोकॉल तोड़ने के आरोप में हाजिर होने का फरमान सुना दिया. बांग्लादेश के विदेश मंत्री अब्दुल हसन महमूद और डोवाल के बीच हुई चर्चा के बाद उन्होंने अपनी जाँच को और मजबूत किया तब पता चला कि सारधा समूह का सारा  पैसा ढाका की इस्लामिक बैंक में ट्रांसफर किया जा रहा था. जाँच में इस बैंक के तार अल-कायदा से भी जुड़े हुए पाए गए हैं. बांग्लादेश सरकार पहले ही भारत सरकार से भी ज्यादा कठोर होकर कथित जेहादियों पर टूट पड़ी है, पिछले दो साल में बांग्लादेश में इनकी कमर टूट चुकी है, इसलिए इन संगठनों के कई मोहरे सीमा पार कर कोलकाता, मुर्शिदाबाद, बर्दवान, नदिया आदि जिलों में घुसपैठ कर चुके हैं. यह सूचनाएँ पाने के बाद भारत की ख़ुफ़िया एजेंसी RAWभी इसमें कूद पड़ी है. प्रवर्तन निदेशालय और बांग्ला जाँच एजेंसियों के तालमेल से पता चला है कि इस इस्लामिक बैंक के कई विशिष्ट कारपोरेट ग्राहकबेहद संदिग्ध हैं, जिन्हें यह बैंक कारपोरेट ज़कातके रूप में मोटी रकम चुकाता रहा है. भारतीय जाँच एजेंसियों ने धन के इस प्रवाह पर निगाह रखने के लिए अब दुबई और सऊदी अरब तक अपना जाल फैला दिया है. RAW”के अधिकारियों के मुताबिक़ इस इस्लामिक बैंक के डायरेक्टरों में से कम से कम दो लोग ऐसे हैं, जिनकी पृष्ठभूमि आतंकी संगठन अल-बद्रसे जुड़ती है. जबकि इधर कोलकाता सहित पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और असम के बेचारे लाखों गरीब और निम्न वर्ग के लोग, अपनी बीस-पच्चीस-पचास हजार रूपए की गाढ़ी कमाई की रकम के लिए धक्के खा रहे हैं.


अब हम वापस आते हैं, सारधा पर. ममता बनर्जी के खास आदमी माने जाने वाले पूर्व सिमी कार्यकर्ता और तृणमूल से राज्यसभा सांसद हसन इमरान ने कलामनामक उर्दू अखबार शुरू किया, जिसे अचानकसारधा समूह ने खरीद लिया. प्रवर्तन निदेशालय की जाँच से स्पष्ट हुआ कि बांग्लादेश की जमाते-इस्लामी के जरिये इमरान सारधा समूह का पैसा खाड़ी देशों में हवाला के जरिये पहुंचाता था, इसके बदले में बैंक और इमरान को मोटी राशि कमीशन के रूप में मिलती थी, जिससे वे बम विस्फोट के आरोपियों को मकान दिलवाने एवं उनकी मदद करने आदि में खर्च करते थे. चूँकि इमरान खुद सिमी का संस्थापक सदस्य रहा और 1974 से 1984तक लगातार जुड़ा भी रहा, इसलिए उसके संपर्क काफी थे और कार्यशैली से वह वाकिफ था. ख़ुफ़िया जाँच एजेंसियों को कोलकाता में एक रहस्यमयी मकान 19,दरगाह रोड भी मिला. इस मकान में ही सिमीका दफ्तर भी खोला गया, फिर इसी पते पर सारधा घोटाले की चिटफंड कंपनी का दफ्तर भी खोला गया, फिर इसी पते पर सारधा समूह के दो-दो अखबारों का रजिस्ट्रेशन भी करवाया गया, जिन्हें बाद में सुदीप्तो सेन ने इमरान से खरीद लिया. अखबार बेचने के बावजूद हसन इमरान ही कागजों पर दोनों उर्दू अखबारों का मालिक बना रहा.इन्हीं अखबारों के सम्पादकीय और संपर्कों के जरिये इमरान ने अबूधाबी में इस्लामिक डेवलपमेंट बैंक के अधिकारियों से मधुर सम्बन्ध बनाए थे. बांग्लादेश के जमात नेता मामुल आज़म से भी इमरान के मधुर सम्बन्ध रहे, और वह बांग्लादेश में एक-दो बार उनके यहाँ भी आया था. अब SFIOतथा NIAमिलजुलकर सारधा घोटाले तथा बर्दवान बम विस्फोटों की गहन जाँच में जुटी हुई है और उन्हें विश्वास है कि इन दोनों की लिंक्स और कड़ियाँ जो फिलहाल बिखरी हुई हैं, बांग्लादेश और असम तक फ़ैली हुई हैं सब आपस में जुड़ेंगी और जल्दी ही वे इसका पर्दाफ़ाश कर देंगे, कि किस तरह तृणमूल के कुछ सांसद, सुदीप्तो सेन, अब्दुल करीम तथा हसन इमरान सब आपस में गुंथे हुए हैं और इनका सम्बन्ध बांग्लादेश की प्रतिबंधित जमात-ए-इस्लामी और आतंक के नेटवर्क से जुड़ा हुआ है.

बहरहाल, ये तो हुई एक ईमानदार दीदीकी कथा, अब आते हैं एक और ईमानदार सभ्य बाबूउर्फ नवीन पटनायक के राज्य उड़ीसा में. अप्रैल-मई में इस मामले के सामने आने के बाद से लगातार सीबीआई सारधा घोटाले की जाँच में जुटी हुई है और हाल ही में एजेंसी ने बीजद के सांसद रामचंद्र हंसदा और दो विधायकों को इस सिलसिले में गिरफ्तार कर लिया है. उड़ीसा में ये सांसद महोदय अर्थ-तत्त्वनामक समूह चलाते थे, जिसकी कार्यशैली बिलकुल सारधा के पोंजी स्कीम की तरह है. जहाँ सारधा वालों ने रियलिटी, मीडिया जैसे कई क्षेत्रों में 200से अधिक कम्पनियाँ बनाईं, उसी प्रकार अर्थ-तत्त्वने 44कम्पनियाँ खड़ी कर रखी हैं. जिसमें जाँच एजेंसियों को भूलभुलैया की तरह घुमाए जाने की योजना थी, लेकिन पश्चिम बंगाल से सबक लेते हुए सांसद महोदय को गिरफ्तार कर लिया. जाँच एजेंसियों के हाथ में आई अब तक की सबसे बड़ी मछली है उड़ीसा के एडवोकेट जनरल अशोक मोहंती साहब, जिन्होंने अर्थ-तत्त्व के मुखिया प्रदीप सेठी के साठ मिलकर एक बेहद रहस्यमयी जमीन सौदा किया और ताक में लगी एजेंसियों की पकड़ में आ गए. सीबीआई का मानना है कि सारधा और अर्थ-तत्त्व दोनों आपस में अंदर ही अंदर कहीं मिले हुए हैं और दोनों का सम्मिलित घोटाला दस हजार करोड़ से भी अधिक हो सकता है. उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल और उड़ीसा दोनों ही राज्यों में गरीबों की संख्या बहुत अधिक है. इसलिए वे बेचारे अनपढ़ लोग जब किसी संस्था के साथ सांसद और अपने नेताओं को जुड़ा हुआ देखते हैं तो विश्वास कर लेते हैं, यही हुआ भी और लाखों लोगों को अभी तक करोड़ों रूपए की चपत लग चुकी है. वे अपनी मैली-कुचैली पास बुक लेकर दस-बीस हजार रूपए के लिए दर-दर भटक रहे हैं, लेकिन न तो ममता बनर्जी और ना ही नवीन पटनायक उनकी बात सुनने को तैयार हैं. सिर्फ जाँच का आश्वासन दिया जा रहा है, जो कि केन्द्रीय एजेंसियाँ कर रही हैं.

एडवोकेट जनरल मोहंती साहब फरमाते हैं कि कटक के मिलेनियम सिटी इलाके में उन्होंने एक करोड़ एक लाख का जो मकान खरीदा है वह उनकी कमाई है. जबकि जाँच में पता चला है कि यह मकान प्रदीप सेठी ने कानूनी मददके रूप में मोहंती साहब को गिफ्टकिया हुआ है. विशेष सीबीआई कोर्ट भी मोहंती साहब से सहमत नहीं हुई और उन्हें दो बार न्यायिक हिरासत में भेज चुकी है. इसी से पता चलता है कि तीनों ही राज्यों (बंगाल, असम, उड़ीसा) में कितने ऊँचे स्तर पर यह खेल चल रहा था, और यह सभी को पता था. सारधा के विशाल फ्राड नेटवर्क की ही एक और कंपनी है उड़ीसा की ग्रीन रे इंटरनेशनल लिमिटेड. इसका मुख्यालय बालासोर में है और यह कम्पनी उड़ीसा के गरीबों से दस-दस, पचास-पचास रूपए रोज़ाना वसूल कर नाईजेरिया में खनन का कारोबार खड़ा कर रही थी. इस कम्पनी के कर्ताधर्ता मीर सहीरुद्दीन ने दुबई में दफ्तर भी खोल लिया था, लेकिन वहाँ भी अपनी कलाकारी दिखाने के चक्कर में फिलहाल नाईजीरिया सरकार ने इनका पासपोर्ट जब्त कर रखा है और ये साहब वहाँ पर सरकारी मेहमान हैं.

नवीन पटनायक साहब, जो अपने चेहरे-मोहरे से बड़े भोले और सभ्य दिखाई देते हैं, वे वास्तव में इतने सीधे नहीं हैं. ममता बनर्जी की ही तरह पटनायक साहब ने भी NIAतथा SFIOकी जाँच में अड़ंगे लगाने के भरपूर प्रयास किए और जाँच को धीमा अथवा बाधित किया. सीबीआई द्वारा तमाम सबूत दिए जाने के बावजूद उड़ीसा विधानसभा के स्पीकर महीनों तक दोनों बीजद विधायकों और मंत्रियों से पूछताछ का आदेश देने में टालमटोल करते रहे. इसीलिए सीबीआई के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि इस घोटाले की व्यापकता तथा इसमें आतंकवाद और अंडरवर्ल्ड तथा तीन-तीन राज्यों के बड़े-बड़े नेताओं के फँसे होने के कारण सीबीआई एवं दूसरी जाँच एजेंसियों पर भारी दबाव है कि जाँच की गति धीमी करें. राज्य पुलिस एवं स्थानीय CIDसे कोई विशेष मदद नहीं मिल रही है, इसलिए जाँच में मुश्किल भी आ रही है, जबकि इधर दिल्ली में नरेंद्र मोदी और अमित शाह लगातार जाँच अधिकारियों पर जल्दी जाँच करने का दबाव बनाए हुए हैं. अप्रैल में यह मामला उजागर हुआ, 9मई 2014को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की जाँच सीबीआई को सौंपने तथा इस पर निगरानी हेतु सरकार से कहा (इस दिनाँक तक बाजी UPAके हाथ से निकल चुकी थी) और तत्परता दिखाते हुए 4जून  2014 को ही सीबीआई ने 47एफआईआर रजिस्टर कर दी थीं. ताज़ा खबर यह है कि तृणमूल काँग्रेस के एक और सांसद को सीबीआई ने गिरफ्तार कर लिया है और शिकंजा कसता जा रहा है.

बंगाल-उड़ीसा और असम के लाखों गरीब लोगों का पैसा वापस मिलने की उम्मीद तो अब बहुत ही कम बची है, लेकिन कम से कम लुटेरों और ठगों को उचित सजा और लंबी कैद वगैरह मिल जाए तो उतना ही बहुत है. देखते हैं कि केन्द्र सरकार आगे इस मामले को कितनी गहराई से खोदती है. लेकिन फिलहाल ममता बनर्जी, नवीन पटनायक और तरुण गोगोई को ठीक से नींद नहीं आ रही होगी, यह निश्चित है.

-      सुरेश चिपलूनकर, उज्जैन

What Urdu Newspaper Say

जानिए उर्दू अखबारों में क्या चल रहा है...


उर्दू अखबार “सियासत” (६ नवंबर के अंक)के अनुसार तेलंगाना सरकार ने अपने ताज़ा बजट में मुस्लिमों के लिए योजनाओं की झड़ी लगा दी है. मुस्लिम लड़कियों को निकाह के अवसर पर 51000रूपए दिए जाएँगे, इसके अलावा वक्फ बोर्ड को उन्नत बनाने के लिए ५३ करोड़, पुस्तकों का अनुवाद उर्दू में करने के लिए दो करोड़ रूपए तथा मुस्लिम छात्रों को ऋण एवं फीस वापसी में सहायता के लिए ४०० करोड़ रूपए की व्यवस्था की गई है. इसके अलावा अल्पसंख्यकों को स्वरोजगार शुरू करने के लिए सौ करोड़ रूपए की धनराशी ब्याज मुक्त कर्जे के रूप में दी जाएगी.

उर्दू हिन्दुस्तान एक्सप्रेस (१२ नवंबर अंक)की खबर के अनुसार अलग-अलग दलों के टिकट पर चुनाव जीते हुए मुस्लिम विधायकों ने एक संयुक्त मोर्चा बनाने का फैसला किया है. जमीयत उलेमा द्वारा आयोजित एक समारोह में गुलज़ार आज़मी ने कहा कि वे भले ही भिन्न-भिन्न पार्टियों के टिकटों से चुनाव जीते हों, लेकिन “मिल्लत” की समस्याओं को लेकर उनका रुख एक ही रहेगा. आज़मी ने कहा कि महाराष्ट्र पुलिस जानबूझकर मुस्लिम युवकों को फँसाती है, उनकी आवाज़ संयुक्त रूप से उठाने तथा उन्हें कानूनी मदद पहुँचाने की दृष्टि से इस मोर्चे का गठन किया जा रहा है.

अजीजुल-हिंद (२८ अक्टूबर का अंक)लिखता है कि ऑल इण्डिया मजलिस मुशावरात के अध्यक्ष ज़फरुल इस्लाम ने आरोप लगाया है कि केन्द्रीय जाँच एजेंसियां कतई विश्वसनीय नहीं हैं और वे बंगाल के बर्दवान धमाके को जानबूझकर बढाचढा कर पेश कर रही हैं ताकि ममता बनर्जी सरकार एवं मदरसों को बदनाम करके बंगाल में भी हिन्दू-मुस्लिम एकता में दरार पैदा की जा सके. बंगाल के जमाते इस्लामी अध्यक्ष मौलाना नूरुद्दीन ने बनर्जी से शिकायत की है कि केन्द्र की मोदी सरकार धार्मिक ग्रंथों को संदेह के घेरे में लाकर और मदरसों पर जाँच बैठाकर दबाव बढ़ाना चाहते हैं. उन्होंने दावा किया कि बांग्ला के ख्यात पत्रकार तृणमूल सांसद अहमद हसन इमरान को झूठे मामलों में फँसाया गया है. भाजपा सरकार ने उन पर सिमी का एजेंट होने तथा सारधा घोटाले का पैसा बांग्लादेश भेजने का आरोप लगाया है वह गलत है.

अखबार मुंसिफ (३ नवंबर अंक)के अनुसार सऊदी अरब में तलाक के मामलों में भारी वृद्धि हुई है. पिछले दस  साल में चौंतीस हजार तलाक हुए, जबकि विवाह सिर्फ ग्यारह हजार ही हुए. सऊदी पत्रिका “अल-सबक” के अनुसार स्मार्टफोन एवं कंप्यूटर के बढ़ते प्रयोग के कारण तलाक बढ़ रहे हैं. अनजान नंबरों से बुर्कानशीं महिलाओं के स्मार्टफोन पर आने वाले नंबर देखकर पतियों को उन पर शक होता है और वे तलाक दे देते हैं. पिछले सप्ताह एक महिला को सऊदी युवक ने सिर्फ इसलिए तलाक दिया क्योंकि वह उसके कहने पर कार का दरवाजा बंद नहीं कर रही थी. तलाक के अधिकाँश मामले वही हैं जहाँ विवाह को सिर्फ दो या तीन वर्ष ही हुए हैं.

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इन सभी रिपोर्ट्स का अर्थ निकालने के लिए आप स्वतन्त्र हैं... मैं अपना कोई मत नहीं थोपता... :) 

Want to Know About Islam?

इस्लाम को समझना चाहते हैं?? 

- "क्या आप इस्लाम को समझना चाहते हैं?", उसने मेरी आँखों के सामने कुरआन लहराते हुए पूछा...

- जी... अभी थोड़ा-थोड़ा ही समझ पाया हूँ, ठीक से समझना चाहता हूँ... मैंने जवाब दिया.

- "इस्लाम एक बेहद शांतिपूर्ण धर्म है", आप कुरआन पढ़िए सब जान जाएँगे...

- "जी, वैसे तो अल-कायदा, बोको-हरम, सिमी, ISIS और हिजबुल ने मुझे इस्लाम के बारे में थोड़ा-बहुत समझा दिया है, फिर भी यदि आप आग्रह कर रहे हैं तो मैं कुरआन ले लेता हूँ...

- "लिल्लाह!! उन्हें छोडिए, वे लोग सही इस्लाम का प्रतिनिधित्व नहीं करते...

- अच्छा!! यानी उन्होंने कुरआन नहीं पढ़ी?? या कोई गलती से कोई दूसरी कुरआन पढ़ ली है?, मैंने पूछा.

- नहीं, उन लोगों ने भी कुरआन तो यही पढ़ी है... लेकिन उन्होंने इसका गलत अर्थ निकाल लिया है... वे लोग इस्लाम की राह से भटक गए हैं... कम पढ़े-लिखे और गरीब होंगे. इस्लाम तो भाईचारा सिखाता है..

- जी, हो सकता है... लेकिन मैंने तो सुना है कि ट्विन टावर पर हवाई जहाज चढ़ाने वाला मोहम्मद अत्ता एयरोनाटिक्स इंजीनियर था, और बंगलौर से पकड़ाया ISIS का ट्विटर मेहदी बिस्वास भी ख़ासा पढ़ा-लिखा है...

- आपसे वही तो कह रहा हूँ कि इन लोगों ने इस्लाम को ठीक से समझा नहीं है... आप कुरआन सही ढंग से पढ़िए, हदीसों को समझिए... आप समय दें तो मौलाना जी से आपकी काउंसिलिंग करवा दूँ??

- ".. लेकिन सर, मेरे जैसे नए लोगों की इस्लाम में भर्ती करने की बजाय, आप इराक-अफगानिस्तान-लीबिया-पाकिस्तान जाकर आपकी इस "असली कुरआन"और "सही इस्लाम"का प्रचार करके, उन भटके हुए लोगों को क्यों नहीं सुधारते?? जब मौलाना जी आपके साथ ही रहेंगे तो आप बड़े आराम से सीरिया में अमन-चैन ला सकते हैं... ताकि आपके शांतिपूर्ण धर्म की बदनामी ना हो... तो आप सीरिया कब जा रहे हैं सर??

- "मैं अभी चलता हूँ... मेरी नमाज़ का वक्त हो गया है.."

- सर... सीरिया तो बहुत दूर पड़ेगा, आप मेरे साथ भोपाल चलिए, वहाँ भी ऐसे ही कुछ "भटके"हुए, "कुरआन का गलत अर्थ लगाए हुए"लोगों ने, ईरानी शियाओं के मकान जला दिए हैं, मारपीट और हिंसा की है... वहाँ आप जैसे शान्ति प्रचारक की सख्त ज़रूरत है...

- "मैं बाद में आता हूँ... नमाज़ का वक्त हो चला है..."
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जी, ठीक है, नमस्कार...
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Dalit Christians in Tamilnadu

दलित ईसाईयोंद्वारा वेटिकन दूतावास के सामने विरोध प्रदर्शन...


तमिलनाडु के कई तमिल कैथोलिक संगठनों ने चेन्नई में वेटिकन दूतावास के सामने दलित ईसाईयों(?) के साथ छुआछूत और भेदभाव के खिलाफ जमकर प्रदर्शन किया.एक पूर्व-दलित वकील फ्रेंकलिन सीज़र थॉमस ने यह विरोध मार्च आयोजित किया था, उन्होंने बताया कि सन 2011में जब तिरुची के एक क्रिश्चियन विद्यालय से दलित किशोर माईकल राजा को अपमानजनक पद्धति से निकाल दिया गया था, तब से लेकर आज तक दक्षिण तमिलनाडु के रामनाथपुरम तथा शिवगंगा जिलों में उच्च वर्गीय कैथोलिक्स तथा दलित ईसाईयों के बीच कई संघर्ष हो चुके हैं, तथा कई दलितों को चर्च में घुसने से मना कर दिया गया है.





इस प्रदर्शन में शामिल भीड़ को देखते हुए चेन्नई पुलिस ने वेटिकन दूतावास के सामने सुरक्षा कड़ी कर दी थी. इसमें शामिल कुछ लोगों को ही अंदर जाने दिया गया, जिन्होंने वेटिकन के राजदूत को साल्वातोर पिनाशियो को अपना ज्ञापन सौंपा. इस अवसर पर प्रेस से वार्ता करते हुए एक संगठन के अध्यक्ष कुन्दथाई आरासन ने कहा कि उन्हें स्थानीय चर्चों एवं डायोसीज के निराशाजनक रवैये के कारण मजबूर होकर वेटिकन के समक्ष गुहार लगानी पड़ रही है. दलित ईसाईयों के साथ तमिलनाडु में बेहद खराब व्यवहार हो रहा है. अपने ज्ञापन में संगठनों ने सोलह बिंदुओं पर अपनी माँगें रखी हैं. दलितों के साथ चर्च में छुआछूत, बदसलूकी, दलितों को पादरी नहीं बनाए जाने तथा कब्रिस्तान में अलग से दफनाए जाने एवं अपमानजनक नामों से बुलाए जाने को लेकर कई गंभीर शिकायतें हैं,जिन पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है. फ्रेंकलिन ने कहा कि जब तक हमारी माँगें पूरी नहीं होतीं, तब तक हमारा विरोध प्रदर्शन जारी रहेगा. 

पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन संघ का कहना है कि जो दलित कैथोलिक ईसाईयों के बहकावे में आकर हिन्दू धर्म छोड़कर ईसाई बने, उन्हें अब गहन निराशा हो रही है. उन्हें लगने लगा है कि उनके साथ धोखा हुआ है. उल्लेखनीय है कि इससे पहले भी सन 2011के अक्टूबर में लगभग 200दलित पादरियों ने चेन्नई में प्रदर्शन किया था क्योंकि उस समय भी रामेश्वरम में झूठे आरोप लगाकर छः दलित ईसाई पादरियों को नौकरी और चर्च से निकाल दिया गया था. दलित पादरियों का आरोप है कि हमेशा विशेष अवसरों एवं खास प्रार्थनाओं के मौके पर उन्हें न तो कोई अधिकार दिए जाते हैं और ना ही उनके हाथों कोई धार्मिक प्रक्रियाएँ पूरी करवाई जाती हैं.प्रदर्शनकारियों में शामिल ननों ने कहा कि हिन्दू धर्म की जाति व्यवस्था से हताश होकर वे ईसाई बने थे, परन्तु यहाँ आकर भी उनके साथ वैसा ही बर्ताव हो रहा है.


दलित ईसाई विचारक एवं जेस्यूट वकील फादर येसुमारियन कहते हैं कि यह कैथोलिक चर्च के दोहरे मापदण्ड एवं चरित्र दर्शाता है. हम यह मानकर ईसाई बने थे कि यहाँ जाति की दीवारनहीं होगी, परन्तु हमारे तो कब्रिस्तान भी अलग बना दिए गए हैं. मानवता, शान्ति और पवित्रता का नारा देने वाले वेटिकन ने भी जातियों एवं उच्चवर्गीय कैथोलिकों को ध्यान में रखकर अलग-अलग कब्रिस्तान बनाए हैं, यह बेहद निराशाजनक है. देश के संविधान ने जातिप्रथा एवं छुआछूत को भले ही गैरकानूनी कहा है, परन्तु कैथोलिक चर्च एवं ईसाई समाज में इस क़ानून का कोई असर नहीं है. धर्म-परिवर्तित ईसाईयों से कोई भी उच्चवर्गीय कैथोलिक विवाह करना पसंद नहीं करता है. चेन्नई के अखबारों में छपने वाले विज्ञापनों को देखकर सहज ही अंदाजा हो जाता है,जिनमें कैथोलिक युवाओं वाले कालम में साफ़-साफ़ लिखा होता है कि सिर्फ कैथोलिक ईसाई ही विवाह प्रस्ताव भेजें.

कुछ तथाकथित प्रगतिशील एवं बुद्धि बेचकर खाने वाले वामपंथी बुद्धिजीवी अक्सर हिन्दू धर्म को कोसते समय ईसाई पंथका उदाहरण देते हैं, लेकिन वास्तविकता तो यही है कि चर्च में भी दलितों के साथ वैसा ही भेदभाव जारी है, लेकिन दलित ईसाईयों और दलित पादरियों की आवाज़ मीडिया द्वारा अनसुनी कर दी जाती है, क्योंकि प्रमुख मीडिया संस्थानों पर आज भी वामपंथी और हिन्दू विरोधी ही काबिज हैं. यदि चर्च में होने वाले बलात्कारों एवं दलितों के साथ होने वाले छुआछूत की ख़बरें मुख्यधारा में आएँगी तो उनकी ही खिल्ली उड़ेगी, इसलिए ऐसी ख़बरें वे दबा देते हैं और किसी शंकराचार्य के बयान को चार-छह दिनों तक तोडमरोड कर पेश करते हैं.

चेन्नई में एक सर्वे के दौरान जब एक NGOने इन दलित ईसाईयों से पूछा, कि उन्होंने अभी तक अपना नाम हिन्दू पद्धति एवं जाति का ही क्यों रखा हुआ है? उसका जवाब था कि, इससे दोहरा फायदामिलता है...चर्च की तरफ से मिलने वाली राशि, नौकरी, बच्चों की पढ़ाई में छूट के अलावा हिन्दू नामधारी व दलित होने के कारण जाति प्रमाण-पत्र के सहारे दूसरी शासकीय योजनाओं एवं नौकरियों में भी फायदा मिल जाता है. दलितों को मिलने वाले फायदे में से एक बड़ा हिस्सा ये परिवर्तित ईसाई कब्ज़ा कर लेते हैं, परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि कथित दलित नेताओं को यह बात पता है, परन्तु उनकी चुप्पी रहस्यमयी है. 

Do You Know About 10/40 Joshua Project?

क्या आप मिशनरी प्रोजेक्टके 10/40 खिड़की के बारे में जानते हैं?

कई पाठक वेटिकन और मिशनरी द्वारा संगठित, सुविचारित एवं धूर्त षडयंत्र सहित किए जाने वाले ईसाई धर्मान्तरण के बारे में जानते हैं. यह पूरा धर्मांतरण अभियान बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से वर्षों से जारी है. समूचे विश्व को ईसाई बनाने का उद्देश्य लेकर बने हुए जोशुआ प्रोजेक्टके अंतर्गत धर्मांतरण हेतु सर्वाधिक ध्यान दिए जाने वाले क्षेत्र के रूप में एक काल्पनिक 10/40खिड़कीको लक्ष्य बनाया गया है.

इस जोशुआ प्रोजेक्ट के अनुसार पृथ्वी के नक़्शे पर, दस डिग्री अक्षांश एवं चालीस डिग्री देशांश के चौकोर क्षेत्र में पड़ने वाले सभी देशों को 10/40खिड़कीके नाम से पुकारा जाता है. इस खिड़की में उत्तरी अफ्रीका, मध्य पूर्व एवं एशिया का एक बड़ा भूभाग आता है. वेटिकन के अनुसार इस 10/40खिड़की के देशों में सबसे कम ईसाई धर्मांतरण हुआ है. वेटिकन का लक्ष्य हा कि इस खिड़की के बीच स्थित देशों में तेजी से, आक्रामक तरीके से, चालबाजी से, सेवा के नाम पर या किसी भी अन्य तरीके से अधिकाधिक ईसाई धर्मांतरण होना चाहिए. जोशुआ प्रोजेक्ट के आकलन के अनुसार इस खिड़कीमें विश्व के तीन प्रमुख धर्म स्थित हैं, इस्लाम, हिन्दू एवं बौद्ध. यह तीनों ही धर्म ईसाई धर्मांतरण के प्रति बहुत प्रतिरोधक हैं. 


पहले इस खिड़की के अंदर दक्षिण कोरिया और फिलीपींस भी शामिल थे, परन्तु इन देशों की जनसंख्या 70%से अधिक ईसाई हो जाने के बाद उन्हें इस खिड़की से बाहर रख दिया गया है. वेटिकन के अनुसार इस खिड़की में शामिल देशों में सबसे ‘मुलायम और आसानलक्ष्य भारत है, जबकि सबसे कठिन लक्ष्य इस्लामी देश मोरक्को है. वेटिकन ने गत वर्ष ही सॉफ्ट इस्लामीइंडोनेशिया को भी इस खिड़की में शामिल कर लिया है. विश्व की कुल आबादी में से चार अरब से अधिक लोग इस 10/40खिड़की के तहत आती है, इसलिए यदि ईसाई धर्म का अधिकाधिक प्रसार करना हो तो इन देशों को टारगेट बनाना जरूरी है. क्योंकि इस खिड़कीसे बाहर स्थित देशों जैसे यूरोपीय देश, रूस, अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड में से अधिकाँश देश पहले ही घोषित रूप से ईसाई देशहैं और अधिकाँश देशों में बाइबलकी शपथ ली जाती है.

एशियाई देशों में चर्च ने सर्वाधिक सफलता हासिल की है नास्तिकमाने जाने वाले वामपंथीचीन में. आज की तारीख में चीन में लगभग 17करोड़ ईसाई (कैथोलिक व प्रोटेस्टेंट मिलाकर) हैं. चीन में वेटिकन के प्रवक्ता डॉक्टर जॉन संग कहते हैं कि हमें विश्वास है कि सन 2025तक चीन में ईसाईयों की आबादी 25करोड़ पार कर जाएगी. भारत में घोषित रूप सेईसाईयों की आबादी लगभग छह करोड़ है, जबकि अघोषित रूप से छद्म नामों से रह रही ईसाई आबादी का अंदाजा लगाना बेहद मुश्किल है. आईये एक संक्षिप्त उदाहरण से समझते हैं कि किस तरह से मिशनरी जमीनी स्तर पर संगठित स्वरूप में कार्य करते हैं.

प्रस्तुत चित्र में दिखाए गए सज्जन हैं पास्टर जेसन नेटाल्स. नाम से ही ज़ाहिर है कि ये साहब ईसाई धर्म के प्रचारक हैं.


पास्टर जेसन जुलाई से नवंबर 2013तक भारत में धर्म प्रचार यात्रा पर थे. इन्होंने अपने कुछ मित्रों के साथ आंध्रप्रदेश के विशाखापट्टनम जिले के कुछ अंदरूनी गाँवों में ईसाई धर्म का प्रचार किया, और इसकी कुछ तस्वीरें ट्वीट भी कीं. जैसा कि चित्र में देखा जा सकता है कि पास्टर जेसनएक मंदिर के अहाते में ही ईसाई धर्म का प्रचार कर रहे हैं और तो और ट्वीट में इस ईसाई धर्म से अनछुए गाँवकी गर्वपूर्ण घोषणा भी कर रहे हैं. भोलेभाले (बल्कि मूर्ख) हिन्दू बड़ी आसानी से इन सफ़ेद शांतिदूतोंकी मीठी-मीठी बातों तथा सेवाकार्य से प्रभावित होकर इनके जाल में फँस जाते हैं.



संक्षेप में :- तात्पर्य यह है कि घर वापसीजैसे आडंबरपूर्ण और हो-हल्ले वाले कार्यक्रमों का कोई विशेष फायदा नहीं होगा. यदि ईसाई मिशनरी का मुकाबला करना है, तो संगठित, सुविचारित, सुव्यवस्थित एवं सतत अभियान चलाना होगा. जाति व्यवस्था एवं गरीबी को दूर करना होगा.

Hitler, Goebbles and Indian National Congress

नाज़ी और प्रचार तंत्र


(प्रस्तुत लेख श्री आनंद कुमार जी की फेसबुक वाल से साभार लिया गया है... पठनीय एवं शानदार गठित)
आनंद कुमार जी के फेसबुक प्रोफाईल की लिंक यह है - https://www.facebook.com/anand.ydr

अडोल्फ़ हिटलर की पार्टी नाज़ी पार्टी के नाम से जानी जाती है (सही नाम नेशनल सोशलिस्ट जर्मन वर्कर्स पार्टी था) | इसे कई बार सौ फीसदी नियंत्रण वाली सबसे भयावह सरकार कहा जाता है | कई बार अचरज होता है की बीसवीं सदी में कोई ऐसे लोगों को अपने इशारों पर कैसे घुमा सकता है ! लेकिन नाज़ी सिर्फ़ सबसे क्रूर सरकार ही नहीं थे, वो प्रचार प्रसार के सबसे माहिर खिलाड़ी थे | इस काम के लिए हिटलर ने जोसफ गोएबेल्स नाम के एक व्यक्ति को नियुक्त किया था | प्रचार के तरीके सीखने के लिए उसके तरीकों से ज्यादा कारगर कोई तकनीक आज भी नहीं पढाई जाती | आइये उसी गोएबेल्स के तरीकों पर एक नज़र डालते हैं |

10. पोस्टर – प्रतीकों, इशारों के जरिये आपनी बात सामने रखना

हिटलर और उसके साथी जानते थे की इस तरीके का अच्छा इस्तेमाल अपने राजनैतिक फ़ायदे के लिए कैसे किया जाता है | अपने खुद के इलाकों में और नाज़ियों के जीते हुए इलाकों में सारी दीवारें नाज़ी नारों से रंगी होती थी | पोस्टर जगह जगह चिपकाये जाते थे, और हर खाली दिवार पर नारे लिखे होते थे | कविताओं, नारों के जरिये अपनी बात, बहुत सस्ते ढंग से, नारों के जरिये, बार बार लोगों के सामने रख दी जाती थी | देश के अन्दर उन पोस्टरों का मकसद होता था उत्पादन को बढ़ावा देना और जीते हुए इलाकों में वो कहते थे “आप सीमा पर है”, लड़ना आपका धर्म है ऐसा सन्देश जाता था |

अब इसके उदाहरण में “कोंग्रेस का हाथ आपके साथ” जैसे नारे को देखिये | थोड़े साल पहले के “गरीबी हटाओ” या फिर “जय जवान जय किसान” को सुनिए | बैंकों और कई उपक्रमों को निजी से सरकारी कर दिया गया | इसके थोड़े समय बाद हरित क्रांति, श्वेत क्रांति जैसे अभियान चलाये गए | घर पर उत्पादन बढ़ाना था, इसलिए “गरीबी हटाओ” और “जय किसान”, वहीँ एक बाहर के शत्रु का भय भी बनाये रखना था, इसलिए “जय जवान” भी होगा “जय किसान” के साथ | इन सब के बीच नेहरु, इन्दिरा और राजीव के चेहरे रखे गए बीस बीस साल के अंतराल से | ऐसा नहीं था की और दूसरे नेता प्रधानमंत्री नहीं थे कांग्रेस से, लेकिन एक ही चेहरे को लगातार सामने रखना जरूरी था | इसलिए लाल बहादुर शास्त्री पुराने ज़माने में और नए ज़माने में नरसिम्हा राव दरकिनार कर दिए गए | एक ही परिवार, एक ही वंश आपका तारनहार है, इसलिए नेहरु गाँधी परिवार ही आगे रहा, हर पोस्टर पर हर नारे के साथ आपकी आँखों के सामने | इसे ही धीमे तरीके से हर सरकारी योजना का नाम एक ही परिवार के नाम पर कर के पुष्ट किया गया | आप चाहे भी तो भी “गाँधी” सुने बिना नहीं रह सकते | सारी योजनायें इन्दिरा, राजीव के नाम पर ही हैं, गाँधी तो नाम में रहेगा ही |



9. जातिवाद– अल्पसंख्यको को आपका शत्रु बताना

प्रथम विश्व युद्ध और 1929 के वाल स्ट्रीट के नुकसान की वजह से उस समय जर्मनी की हालत बड़ी ख़राब थी | जैसे बरसों भारत की आर्थिक स्थिति अमरीकी डॉलर के गिरने और अरब के तेल की कीमतों के उठने की वजह से रही हैं, कुछ वैसी ही | इसका इल्ज़ाम नाज़ी पार्टी ने यहूदियों पर डाला | उन्होंने बार बार ये कहना शुरू किया की यहूदी कौम ही शुद्ध जर्मन लोगों के बुरे हाल के लिए जिम्मेदार हैं | ये यहूदी कौम कहीं और से आ कर जर्मनी के असली वासिंदों का शोषण कर रही है | यहूदियों को बलि का बकरा बनाया गया | उनके कार्टून बाज जैसे नाक वाले, भौं सिकोड़े, दुष्ट व्यक्ति जैसे बनाये गए | मौका पाते ही हर चीज़ का इल्ज़ाम उनपर थोपा गया और ईमानदार “स्वदेशी” व्यक्ति के पैसे चुराने और ठगने का इल्ज़ाम उन पर थोप दिया गया |

अब इस आलोक में भारत के जातिवाद को देखिये | बहुसंख्यक को छोटी जाति का बताया गया, और ब्राम्हण, राजपूत, कायस्थ जैसी जातियों को उनका शोषण करने वाला साबित किया गया |समर्थन में एक ऐसे ग्रन्थ (मनुस्मृति) का उदाहरण उछाला जाने लगा जिसके सत्रह अलग-अलग पाठ हैं | किसी ने ये बताया की किस राजा ने किस काल में इस ग्रन्थ के हिसाब से शाषण किया था ? नहीं न ? आपने पुछा भी नहीं होगा | पूछ के देखिये, पता भी नहीं चलेगा |

लेकिन बहुसंख्यक की गरीबी का इल्ज़ाम किसी कपोल-कल्पित ब्राम्हणवाद पर थोप कर “गोएबेल्स” के उपासक निश्चिन्त थे | बिना साक्ष्य, बिना प्रमाण किसी ब्राम्हणवाद को दोष देकर वो अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त रहे | आजादी के इतने सालों में मनुस्मृति के बदले संविधान लगा देने पर भी शिक्षा, स्वास्थ या जीवन शैली जैसी चीजों में बहुसंख्यक समुदाय की हालत और ख़राब ही क्यों हुई है ये किसी ने नहीं पुछा | हर कमी के लिए कहीं बाहर से आ कर बसे "आर्य"जिम्मेदार थे |

यहाँ आप समाज के एक तबके को डरा कर रखना भी देख सकते हैं | एक समुदाय विशेष को कभी ये नहीं बताया जाता की आपकी शिक्षा या आर्थिक बेहतरी के लिए “गोएबेल्स” समर्थक क्या कर रहे हैं | ये भी नहीं बताया जाता की भारत में तीन लाख मस्जिद हैं जितने दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं हैं | सिर्फ ये पूछना है की अगर आप बहुसंख्यक हैं तो आप ब्राम्हणवादी तो नहीं ? या “सेक्युलर” हैं या नहीं | धुर्विकरण का काम पूरा हो जायेगा |

8. रेडियो, टीवी, इन्टरनेट – जन संचार के माध्यमों पर कब्ज़ा

1933 में जोसेफ गोएब्बेल्स ने कहा था की रेडियो सिर्फ 19वीं ही नहीं बल्कि 20वीं सदी में भी उतना ही असरदार माध्यम रहेगा, वो इसे “आठवीं महान शक्ति” मानता था | उसने जर्मन सरकार से रडियो में इस्तेमाल होने वाले उपकरणों के उत्पादन में आर्थिक छूट (subsidy) भी दिलवा दी थी ताकि सस्ते रडियो का बनना शुरू हो सके | इन रडियो सेटों की क्षमता इतनी ही होती थी की वो पास के स्टेशन पकड़ सकें | इस तरह लगातार जर्मन और ऑस्ट्रिया के स्टेशन से प्रचार जनमानस तक पहुँचाया जाता था | द्वित्तीय विश्व युद्ध शुरू होने तक पूरा देश ही रडियो के जाल में आ चुका था | इसके जरिये उत्तेजक भाषण और ख़ास तौर पर डिजाईन किये हुए “समाचार” पूरे देश में सुनाये जाते थे |

अब इसे पुरानी फिल्मों के रडियो के साथ याद कीजिये | ब्लैक एंड वाइट के ज़माने में एक बड़ा सा सनमायका का डब्बे जैसा रेडियो होता था | फिल्मों में ये सिर्फ अमीर लोगों के घरों में दिखता था | फिर इन्दिरा गाँधी के भाषण जब रेडियो पर आने शुरू हुए, लगभग उसी ज़माने में सस्ते ट्रांजिस्टर भी आने शुरू हो गए | ये बिना बिजली के बैटरी से चलते थे, गाँव देहात जहाँ बिजली नहीं पहुँचती थी वहां भी कांग्रेस की आवाज पहुँच जाती थी | जब जमाना टीवी पे पहुँच गया और “गरीवी हटाओ” के नारे के वाबजूद गरीबी नहीं हटी तो एक नया ट्रांजिस्टर नेपाल से आ गया, इसमें रिचार्ज होने वाली बैट्री लगती थी, कीमत और भी कम | “हमने देखा है, और हम देखते आये हैं की..” सुनाई देता रहा | चुनाव के ज़माने में इसका इस्तेमाल केजरीवाल ने भी किया था | आजकल हमारे प्रधानसेवक भी इसे चलाना सीख रहे हैं |

7. फिल्म और सिनेमा – मनोरंजन के जरिये

जर्मन घरों के अन्दर तक घुसने के लिए नाज़ी पार्टी ने वहां भी नियंत्रण किया जहाँ जनता पैसे खर्च करके जाती थी | 1933 में ही Department of Film भी बना दिया गया, इसका एकमात्र मकसद “जर्मन लोगों को समाजवादी राष्ट्रवाद का सन्देश” देना था | शुरू में इन्होने शहरों में फिल्म दिखाना शुरू किया, फिर धीरे धीरे नाज़ी सिनमा बनाना भी शुरू किया | दो अच्छे उदाहरण होंगे Triumph of Will जिसमे की 1934 के नुरेमबर्ग की रैली का किस्सा है और The Wandering Jew जो की 1940 में आई थी और यहूदी लोगों को बुरा दिखाती थी |

अब भारत की फिल्मों को देखिये, हाल के विश्वरूपम को याद कीजिये की कैसे उसका प्रदर्शन रोका गया था, फिर हैदर को याद कीजिये | मंगल पाण्डेय में दिखाई मंगल पाण्डेय की तस्वीर याद कीजिये, सरफ़रोश का वो अल्पसंख्यक सब इंस्पेक्टर याद कीजिये जो की देशभक्त था, लेकिन कोई उसे पूछता नहीं था | रंग दे बसंती का सीधा साधा सा अल्पसंख्यक युवक याद कीजिये जो अपने चाचा के कट्टरपंथी रवैये पर भड़क जाता है, फिर उस दुसरे बहुसंख्यक समुदाय के युवक को याद कीजिये की कैसे दिखाते हैं की वो नेताओं के बहकावे में था | अब नयी वाली किसी फिल्म PK को भी याद कर लीजिये |

अगर ये कहने की सोच रहे हैं की ऐसे धीमे से इशारे से क्या तो ये याद रखियेगा की फिल्म में हीरो “कोका कोला” या “पेप्सी” पीता तभी दिखाया जाता है जब ये कंपनी पैसे दे रही होती हैं | कौन सा लैपटॉप इस्तेमाल होगा उसके भी पैसे मिलते हैं | अगर कंपनी ने पैसे नहीं दिए तो, कंपनी का Logo धुंधला कर दिया जाता है |

6. अख़बार – छपने वाले दैनिक पर नियंत्रण

विचार और मंतव्य को मोड़ने का सबसे शशक्त माध्यम अख़बार होता है | नाज़ी अख़बारों में सबसे कुख्यात था Der Sturmer (The Attacker या हमलावर) | गोएरिंग के दफ्तर में इस अख़बार पर पाबन्दी थी, इसे जूलियस स्ट्रैचर छापता था | अपने अश्लील लेखन, तस्वीरों, भेदभाव भरे लेखों की वजह से ये दुसरे पार्टी के सदस्यों में बड़ा ही प्रचलित था |हिटलर खुद भी इसकी बड़ी तारीफ़ करता था, कहता था ये सीधा “सड़क के आदमी” से बात करती है और वो इसे मज़े से पहले पन्ने से आखरी पन्ने तक पढता है |

अभी का हमारा समय देखें तो कुछ “सामना” और “पांचजन्य” जैसे हिंदी अख़बार हैं, या फिर “रणबीर” जैसे उर्दू में कुछ | इन्हें ख़रीदने वाले लोगों वैचारिक झुकाव एक तरफ़ होता है तभी वो इसे पढ़ रहे होते हैं | लेकिन इनके अलावा हमारे पास कई और अख़बार हैं जो की निष्पक्ष होने का दावा करते हैं | चाहे वो हिंदी के “दैनिक जागरण”, “जनसत्ता”, “हिंदुस्तान टाइम्स” या “प्रभात खबर” जैसे हों या फिर “टाइम्स ऑफ़ इंडिया”, या “हिन्दू” जैसे अंग्रेजी अख़बार, पढ़ने वालों को उनकी राजनैतिक निष्ठा का पता रहता है | हर रोज़ सुबह थोड़ा थोड़ा करके कैसे आपको अपने विचारों से भरा जाता है इसका अंदाजा तो आज के सभी पढ़े लिखे भारतीय लोगों को है | एक सुना है “इंडिया टुडे” ग्रुप होता था, काफी चर्चा में था, क्या हुआ पता नहीं !

5. आत्मकथा – किताबों के जरिये पार्टी को “दिव्य” बताना

हिटलर ने जेल में Mein Kampf लिखना शुरू किया था, उस समय Munich Putsch नाकामयाब हो गया था | अपने जीवन में अपनी राजनैतिक विचारधारा का योगदान, और एक काल्पनिक शत्रु के विरुद्ध वैमनस्य को फ़ैलाने का किताब से अच्छा तरीका नहीं था | किन्ही सोलह पार्टी सदस्यों की मृत्यु को शहादत घोषित करते हुए इस कथा को उसने अपने पूरे जीवन काल में जिन्दा रखा | करीब एक करोड़ प्रतियाँ इसकी द्वित्तीय विश्व युद्ध के समाप्त होने तक बिक चुकी थी | आज भी बिकती हैं, वैसे मुस्सोलनी का कहना था की ये किताब “ऐसे बोरिंग टोन में लिखी गई है की वो इसे कभी पूरा पढ़ नहीं पाया” |

इसमें कुछ बताने की शायद ही जरुरत है, अपने आस पास किसी किताबों के शौक़ीन आदमी से पूछ कर देखिये | दो चार ऐसी किताबों का नाम पता चल जायेगा जो लगभग हर किताब पढ़ने वाले ने कभी न कभी खरीदी है |

इसके अलावा आप अपने स्कूल कॉलेज की इतिहास की किताबें उठा लीजिये | भारत के 300 AD से 1100 AD तक का इतिहास दूंढ़ लीजिये, फ़ौरन दिख जायेगा की कैसे स्वर्ण काल कहे जानेवाले गुप्त काल के सिर्फ़ एक राजा का जिक्र है | कैसे “Headless Statue of Kanishka” की तस्वीर तो होती है लेकिन उसके काल का वर्णन नहीं होता | हर राजवंश 250-300 साल में ख़त्म हो जाता है, लेकिन 800 साल राज करने वाले चोल साम्राज्य का जिक्र नहीं है | बड़े भवनों का जिक्र हो तो आप ये तो बता सकते हैं की ताजमहल किसने बनवाया लेकिन ये नहीं की अजंता और एल्लोरा की गुफाएं किसने बनवाई | आप ये तो बता दें शायद की क़ुतुब मीनार किसने बनवाया लेकिन क्या तोड़ कर् बनाया था ये नहीं पता | यहाँ तक की मुग़ल साम्राज्य में भी आप जहाँगीर और बहादुर शाह जफर के बीच के राजाओं का नाम भी नहीं जानते | नहीं बहादुर शाह जफ़र जहाँगीर का बेटा नहीं था !

इन सारे लोगों का जिक्र किस के महिमामंडन के लिए किया गया ? और पिछले पचास साल को इतिहास मानते भी नहीं जब की आज का भारत तो इसी 1947 से आज तक में बना है न ?

4. विरोधियों के खिलाफ दुष्प्रचार – अपने विरोधी को राक्षस बताना

नाज़ी कई लोगों को अपना विरोधी मानते थे | देश के अन्दर भी और विदेशों में भी उनपर प्रचार का हमला जारी रहता था | किसी भी विचारधारा पर विदेशी ज़मीन पर हमला करने के लिए प्रचार बहुत अच्छा हथियार था | विरोधियों को ब्रेन वाश का शिकार, बुद्धू दिखाया जाता था, और जर्मन लोगों को बौध्दिक तौर पर उनसे श्रेष्ठ बताया जाता था |
अब जब राक्षस और आदमखोर भेड़ियों की बात छिड ही गई है तो कौन किस विरोधी को नरभक्षी, इंसानों के खून से रंगे हाथ वाला बताता था ये भी याद आ गया होगा ! चुनावों को ज्यादा दिन तो हुए नहीं हैं | अपने विरोधी दल के समर्थकों को मानसिक रूप से पिछड़ा, बौध्दिक क्षमता न इस्तेमाल करने वाला अंध भक्त, मैला खाने वाला, किसी संगठन के हाथों खेलने वाला कहना तो अब भी चलता ही रहता है |

ये भी गोएब्बेल्स का ही एक तरीका था|



3. मिथकीय कहानियां, लोक कथाएं और धार्मिक मान्यताएं

नाज़ी विचारधारा के “volk” (फोल्क) में मिथक और लोककथाओं का बड़ा महत्व था | नाज़ी पार्टी की अपनी मान्यताएं धर्म पर स्पष्ट नहीं थीं, हिटलर के मामले में तो कहा जा सकता है की वो भटका रहता था | लेकिन धार्मिक प्रतीकों के महत्व का गोएब्बेल्स को अच्छे से पता था | अक्सर ही इसाई प्रतीक चित्रों की मदद प्रचार में किया करते थे नाज़ी | इनका मकसद साफ़ था, प्राचीन जर्मन सभ्यता को लोगों के दिमाग में आगे लाना | स्वस्तिक जैसा निशान उनकी पहचान आज भी है | कई पुराने पोस्टर आज देखें तो पुराने ट्युटोनिक भगवानों के प्रतीक चिन्ह भी दिख जायेंगे |

अब अभी के भारत पर आयेंगे तो अभी हाल की घटना थी जिसमे अचानक से कोई आ कर “महिषासुर” को देवता घोषित कर रहा था | यहाँ धार्मिक मान्यताओं की अस्पष्टता तो दिखेगी ही, प्राचीन हिन्दू प्रतीक चिन्हों का अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल भी दिख जायेगा | इसके अलावा अभी पच्चीस दिसंबर को मनाया गया “डेविल्स डे” भी है | इसमें अनेक ईश्वर को मानने (हिन्दू धर्म की तरह) को निशाने पे लेना भी दिखेगा | धार्मिक मान्यताएं अस्पष्ट होने के उदाहरण वैसे भी राजनीति और अन्य क्षेत्रों में भरे पड़े हैं | होली पे पानी की बर्बादी न करने की सलाह आती है, दिवाली पर लक्ष्मी के घर आने की हंसी उड़ाई जाती है, बकरीद पर अहिंसा का पाठ भी पढ़ा देंगे !!

लेकिन, किन्तु, परन्तु, Thanks Giving पर मारे गए तीतरों पर आत्मा नहीं रोती और पता नहीं कैसे जिस Santa Clause का पूरे बाइबिल में जिक्र नहीं वो रात गए घर में गिफ्ट रखने आता है तो वो अन्धविश्वास तो हरगिज़ नहीं होता !

2. संगीत और नृत्य – अच्छे को ग्रहण कर लेना

हिटलर के मुताबिक जो तीन अच्छे संगीतकार थे, और जर्मन संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते थे, वो थे Ludvig van Beethoven, Anton Bruckner और Richard Wagner | इनमे से Wagner के यहूदियों के प्रति विचार कुछ अच्छे नहीं थे ( उन्होंने 1850 में “Judaism in Music” नाम का एक लेख लिखा था जिसमे यहूदियों को सभ्यता को जहर देने का दोषी करार दिया गया था ) | नाज़ी पार्टी ने उनके लेख के वो भाग उठाये जिनमे यहूदियों को भला बुरा कहा गया था और बाकि का हिस्सा गायब कर दिया | नाज़ी प्रचार तंत्र में जर्मन अतीत के Parsifal, और Der Ring des Nibelungen को प्रमुखता से जगह दी गई | इस तरह जर्मन अतीत के महिमामंडन के लिए संगीत का इस्तेमाल हुआ और उससे विरोध को कुचलने का एक अनोखा तरीका नाज़ियों को मिल गया |

वापिस इसे समझने के लिए अभी के समय में आते हैं | Precurssion instrument संगीत में ढोल जैसे वाद्य यंत्रों को कहा जाता है | कोई भी Drum इसी श्रेणी में डाला जायेगा | एक भ्रान्ति फैला दी गई की इनका इस्तेमाल सिर्फ़ ताल देने के लिए किया जा सकता है, सुर में इनका योगदान नहीं होता और इनसे हमेशा एक सा ही सुर निकलता है | ऐसा कहते समय तबला-डुग्गी, मृदंग जैसे वाद्य यंत्रों को देखा ही नहीं गया, किसी ने विरोध भी नहीं किया | नतीजा वही हुआ जो होना था | आज पाश्चात्य संगीत के साथ जब ये mixed music की तरह आता है तो जनमानस इसे पचा जाता है | कभी किसी पंद्रह से पच्चीस के युवक या युवती को ये सिखाने की कोशिश करें तो वो भारतीय संगीत के सात सुरों के बदले “So, La, Ri, To...” वाले सात सुर सीखना ज्यादा पसंद करेगा | करीब साठ साल का भारतीय संगीत और नृत्य को नीचा दिखाने की कोशिश काम आई है यहाँ |

1. फुहरर (हिटलर को इसी नाम से बुलाते थे)

नाज़ियों के पास जो प्रचार के तरीके थे उनमे से सबसे ख़ास था फुहरर यानि हिटलर खुद ! एक करिश्माई व्यक्तित्व और प्रखर वक्ता के तौर पर हिटलर अपने तर्क को सबसे आसान भाषा में लोगों तक पहुंचा सकता था | कठिन से कठिन मुद्दों पर वो आम बोल-चाल की भाषा में बात करता था | भीड़ के बौध्दिक क्षमता पर नहीं उसका ध्यान उनकी भावनाओं पर होता था | छोटी से छोटी दुर्घटना को बड़ा कर के दिखाना, बरसों पुराने जख्मों को ताज़ा कर देना उसके बाएं हाथ का खेल था | बिना हिटलर के नाज़ी कुछ भी नहीं |

अब अभी के समय में बरसों पुराने जख्मों को कुरेदना अगर याद दिलाना पड़े तो कहना होगा “Poverty is a state of Mind” | किसी ख़ास मुद्दे पर नहीं, सिर्फ विरोध की जन भावना को उकसाना याद दिलाना भी समय बर्बाद करना होगा | अपने लिए समर्थन में जन भावनाओं का इस्तेमाल करना, अपने विकास अपने काम को नहीं, नेता के लिए समर्थन को जगाना सीखना हो तो इन्दिरा गाँधी की मृत्यु के बाद की राजीव गाँधी की जीत और राजीव गाँधी के मरणोपरांत सोनिया की रैली याद कीजिये | उकसाना सीखना है तो भ्रष्टाचार विरोध के आन्दोलन के तुरंत बाद राहुल गाँधी का प्रेस कांफ्रेंस में कागज़ फाड़ना याद कीजिये | जयललिता के जेल जाने पर लोगों की आत्महत्या याद कीजिये, बरसों बिना विकास के बंगाल में टिके रहने वाले ज्योति बासु को याद कीजिये |

वंश कई हैं कोई भी उठा लीजिये, जो लोगों पर नाज़ी होने का आरोप लगाते हैं वो सब ये गोएब्बेल्स वाले तरीके आजमाते दिख जायेंगे | अब अगर आपका ध्यान गया हो तो यहाँ गिनती उलटी है | शुरू दस पर और ख़त्म एक पर होती है | इस से दो पैराग्राफ पढ़ते ही आपको लगने लगेगा की अगला वाला मुद्दा, इस वाले तरीके से भी ज्यादा जरूरी होगा |

इसी मान्यता के साथ, आपने, पढ़ते पढ़ते पूरा 3150 शब्द का लेख पढ़ डाला है | गोएब्बेल्स का एक तरीका हमने आप पर आजमा दिया |

Missionary Activities in Nepal

नेपाल में मिशनरी चमत्कार...

एकमात्र भूतपूर्व हिन्दू राष्ट्र, उर्फ भारत के एक विश्वस्त पड़ोसी नेपाल में इन दिनों एक चमत्कार हो रहा है. नेपाल के उत्तरी पहाड़ी इलाकों तथा दक्षिणी पठार के कुछ जिलों में अचानक लोग अपने भगवान बदलने लगे हैं. जी हाँ, नेपाली धडल्ले से ईसाई बनने लगे हैं. सन २०११ के बाद से मात्र चार वर्षों में “आधिकारिक” रूप से नेपाल के प्रमुख तीन जिलों में ढाई लाख लोगों ने अपना धर्म परिवर्तन कर लिया है. सुनने में ढाई लाख कोई बहुत बड़ा आँकड़ा नहीं दिखाई देता, परन्तु एक ऐसा देश जिसकी कुल आबादी ही लगभग साढ़े तीन-चार करोड़ हो, वहाँ यह संख्या अच्छा ख़ासा सामाजिक तनाव उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त है.

लगभग आठ साल पहले सन २००६ में जब नेपाल का हिन्दू राजतंत्र समाप्त हुआ तथा माओवादियों द्वारा नया “सेकुलर” अंतरिम संविधान अस्तित्त्व में लाया गया, उसी दिन से मानो विदेशी मिशनरी संस्थाओं की बाढ़ सी आ गई. मिशनरी गतिविधियों के कारण नेपाल के पारंपरिक बौद्ध एवं शैव हिन्दू धर्मावलंबियों के बहुमत वाले समाज में तनाव निर्मित होने शुरू हो गए हैं. यहाँ तक कि ईसाई धर्मांतरण की बढ़ती घटनाओं के कारण वहाँ नेताओं को इस नए अंतरिम संविधान में भी “धार्मिक मतांतरण” पर रोक लगाने का प्रावधान करना पड़ा. नए संविधान में भी जबरन धर्मांतरण पर पांच साल की जेल का प्रावधान किया गया है. परन्तु इसके बावजूद मिशनरी संस्थाएँ अपना अभियान निरंतर जारी रखे हुए हैं.


समाज में जारी वर्त्तमान संघर्ष की प्रमुख वजह है मिशनरी संस्थाओं द्वारा लगातार यह माँग करना कि संविधान से धारा १६० एवं १६०.२ को हटाया जाए. यह धारा धर्म परिवर्तन को रोकती है. मिशनरी संस्थाओं की माँग है कि “स्वैच्छिक धर्म परिवर्तन” पर कोई रोक नहीं होनी चाहिए. एक “सेक्यूलर लोकतंत्र” का तकाज़ा है कि व्यक्ति जो चाहे वह धर्म चुनने के लिए स्वतन्त्र हो. जबकि नेपाल के बौद्ध एवं हिन्दू संगठन संविधान की इस धारा को न सिर्फ बनाए रखना चाहते हैं, बल्कि इसके प्रावधानों को और भी कठोर बनाना चाहते हैं. इस मामले में “आग में घी” का काम किया नेपाल में ब्रिटेन के राजदूत एंड्रयू स्पार्क्स की टिप्पणी ने. अपने एक लेख में ब्रिटिश राजदूत ने “सलाह दी” कि, नेपाल के नए बनने वाले संविधान में “अपनी पसंद का धर्म चुनने का अधिकार सुरक्षित रखा जाए”. ब्रिटिश राजदूत की इस टिप्पणी को वहाँ के प्रबुद्ध वर्ग ने देश के आंतरिक मामलों में “सीधा हस्तक्षेप” बताया.

राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के नेता कमल थापा कहते हैं कि ब्रिटिश राजदूत का यह बयान सरकार पर दबाव बनाने के लिए है ताकि मिशनरी संस्थाएँ बिना किसी रोकटोक एवं क़ानून के डर के बिना अपना धर्मांतरण मिशन जारी रख सकें. थापा का वाजिब सवाल यही है कि नेपाल के धर्म परिवर्तन क़ानून पर ब्रिटिश राजदूत इतने बेचैन क्यों हैं? क्योंकि यूरोप एवं दुसरे पश्चिमी देशों से आने वाली क्रिश्चियन संस्थाओं को नेपाल में घुसपैठ करने का पूरा मौका मिल सके. कमल थापा के इस बयान का नेपाल के बुद्धिजीवी वर्ग, समाचार पत्रों एवं आम जनता में ख़ासा प्रभाव देखा गया. नेपाल में इस मुद्दे पर बहस छिड़ गई है कि धर्मान्तरण क़ानून को कठोर बनाया जाए, या “सेक्यूलर लोकतंत्र” की खातिर इसे “स्वैच्छिक” कर दिया जाए (भारत में भी फिलहाल यही चल रहा है). नेपाल का एक बड़ा तबका आज भी राजतंत्र का समर्थक है एवं माओवादी सरकार द्वारा जल्दबाजी में बिना सोचे-समझे सेक्यूलर लोकतंत्र को अपनाए जाने के खिलाफ है. बहुत से लोगों का कहना है कि सेक्यूलर लोकतंत्र का संविधान अपनाते समय किसी से कोई सलाह नहीं ली गई थी.

नुवाकोट, धादिंग, गुरखा, कास्की, म्याग्दी, रुकुम और चितवन जिलों में मिशनरी गतिविधियों के कारण धडल्ले से धर्म परिवर्तन हो रहा है. सीमा पर नए-नए चर्च खुल रहे हैं, जो आए दिन गरीब नेपालियों को रूपए-पैसों का लालच देकर ईसाई बना रहे हैं. चर्च की संस्थाएँ गरीबों को अच्छे मकान, अच्छे कपड़े और कान्वेंट स्कूलों में मुफ्त पढ़ाई का आश्वासन देकरअपने धर्म में खींच रहे हैं. जैसी की चर्च की चालबाजी होती है, उसी प्रकार नेशनल कौंसिल ऑफ नेपाल चर्च का कहना है कि वे जबरन धर्म परिवर्तन नहीं करवाते, बल्कि नेपाली हिन्दू ईसाई धर्म की अच्छाईयों से आकर्षित होकर ही परिवर्तित हो रहे हैं.


सवाल यह है कि ऐसा अक्सर सेकुलरदेशों में ही क्यों होता है? क्या सेकुलर घोषित होते ही गरीबों का धर्म प्रेम जागृत हो जाता है? या सेकुलरिज़्म के कारण अचानक ही सेवाभावी चर्च की संस्थाएँ फलने-फूलने लगती हैं? लगता है कि अफ्रीकी गरीबों की जमकर सेवा करने के बाद अब दक्षिण एशियाई गरीबों का नंबर है... 

(वेबसाईट "स्वराज्य.कॉम"से साभार सहित अनुवादित). 

Leela Samson - Secularism, Corruption and Politics

लीला सैमसन की सेकुलर एवं आर्थिक लीलाएँ...

आजकल पीके फिल्म की वजह से सेंसर बोर्ड की वर्तमान अध्यक्षा लीला सैमसन ख़बरों में हैं. पीके फिल्म में हिन्दू धर्म और भगवान शिव की खिल्ली उड़ाने जैसे कुछ दृश्यों पर मचे बवाल और कई संगठनों के विरोध के बावजूद लीला सैमसन ने स्पष्ट कर दिया है कि वे पीके फिल्म से एक भी सीन नहीं काटेंगी. ये बात और है कि कुछ समय पहले ही रिलीज़ हुई एक और फिल्म “कमाल धमाल मालामाल” में एक ईसाई पादरी (असरानी) के नृत्य पर चर्च की आपत्ति के बाद उस दृश्य को हटा दिया गया था. इससे पहले कमल हासन की फिल्म विश्वरूपम के कुछ दृश्यों पर मुस्लिम संगठनों की आपत्ति और हिंसक विरोध के बाद कुछ दृश्यों को हटाया गया था. लीला सैमसन की ऐसी “सेकुलर मेहरबानियाँ” कोई नई बात नहीं है. बहरहाल एक यहूदी पिता और कैथोलिक माता की संतान, लीला सैमसन का विवादों और काँग्रेस से पुराना गहरा नाता रहा है.



चेन्नई स्थित अंतर्राष्ट्रीय भरतनाट्यम संस्थान कलाक्षेत्रके छात्रा रही लीला सैमसन इसी संस्थान में एकल नृत्यांगना, सदस्य एवं अध्यक्ष पद तक पहुँची थीं. महान नृत्यांगना रुक्मणी देवी अरुंडेल द्वारा 1936में स्थापित यह संस्थान एक महान परंपरा का वाहक है. स्वयं रुक्मिणी जी के शब्दों में, जब लीला को यहाँ भर्ती के लिए लाया गया, तब उसकी कैथोलिक/यहूदी पृष्ठभूमि के कारण उसे प्रवेश देने में मुझे कुछ आपत्तियां थीं, हालाँकि बाद में लीला को भर्ती कर लिया गया, वह नृत्यांगना तो अच्छी सिद्ध हुई, परन्तु भारतीय संस्कृति एवं परम्पराओं के प्रति उसकी समझ एवं बौद्धिक विकास समुचित नहीं हुआ, बल्कि कई बार दुर्भावनापूर्ण ही था. तरक्की करते-करते सन 2005में लीला सैमसन को कलाक्षेत्र का निदेशक बना दिया गया. जल्दी ही, अर्थात 2006में सैमसन ने भरतनाट्यम नृत्य कथानकों में से आध्यात्मिक जड़ोंको हटाना शुरू कर दिया. सैमसन के एवेंजेलिस्ट इरादेतब ज़ाहिर होने शुरू हुए, जब श्रीश्री रविशंकर ने कलाक्षेत्र के छात्रों को उनके आर्ट ऑफ लिविंगके  स्वास्थ्य एवं आशीर्वाद संबंधी एक कार्यक्रम में शामिल होने का निमंत्रण दिया. तमिल साप्ताहिक आनंद विकतनके अनुसार लीला सैमसन ने छात्रों को इसमें भाग लेने से इसलिए मना कर दिया, क्योंकि यह श्रीश्री का यह समारोह हिन्दू धर्म को महिमामंडित करता था. लीला सैमसन का अगला सेकुलर कृत्यथा कलाक्षेत्र संस्थान में स्थित सभी गणेश मूर्तियों को हटाने का फरमान. तमिल हिन्दू वॉईसअखबार के अनुसार जब इस निर्णय का कड़ा विरोध हुआ एवं छात्रों ने भूख हड़ताल की धमकी दी, तब लीला सैमसन ने सिर्फ एक गणेश मूर्ति को पुनः लगाने की अनुमति दी, लेकिन बाकी की मूर्तियां दोबारा नहीं लगने दीं. लीला सैमसन का कहना था कि कलाक्षेत्र में सिर्फ दीप प्रज्ज्वलन करके कार्यक्रम की शुरुआत होनी चाहिए, किसी देवी-देवता की पूजा से नहीं. लीला सैमसन ने अपनी ही गुरु रुक्मिणी अरुंडेल की उस शिक्षा की अवहेलना की, जिसमें उन्होंने कहा था कि जिस प्रकार भगवान नटराज जीवंत नृत्य का प्रतीक हैं, उसी प्रकार भगवान गणेश भी प्रत्येक शुभारंभके आराध्य हैं. लेकिन लीला सैमसन को इन सबसे कोई मतलब नहीं था.


कलाक्षेत्रमें होने वाली प्रभात प्रार्थनाओं के बाद लीला सैमसन अक्सर छात्र-छात्राओं को मूर्तिपूजा अंधविश्वास है, एवं इस परंपरा को कलाक्षेत्र संस्था में खत्म किया जाना चाहिए, इस प्रकार की चर्चाएँ करती थीं एवं उनसे अपने विचार रखने को कहती थीं. उन्हीं दिनों लीला सैमसन के चमचेकिस्म के शिक्षकों ने गीत–गोविन्दनामक प्रसिद्ध रचना को बड़े ही अपमानजनक तरीके से प्रस्तुत किया था, जिसे बाद में विरोध होने पर मंचित नहीं किया गया. छात्राओं को भरतनाट्यम में पारंगत होने के बाद जो प्रमाणपत्र दिया जाता है, उसमें रुक्मिणी अरुंडेल द्वारा भगवान शिव का प्रतीक चिन्हलगाया था, जो लीला सैमसन के आने के बाद हटा दिया गया. अभी जो सर्टिफिकेट दिया जाता है, उसमें किसी भगवान का चित्र नहीं है. हिन्दू कथानकों एवं पौराणिक चरित्रों की भी लीला सैमसन द्वारा लगातार खिल्ली उड़ाई जाती रही, वे अक्सर छात्रों के समक्ष प्रसिद्ध नाट्य कुमार-संभवको समझाते समय, हनुमान जी, पार्वती एवं भगवान कृष्ण की तुलना वॉल्ट डिज्नी के बैटमैनतथा स्टार वार्स के चरित्रों से करती थीं.तात्पर्य यह है कि लीला सैमसन के मन में हिंदुओं, हिन्दू धर्म, हिन्दू आस्थाओं, भगवान एवं संस्कृति के प्रति मिशनरी कैथोलिकदुर्भावना शुरू से ही भरी पड़ी थी, ज़ाहिर है कि ऐसे में पद्मश्री और सेंसर बोर्ड की अध्यक्ष पद के लिए एंटोनिया माएनो उर्फ सोनिया गाँधी की पहली पसंद लीला सैमसन ही थी. ऐसे में स्वाभाविक ही है कि फिल्म कमाल धमाल मालामालमें नोटों की माला पहने हुए पादरी का दृश्य तो लीला को आपत्तिजनक लगा लेकिन फिल्म पीके में भगवान शिव के प्रतिरूप को टायलेट में दौड़ाने वाले दृश्य पर उन्हें कोई दुःख नहीं हुआ. यहाँ भी लीला सैमसन अपनी दादागिरी दिखाने से बाज नहीं आईं, सेंसर बोर्ड के अन्य सदस्यों द्वारा अपना विरोध करवाने के बावजूद उन्होंने फिल्म PKको बिना किसी कैंची के जाने दिया. अपुष्ट ख़बरों के अनुसार इस काम के लिए राजू हीरानी ने लीला सैमसन को चार करोड़ रूपए की रिश्वत दी है, इसलिए इस आरोप की जाँच बेहद जरूरी हो गई है.

ऐसा भी नहीं कि लीला सैमसन ने सिर्फ सेकुलर लीलाएँकी हों, काँग्रेस की परंपरा के अनुसार उन्होंने कुछ आर्थिक लीलाएँ भी की हैं. इण्डिया टुडे पत्रिका में छपे हुए एक स्कैंडल की ख़बरों के अनुसार 2011में लीला सैमसन ने कलाक्षेत्रसंस्थान में बिना किसी टेंडर के, बिना किसी सलाह मशविरे के कूथाम्बलम ऑडिटोरियम में आर्किटेक्चर तथा ध्वनि व्यवस्था संबंधी बासठ लाख रूपए के काम अपनी मनमर्जी के ठेकेदार से करवा लिए और उसका कोई ठोस हिसाब तक नहीं दिया. उन्हीं के सताए हुए एक कर्मचारी टी थॉमस ने जब एक RTIलगाई, तब जाकर इस लीलाका खुलासा हुआ. पाँच वर्ष के कार्यकाल में लीला सैमसन ने लगभग आठ करोड़ रूपए के काम ऐसे ही बिना किसी टेंडर एवं अनुमति के करवाए गए, जिस पर तमिलनाडु के CAGने भी गहरी आपत्ति दर्ज करवाई थी, परन्तु काँग्रेस की महारानीका वरदहस्त होने की वजह से उनका बाल भी बाँका नहीं हुआ. इसके अलावा कलाक्षेत्र फाउन्डेशन की निदेशक के रूप में सैमसन ने एक निजी कम्पनी मेसर्स मधु अम्बाट को अपनी गुरु रुक्मिणी अरुंडेल के नृत्य कार्यों का समस्त वीडियो दस्तावेजीकरण करने का ठेका तीन करोड़ रूपए में बिना किसी से पूछे एवं बिना किसी अधिकार के दे दिया और ताबड़तोड़ भुगतान भी करवा दिया.शिकायत सही पाए जाने पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस एस मोहन ने सभी अनियमितताओं की जाँच की तब यह पाया गया कि जिस कंपनी को वीडियो बनाने का ठेका दिया गया था, उसे ऐसे किसी काम का कोई पूर्व अनुभव भी नहीं था.

(अपनी गुरु रुक्मिणी अरुंडेल की मूर्ति के पास बैठीं लीला सैमसन) 

दोनों ही घोटालों के बारे में जब CAGने लीला सैमसन से पूछताछ एवं स्पष्टीकरण माँगे, तब उन्होंने पिछली तारीखों के खरीदे हुए स्टाम्प पेपर्स पर उस ठेके का पूरा विवरण दिया, जिसमें सिर्फ छह नाटकों का वीडियो बनाने के लिए नब्बे लाख के भुगतान संबंधी बात कही गई. दैनिक पायनियरने जब इस सम्बन्ध में जाँच-पड़ताल की तो पता चला कि ये स्टाम्प पेपर 03सितम्बर 2006को ही खरीद लिए गए थे, जिस पर 25अक्टूबर 2006 को रजिस्ट्रेशन नंबर एवं अनुबंध लिखा गया, ताकि जाँच एजेंसियों की आँखों में धूल झोंकी जा सके. (यह कृत्य गुजरात की कुख्यात सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड से मेल खाता है, उसने भी ऐसे ही कई कोरे स्टाम्प पेपर खरीद रखे थे और गवाहों को धमकाने के लिए उनसे हस्ताक्षर लेकर रखती थी).

बहरहाल, तमाम आर्थिक अनियमितताओं की शिकायत जस्टिस मोहन ने केन्द्रीय संस्कृति मंत्री अम्बिका सोनी को लिख भेजी, परन्तु लीला सैमसन पर कोई कार्रवाई होना तो दूर रहा, उनसे सिर्फ इस्तीफ़ा लेकर उन्हें और बड़ा पद अर्थात संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष पद से नवाज़ दिया गया. जैसा कि सभी जानते हैं, अम्बिका सोनी एवं लीला सैमसन पक्की सखियाँ हैं, और दोनों ही एक खुले रहस्यकी तरह सोनिया गाँधी की करीबी हैं. ज़ाहिर है कि लीला सैमसन का कुछ बिगड़ना तो बिलकुल नहीं था, उलटे आगे चलकर उन्हें सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष पद भी मिला...

तो मित्रों, अब आप समझ गए होंगे कि PKफिल्म के बारे में इतना विरोध होने, सेंसर बोर्ड के सदस्यों द्वारा विरोध पत्र देने के बावजूद लीला सैमसन इतनी दादागिरी क्यों दिखाती आई हैं, क्योंकि उन्हें भरोसा है कि प्रशासन एवं बौद्धिक(?) जगत में शामिल सेकुलर गिरोहउनके पक्ष में है. मोदी सरकार के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती प्रशासन के हर स्तर पर फ़ैली हुई ऐसी ही प्रगतिशील कीचड़युक्त गादको साफ़ करना है. देखना है कि नरेंद्र मोदी में यह करने की इच्छाशक्ति और क्षमता है या नहीं.... वर्ना तब तक आए-दिन हिंदुओं एवं हिन्दू संस्कृति का अपमान होता रहेगा और हिन्दू संगठन सिर्फ विरोध दर्ज करवाकर अगले अपमानका इंतज़ार करते रहेंगे

Huge Corruption and Scams in Odisha

घोटालों के चक्रव्यूह में पटनायक का ओडिशा...

यदि कोई राज्य अथवा कोई राजनेता मुख्यधारा की मीडिया में अधिक दिखाई-सुनाई नहीं देता है, तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि उस राज्य में सब कुछ सही चल रहा है. बल्कि इसका मतलब यह होता है कि हमारा तथाकथितमुख्यधारा के मीडिया की आँखें और कान सिर्फ चुनिंदा और उसकी व्यावसायिक एवं राजनैतिक पसंद के अनुरूप ही खुलते हैं. अव्वल तो हमारा कथित नॅशनल मीडिया सिर्फ दिल्ली और उसके आसपास के कवरेज तक ही सीमित रहता है, या फिर उसे भाजपा एवं हिंदुत्व-मोदी की आलोचना करने से ही फुर्सत नहीं मिलती. अपने नामचीन(??) संवाददाताओं को दूरस्थ तमिलनाडु अथवा मेघालय भेजने की रिस्कवे नहीं उठाते, क्योंकि उन्हें लगता है कि दिल्ली और NCRही पूरा देशहै अथवा भोपाल-मुम्बई-जयपुर जैसे शहरों से किसी किराए केफर्जी संवाददाता से दो मिनट की बाईट अथवा चार सेंटीमीटर की खबर छापकर वे स्वयं को राष्ट्रीय स्तरका अखबार या चैनल मानने लगते हैं. असल में रामजादेशब्द में जो TRPहै, वह ओडिशा के घोटालों में कहाँ? जैसी पीत-पत्रकारिता आसाराम बापू अथवा गोड़से की मूर्ति पर की जा सकती है, वैसी पत्रकारिता(?) ओडिशा के चिटफंड घोटाले की ख़बरों में कैसे की जा सकती हैं. मीडिया की ऐसी ही सिलेक्टिवउपेक्षा एवं घटिया रिपोर्टिंग का शिकार है ओडिशा राज्य और इसके मुख्यमंत्री नवीन पटनायक. पाठकों, ज़रा याद करने की कोशिश कीजिए कि आपने राष्ट्रीयकहे जाने वाले कितने चैनलों अथवा अखबारों में ओडिशा में जारी भ्रष्टाचार पर दो-चार दिन कोई बहस सुनी अथवा रिपोर्ट देखी?? आए दिन भाजपा के दूसरी-तीसरी पंक्ति के नेताओं के मुँह में माईक घुसेड़कर बाईट्स लेने वाले कितने कथित पत्रकारों को आपने नवीन पटनायक से सवाल-जवाब करते देखा है? मुझे पूरा विश्वास है कि देश के अधिकाँश जागरूक(?) लोगों को तो पिछले पन्द्रह साल से ओडिशा के मुख्यमंत्री रहे नवीन पटनायक का पूरा और ठीक नाम तक नहीं मालूम होगा. बहुत से लोगों को ये भी नहीं पता होगा कि मयूरभंज और बालासोर जिलों का भी नाम है और वे ओडिशा में हैं.

कहने का तात्पर्य यह है कि जब देश का प्रमुख मीडिया काँग्रेस-भाजपा में ही व्यस्त हो, तमाम अ-मुद्दोंपर बकबकाहट और आपसी जूतमपैजार व थुक्का-फजीहत जारी हो, ऐसे में ओडिशा जैसे राज्यों के भ्रष्टाचार की ख़बरें बड़ी आसानी से छिप जाती हैं, दबा दी जाती हैं. आज भी यही हो रहा है. यदि पश्चिम बंगाल में सारधा चिटफंड समूह का महाकाय घोटाला उजागर नहीं होता, तो आज भी ओडिशा की तरफ लोगों का ध्यान तक नहीं जाता. लेकिन इसे पटनायक का दुर्भाग्य कहिये या फिर जाँच एजेंसियों का संयोग कहिये, सारधा घोटालेके उजागर होते ही एक के बाद एक परतें खुलती गईं और इसकी आँच ओडिशा, असम व बांग्लादेश तक जा पहुँची. जो बातें मुख्यधारा का मीडिया बड़ी सफाई से छिपा लेता है, वह सोशल मीडिया पर जमीनीलोग बिना अपना नाम ज़ाहिर किए चुपके से उजागर कर देते हैं. दिक्कत यह है कि सोशल मीडिया की पहुँच बहुत ही सीमित है और प्रिंट मीडिया को भी अक्सर Political Correctहोने के कारण बहुत सी ख़बरों को सेंसर कर देना होता है... बहरहाल, कुछ अपुष्ट एवं पुष्ट सूत्रों व स्थानीय अखबारों में जारी रिपोर्टों के अनुसार, आईये देखते हैं ओडिशा में क्या-क्या गुल खिल रहे हैं.


पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के मंत्रियों एवं सांसदों एक कारनामे सामने आते जा रहे हैं और उनमें से कुछ गिरफ्तार भी हुए हैं और कुछ सांसदों का लिंक बांग्लादेश के इस्लामी बैंक एवं सिमी नेताओं के साथ भी निकले. जबकि ओडिशा के एक बीजू-जद सांसद महोदय गिरफ्तार हो चुके हैं साथ ही बीजू-जद के चार विधायक महोदय भी सीबीआई की जाँच के घेरे में हैं. हालाँकि बहुचर्चित कोयला और खनन घोटाले में भी ओडिशा के कई मंत्री और सांसद जाँच के घेरे में रहे हैं, लेकिन उस समय भी मीडिया ने ओडिशा पर अधिक ध्यान नहीं दिया था. फिलहाल ओडिशा में तो सारधा चिटफंड से जुड़े घोटालों में नित नई बातें सामने आ रही हैं. सीबीआई द्वारा दाखिल चार्जशीट के अनुसार बीजू जनतादल के निलंबित विधायक पर्वत त्रिपाठी ने अर्थ-तत्त्वनामक कंपनी से उसका पक्ष लेने व मामले को दबाने में मदद के रूप में बयालीस लाख रूपए की रिश्वत ली थी. त्रिपाठी ने एटी (अर्थ-तत्त्व) समूह के मालिक प्रदीप सेठी के तमाम काले कारनामों और अवैध धंधों का संरक्षक बनने के एवज में यह रकम ग्रहण की थी. इन बयालीस लाख रुपयों के अलावा पर्वत त्रिपाठी ने बांकी महोत्सव भी सेठी के द्वारा पूरा का पूरा फायनेंस करवा लिया था. पर्वत त्रिपाठी ने अपने सत्ताधारी विधायक होने की दबंगई दिखाते हुए एटी बहुउद्देशीय सहकारी समिति को पूर्व दिनाँक में रजिस्टर करने हेतु सहायक पंजीयक पर दबाव बनाया और अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए समिति को रजिस्टर करवा भी लिया. बयालीस लाख रुपयों के अहसान के बदले में पर्वत त्रिपाठी ने अर्थ तत्त्व कंपनी की साख बढ़ाने हेतु सेठी को सर्वोत्तम युवा सहकारी उद्यमीका अवार्ड भी दिलवा दिया, क्योंकि खुद त्रिपाठी साहब ओडिशा राज्य की सहकारिता युनियन के अध्यक्ष थे, यानी आम के आम गुठलियों के दाम तथा तू मेरी पीठ खुजा, मैं तेरी पीठ खुजाता हूँ. फर्जी कम्पनी के मालिक सेठी ने विधायक महोदय के साथ अपनी युवा उद्यमीवाली छवि की इन्हीं तस्वीरों को दिखा-दिखाकर निवेशकों का विश्वास जीता और उन्हें ठग लिया.


नवीन पटनायक सरकार के लिए फौरी राहत की बात यह रही, कि सीबीआई द्वारा दाखिल प्राथमिक आरोपपत्र जिसमें विधायक पर्वत त्रिपाठी का नाम है, उन्हीं एक और विधायक महोदय प्रणब बालाबंत्री बिलकुल बाल-बाल बचे, क्योंकि सीबीआई ने उनके और एटी समूह के संदिग्ध रिश्तों को लेकर सोलह घंटे की पूछताछ के बाद गवाहों की सूची से उनका नाम हटा दिया. प्रणब बलाबंत्री पहली बार विधायक बने हैं और वे राज्यसभा सांसद कल्पतरु दास के बेटे हैं. प्रणब पर सीबीआई की तलवार उसी दिन से लटक रही थी, जिस दिन से सीबीआई ने सांसद रामचंद्र हंसदा और सुबर्ना नायक को गिरफ्तार किया था. असल में विधायक बालाबंत्री, उड़ीसा के एक बिल्डर धर्मेन्द्र बोथरा के साथ नज़दीकी के कारण सीबीआई के स्कैनर में आए. प्रणब ने अपनी एक जमीन की पावर ऑफ अटॉर्नी बोथरा को दी थी, जिसे बोथरा ने पचहत्तर लाख रूपए में एटी समूह के मालिक प्रदीप सेठी को बेची, इससे प्रणब संदिग्धों की श्रेणी में आ गए. हालाँकि सीबीआई ने पूछताछ के बाद बिल्डर बोथरा को एटी समूह के लिए फंड की हेराफेरी के आरोप में गहन पूछताछ पर लिया है. 233पृष्ठों की चार्जशीट के अनुसार बोथरा का सीधा सम्बन्ध तो स्थापित नहीं हो सका, पर एटी समूह हेतु तीस लाख रूपए का हेरफेर करने का आरोप सही पाया गया है.

परन्तु जैसा कि आप पढ़ चुके हैं, बंगाल से शुरू हुआ यह चिटफंड घोटाला इतना सरल तो है ही नहीं, उलटे इसमें प्रशासन के सभी हिस्से शामिल होने के कारण इसकी जाँच में कई अडचनें आ रही हैं. ओडिशा की पुलिस के एक और शर्मनाक वाकया तब हुआ, जब सीबीआई ने DSPरैंक के अधिकारी प्रमोद पांडा से उनके अर्थ-तत्त्व के साथ रिश्तों को लेकर पूछताछ की और गिरफ्तार कर लिया. १५ दिसम्बर को ओडिशा हाईकोर्ट ने प्राथमिक सबूतों के चलते पांडा की अग्रिम जमानत खारिज कर दी. पुलिस अधिकारी पांडा साहब की भी सीबीआई ने दो घंटे तक खिंचाई की क्योंकि प्रमोद पांडा एटी समूह के एक अन्य आरोपी और सीबीआई की हिरासत में बैठे, जगबन्धु पांडा के नजदीकी रिश्तेदार बताए जाते हैं. सीबीआई ने कोर्ट से समय माँगा है, ताकि दोनों पांडा बंधुओं के आपसी आर्थिक लेन-देन के बारे में और जानकारी जुटाई जा सके. मजे की बात यह है कि राज्य की क्राईम ब्रांच ने 2009-10में सीबीआई के कोलकाता दफ्तर में लायजनिंग ऑफिसरके रूप में उस समय नियुक्त किया था, जिस समय बालासोर जिले के एक चिटफंड मामले की जाँच चल रही थी, और उस मामले में बॉलीवुड के कलाकार नसीर खान भी लिप्त पाए गए हैं. दिक्कत की बात यह है कि ना तो सीबीआई और ना ही ओडिशा पुलिस इस बात की तस्दीक कर रही है कि क्या आज की तारीख में भी प्रमोद पांडा ओडिशा की चवालीस चिटफंड कंपनियों की जाँच टीम में शामिल हैं या नहीं?? क्योंकि पांडा साहब को इसी वर्ष फरवरी में निलंबित किया जा चुका है, क्योंकि उन्होंने चिटफंड कंपनियों की जाँच हेतु कोर्ट में याचिका लगाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता आलोक जेना को दिल्ली में धमकाया था. हालाँकि रहस्यमयी पद्धति से प्रमोद पांडा को पुनः नौकरी में बहाल कर लिया गया था, और उन्हें नयागढ़ में DSPबनाया गया. इस मामले में संदेहास्पद होने के कारण पांडा साहब, प्रदेश के ऐसे तीसरे पुलिस अफसर हैं, इनसे पहले नवंबर में दो IPSअफसर राजेश कुमार (DIGउत्तर-मध्य रेंज) तथा सतीश गजभिये (केंद्रपाड़ा के एसपी) भी सीबीआई के जाँच घेरे में हैं.

पिछले एक वर्ष से जारी इस जाँच मैराथन में एक रोचक और सनसनीखेज मोड़ तब आया, जब एक कंपनी माईक्रो फाईनेंस लिमिटेड के निदेशक दुर्गाप्रसाद मिश्रा को पुलिस ने गिरफ्तार किया. पहले तो मिश्रा जी मार्च से लेकर दिसम्बर तक भूमिगत हो गए थे, पुलिस और सीबीआई से बचते भागते रहे. फिर जब गिरफ्तार हुए तो तत्काल उनकी तबियत खराब हो गई और उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा. अस्पताल जाते-जाते मिश्रा जी ने कैमरों के सामने चिल्लाया कि मैं एकदम निर्दोष हूँ, मुझे जबरन फँसाया जा रहा है. सभी लोगों ने मेरा उपयोगकिया है, इसलिए यदिमैंने मुँह खोल दिया तो बड़े-बड़े लोग फँस जाएँगे..मुझे पता है, आपको बंगाल के सारधा समूह वाले कुणाल बाबू याद आ गए होंगे, वे भी ठीक यही वाक्य चीखते हुए अस्पताल की वैन से रवाना हुए थे. बहरहाल, मिश्रा जी को सीबीआई कोर्ट ने सात दिनों की रिमांड पर भेजा तब उन्होंने किसी बड़े आदमीका नाम नहीं लिया. दुर्गाप्रसाद मिश्रा जी की कम्पनी ने निवेशकों के पाँच सौ करोड़ रूपए से अधिक डुबा दिए हैं, और मिश्रा जी का नाम तब सामने आया, जब ओडिशा पंचायती राज विभाग के अजय स्वैन को गिरफ्तार करके रगड़ा गया. स्वैन ने ही बताया कि मिश्रा जी की सरकार में काफी ऊँची पहुँच और प्रभाव है और लुटाए हुए निवेशक लगातार उनके दफ्तर के चक्कर काट रहे हैं लेकिन मिश्रा जी गायब थे.


मिश्रा जी ने अपनी कंपनी के पंख फैलाने के लिए पंचायती राज विभाग के अजय स्वैन को मोहरा बनाया था. अजय स्वैन ने विभिन्न जिलों के कलेक्टर को आधिकारिक लेटरहेड पर पत्र लिखकर बालासोर, भद्रक और मयूरभंज कलेक्टरों को निर्देश दिया कि मिश्रा जी की कम्पनी को उन जिलों में अबाधितकार्य करने में सहयोग प्रदान करें. इस वर्ष मार्च में शिकायत मिलने के बाद राज्य क्राईम ब्रांच ने पंचायती राज विभाग से स्वैन के अलावा कंपनी के निदेशक बैकुंठ पटनायक को भी पकड़ा, जिसने स्वैन के साथ मिलकर कलेक्टरों पर दबाव बनाने के लिए मिश्रा जी की पहुँच का इस्तेमाल किया. सीबीआई ने पाटिया स्थित दुर्गाप्रसाद मिश्रा के निवास पर छापा मारा और इस घोटाले से सम्बन्धित ढेरों दस्तावेज बरामद किये. इसके अलावा मिश्रा के पुत्र कालीप्रसाद मिश्रा से भी जमकर पूछताछ की गई है.


ज़ाहिर है कि इस घोटाले के तार प्रशासन की रग-रग में समाए हुए हैं. नवीन पटनायक को सिर्फ भद्र पुरुष अथवा सौम्य व्यवहार वाले व्यक्ति होने के कारण संदेह से परे नहीं रखा जा सकता. उनकी ईमानदार छवि पर दाग तो निश्चित रूप से लगा है और देश के लिए मनमोहन सिंह टाईप के ईमानदार भी आखिर किस काम के??

Secular and Sanatan Haveli

जर्जर होती सनातन "हवेली"


गाँव में एक बहुत बड़ी हवेली थी , या यूं कहें हवेली बसी उसके बाद ही पूरा गाँव बसा , हवेली के दूरदृष्टा पूर्वजों ने पूरे गाँव में महान परम्पराएँ बसाई , भाषाएँ विकसित की , इंसानों जैसा जीना सिखाया , वैज्ञानिक सोच दी , पर जैसे हर गाँव में होता है , दो चार घर काले धंधे कर बढे हो गए , मंजिलें चढ़ गयीं , मोटर साइकल आई , ट्रेक्टर आया , फ़ोन आ गया , पर पैसे से कभी अकल आते देखि है ? वो वहीँ की वहीँ रही, सोच वही दकियानूसी कबीलाई , हवेली अब इन "नवधनाढ्यों"को आँखों में चुभने लगी , "जब तक ये हवेली रहेगी तब तक गाँव हमारा इतिहास याद रखेगा " , ऐसी भावना घर करने लगी , गाँव में वर्चस्व स्थापित करने का एक ही रास्ता है , हवेली को ख़त्म करो , बर्बाद करो !!




अब साजिशें शुरू हुईं , बच्चों के खेलने के नाम पर पहले हवेली की बाउंड्री वाल तोड़ी गयी , हवेली में थोड़ी बहस हुई तो बड़ों ने कहा "हम इतने दकियानूस हो गए हैं की बच्चों को खेलने की जगह भी ना दे सकें ? जब बाउंड्री वॉल टूट गयी तो आहिस्ता से मनचलों ने हवेली का पिछला चबूतरा जुआ खेलने का अड्डा बना लिया , बहस हुई तो निष्कर्ष ये निकला की  " हमारे बच्चों के संस्कार क्या इतने कमज़ोर हैं की जुए खेलते देख बिगड़ जाएँ , बाहर जो करता है करने दो , अपना ध्यान खुद  रखो " , हवेली का एक कमरा जो बरसों पहले परदादा ने एक असहाय की मदद के लिए किराये से दिया था उसपर उसके एहसान फरामोश बच्चों ने कब्ज़ा कर लिया, घर में खूब कलह हुई तो बाबूजी ने शांति और अहिंसा का सन्देश देकर चुप करा दिया , कहा "एक कमरे के जाने से हवेली बर्बाद नहीं हो जाएगी" !! हवेली के बुजुर्गों में एक अजीब सा नशा था हवेली के रुद्बे को लेकर , उसके इतिहास को लेकर , अपने पुरखों की जंग लगी बन्दूक रोज़ देखते पर अपने बच्चों को कभी उसे छूने ना देते , हम बहुत महान थे पर क्यों थे और आगे कैसे बने रह सकते हैं ये कभी नहीं बताते , शायद उन्हें ही ना पता हो , इधर चौराहे पर हवेली की हंसी उड़ती , चुटकुले सुनाये जाते , इन्ही बुजुर्गों की खिल्ली उड़ाई जाती !! यही क्रम चलता रहा और हवेली चारों और से बर्बाद होती रही !!


आज हालत ये है की हवेली की चारों दीवारों पर आजकल पूरा गाँव पेशाब करता है , दीवार गाँव की पेशाब से सिलसिलकर "ऐतिहासिक"हो गयी है , अमोनिया की "सहिष्णुता"से भरी खुशबु पूरी हवेली को सुगन्धित कर रही हैं पर घर के बड़े बूढ़े मानने को तैयार नहीं है , बार बार किसी मानसिक विक्षिप्त की तरह "सनातन हवेली""सनातन हवेली"जैसा शब्द रटते रहते हैं , कहते हैं कुछ नहीं बिगड़ेगा , अजीबोगरीब बहाने ढूंढ लियें हैं अपनी कायरता को छुपाने के , कह रहे हैं अमोनिया की खुशबु सूंघने से बाल काले रहेंगे , ये तो हमारे भले के लिए ही है !! कल वहीँ असलम मियां अपनी कलात्मकता का प्रदर्शन करते हुए जलेबिनुमा पेशाब कर रहे थे तो हवेली के बच्चे ने पत्थर फेंक दिया , असलम मियां ने बाबूजी से शिकायत की और उस बच्चे के कट्टरपंथी हो जाने का खतरा बताया , तब से बाबूजी ने बड़े भैया को दीवार के पास ही तैनात कर दिया है ताकि कोई पेशाब करे तो उसे कोई रोके टोके ना , बेइज्जती ना हो ,  उसके लोकतान्त्रिक अधिकारों का हनन ना हो !! 

किसी को पान की पीक करते , किसी को पेशाब करते , किसी को मैदान में तम्बू गाड़ते , किसी को पीछे की शीशम की खिड़की उखाड़ते बच्चे रोज़ देखते हैं , हवेली रोज़ बिक रही है , खुद रही हैं , नेस्तनाबूत हो रही है , आँखों से खून आता है , मुट्टीयाँ भींच कर चुप रहना पड़ता है , सहिष्णु बाबूजी हैं , कायर भाई हैं , सेक्युलर भाभियाँ हैं , हवेली महान है , हवेली सनातन है !! 

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(झकझोरने वाला यह शानदार लेख फेसबुक पर लिखा है श्री गौरव शर्मा जी ने... मैंने यहाँ साभार ग्रहण किया है... उनके प्रोफाईल पर जाकर कुछ ऐसे ही अन्य "आँखें खोलने वाले"लेखों का आनंद भी उठाएँ... लिंक यह है... https://www.facebook.com/gaurav.bindasbol?fref=ufi )
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Non-Translatable Sanskrit Words of Indian Culture

संस्कृत शब्दों का अनुचित अंग्रेजी अनुवाद

डॉक्टर राजीव मल्होत्रा की एक अतिशय उम्दा पुस्तक है "Being Different", अर्थात "विभिन्नता". संक्षेप में कहूँ तो "हम अलग हैं" (अथवा सनातन धर्म दूसरों से अलग क्यों है) को इसमें बेहतरीन पद्धति से समझाया गया है. सौभाग्य से इस पुस्तक के अनुवाद का मौका मुझे मिल सका. चूँकि राजीव जी की पुस्तक बेहद विस्तृत मंच पर, गहन शोध एवं अध्ययन पर आधारित है, ज़ाहिर है कि कहीं-कहीं भाषा क्लिष्ट हो गई है. परन्तु लगभग उसी "थीम"से सम्बन्धित आनंद कुमार जी का यह फेसबुक नोट, नए विद्यार्थियों को सनातन शब्दों के मूल अर्थ समझाने के लिए आसान है... संस्कृत के कई शब्दों का अंग्रेजी अनुवाद किया ही नहीं जा सकता. इसे पढ़िए और समझिए कि Why we are DIFFERENT... 

किसी विदेशी को कभी रसगुल्ले का स्वाद समझाने बैठ जाइये | क्या समझायेंगे ? मीठा होता है | वो पूछेगा कैसा मीठा ? चीनी जैसा, केक जैसा, सेब जैसा ? फिर आप समझायेंगे छेना एक चीज़ होती है जो दूध से बनाते है वैसा | वो फिर परेशान होगा, पनीर जैसा, चीज़ जैसा, बटर जैसा? ऐसे में समझाने का एक ही तरीका होता है की आप उसे रसगुल्ला चखा दें | बताने में रसगुल्ले का अनुभव खो जाता है | रसगुल्ला मुलायम है ये आप छु के महसूस करते हैं उसका स्वाद फिर महसूस करते हैं किसी दूसरी इन्द्रिय से | अगर एक तीसरी ही इन्द्रिय यानि की सुनने के जरिये आप दो – दो का काम लेना चाहेंगे तो काम जरा मुश्किल होगा |

ऐसा ही कुछ हमारे धर्म के साथ है | धर्म का अनुवाद हो जाता है Religion,जो की धर्म को आधा अधूरा सा समझाता है | जैसे धर्म पिता भी कहना हिंदी में सही होगा, लेकिन इसका अनुवाद Religious Father तो नहीं कर सकते ? वैसे ही किसी धार्मिक व्यक्ति को religious कह देने से किसी कर्म – कांडी तिलक लगाये ब्राम्हण वाली सी तस्वीर आती है दिमाग में, यहाँ Pious कहना थोड़ा ज्यादा सही अर्थ समझाता है | कमी फिर भी रह जाती है, जैसा सौम्य, हँसता मुस्कुराता सा धार्मिक व्यक्ति मन में आता है वैसा Religious या Pious नहीं होता | यहीं से असली समस्या हमारे रीती-रिवाज़ों और धार्मिक मान्यताओं को समझने की शुरू होती है |




कुछ 200 साल पहले जब संस्कृत ग्रंथों का अंग्रेजी अनुवाद शुरू हुआ तो संस्कृत के शब्दों के लिए अंग्रेजी के सबसे करीबी शब्द इस्तेमाल कर लिए गए | ये तरीका ही गलत था, या तो संस्कृत के शब्दों का ही सीधा इस्तेमाल होना चाहिए था या फिर नए शब्द बनाये जाने थे इनके लिए | आगे के लेखक और उन्ही अनुवादों को पढ़कर बने तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग के लिए गलत सीखना एक नियति बन गई |

जैसे की विद्या हमेशा से भारत में दान की वस्तु रही है, अब दान शब्द को भीख या Alms, Charity, Donation जैसे शब्दों से समझा ही नहीं जा सकता | दान के साथ सबसे महत्वपूर्ण होता है की ये उचित पात्र को दिया जाए | जो वस्तु दी जा रही है उसमे किसी किस्म की कमी या कोई खोटनहीं हो | आप अपना पुराना स्वेटर या पुराने कपड़े किसी को दे कर उसे दान नहीं कह सकते | ऐसे ही अगर हम अपने मित्रों या अन्य रिश्तेदारों को भगवतगीता दे दें और उनकी उसे पढ़ने में रूचि ही न हो तो भी उसे दान नहीं कहेंगे | दान में गाय देने की परंपरा का यही कारण रहा है की दान पाने वाला व्यक्ति एक तो दूध से लाभ पाए लेकिन साथ ही गाय को पालने के लिए श्रम भी करे | फिर एक पूज्य मानने की परंपरा रही है गाय को, तो दान में मिली गाय का उचित सम्मान भी होगा | संस्कृत भी ऐसे ही दान स्वरुप अन्य भाषाविदों को सिखाई गई होगी | भाषा का उचित सम्मान हुआ या नहीं इसे बाद की चर्चा के लिए छोड़ते हुए आइये कुछ और शब्दों को देखते हैं | 



एक और शब्द जो अध्यात्म में अक्सर प्रयुक्त होता है वो है “आत्मा” | अजर, अमर, अविनाशी, आदि विशेषण इसके साथ अक्सर ही जुड़े हुए पाए जायेंगे | इसके लिए जो अंग्रेजी शब्द प्रयोग किया जाता है, वो है Soul जो की गलत है | Soul शब्द से प्राण कहने जैसा अनुभव तो आएगा, लेकिन उस से आत्मा का बोध नहीं होता | जैसे हम अपने प्रिय सभी लोगों को “आत्मीय” कह सकते हैं लेकिन अंग्रेजी का Soul mate सिर्फ़ पति-पत्नी ही एक दुसरे के लिए इस्तेमाल करेंगे| “आत्मा” की तरह Soul अनेक जन्मों तक अपने कर्म का बोझ भी नहीं ढोती, जैसे ही इस शरीर से मुक्त हुए Soul का काम भी ख़त्म हो गया |


भारत के तैतीस करोड़ देवी देवताओं के होने का भेद भी यहाँ से देखा जा सकता है | “सप्त कोटि बुद्ध” को मान्यता देने की परंपरा बौद्ध धर्म के अनुयायियों में रही है | जब बौद्ध धर्म चीन में पहुंचा और वहां बाद में अंग्रेजी में भी अनुवादित होने लगा तो वहां भी Seven Crore Buddha की समस्या आई थी | लेकिन तिब्बत प्रान्त वहां पास ही था और चीनी हमारी तरह सहिष्णु भी नहीं होते | उसके अलावा उन्होंने उतनी लम्बी गुलामी नहीं झेली थी जितनी की भारतियों ने, इसलिए तुरंत ही इसका विरोध हुआ और आज सात करोड़ बुद्ध नहीं “सप्त कोटि बुद्ध” ही मान्य है | भारत में प्रबुद्ध बुद्धिजीवी वर्ग अपनी दास मानसिकता को कभी त्याग नहीं पाया | बारह आदित्य, ग्यारह रूद्र, आठवसु इन्हें उत्पन्न करने वाले प्रजापति ब्रह्म और सर्वशक्तिमान परमेश्वर को मिलाकर तैंतीस अलग अलग कोटि यानि की श्रेणी दी गई हैं जिसमे अपने कृत्यों के अनुसार पूजनीय का वर्गीकरण किया जाता है (Satapatha-brahmana 4.5.7.2) | ये लेकिन अभी भी 33 करोड़ कहकर ही भारतीय देवताओं की गिनती की जाती है |

नाम की बात आई है तो “शिव” को विनाश का, “ब्रह्मा” को जन्म देने का और “विष्णु” का पालन का कर्तव्य निर्धारित है | लेकिन यहाँ भी अर्थ में भेद होता है | हर एक अलग अलग समय में अलग अलग कोटि में चला जाता है | जैसे शिव के डमरू के स्वर से ही “माहेश्वरसूत्र” निकले है, जिन पर पूरा व्याकरण आधारित है | नृत्य और संगीत की शुरुआत भी नटराज से ही हुई मानी जाती है | दरअसल Deconstruction भौतिकी (Physics) का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है, इसका अर्थ छोटे हिस्सों में तोड़कर किसी चीज़ को समझना होता है | हर बार विनाश उद्देश्य नहीं होता लेकिन आज शिव को आप विनाश का देवता मानते हैं | जबकि शिव शब्द ही “शव” और “ई” से बना है, इनका क़रीबी मतलब होता है Mass और Energyजो सबसे करीब से “Physics is science dealing with mass and energy and the phenomena related to it” के जरिये समझा जा सकता है | सीधा कोई करीबी अंग्रेजी शब्द उठा कर विनाश का देवता बना देने पर होने वाली बड़ी गलती !

ऐसे ही हिंदी या संस्कृत में इस्तेमाल होने वाले साधू, संत, ऋषि, सन्यासी या योगी के लिए Prophet या फिर Saint शब्द का इस्तेमाल होता है | Saint रोमन कैथोलिक चर्च द्वारा दी जाने वाली एक उपाधी की तरह है | हमारे धर्म में किसी को संत, या योगी घोषित कर देने की कोई परंपरा नहीं है, ना ही कोई संस्था है जो ऐसा कर सके | Saint बीमारों को किसी दैवीय शक्ति द्वारा ठीक कर देने के लिए भी जाने जाते हैं, अगस्त्य, विश्वामित्र, सप्त ऋषि कोई भी ऐसे चमत्कारों के लिए नहीं जाने जाते | योगी भी बरसों की योग साधना से व्यक्ति अपने आप को बनाता है, आप किसी को योगी की उपाधी नहीं दे सकते | जैसे सीधा चर्च से बह के Religion एक धारा की तरह आ जाती है वैसे हमारे पास नहीं होता | अलग अलग स्थान, अलग अलग परिवेश से उठकर कोई भी स्थापित परम्पराओं को चुनौती दे सकता है | अष्टावक्र भी होते हैं, व्यास भी, नारद भी यहाँ भक्ति सिखाते हैं तो ऐतरेय भी ब्राम्हणों की रचना करते हैं |

आज की अंग्रेजी देखें तो ऐसे शब्दों का समावेश होने लगा है | Pundit का सीधा सीधा अंग्रेजी में मतलब होता है किसी विषय का विशेषज्ञ, पुरानी अंग्रेजी में किसी पोंगा पंथी को पण्डित कह दिया करते थे | अवतार के अर्थों में कभी नबी तो कभी Jeasus भी कह दिया जाता था | आज Avatar अंग्रेजी का भी एक शब्द है, और निराकार को एक रूप, शरीर की सीमाओं में बांधना उसका अर्थ निकलता है |

एक जगह जहाँ काम अभी भी बाकि रहता है वो है जाति या वर्ण को Caste कह देना | इस से भारतीय समाज का जितना नुकसान हुआ है वो शायद ही किसी अन्य शब्द ने किया होगा| वर्ण का एक अर्थ रंग भी होता है, लेकिन भारतीय समाज में रंग के आधार पर भेद भाव का कोई प्रमाण अभी तक प्रस्तुत नहीं किया जा सका है | तो वर्ण व्यवस्था को किसी किस्म के भेदभाव का आधार मान लेना अनुचित होगा | ऐसे ही जाति को सीधा सीधा अंग्रेजी का caste कहना भी ठीक नहीं है | किसी और समय में किसी और समाज में ये किसी और तरीके से प्रयोग में लायी जा रही थी | इसके अधकचरे ज्ञान को एक शब्द में ढाल कर भारतीय समाज के चेहरे पे कालिख मल दी गई है | 

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साभार :- आनंद कुमार 

Hawaizaada and Vaimaniki Shastra - Ancient Indian Knowledge (Part 1)

हवाईज़ादाएवं वैमानिक शास्त्र – कथित बुद्धिजीवियों में इतनी बेचैनी क्यों है?
(भाग - १) 

जैसे ही यह निश्चित हुआ, कि मुम्बई में सम्पन्न होने वाली 102वीं विज्ञान कांग्रेस में भूतपूर्व फ्लाईट इंजीनियर एवं पायलट प्रशिक्षक श्री आनंद बोडस द्वारा भारतीय प्राचीन विमानों पर एक शोधपत्र पढ़ा जाएगा, तभी यह तय हो गया था कि भारत में वर्षों से विभिन्न अकादमिक संस्थाओं पर काबिज, एक निहित स्वार्थी बौद्धिक समूहअपने पूरे दमखम एवं सम्पूर्ण गिरोहबाजी के साथ बोडस के इस विचार पर ही हमला करेगा, और ठीक वैसा ही हुआ भी. एक तो वैसे ही पिछले बारह वर्ष से नरेंद्र मोदी इस गिरोहकी आँखों में कांटे की तरह चुभते आए हैं, ऐसे में यदि विज्ञान काँग्रेस का उदघाटन मोदी करने वाले हों, इस महत्त्वपूर्ण आयोजन में प्राचीन वैमानिकी शास्त्रपर आधारित कोई रिसर्च पेपर पढ़ा जाने वाला हो तो स्वाभाविक है कि इस बौद्धिक गिरोह में बेचैनी होनी ही थी. ऊपर से डॉक्टर हर्षवर्धन ने यह कहकर माहौल को और भी गर्मा दिया कि पायथागोरस प्रमेय के असली रचयिता भारत के प्राचीन ऋषि थे, लेकिन उसका क्रेडिटपश्चिमी देश ले उड़े हैं.

सेकुलरिज़्म, प्रगतिशीलता एवं वामपंथ के नाम पर चलाई जा रही यह बेईमानीकोई आज की बात नहीं है, बल्कि भारत के स्वतन्त्र होने के तुरंत बाद से ही नेहरूवादी समाजवाद एवं विदेशी सेकुलरिज़्म के विचार से बाधित वामपंथी इतिहासकारों, साहित्यकारों, लेखकों, अकादमिक विशेषज्ञों ने खुद को न सिर्फ सर्वश्रेष्ठ के रूप में पेश किया, बल्कि भारतीय इतिहास, आध्यात्म, संस्कृति एवं वेद-आधारित ग्रंथों को सदैव हीन दृष्टि से देखा. चूँकि अधिकाँश पुस्तक लेखक एवं पाठ्यक्रम रचयिता इसी गिरोहसे थे, इसलिए उन्होंने बड़े ही मंजे हुए तरीके से षडयंत्र बनाकर, व्यवस्थित रूप से पूरी की पूरी तीन पीढ़ियों का ब्रेनवॉशकिया. आधुनिक वैज्ञानिक सोच”(?) के नाम पर प्राचीन भारतीय ग्रंथों जैसे वेद, उपनिषद, पुराण आदि को पिछड़ा हुआ, अनगढ़, कोरी गप्पअथवा किस्से-कहानीसाबित करने की पुरज़ोर कोशिश चलती रही, जिसमें वे सफल भी रहे,क्योंकि समूची शिक्षा व्यवस्था तो इसी गिरोह के हाथ में थी. बहरहाल, इस विकट एवं कठिन पृष्ठभूमि तथा हो-हल्ले एवं दबाव के बावजूद यदि वैज्ञानिक बोडस जी विज्ञान काँग्रेस में प्राचीन वैमानिक शास्त्र विषय पर अपना शोध पत्र प्रस्तुत कर पाए, तो निश्चित ही इसका श्रेय बदली हुई सरकारको देना चाहिए.

यहाँ पर सबसे पहला सवाल उठता है, कि क्या विरोधी पक्ष के इन तथाकथित बुद्धिजीवियोंद्वारा उस ग्रन्थ में शामिल सभी बातों को, बिना किसी विचार के, अथवा बिना किसी शोध के सीधे खारिज किया जाना उचित है? दूसरा पक्ष सुने बिना, अथवा उसके तथ्यों एवं तर्कों की प्रामाणिक जाँच किए बिना, सीधे उसे नाकारा या अज्ञानी साबित करने की कोशिश में जुट जाना बौद्धिक भ्रष्टाचारनहीं है? निश्चित है. यदि इन वामपंथी एवं प्रगतिशील लेखकों को ऐसा लगता है कि महर्षि भारद्वाज द्वारा रचित वैमानिकी शास्त्रनिहायत झूठ एवं गल्प का उदाहरण है, तो भी कम से कम उन्हें इसकी जाँच तो करनी ही चाहिए थी. बोडस द्वारा रखे गए विभिन्न तथ्यों एवं वैमानिकी शास्त्र में शामिल कई प्रमुख बातों को विज्ञान की कसौटी पर तो कसना चाहिए था? लेकिन ऐसा नहीं किया गया. किसी दूसरे व्यक्ति की बात को बिना कोई तर्क दिए सिरे से खारिज करने की तानाशाहीप्रवृत्ति पिछले साठ वर्षों से यह देश देखता आया है. वैचारिक छुआछूतका यह दौर बहुत लंबा चला है, लेकिन अंततः चूँकि सच को दबाया नहीं जा सकता, आज भी सच धीरे-धीरे विभिन्न माध्यमों से सामने आ रहा है... इसलिए इस प्रगतिशील गिरोहके दिल में असल बेचैनी इसी बात की है कि जो प्राचीन ज्ञानहमने बड़े जतन से दबाकर रखा था, जिस ज्ञान को हमने पोंगापंथकहकर बदनाम किया था, जिन विद्वानों के शोध को हमने खिल्ली उड़ाकर खारिज कर दिया था, जिस ज्ञान की भनक हमने षडयंत्रपूर्वक नहीं लगने दी, कहीं वह ज्ञान सच्चाई भरे नए स्वरूप में दुनिया के सामने न आ जाए. परन्तु इस वैचारिक गिरोह को न तो कोई शोध मंजूर है, ना ही वेदों-ग्रंथों-शास्त्रों पर कोई चर्चा मंजूर है और संस्कृत भाषा के ज़िक्र करने भर से इन्हें गुस्सा आने लगता है. यह गिरोह चाहता है कि हमने जो कहा, वही सही है... जो हमने लिख दिया, या पुस्तकों में लिखकर बता दिया, वही अंतिम सत्य है.. शास्त्रों या संस्कृत द्वारा इसे कोई चुनौती दी ही नहीं जा सकती”.  इतनी लंबी प्रस्तावना इसलिए दी गई, ताकि पाठकगण समस्या के मूल को समझें, विरोधियों की बदनीयत को जानें और समझें. बच्चों को पढ़ाया जाता है कि भारत की खोज वास्कोडिगामा ने की थी... क्यों? क्या उससे पहले यहाँ भारत नहीं था? यह भूमि नहीं थी? यहाँ लोग नहीं रहते थे? वास्कोडिगामा के आने से पहले क्या यहाँ कोई संस्कृति, भाषा नहीं थी? फिर वास्कोडिगामा ने क्या खोजा?? वही ना, जो पहले से मौजूद था.

खैर... बात हो रही थी वैमानिकी शास्त्र की... सभी विद्वानों में कम से कम इस बात को लेकर दो राय नहीं हैं कि महर्षि भारद्वाज द्वारा वैमानिकी शास्त्र लिखा गया था. इस शास्त्र की रचना के कालखंड को लेकर विवाद किया जा सकता है, लेकिन इतना तो निश्चित है कि जब भी यह लिखा गया होगा, उस समय तक हवाई जहाज़ का आविष्कार करने का दम भरने वाले राईट ब्रदर्सकी पिछली दस-बीस पीढियाँ पैदा भी नहीं हुई होंगी. ज़ाहिर है कि प्राचीन काल में विमान भी था, दूरदर्शन भी था (महाभारत-संजय प्रकरण), अणु बम (अश्वत्थामा प्रकरण) भी था, प्लास्टिक सर्जरी (सुश्रुत संहिता) भी थी। यानी वह सब कुछ था, जो आज है, लेकिन सवाल तो यह है कि वह सब कहां चला गया? ऐसा कैसे हुआ कि हजारों साल पहले जिन बातों की कल्पना”(?)की गई थी, ठीक उसी प्रकार एक के बाद एक वैज्ञानिक आविष्कार हुए? अर्थात उस प्राचीन काल में उन्नत टेक्नोलॉजी तो मौजूद थी, वह किसी कारणवश लुप्त हो गई.जब तक इस बारे में पक्के प्रमाण सामने नहीं आते, उसे शेष विश्व द्वारा मान्यता नहीं दी जाएगी. प्रगतिशील एवं सेकुलर-वामपंथी गिरोहद्वारा इसे वैज्ञानिक सोच नहीं माना जाएगा, कोरी गप्पमाना जाएगा... फिर सच्चाई जानने का तरीका क्या है? इन शास्त्रों का अध्ययन हो, उस संस्कृत भाषा का प्रचार-प्रसार किया जाए, जिसमें ये शास्त्र या ग्रन्थ लिखे गए हैं. चरक, सुश्रुत वगैरह की बातें किसी दूसरे लेख में करेंगे, तो आईये संक्षिप्त में देखें कि महर्षि भारद्वाज लिखित वैमानिकी शास्त्रपर कम से कम विचार किया जाना आवश्यक क्यों है... इसको सिरे से खारिज क्यों नहीं किया जा सकता.


जब भी कोई नया शोध या खोज होती है, तो उस आविष्कार का श्रेय सबसे पहले उस विचारको दिया जाना चाहिए, उसके बाद उस विचार से उत्पन्न हुई आविष्कार के सबसे पहले प्रोटोटाइपको महत्त्व दिया जाना चाहिए. लेकिन राईट बंधुओं के मामले में ऐसा नहीं किया गया. शिवकर बापूजी तलपदे ने इसी वैमानिकी शास्त्र का अध्ययन करके सबसे पहला विमान बनाया था, जिसे वे सफलतापूर्वक 1500फुट की ऊँचाई तक भी ले गए थे, फिर जिस आधुनिक विज्ञानकी बात की जाती है, उसमें महर्षि भारद्वाज न सही शिवकर तलपदे को सम्मानजनक स्थान हासिल क्यों नहीं है? क्या सबसे पहले विमान की अवधारणा सोचना और उस पर काम करना अदभुत उपलब्धि नहीं है? क्या इस पर गर्व नहीं होना चाहिए? क्या इसके श्रेय हेतु दावा नहीं करना चाहिए? फिर यह सेक्यूलर गैंग बारम्बार भारत की प्राचीन उपलब्धियों को लेकर शेष भारतीयों के मन में हीनभावना क्यों रखना चाहती है?

अंग्रेज शोधकर्ता डेविड हैचर चिल्द्रेस ने अपने लेख Technology of the Gods – The Incredible Sciences of the Ancients (Page 147-209)में लिखते हैं कि हिन्दू एवं बौद्ध सभ्यताओं में हजारों वर्ष से लोगों ने प्राचीन विमानों के बारे सुना और पढ़ा है. महर्षि भारद्वाज द्वारा लिखित यन्त्र-सर्वस्वमें इसे बनाने की विधियों के बारे में विस्तार से लिखा गया है. इस ग्रन्थ को चालीस उप-भागों में बाँटा गया है, जिसमें से एक है वैमानिक प्रकरण, जिसमें आठ अध्याय एवं पाँच सौ सूत्र वाक्य हैं. महर्षि भारद्वाज लिखित वैमानिक शास्त्रकी मूल प्रतियाँ मिलना तो अब लगभग असंभव है, परन्तु सन 1952में महर्षि दयानंद के शिष्य स्वामी ब्रह्ममुनी परिव्राजक द्वारा इस मूल ग्रन्थ के लगभग पाँच सौ पृष्ठों को संकलित एवं अनुवादित किया गया था, जिसकी पहली आवृत्ति फरवरी 1959में गुरुकुल कांगड़ी से प्रकाशित हुई थी. इस आधी-अधूरी पुस्तक में भी कई ऐसी जानकारियाँ दी गई हैं, जो आश्चर्यचकित करने वाली हैं.

इसी लेख में डेविड हैचर लिखते हैं कि प्राचीन भारतीय विद्वानों ने विभिन्न विमानों के प्रकार, उन्हें उड़ाने संबंधी मैनुअल”, विमान प्रवास की प्रत्येक संभावित बात एवं देखभाल आदि के बारे में विस्तार से समर सूत्रधारनामक ग्रन्थ में लिखी हैं. इस ग्रन्थ में लगभग 230सूत्रों एवं पैराग्राफ की महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ हैं. डेविड आगे कहते हैं कि यदि यह सारी बातें उस कालखंड में लिखित एवं विस्तृत स्वरूप में मौजूद थीं तो क्या ये कोरी गल्प थीं? क्या किसी ऐसी विशालकाय वस्तुकी भौतिक मौजूदगी के बिना यह सिर्फ कपोल कल्पना हो सकती है? परन्तु भारत के परम्परागत इतिहासकारों तथा पुरातत्त्ववेत्ताओं ने इस कल्पना”(?)को भी सिरे से खारिज करने में कोई कसर बाकी न रखी. एक और अंग्रेज लेखक एंड्रयू टॉमस लिखते हैं कि यदि समर सूत्रधारजैसे वृहद एवं विस्तारित ग्रन्थ को सिर्फ कल्पना भी मान लिया जाए, तो यह निश्चित रूप से अब तक की सर्वोत्तम कल्पना या फिक्शन उपन्यासमाना जा सकता है. टॉमस सवाल उठाते हैं कि रामायण एवं महाभारत में भी कई बार विमानोंसे आवागमन एवं विमानों के बीच पीछा अथवा उनके आपसी युद्ध का वर्णन आता है. इसके आगे मोहन जोदड़ो एवं हडप्पा के अवशेषों में भी विमानों के भित्तिचित्र उपलब्ध हैं. इसे सिर्फ काल्पनिक कहकर खारिज नहीं किया जाना चाहिए था. पिछले चार सौ वर्ष की गुलामी के दौर ने कथित बौद्धिकों के दिलो-दिमाग में हिंदुत्व, संस्कृत एवं प्राचीन ग्रंथों के नाम पर ऐसी हीन ग्रंथि पैदा कर दी है, उन्हें सिर्फ अंग्रेजों, जर्मनों अथवा लैटिनों का लिखा हुआ ही परम सत्य लगता है. इन बुद्धिजीवियों को यह लगता है कि दुनिया में सिर्फ ऑक्सफोर्ड और हारवर्ड दो ही विश्वविद्यालय हैं, जबकि वास्तव में हुआ यह था कि प्राचीन तक्षशिला और नालन्दा विश्वविद्यालय जहाँ आक्रान्ताओं द्वारा भीषण अग्निकांड रचे गए अथवा सैकड़ों घोड़ों पर संस्कृत ग्रन्थ लादकर अरब, चीन अथवा यूरोप ले जाए गए. हाल-फिलहाल इन कथित बुद्धिजीवियों द्वारा बिना किसी शोध अथवा सबूत के संस्कृत ग्रंथों एवं लुप्त हो चुकी पुस्तकों/विद्याओं पर जो हाय-तौबा मचाई जा रही है, वह इसी गुलाम मानसिकता का परिचायक है.


इन लुप्त हो चुके शास्त्रों, ग्रंथों एवं अभिलेखों की पुष्टि विभिन्न शोधों द्वारा की जानी चाहिए थी कि आखिर यह तमाम ग्रन्थ और संस्कृत की विशाल बौद्धिक सामग्री कहाँ गायब हो गई? ऐसा क्या हुआ था कि एक बड़े कालखण्ड के कई प्रमुख सबूत गायब हैं? क्या इनके बारे में शोध करना, तथा तत्कालीन ऋषि-मुनियों एवं प्रकाण्ड विद्वानों ने यह कथित कल्पनाएँक्यों की होंगी? कैसे की होंगी? उन कल्पनाओं में विभिन्न धातुओं के मिश्रण अथवा अंतरिक्ष यात्रियों के खान-पान सम्बन्धी जो नियम बनाए हैं वह किस आधार पर बनाए होंगे, यह सब जानना जरूरी नहीं था? लेकिन पश्चिम प्रेरित इन इतिहासकारों ने सिर्फ खिल्ली उड़ाने में ही अपना वक्त खराब किया है और भारतीय ज्ञान को बर्बाद करने की सफल कोशिश की है.

ऑक्सफोर्ड विवि के ही एक संस्कृत प्रोफ़ेसर वीआर रामचंद्रन दीक्षितार अपनी पुस्तक वार इन द एन्शियेंट इण्डिया इन 1944”में लिखते हैं कि आधुनिक वैमानिकी विज्ञान में भारतीय ग्रंथों का महत्त्वपूर्ण योगदान है. उन्होंने बताया कि सैकड़ों गूढ़ चित्रों द्वारा प्राचीन भारतीय ऋषियों ने पौराणिक विमानों के बारे में लिखा हुआ है. दीक्षितार आगे लिखते हैं कि राम-रावण के युद्ध में जिस सम्मोहनास्त्रके बारे में लिखा हुआ है, पहले उसे भी सिर्फ कल्पना ही माना गया, लेकिन आज की तारीख में जहरीली गैस छोड़ने वाले विशाल बम हकीकत बन चुके हैं. पश्चिम के कई वैज्ञानिकों ने प्राचीन संस्कृत एवं मोड़ी लिपि के ग्रंथों का अनुवाद एवं गहन अध्ययन करते हुए यह निष्कर्ष निकाला है कि निश्चित रूप से भारतीय मनीषियों/ऋषियों को वैमानिकी का वृहद ज्ञान था. यदि आज के भारतीय बुद्धिजीवी पश्चिम के वैज्ञानिकों की ही बात सुनते हैं तो उनके लिए चार्ल्स बर्लित्ज़ का नाम नया नहीं होगा. प्रसिद्ध पुस्तक द बरमूडा ट्राएंगलसहित अनेक वैज्ञानिक पुस्तकें लिखने वाले चार्ल्स बर्लित्ज़ लिखते हैं कि, यदि आधुनिक परमाणु युद्ध सिर्फ कपोल कल्पना नहीं वास्तविकता है, तो निश्चित ही भारत के प्राचीन ग्रंथों में ऐसा बहुत कुछ है जो हमारे समय से कहीं आगे है. 400 ईसा पूर्व लिखित ज्योतिषग्रन्थ में ब्रह्माण्ड में धरती की स्थिति, गुरुत्वाकर्षण नियम, ऊर्जा के गतिकीय नियम, कॉस्मिक किरणों की थ्योरी आदि के बारे में बताया जा चुका है. वैशेषिका ग्रन्थमें भारतीय विचारकों ने परमाणु विकिरण, इससे फैलने वाली विराट ऊष्मा तथा विकिरण के बारे में अनुमान लगाया है. (स्रोत :- Doomsday 1999 – By Charles Berlitz, पृष्ठ 123-124).

इसी प्रकार कलकत्ता संस्कृत कॉलेज के संस्कृत प्रोफ़ेसर दिलीप कुमार कांजीलाल ने 1979में Ancient Astronaut Societyकी म्यूनिख (जर्मनी) में सम्पन्न छठवीं काँग्रेस के दौरान उड़ सकने वाले प्राचीन भारतीय विमानों के बारे में एक उदबोधन दिया एवं पर्चा प्रस्तुत किया था (सौभाग्य से उस समय वहाँ सतत खिल्ली उड़ाने वाले, आधुनिक भारतीय बुद्धिजीवी नहीं थे). प्रोफ़ेसर कांजीलाल के अनुसार ईसा पूर्व 500में कौसितकीएवं शतपथ ब्रह्मणनामक कम से कम दो और ग्रन्थ थे, जिसमें अंतरिक्ष से धरती पर देवताओं के उतरने का उल्लेख है. यजुर्वेद में उड़ने वाले यंत्रों को विमाननाम दिया गया, जो अश्विनउपयोग किया करते थे. इसके अलावा भागवत पुराण में भी विमानशब्द का कई बार उल्लेख हुआ है. ऋग्वेद में अश्विन देवताओंके विमान संबंधी विवरण बीस अध्यायों (1028श्लोकों) में समाया हुआ है, जिसके अनुसार अश्विन जिस विमान से आते थे, वह तीन मंजिला, त्रिकोणीय एवं तीन पहियों वाला था एवं यह तीन यात्रियों को अंतरिक्ष में ले जाने में सक्षम था. कांजीलाल के अनुसार, आधे-अधूरे स्वरूप में हासिल हुए वैमानिकी संबंधी इन संस्कृत ग्रंथों में उल्लिखित धातुओं एवं मिश्रणों का सही एवं सटीक अनुमान तथा अनुवाद करना बेहद कठिन है, इसलिए इन पर कोई विशेष शोध भी नहीं हुआ. अमरांगण-सूत्रधारग्रन्थ के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु, यम, कुबेर एवं इंद्र के अलग-अलग पाँच विमान थे. आगे चलकर अन्य ग्रंथों में इन विमानों के चार प्रकार रुक्म, सुंदरा, त्रिपुर एवं शकुन के बारे में भी वर्णन किया गया है, जैसे कि रुक्मशंक्वाकार विमान था जो स्वर्ण जड़ित था, जबकि त्रिपुर विमानतीन मंजिला था. महर्षि भारद्वाज रचित वैमानिकी शास्त्रमें यात्रियों के लिए अभ्रक युक्त (माएका) कपड़ों के बारे में बताया गया है, और जैसा कि हम जानते हैं आज भी अग्निरोधक सूट में माईका अथवा सीसे का उपयोग होता है, क्योंकि यह ऊष्मारोधी है.



भारत के मौजूदा मानस पर पश्चिम का रंग कुछ इस कदर चढ़ा है कि हममें से अधिकांश अपनी खोज या किसी रचनात्मक उपलब्धि पर विदेशी ठप्पा लगते देखना चाहते हैं. इसके बाद हम एक विशेष गर्व अनुभव करते हैं. ऐसे लोगों के लिए मैं प्राचीन भारतीय विमान के सन्दर्भ में एरिक वॉन डेनिकेन की खोज के बारे में बता रहा हूँ उससे पहले एरिक वॉन डेनिकेन का परिचय जरुरी है. 79 वर्षीय डेनिकेन एक खोजी और बहुत प्रसिद्ध लेखक हैं. उनकी लिखी किताब 'चेरिएट्स ऑफ़ द गॉड्स'बेस्ट सेलर रही है. डेनिकेन की खूबी हैं कि उन्होंने प्राचीन इमारतों और स्थापत्य कलाओं का गहन अध्ययन किया और अपनी थ्योरी से साबित किया है कि पूरे विश्व में प्राचीन काल में एलियंस (परग्रही) पृथ्वी पर आते-जाते रहे हैं. एरिक वॉन डेनिकेन 1971 में भारत में कोलकाता गए थे. वे अपनी 'एंशिएंट एलियंस थ्योरी'के लिए वैदिक संस्कृत में कुछ तलाशना चाहते थे. डेनिकेन यहाँ के एक संस्कृत कालेज में गए. यहाँ उनकी मुलाकात इन्हीं प्रोफ़ेसर दिलीप कंजीलाल से हुई थी. प्रोफ़ेसर ने प्राचीन भारतीय ग्रंथों का आधुनिकीकरण किया है. देवताओं के विमान यात्रा वृतांत ने वोन को खासा आकर्षित किया. वोन ने माना कि ये वैदिक विमान वाकई में नटबोल्ट से बने असली एयर क्राफ्ट थे. उन्हें हमारे मंदिरों के आकार में भी विमान दिखाई दिए. उन्होंने जानने के लिए लम्बे समय तक शोध किया कि भारत में मंदिरों का आकार विमान से क्यों मेल खाता है? उनके मुताबिक भारत के पूर्व में कई ऐसे मंदिर हैं जिनमे आकाश में घटी खगोलीय घटनाओ का प्रभाव साफ़ दिखाई देता है. वॉन के मुताबिक ये खोज का विषय है कि आख़िरकार मंदिर के आकार की कल्पना आई कहाँ से? इसके लिए विश्व के पहले मंदिर की खोज जरुरी हो जाती है और उसके बाद ही पता चल पायेगा कि विमान के आकार की तरह मंदिरों के स्तूप या शिखर क्यों बनाये गए थे? हम आज उसी उन्नत तकनीक की तलाश में जुटे हैं जो कभी भारत के पास हुआ करती थी.  

चूँकि यह लेख एक विस्तृत विषय पर है, इसलिए इसे दो भागों में पेश करने जा रहा हूँ... शेष दूसरे भाग में... जल्दी ही... नमस्कार

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Hawaizaada and Vaimaniki Shastra (Part 2)

हवाईजादा एवं वैमानिकी शास्त्र (भाग २)


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अमरांगण-सूत्रधार में 113उपखंडों में इन चारों विमान प्रकारों के बारे में पायलट ट्रेनिंग, विमान की उड़ान का मार्ग तथा इन विशाल यंत्रों के भिन्न-भिन्न भागों का विवरण आदि बारीक से बारीक जानकारी दी गई है. भीषण तापमान सहन कर सकने वाली सोलह प्रकार की धातुओं के बारे में भी इसमें बताया गया है, जिसे चाँदी के साथ सही अनुपात में रसमिलाकर बनाया जाता है (इस रसशब्द के बारे में किसी को पता नहीं है कि आखिर यह रस क्या है? कहाँ मिलता है या कैसे बनाया जाता है). ग्रन्थ में इन धातुओं का नाम ऊष्णन्भरा, ऊश्नप्पा, राज्मालात्रित जैसे कठिन नाम हैं, जिनका अंग्रेजी में अनुवाद अथवा इन शब्दों के अर्थ अभी तक किसी को समझ में नहीं आए हैं. पश्चिम प्रेरित जो कथित बुद्धिजीवी बिना सोचे-समझे भारतीय संस्कृति एवं ग्रंथों की आलोचना करते एवं मजाक उड़ाते हैं, उन्होंने कभी भी इसका जवाब देने अथवा खोजने की कोशिश नहीं की, कि आखिर विमान शास्त्र के बारे में जो इतना कुछ लिखा है क्या उसे सिर्फ काल्पनिकता कहकर ख़ारिज करना चाहिए? 



1979में आई एक और पुस्तक Atomic Destruction 2000”, जिसके लेखक डेविड डेवनपोर्ट हैं, ने दावा किया कि उनके पास इस बात के पूरे सबूत हैं कि मोहन जोदड़ो सभ्यता का नाश परमाणु बम से हुआ था. मोहन जोदड़ो सभ्यता पाँच हजार वर्ष पुरानी सभ्यता थी, जो इतनी आसानी से खत्म होने वाली नहीं थी. लगभग डेढ़ किमी के दायरे में अपनी खोज को जारी रखते हुए डेवनपोर्ट ने यह बताया कि यहाँ पर कोई न कोई ऐसी घटना हुई थी जिसमें तापमान 2000डिग्री तक पहुँच गया था. मोहन जोदड़ो की खुदाई में मिलने वाले मानव अवशेष सीधे जमीन पर लेटे हुए मिलते हैं, जो किसी प्राकृतिक आपदा की तरफ नहीं, बल्कि अचानक आई हुई मृत्युकी तरफ इशारा करता है. मुझे पूरा विश्वास है कि यह परमाणु बम ही था. स्वाभाविक है कि जब पाँच हजार साल पहले यह एक परमाणु बम आपदा थी, अर्थात उड़ने वाले कोई यंत्र तो होंगे ही. डेवनपोर्ट आगे लिखते हैं कि चूँकि ऐसे प्रागैतिहासिक स्थानों पर उनकी गहन जाँच करने की अनुमति आसानी से नहीं मिलती, इसलिए मुझे काम बन्द करना पड़ा, लेकिन तत्कालीन रासायनिक विशेषज्ञों, भौतिकविदों तथा धातुविदों द्वारा मोहन जोदड़ो की और गहन जाँच करना आवश्यक था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया और उस पर पर्दा डाल दिया गया.

एरिक वॉन डेनिकन अपनी बेस्टसेलर पुस्तक चैरियट्स ऑफ गॉड्स (पृष्ठ 56-60)में लिखते हैं, उदाहरण के तौर पर लगभग पाँच हजार वर्ष पुरानी महाभारत के तत्कालीन कालखण्ड में कोई योद्धा किसी ऐसे अस्त्र के बारे में कैसे जानता था, जिसे चलाने से बारह साल तक उस धरती पर सूखा पड़ जाता, ऐसा कोई अस्त्र जो इतना शक्तिशाली हो कि वह माताओं के गर्भ में पलने वाले शिशु को भी मार सके?इसका अर्थ है कि ऐसा कुछ ना कुछ तो था, जिसका ज्ञान आगे नहीं बढ़ाया गया, अथवा लिपिबद्ध नहीं हुआ और गुम हो गया.यदि कुछ देर के लिए हम इसे काल्पनिकभी मान लें, तब भी महाभारत काल में कोई योद्धा किसी ऐसे रॉकेटनुमा यंत्र के बारे में ही कल्पना कैसे कर सकता है, जो किसी वाहन पर रखा जा सके और जिससे बड़ी जनसँख्या का संहार किया जा सके? महाभारत के ही एक प्रसंग में ऐसे अस्त्र का भी उल्लेख है, जिसे चलाने के बाद धातु की ढाल एवं वस्त्र भी पिघल जाते हैं, घोड़े-हाथी पागल होकर इधर-उधर दौड़ने लगते हैं, रथों में आग लग जाती है और शत्रुओं के बाल झड़ने लगते हैं, नाखून गिरने लगते हैं. यह किस तरफ इशारा करता है? क्या इसके बारे में शोध नहीं किया जाना चाहिए था? आखिर वेदव्यास को यह कल्पनाएँ कहाँ से सूझीं? आखिर संजय किस तकनीक के सहारे धृतराष्ट्र को युद्ध का सीधा प्रसारण सुना रहा था? अभिमन्यु ने सुभद्रा के गर्भ में चक्रव्यूह भेदने की तकनीक सुभद्रा के जागृत अवस्था में रहने तक ही क्यों सुनी? (यह तो अब वैज्ञानिक रूप से भी सिद्ध हुआ है कि गर्भस्थ शिशु सुन-समझ सकता है, फिर प्राचीन ग्रंथों की खिल्ली उड़ाने का हमें क्या अधिकार है?).

एक और पश्चिमी लेखक जीआर जोसियर ने अपने एक लेख (The Pilot is one who knows the secrets) में वैमानिकी शास्त्र से संबद्ध एक अन्य ग्रन्थ रहस्य लहरीसे उद्धृत किया है कि प्राचीन भारतीय वैमानिकी शास्त्र में पायलटों को बत्तीस प्रकार के रहस्य ज्ञात होना आवश्यक था. इन रहस्यों में से कुछ का नाम इस प्रकार है – गूढ़, दृश्य, विमुख, रूपाकर्षण, स्तब्धक, चपल, पराशब्द ग्राहक आदि. जैसा कि इन सरल संस्कृत शब्दों से ही स्पष्ट हो रहा है कि यह तमाम रहस्य या ज्ञान पायलटों को शत्रु विमानों से सावधान रहने तथा उन्हें मार गिराने के लिए दिए जाते थे. शौनकग्रन्थ के अनुसार अंतरिक्ष को पाँच क्षेत्रों में बाँटा गया था – रेखापथ, मंडल, कक्षाय, शक्ति एवं केन्द्र. इसी प्रकार इन पाँच क्षेत्रों में विमानों की उड़ान हेतु 5,19,800मार्ग निर्धारित किए गए थे. यह विमान सात लोकों में जाते थे जिनके नाम हैं – भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महालोक, जनोलोक, तपोलोक एवं सत्यलोक. जबकि धुंडीनाथ एवं वाल्मीकी गणितके अनुसार विमानों के उड़ान मार्ग 7,03,00,800निर्धारित किए गए थे, जिसमें से मंडलमें 20,08,00200मार्ग, कक्षाय में 2,09,00,300मार्ग, शक्ति में 10,01,300मार्ग तथा केन्द्र में 30,08,200मार्ग निर्धारित किए हुए.

लेख में ऊपर एक स्थान पर यह बात आई है कि संस्कृत एवं कहीं-कहीं दूसरी गूढ़ भाषाओं में लिखे ग्रंथों की भाषा एवं रहस्य समझ नहीं आते, इसलिए यह बोझिल एवं नीरस लगने लगते हैं, परन्तु उन शब्दों का एक निश्चित अर्थ था.एक संक्षिप्त उदाहरण देकर यह लेख समाप्त करता हूँ. हम लोगों ने बचपन में बैटरी (डेनियल सेल) के बारे में पढ़ा हुआ है, उसके आविष्कारक(?) और एम्पीयर तथा वोल्ट को ही हम इकाई मानते आए हैं, परन्तु वास्तव में बैटरीकी खोज सप्तर्षियों में से एक महर्षि अगस्त्य हजारों वर्ष पहले ही कर चुके हैं. महर्षि ने अगस्त्य संहितानामक ग्रन्थ लिखा है. इन संस्कृत ग्रंथों के शब्दों को ण समझ पाने की एक मजेदार सत्य घटना इस प्रकार है. राव साहब कृष्णाजी वझे ने १८९१ में पूना से इंजीनियरिंग की परीक्षा पास की। भारत में विज्ञान संबंधी ग्रंथों की खोज के दौरान उन्हें उज्जैन में दामोदर त्र्यम्बक जोशी के पास अगस्त्य संहिताके कुछ पन्ने मिले। इस संहिता के पन्नों में उल्लिखित वर्णन को पढ़कर नागपुर में संस्कृत के विभागाध्यक्ष रहे डा. एम.सी. सहस्रबुद्धे को आभास हुआ कि यह वर्णन डेनियल सेल से मिलता-जुलता है। अत: उन्होंने नागपुर में इंजीनियरिंग के प्राध्यापक श्री पी.पी. होले को वह दिया और उसे जांचने को कहा। महर्षि अगस्त्य ने अगस्त्य संहिता में विधुत उत्पादन से सम्बंधित सूत्रों में लिखा :


संस्थाप्य मृण्मये पात्रे
ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्‌।
छादयेच्छिखिग्रीवेन
चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥
दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:।
संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्‌॥

अर्थात एक मिट्टी का पात्र (Earthen pot) लें, उसमें ताम्र पट्टिका (copper sheet) डालें तथा शिखिग्रीवा डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (wet saw dust) लगायें, ऊपर पारा (mercury‌) तथा दस्त लोष्ट (Zinc) डालें, फिर तारों को मिलाएंगे तो, उससे मित्रावरुणशक्ति (अर्थात बिजली) का उदय होगा। अब थोड़ी सी हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न हुई |उपर्युक्त वर्णन के आधार पर श्री होले तथा उनके मित्र ने तैयारी चालू की तो शेष सामग्री तो ध्यान में आ गई, परन्तु शिखिग्रीवा समझ में नहीं आया। संस्कृत कोष में देखने पर ध्यान में आया कि शिखिग्रीवायाने मोर की गर्दन।अत: वे और उनके मित्र बाग में गए, तथा वहां के प्रमुख से पूछा, क्या आप बता सकते हैं, आपके बाग में मोर कब मरेगा, तो उसने नाराज होकर कहा क्यों? तब उन्होंने कहा, एक प्रयोग के लिए उसकी गरदन की आवश्यकता है। यह सुनकर उसने कहा ठीक है। आप एक अर्जी दे जाइये। इसके कुछ दिन बाद प्रोफ़ेसर साहब की एक आयुर्वेदाचार्य से बात हो रही थी। उनको यह सारा घटनाक्रम सुनाया तो वे हंसने लगे और उन्होंने कहा, यहां शिखिग्रीवा का अर्थ मोर की गरदननहीं अपितु उसकी गरदन के रंग जैसा पदार्थ अर्थात कॉपर सल्फेट है। यह जानकारी मिलते ही समस्या हल हो गई और फिर इस आधार पर एक सेल बनाया और डिजीटल मल्टीमीटर द्वारा उसको नापा। परिणामस्वरूप 1.138 वोल्ट तथा 23 mA धारा वाली विद्युत उत्पन्न हुई। प्रयोग सफल होने की सूचना डा. एम.सी. सहस्रबुद्धे को दी गई। इस सेल का प्रदर्शन ७ अगस्त, १९९० को स्वदेशी विज्ञान संशोधन संस्था (नागपुर) के चौथे वार्षिक सर्वसाधारण सभा में अन्य विद्वानों के सामने हुआ।
आगे महर्षि अगस्त्य लिखते है :

अनने जलभंगोस्ति प्राणो
दानेषु वायुषु।
एवं शतानां कुंभानांसंयोगकार्यकृत्स्मृत:॥
अर्थात सौ कुंभों की शक्ति का पानी पर प्रयोग करेंगे, तो पानी अपने रूप को बदल कर प्राण वायु (Oxygen) तथा उदान वायु (Hydrogen) में परिवर्तित हो जाएगा।

आगे लिखते है:
वायुबन्धकवस्त्रेण
निबद्धो यानमस्तके
उदान : स्वलघुत्वे बिभर्त्याकाशयानकम्‌। (अगस्त्य संहिता शिल्प शास्त्र सार)

उदान वायु (H2) को वायु प्रतिबन्धक वस्त्र (गुब्बारा) में रोका जाए तो यह विमान विद्या में काम आता है। राव साहब वझे, जिन्होंने भारतीय वैज्ञानिक ग्रंथ और प्रयोगों को ढूंढ़ने में अपना जीवन लगाया, उन्होंने अगस्त्य संहिता एवं अन्य ग्रंथों में पाया कि विद्युत भिन्न-भिन्न प्रकार से उत्पन्न होती हैं, इस आधार पर उसके भिन्न-भिन्न नाम रखे गयें है:

(१) तड़ित्‌ - रेशमी वस्त्रों के घर्षण से उत्पन्न।
(
२) सौदामिनी - रत्नों के घर्षण से उत्पन्न।
(
३) विद्युत - बादलों के द्वारा उत्पन्न।
(
४) शतकुंभी - सौ सेलों या कुंभों से उत्पन्न।
(
५) हृदनि - हृद या स्टोर की हुई बिजली।
(
६) अशनि - चुम्बकीय दण्ड से उत्पन्न।

अगस्त्य संहिता में विद्युत्‌ का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग (Electroplating) के लिए करने का भी विवरण मिलता है। उन्होंने बैटरी द्वारा तांबा या सोना या चांदी पर पालिश चढ़ाने की विधि निकाली। अत: महर्षि अगस्त्य को कुंभोद्भव (Battery Bone) भी कहते हैं।
आगे लिखा है:
कृत्रिमस्वर्णरजतलेप: सत्कृतिरुच्यते। -शुक्र नीति
यवक्षारमयोधानौ सुशक्तजलसन्निधो॥
आच्छादयति तत्ताम्रं
स्वर्णेन रजतेन वा।
सुवर्णलिप्तं तत्ताम्रं
शातकुंभमिति स्मृतम्‌॥ ५ (अगस्त्य संहिता)

अर्थात्‌- कृत्रिम स्वर्ण अथवा रजत के लेप को सत्कृति कहा जाता है। लोहे के पात्र में सुशक्त जल अर्थात तेजाब का घोल इसका सानिध्य पाते ही यवक्षार (सोने या चांदी का नाइट्रेट) ताम्र को स्वर्ण या रजत से ढंक लेता है। स्वर्ण से लिप्त उस ताम्र को शातकुंभ अथवा स्वर्ण कहा जाता है।
उपरोक्त विधि का वर्णन एक विदेशी लेखक David Hatcher Childress ने अपनी पुस्तक "Technology of the Gods: The Incredible Sciences of the Ancients"में भी लिखा है । अब मजे की बात यह है कि हमारे ग्रंथों को विदेशियों ने हम से भी अधिक पढ़ा है । इसीलिए दौड़ में आगे निकल गये और सारा श्रेय भी ले गये। आज हम विभवान्तर की इकाई वोल्ट तथा धारा की एम्पीयर लिखते है जो क्रमश: वैज्ञानिक Alessandro Volta तथा André-Marie Ampère के नाम पर रखी गयी है |जबकि इकाई अगस्त्य होनी चाहिए थी... जो गुलाम बुद्धिजीवियोंने होने नहीं दी.

अब सवाल उठता है कि, यदि प्राचीन भारतीय ज्ञान इतना समृद्ध था तो वह कहाँ गायब हो गया? पश्चिम के लोग उसी ज्ञान पर शोध एवं विकास करके अपने आविष्कार क्यों और कैसे बनाते रहे? संस्कृत ज्ञान एवं शिक्षा के प्रति इतनी उदासीनता क्यों बनी रही? इसके जवाब निम्नलिखित हैं -

(अ)  पहला यह कि, भारतीय संस्कृति इतिहास की सर्वाधिक ज़ख़्मी सभ्यतारही है.मशहूर लेखक वीएस नायपॉल ने भी इसे India: A Wounded Civilizationमाना है. तुर्क, मुग़ल, अंग्रेज और फिर कांग्रेस। हम निरंतर हमलो के शिकार हुए हैं. जिससे संस्कृत एवं प्राचीन वैज्ञानिक विरासतें व विज्ञान संभल पाना बेहद मुश्किल रहा होगा. 
(आ)    दूसरा यह कि, भारतीय मनीषियों ने वेद आदि जो भी लिखे वह श्रुति परम्परा के सहारे आगे बढ़ा. अब्राहमिक धर्मो की तरह व्यवस्थित इतिहास लेखनकी परम्परा नहीं रही.यह भी एक कारण है की हमारे नवोन्मेष/ आविष्कार नष्ट हो गये. इसलिए कुछ तो लिखित अवस्था में है, जबकि कुछ सिर्फ कंठस्थ था, जो तीन-चार पीढ़ियों बाद स्वमेव नष्ट हो गया. रही-सही कसर आक्रान्ताओं के हमलों, मंदिरों (जहाँ अधिकाँश ग्रन्थ रखे जाते थे) की लूटपाट एवं नष्ट करने तथा नालन्दा जैसी विराट लाईब्रेरियों को जलाने आदि के कारण संभवतः यह गायब हुए होंगे.
(इ)      तीसरा, सभी जानते हैं कि भारतीय समाज अध्यात्म उन्मुख रहा है. जिससे भौतिक आविष्कारो के प्रति उदासीनता रही है. श्रेय लेना अथवा ज्ञान से कमाई करनास्वभाव में ही नहीं रहा.
(ई)      चौथा, जब सिर्फ 60 साल के सेकुलरी कांग्रेसी शासन में ही योग, संस्कृत, आयुर्वेद आदि विरासतों को दयनीय मुकाम पर पहुंचाया जा सकता है, तो सैकड़ो वर्षों की विदेशी गुलामी की मारक शक्ति का सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
(उ)      पांचवी बात - कॉपीराइट, पेटेंट जैसे चोंचलो से मुक्त होने के कारण हमारी विरासतें यूरोप के मुल्को ने अपनी बपौती बना ली है. ये हालत आज भी है. (उदाहरण हल्दी और नीम). सैकड़ो वर्षो पूर्व हमारे पूर्वजो ने कितना ज्ञान मुफ्त बांटा होगा और कितना इन विदेशियो ने चुराया होगा वह कल्पना से परे है. सनातन सत्य ये है कि न तो पहले हमें प्रतिभाओ की कदर थी, ना आज. वरना Brain Drain न होता!

कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि वैमानिकी शास्त्रएवं प्राचीन ग्रंथों में भारतीय विमान विज्ञान की हँसी उड़ाने, खारिज करने एवं सत्य को षड्यंत्रपूर्वक दबाने की कोशिशें बन्द होनी चाहिए एवं इस दिशा में गंभीर शोध प्रयास किए जाने चाहिए. ज़ाहिर है कि यह कार्य पूर्वाग्रह से ग्रसित गुलाम मानसिकतावाले प्रगतिशील लेखक नहीं कर सकते. इस विराट कार्य के लिए केन्द्र सरकार को ही महती पहल करनी होगी. जिन विद्वानों को भारतीय संस्कृति पर भरोसा है, संस्कृत में जिनकी आस्था है एवं जिनकी सोच अंग्रेजी अथवा मार्क्स की "गर्भनाल"से जुडी हुई ना हो, ऐसे लोगों के समूह बनाकर सभी प्रमुख ग्रंथों के बारे में शोध एवं तथ्यान्वेषण किया जाना चाहिए. 

समाप्त... 

Why Islamists Love Communists

इस्लामिस्टों को कम्युनिस्ट क्यों अच्छे लगते हैं? 
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लड़ाई से पहले कई गतिविधियाँ होती है. उसमें एक है शत्रु भूमि पर अपने लिए कुछ अनुकूल मानसिकता तैयार करना. ताकि जब युद्ध की घोषणा हो तो सैनिकों को शत्रुभूमि में प्रतिकार कम हो. इस के लिए कुछ अग्रिम दस्ते भेजे जाते हैं जो शत्रु के लोगों में घुल मिल जाते हैं. या फिर स्थानिक हैं जिनको अपनी तरफ मोड़ा जाता है. ये लोग प्रस्थापित सत्ता के प्रति असंतोष पैदा कर देते हैं ताकि जब युद्ध शुरू हो तब स्थानिक प्रजा -कम से कम- प्रस्थापित सत्ता से सहकार्य तो न करें. इस से भी अधिक अपेक्षाएं होती हैं लेकिन यह तो कम से कम. 
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सत्ता की नींव कुरेद कुरेद कर खोखली करने में कम्युनिस्टों को महारत हासिल होती है. उनका एक ही नारा होता है गरीबों का धन अमीरों की तिजोरियों में बंद है, आओ उन्हें तोड़ो, गरीबों में बांटो. बांटने के बाद नया कहाँ से लाये उसका उत्तर वे देते नहीं. रशिया और चाइना में कम्युनिज्म क्यों फेल हुआ उसका भी उत्तर उनके पास नहीं. खैर, मूल विषय से भटके नहीं, देखते हैं कि इस्लामिस्टों को कम्युनिस्ट क्यों अच्छे लगते हैं.
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सामाजिक विषमता को टार्गेट कर के कम्युनिस्ट अपने विषैले प्रचार से प्रस्थापित सत्ता के विरोध में जनमत तैयार करते हैं. चूंकि कम्युनिस्ट धर्महीन कहलाते हैं, उन्हें परधर्म कहकर उनका मुकाबला नहीं किया जा सकता. उनकी एक विशेषता है कि वे शत्रु का बारीकी से अभ्यास करते हैं, धर्म की त्रुटियाँ या प्रचलित कुरीतियाँ इत्यादि के बारे में सामान्य आदमी से ज्यादा जानते हैं. वाद में काट देते हैं. इनका धर्म न होने से श्रद्धा के परिप्रेक्ष्य से इन पर पलटवार नहीं किया जा सकता. इस तरह वे जनसमुदाय को एकत्र रखनेवाली ताक़त जो कि धर्म है, उसकी दृढ़ जडें काट देते हैं. समाज एकसंध नहीं रहता, बैर भाव में बिखरे खंड खंड हो जाते हैं. 
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बिखरे समाज पर इस्लाम का खूंखार और सुगठित आक्रमण हो तो फिर प्रतिकार क्षीण पड़ जाता है. अगर यही इस्लाम सीधे धर्म पर आक्रमण करे तो धर्म के अनुयायी संगठित हो, लेकिन उन्हें बिखराने का काम यही कम्युनिस्ट कर चुके होते हैं.जो बिखरे हैं, उन्हें चुन चुन कर ख़त्म करना प्रमाण में आसान होता है. 
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कम्युनिस्टों के वैचारिक सामर्थ्य को इस्लाम पहचानता है. इसलिए किसी इस्लामिक राष्ट्र में उन्हें रहने नहीं दिया जाता. जहाँ इस्लामी फंडामेंटालिस्टों ने सत्ता पायी वहां पहले इनका इस्तेमाल किया, और सत्ता में आते ही सब से पहले इनका ही सफाया किया . 
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भारतीयों को अब सोचना है. वक़्त ज्यादा नहीं है. युवर टाइम डज नॉट स्टार्ट नॉऊ, इट हैज आलरेडी स्टार्टेड. लकीली, इट इज नॉट टू लेट . ACT NOW !

[बिना किसी काट-छाँट और बदलाव के, Shri Anand Rajadhyaksh (श्री आनंद राजाध्यक्ष जी) की फेसबुक वाल से साभार कॉपी]

Be Practical and Dont be hypocrite AAP

ईमानदारी का ढोल पीटना और ढोंग बन्द कीजिए AAP... 

फिलहाल ढुलमुल मनः स्थिति में, लेकिन दिल ही दिल में थोड़े से AAP की तरफ झुके हुए कुछ मित्र यह सोच रहे थे कि केजरीवाल ईमानदारी की मिसाल है. हालाँकि हम तो पहले दिन से ही जानते थे कि भारत की "वर्तमान व्यवस्था के तहत"कोई भी व्यक्ति ईमानदारी के साथ राजनीति कर ही नहीं सकता (Be Practical). लेकिन भोले-भाले कजरी भक्त इस बात को समझते नहीं थे. 


कल जिस तरह से AAP की फंडिंग उजागर हुई, और "आआपा"के प्रवक्ता सिर कटे मुर्गे की तरह इधर-उधर भागते दिखाई दिए, उससे यह बात सिद्ध हुई कि केजरीवाल के लिए पैसा जुटाने के पीछे कोई ना कोई शक्ति जरूर है. ज़ाहिर है कि जो भी व्यक्ति या संस्था मोटी राशि का चंदा देता है, उसके पीछे उसका स्वार्थ छिपा होता है... या तो उसे उस पार्टी से कोई काम करवाना होता है, अथवा पहले वाली पार्टी द्वारा रोके गए कामों को क्लीयरेंस दिलवाना होता है (Be Practical). तीसरा स्वार्थ "वैचारिक"होता है, यदि उस दानदाता(?) को कोई व्यक्ति या पार्टी वैचारिक स्तर पर फूटी आँख नहीं सुहाता तो वह संस्था परदे के पीछे से अपने किसी मोहरे को आगे करके उसे चंदा देती (या दिलवाती) है.


चुनावों में कार्यकर्ता, गाडियाँ, संसाधन, झण्डे-बैनर, पेट्रोल आदि में लगने वाला भारी-भरकम खर्च सामान्य जनता द्वारा दिए गए "चिड़िया के चुग्गे"बराबर डोनेशन से असंभव है (Be Practical). इसलिए स्वाभाविक है कि इस देश की हर राजनैतिक पार्टी "चोर"है. अब सवाल उठता है कि जब सभी चोर हैं (कोई जेबकतरा, कोई छोटा चोर, कोई डकैत) तो फिर हम उस पार्टी का समर्थन क्यों ना करें जो कम से कम "हिन्दुत्ववादी"होने का दिखावा तो करती है. दूसरी पार्टियाँ तो खुलेआम देशद्रोहियों का समर्थन कर रही हैं.

संक्षेप में तात्पर्य यह है कि, "..हे मेरे भोले (अथवा मूर्ख), (अथवा महासंत), (अथवा किताबी रूप से भीषण सैद्धांतिक) आआपा समर्थकों, इस बात को दिल से निकाल दो कि युगपुरुष राजा हरिश्चंद्र ईमानदार हैं, या वे भ्रष्टाचार रोकने में समर्थ हैं, क्योंकि भ्रष्टाचार भारत की जनता की रग-रग में समाया हुआ है, इसे सिर्फ थोड़ा कम किया जा सकता है, खत्म नहीं...". फिर हम उसे मौका क्यों ना दें जिसने कम से कम तीस-चालीस साल विश्वसनीय नौकरी की है... AAP की तरह नहीं, कि पहले नौकरी से भागे, फिर आंदोलन के बीच से भागे, फिर सरकार छोड़कर भागे... (Be Practical).... 


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AAP समर्थक इस बात को समझें, कि कथित ईमानदारी के जिस USP (Unique Selling Point) वाले खम्भे पर आआपा टिकी हुई थी, जब वही भरभराकर गिर गया, तो फिर सभी पार्टियों में अंतर क्या बचा?? इसलिए स्वाभाविक है कि समर्थन का आधार वैचारिक होगा... हमारा समर्थन "कथित हिंदूवादी"पार्टी को है, आप भी अलग कश्मीर का नारा लगाने वाले और सड़कों पर सरेआम किस करने वाले बुद्धिजीवियों की "कथित ईमानदार"पार्टी के समर्थन में रहिए... लेकिन प्लीज़ "ईमानदारी"का ढोंग बन्द कीजिए भाई...

Delhi Elections Modi Vs All The Real Gas Game

दिल्ली विधानसभा चुनाव : मोदी बनाम मीडिया - गैस प्लांट का खेल 

हर चैनल पर पांच मिनट के बाद आम आदमी पार्टी का विज्ञापन आ रहा है .. हर दो मिनट पर स्क्रीन के आधे भाग में आम आदमी का विज्ञापन आ रहा है ... एफएम रेडियो पर भी AAP के प्रचार की भरमार है..  इसके अलावा हर अखबार के मुखपृष्ठ पर आम आदमी पार्टी का विज्ञापन ... दिल्ली के लगभग सभी चौराहों पर बड़े बड़े होर्डिंग.... मोटा-मोटा अंदाजा भी लगाएँ तो अरविन्द केजरीवाल ने करीब सात से आठ सौ करोड़ रूपये सिर्फ विज्ञापन पर फूंके है ... कहाँ से आ रहा है इतना पैसा?? क्या सिर्फ जनता से लिए गए मामूली चन्दे से?? ये चंदा वह है जो हाथी के दाँत की तरह दिखाने के लिए होता है. पैसों का असली खेल तो परदे के पीछे चल रहा है.. मजे की बात ये कीकेजरीवाल एक तरफ मुकेश अंबानी को गाली देते है और दूसरी तरफ मुकेश अंबानी के चैनलों-अखबारों को ही विज्ञापन के रूप में पर केजरीवाल ने कम से कम दो सौ करोड़ रूपये दिए होंगे.क्योकि नेटवर्क-18 यानी आईबीएन, सीएनबीसी, ईटीवी के पूर्ण मालिक और भारत में नेट जियो, हिस्ट्री, आदि के प्रसारण का मालिकी अधिकार मुकेश अंबानी के पास है... आठ अखबारों में भी ३०% भागीदार भी मुकेश अंबानी है... केजरीवाल भ्रष्टाचार को मुख्य मुद्दा बनाकर राजनीति में आये थे .और आज के समय में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार मीडिया में ही है... यह बात उनका खास चमचा आशुतोष अच्छे से बता सकता है.... फिर केजरीवाल मीडिया को आठ सौ करोड़ रूपये क्यों दे रहे है?



भाई जितेन्द्र प्रताप सिंह ने अपनी फेसबुक वाल पर उदाहरण देते हुए लिखा है कि - एक बार जब कांशीराम बामसेफ नामक संगठन बनाकर यूपी के गाँवों गाँवों में साइकिल से घुमा करते थे, और दलितों को संगठित करते थे .. तब एक पत्रकार ने उनसे पूछा था की आप इतना मेहनत करते है, गाँव गाँव में साइकिल से जाते हैं, आप अखबारों में बामसेफ का प्रचार क्यों नही करते? इस पर कांशीराम ने जबाब दिया था की ऐसा नही कि मेरे पास पैसा नही है .. लेकिन सभी अखबारों और पत्रिकाओ के मालिक तो ब्राम्हण, राजपूत या बनिया लोग है फिर मै उन्हें पैसे क्यों दूँ ? जिनके खिलाफ मै आवाज उठा रहा हूँ उनको ही पैसा देकर उन्हें और ज्यादा आर्थिक रूप से मजबूत क्यों करूं ? फिर अरविन्द केजरीवाल जो परदे के सामने मुकेश अंबानी का विरोध करते हैं, उन्हें करोड़ों रूपए क्यों दे रहे हैं? कहाँ से दे रहे हैं?.... या वास्तव में दे भी रहे हैं कि नहीं?? कहीं यह खेल खुद अंबानी ही अपने पैसों से नहीं खेल रहे? आज की तारीख में मुकेश अंबानी का TV Today और TV-18 सहित कई बड़े-बड़े मीडिया हाउस में बड़ा हिस्सा है. फिर सवाल उठता है कि आखिर रिलायंस मोदी का विरोध क्यों कर रहा है??

अपनी पिछली पोस्ट में मैंने यह सवाल उठाया था कि आम जनता द्वारा दिए जाने वाले 500-1000 या दस-बीस हजार के चन्दे से आज के दौर की महंगी राजनीति करना संभव नहीं है. वास्तव में AAP द्वारा जितने जबरदस्त खर्चे किए जा रहे हैं, स्वाभाविक है कि उसके पीछे कोई बड़ी ताकत है. यहाँ केजरीवाल के पीछे अपने-अपने हित एवं स्वार्थ लिए हुए ओवैसी जैसी कई ताकतें हैं, जो किसी भी कीमत पर दिल्ली विधानसभा जीतकर नरेंद्र मोदी के अश्वमेध को रोकना और मोदी की विजेता छवि पर एक गहरा दाग लगाना चाहती हैं. मुकेश अंबानी का केजरीवाल प्रेम, एक वेबसाईट पर हुए खुलासे से स्पष्ट होता हैं. इसमें बताया गया है कि दिल्ली के चारों गैस प्लांट्स (इन्द्रप्रस्थ, प्रगति, बवाना और रिठाला) पर मुकेश अंबानी "अपना कब्ज़ा"चाहते हैं... जो मोदी सरकार आसानी से होने नहीं दे रही.


पाठकों को याद होगा कि केजरीवाल की 49 दिनों की सरकार ने उस संक्षिप्त कार्यकाल में ही बिना विधानसभा की मंजूरी लिए, रिलायंस को 343 करोड़ की सब्सिडी और छूट प्रदान कर दी थी. जबकि इधर मोदी सरकार ने गैस क्षेत्र में समुचित उत्पादन नहीं कर पाने और किए गए करार पूरे  नहीं कर पाने के कारण लगातार दो-दो बार अंबानी की कंपनी पर जुर्माना ठोंका. फिर अंबानी और केजरीवाल द्वारा बड़े ही शातिर तरीके से यह प्रचार किया गया कि नरेंद्र मोदी अंबानी के करीबी हैं...(यह लोकसभा चुनावों तक सही भी था, लेकिन सत्ता में आते ही मोदी ने रिलायंस पर जुर्माने ठोंकने शुरू कर दिए).केजरीवाल चिल्लाता ही रहा कि मोदी सरकार आएगी तो अंबानी को मुफ्त में गैस दे देगी, गैस के भाव कम कर देगी... लेकिन वास्तव में हुआ उल्टा ही. रंगराजन समिति की सिफारिशों के अनुसार मोदी ने निकाली जाने वाली गैस की कीमत 8.4 डालर कर दी तथा रिलायंस पर करोड़ों रूपए के जुर्माने अलग से ठोंक दिए.वास्तव में आज की तारीख में केजरीवाल ही अंदरखाने मुकेश अंबानी और नवीन जिंदल से मिले हुए हैं. हर बिजनेसमैन सिर्फ अपना फायदा देखता है, जब तक काँग्रेस सत्ता में थी, तब तक अंबानी उन्हें मोटी रकमें दिया करता था. अब अंबानी को किसी भी कीमत पर दिल्ली के चारों गैस प्लांट चाहिए. आज गैस की कमी के कारण बवाना का प्लांट सिर्फ दस प्रतिशत क्षमता से काम कर रहा है, जबकि रिठाला का प्लांट बन्द करना पड़ा है. इधर मुकेश अंबानी जानबूझकर गैस का उत्पादन कम कर रहे हैं ताकि एक बार इन प्लांट्स को सस्ते में हथियाने के बाद उत्पादन बढ़ाकर यहाँ से बिजली का तगड़ा मुनाफा कमा सकें.

अब स्थिति ये है कि नरेंद्र मोदी "जनता"और अपनी "बची-खुची लहर"के सहारे दिल्ली में जीत की जुगाड़ लगा रहे हैं, जबकि मुकेश अंबानी ने कमर कस ली है कि मीडिया पर अपने कब्जे के सहारे वह मोदी को "कम से कम एक सबक"तो सिखाकर ही दम लेंगे. यह देखना दिलचस्प होगा कि दिल्ली में किसे जीत हासिल होती है और अगले एक वर्ष में दिल्ली के गैस आधारित पावर प्लांट्स के बारे में क्या-क्या निर्णय होते हैं... अगले एक वर्ष में भारत के तेल-गैस-रिफाइनरी क्षेत्र से सम्बन्धित ख़बरों पर निगाह बनाए रखिएगा...

खबर स्रोत साभार : https://www.saddahaq.com/politics/bjpvsambani/delhi-elections-its-bjp-vs-ambani-game-of-gas

Economic Horror - Mufflerman Kejriwal of India

आ रही है भारत की सब से डरावनी हॉरर फिल्म – "मफलर मैन" !



(7 फरवरी को दिल्ली विधानसभा के Exit Polls एवं संभावित परिणामों के आधार पर श्री आनंद राजाध्यक्ष जी की पोस्ट)... 

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येशु  को जब सूली पर चढ़ाया गया तब उसने परमेश्वर से प्रार्थना की थी: इन्हें क्षमा करो, ये जानते नहीं ये क्या कर रहे हैं.

येशु  एक महान आत्मा था, लेकिन economy येशु नहीं होती, और माफ़ तो बिलकुल भी नहीं करती.दिल्ली ने AAP को वोट दे कर जो पाप किया है उसकी कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी. दुःख की बात ये है कि ये कीमत केवल दिल्ली को ही नहीं, पूरे भारत को भी चुकानी पड़ेगी.
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बनिया अगर जानता है कि पार्टी उधार देने की लायक नहीं है, तो वो कभी उधार नहीं देता. केजरीवाल के चुनावी वादे प्रैक्टिकल नहीं थे. उसके हर वादे पर प्रश्न चिहन है कि ये इसके पैसे कहाँ से लाएगा? जाहिर है कि अगर ऐसा आदमी सत्ता में आता है तो वो पूरे देश के अर्थतंत्र पर खराब असर करेगा जब तक वो सत्ता में रहता है. इसका सीधा असर शेयर मार्केट पर होगा, जैसे ही इसकी जीत कन्फर्म होगी, मार्केट फिसलने लगेगा. करोड़ों का नुकसान होगा और दिल्लीवाले भी इसमें नहीं बचेंगे.


मार्किट के चरमराते इसका असर देश के अलग अलग क्रेडिट रेटिंग्स पर भी पड़ेगा, एक उभरती अर्थव्यवस्था के रूप में भारत की साख को धक्का लगना तय है. नए प्रोजेक्ट्स का जोश ठंडा हो जाएगा, पूरे अर्थव्यवस्था को दुनिया शंकाशील नज़रों से देखने लगेगी. एक्सपोर्ट इम्पोर्ट वालों के व्यवहार पर भी इसका असर पड़ेगा. वे भी हम-आप जैसे नॉर्मल लोग ही हैं, और उनके कंपनियों में कई कर्मचारी काम करते हैं जो बिलकुल आम आदमी ही हैं.
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इसके दिवालिया वादे पूरे न करने पड़े इसलिए ये पहले तो समय मांगेगा और वो देना भी होगा. लेकिन उस अवकाश का उपयोग ये केंद्र सरकार को परेशां करने के लिए करेगा. अराजक को बढ़ावा देनेवाले मोर्चा को खुली छूट होगी, और अव्यवस्था के लिए ये जिम्मेदार केंद्र सरकार को ठहराएगा. इसकी सहयोगी और मोदिविरोधी मीडिया का सहयोग इसमें आग में घी का काम करेगा.
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अपनी जिम्मेदारी वो मोहल्ला समितियों पर सौंपेगा. काम होगा या नहीं होगा, लेकिन ये उन्हें जिम्मेदार ठहराके खुद का बचाव करेगा. नयी समितियां बनाएगा, खेल चलता रहेगा.
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झुग्गियां और पटरी पे व्यवसाय करनेवालों को ये क़ानून के दायरे से छूट दिला देगा. इस के चलते अगर सभी जगह झुग्गियां फूट आये तो इसके जिम्मेदार दिल्लीवाले खुद ही होंगे. पुलिस की अथॉरिटी ख़त्म सी होगी. इनका जो core सपोर्टर वर्ग है, उसको तो आप जानते – पहचानते ही होंगे, अब जरा कुछ ज्यादा ही करीब से जानने के लिए तैयार हो जाइए – रोजमर्रा की भाषा में उसे ‘झेलना’ कहते हैं....  आपने ही इन्हें वोट दिया है, या अगर घर बैठे रहे या वीकेंड मनाने चले गए तो भी आप उतने ही जिम्मेदार है....
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पानी और बिजली का तो बस देखते जाइए. मुझे सोचने से भी डर लगता है, दिल्लीवालों को अगर हॉरर पिक्चर देखने का शौक है तो उनकी मर्जी.....
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आप ने containment शब्द सुना है? क्या होता है, आप को पता है? एक उदाहरण देता हूँ जो झट से समझ आएगा आप को. कोई दुकानदार प्रतिस्पर्धी दुकानदार का धंधा खराब करने नगर निगम के पाइप लाइन वालों को पैसे खिलाता है कि उसके दूकान के सामने फूटपाथ खोद रखो ताकि ...समझ गए न? तो ये थी बहुत आर्डिनरी containment. इंटरनेशनल तौर पर किसी देश की प्रगति रोकने के लिए बहुत सारे प्रकार किये जाते हैं. देश के अन्दर अराजक फैलाना उसमें अग्रसर है. अब जब आप को ये सुनने में आता है कि इसको प्रमोट करने वाले ताकतों में चाइना का भी नाम शुमार है, और पाकिस्तान का तो नाम खुलेआम चर्चा में आया ही है तो कुछ समझ में आ रहा है दिल्लीवालों ने देश का कितना बड़ा नुकसान किया है?
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मीडिया को क्या कहें? ये वो जमात होती है जो उड़ते पक्षी के पर गिन सकती हैं. क्या ये बातें उन्हें पता नहीं होंगी? उनपर तो विस्तृति से लिखूंगा. मराठी के एक जानेमाने पत्रकार भाऊ तोरासेकर आज कल इनकी वो पोल खोल रहे हैं, वही डेटा जरा जमा कर लूँ, फिर इनकी भी जम के खबर लेते हैं... दिल्लीवालों को बरगलाने में इनका रोल काबिल इ ...  जाने दो, महिलाएं भी ये पढ़ रही होंगी.... 


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Arthur Hailey के किताब तो पढ़े होंगे आप ने... एअरपोर्ट पढ़ी है? उसमें एक पात्र होता है – Marcus Rathbone – विमान के अन्दर एक टेररिस्ट है ये बात सिर्फ स्टाफ को पता चली है , अन्य यात्रियों को नहीं. तो वे उस टेररिस्ट को घेर लेते हैं, और एयर होस्टेस उसके हाथ से बम वाला पार्सल झट से छीन लेती है. तब ये आदमी; जिसे युनिफोर्म पहने महिलाओं से तिरस्कार होता है, फुर्ती से ऐअर होस्टेस के हाथ से वो पार्सल छीनकर उस टेररिस्ट को देता है.  ये सोचता है कि मैंने एक सत्ताधारी वर्ग के प्रतिनिधी के खिलाफ एक आम आदमी की मदद की. अब इस फिल्म में ये रोल किसका है? मिडिल क्लास और कूल डूड्स .
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ये हॉरर फिल्म कितनी लम्बी चलेगी? पता नहीं दिल्लीवालों, आप ने अपने और बाकी देशवासियों के नसीब में क्या लिखवाया है... हाँ, इंटरवल तक आप हॉल के बाहर भी नहीं निकल सकते, तो देखिये अब भारत की सबसे डरावनी  हॉरर फिल्म – मफलरमैन !
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यह पोस्ट सेव कर लीजिये अगर इच्छा हो. बीच बीच में पढ़ लीजियेगा. और हाँ, मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूँ, बस, कॉमन सेंस खोया नहीं है....
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जैसे मैंने कहा कि मैं ज्योतिषी नहीं हूँ. अगर ये सब बस एक दु:स्वप्न निकले और १० तारीख बीजेपी जीत जाए तो मैं बहुत खुश होऊंगा ये भी बताये देता हूँ.. 


- (अदभुत लेखक एवं विचारक श्री आनंद राजाध्यक्ष जी के फेसबुक नोट से जस का तस साभार...) 

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नोट :- इस पोस्ट पर श्री Vivek Chouksey का कमेन्ट भी उल्लेखनीय है :- दक्षिण अमेरिका का इतिहास जानने वाले जानते की यह कहानी अर्जेंटीना में घटित हो चुकी है. कभी विश्व की समृद्धतम अर्थव्यवस्था को जुआन परोन और एविटा ने माल ए मुफ्त लुटाकर कुछ ही वर्षों में कंगाल कर दिया. अर्जेन्टीना फिर नहीं उबर सका. जुआन की पत्नी ईवा उसके लिए ज़िम्मेदार थी पर अपनी 'दयालुता'के लिए आज भी वहां मदर एविटा के रूप में याद की जाती है.

Sponsored Mass Movements in India - Technique and Targets

मार्केटिंग तकनीक से खड़े किए गए जन-आंदोलन 

(आनंद राजाध्यक्ष जी का एक और अदभुत विवेचन)

मुझे यकीन है कि आप इस पोस्ट को  पूरा पढेंगे,  लेकिन आप को पहले ही बता दूँ कि यह पोस्ट लम्बी है. पढ़ने में ५ मिनट लेगी और सोचने में १० . इसीलिए अगर आप इसे न पढ़ना चाहें तो आप से अनुरोध है कि इसे SHARE करते जाएँ, औरों को भी काम आ सकता है . 
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आज के भारत में लोकतंत्र में सत्ता के विरोध में जन आन्दोलन खड़ा करना बहुत ही आसान है और कठिन भी. कठिन इसलिए है कि आप को बहुत सारा पैसा लगेगा.  ये काम में सहयोगी लगेंगे और वे भी फुल टाइमर. हज़ारों की संख्या में कार्यकर्ता भी लगेंगे, फुल टाइमर.  उनके payment का प्रबंध आप को करना होगा.


मान लेते हैं कि यह हो गया. कैसे, ये बताया जायेगा, लेकिन फिलहाल देखते हैं कि आज के भारत में लोकतंत्र में सत्ता विरोध में जन आन्दोलन खड़ा करना बहुत ही आसान क्यूँ है.  यह जन आन्दोलन कैसे चलाया जाए, अन्य देशों में कैसे चलाया गया, यह सब विस्तृत स्टेप by स्टेप जानकारी उपलब्ध है ही और वो भी बाकायदा “course module” के तर्ज पर ! तो चलें देखते हैं कि ये कैसे हो सकता है.
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लेकिन उस से भी पहले PG Wodehouse का एक चुटकुला सुनिए. सम्बन्ध अपनेआप समझ में आ ही जाएगा. होता यूँ है कि एक रौबदार व्यक्तिमत्ववाला पुख्ता उम्र का सजा संवरा व्यक्ति, जहाँ भी जाता है, खुद पहल कर जो भी मिले उस से बात छेड़ता है. उसकी opening line एक ही होती है, “How are you keeping, my dear? And how's the old complaint?"इस आदमी  के साथ किस्सा बयान करनेवाला अपना नायक खड़ा है, और अचंभित है कि किस कदर अनजान लोग इस आदमी के सामने अपने दिल के राज खोल देते हैं. ये पांच दस मिनिट के लिए सुन लेता है, सांत्वना देता है और फिर बहुत ही आराम से अपना काम उनसे करवा लेता है. काम वैसे बहुत मुश्किल नहीं होते, लेकिन जाहिर है कि ऐसे ही किसी अनजान व्यक्ति के लिए यूँही नहीं किये जाते. अंत में ये व्यक्ति अपनी कामयाबी का राज बता देता है... हर किसी को कोई न कोई तकलीफ होती है, और उस से भी बड़ी तकलीफ ये होती है कि कोई सुननेवाला नहीं होता.... बस, काम ऐसे ही होते हैं, समझे?
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तो भाई, आप के पास दो लडके और एक लड़की भी आती है. स्मार्ट से हैं, अच्छी इंग्लिश बोल लेते हैं लेकिन आप से तो बिलकुल शालीनता से हिंदी में बात करते हैं. आप से एरिया की समस्याएं के बारे में पूछते है.  क्या समस्याएं हैं, कोई इलाज होता भी है या नहीं, कोई आप की सुनता भी है या नहीं, इत्यादि.
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आप को बता दूँ, हर कोई सरकार से हमेशा नाराज ही रहता है. सरकार को गाली देना लोगों के लिए रोज का  टाइमपास  है. लेकिन सोचिये, यही लोग अगर चार महीने में आप को दस बार मिले, तो एक सम्बन्ध बन जाता है. और अगर आप को अपने प्रॉब्लम को हल करने के लिए कोई ख़ास तकलीफ नहीं, बस इनके सुझाये लोगों को वोट देना है, तो बात मन में उतर जाती है, क्योंकि बहुतही लॉजिकल तरीकेसे समझाई जाती है, वो भी हंसते हंसते शालीनता से और मिठास से. और साथ साथ और भी ऐसे रोजमर्रा के प्रोब्लेम्स का जिक्र होता है और आप का वोट इन सब मर्ज की दवा बताई जाती है.... अब आप ही बताएं, जो पक्ष की टोपी पहनकर बतौर कार्यकर्ता आप के घर आये – क्या  आप उनकी इतनी सुनेंगे?


चलिए, अब लेते हैं दूसरे मुख्य मुद्दे को, कि यह सब करने के लिए जो संसाधन जुटाने होंगे, उसके लिए पैसे कहाँ से आयेंगे?  इसका भी उत्तर है अगर आप राजनीति से हट कर marketing के  ढंग से सोचें. निवेश के लिए उद्योगपति अपनी योजना ले कर ऐसी संस्थाओं के पास जाता है जिन्हें उस योजना में अपना लाभ दिखाई दे, तो वे निवेश करें. आप उन्हें पूरा प्रोजेक्ट रिपोर्ट दें, आप क्या करेंगे, कैसे करेंगे, सब समझा दें. कुछ सुझाव वे भी देंगे, जो आप मानेंगे अगर उतने बड़े निवेश करनेवाले दूसरे आप के पास न हों.  और एक बात है. उद्योजक के अक्ल पर निवेशक को विश्वास है तो खुद भी चले आते हैं कि उसके काम में वे अपने लाभ के लिए पैसे लगायें.
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अब ये योजना है सरकार बदलने की तो आप सोचिये इसके लाभार्थी कौन हो सकते हैं?

१ बाहरी देश जो टार्गेट देश का महत्व कम करना चाहते है, उसकी प्रगति रोकना चाहते हैं वे चाहेंगे कि अगर सरकार पलट दी गई या उसको करारा धक्का दिया गया तो उसके विकास में अवरोधना पैदा होगी. वैसे वे तो सामने नहीं आयेंगे तो बात और अच्छी है. सरकारी तौर पर सम्बन्ध भी नहीं बिगड़ेंगे और डायरेक्टली involve भी नहीं होंगे. दामन बेदाग़ ! सांप भी मरे और लाठी भी न टूटे ....

२  वे सभी संस्था जिन्हें विद्यमान सरकार की नीतियों से तक़लीफ़ हो रही हो. यहाँ ये बात नहीं कि संस्था का कार्य राष्ट्रहित में है या नहीं. सरकार का हस्तक्षेप अगर संस्था हित में खलल पैदा करता है तो वो संस्था सहकार्य करेगी. Money power , man power, जो बन पड़े.

३  अन्य राजनीतिक दल जिनका भी विद्यमान सरकार को बदलनेका अजेंडा हो. उनकी सहाय्यता विविध रूप ले सकती है; जैसे कि सिर्फ सरकार पक्ष के वोट काटने के लिए दुर्बल प्रत्याशी खड़े करें, कोई जगह न ही करें और अपने निष्ठावान मतदाताओं को समझाये कि किसे वोट देना है.

४  अगर सरकार पक्ष को किसी विशिष्ट विचारधारा या धर्म से जोड़ दिया जाए तो बाकी सारे संप्रदायोँ से उनके विरोध में समर्थन की मांग की जा सकती है ये तो आप समझ ही गए होंगे...

५   प्रवासी जन समुदायों को उनके मूल स्थानों से संदेसे आने की व्यवस्था की जा सकती है, विशेषकर अगर उन स्थानों के शासक भी इस सत्ता परिवर्तन में अपना लाभ देखते हों. Money power , man power, जो बन पड़े वाला नियम यहाँ भी पुरजोश लागू होता है.


ये तो हुई मार्केटिंग बाहरवाले निवेशकों को. याने पैसो का इंतजाम हो जाता है, man power का भी. लेकिन इस योजना में स्थानिक जनता का ही मुख्य रोल है तो जनता को अपने तरफ मोड़ना है. इसमें भी अलग अलग तरीके काम आते हैं.

अ) अगर उन्हें लगे कि उनके तकलीफों का इलाज आप कर सकते हैं 

ब)  सरकार प्रति रोष – जायज / नाजायज से मतलब नहीं, जो वोट दे सकता है  वो अपना है . नाराज सरकारी कर्मचारी इसमें गिने जा सकते हैं. अवैध निवासी, अवैध हॉकर इत्यादि भी आपके पास आयेंगे अगर आप में  उन्हें एक  तगडा पर्याय दिखें.

क)  सीधा प्रलोभन – मुफ्त , या साथ में वोट के लिए कॅश / वस्तू, दारु....
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हो गया मार्केटिंग पूरा . पहले संस्थात्मक निवेशकों को issue बेच दिया, बाकी public को ...हो गया over subscribe ! आसान नहीं है  ये सब पापड बेलना , लेकिन जिन्हें कुछ करने की जिद होती है वे कुछ भी कर जाते हैं. कुछ भी .... इमानदारी, राष्ट्रहित, कोई मायने नहीं रखता ....
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तो ये एक अनदेखा पहलू . ख़ास कर के लम्बे समय तक सर्वे से सेल्समन से कार्यकर्ता तक का, उसके लिए लगनेवाले हजारों ट्रेंड लोगों का जिनका कहीं रिकॉर्ड ही नहीं क्यूंकि वो सब जिम्मा आप के इन्वेस्टर उठाते है.  जहाँ से आये, चले गए... सम्प्रदायिक वोटरों को संभालने उनके रहनुमाँ, राहबर और shepherds, उनके ही खर्चे से ... वे भी इन्वेस्टर... प्रवासी वोटरों को आप के साथ जोड़ने के लिए उनके मूल राज्यों से भेजे गए लोग –सब बतौर इन्वेस्टमेंट !  न आपको  खर्चा उठाना है, न आपको कोई रिकॉर्ड रखना, और ना ही कहीं रिकॉर्ड  दिखेगा ....


इन सब ऑफ द रिकॉर्ड ताकतों का प्रभाव तो दिखाई देगा ,  लेकिन अस्तित्व नहीं.  नतीजा ये कि ये आभास सफलता से बनाया जा सकता है  कि ये  दीये की  तूफ़ान से लड़ाई हैये दिया नहीं, मुल्क को राख कर देनेवाला दावानल है ये अंदाजा शायद बहुतों को आता  ही नहीं, और जिन्हें समझ आता है  वे बताते नहीं हालांकि बताना ही उनका धर्म और कर्म है. शायद वे मुद्दा क्र. २ में अंतर्भूत हैं...
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बाकी काफी बातें तो आप पढ़ ही रहे हैं.  और आप ने अगर देखा होगा तो इस आलेख में कोई भी नामनिर्देश नहीं है.  आप चाहें तो इसे परिकल्पना समझ सकते हैं.
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इतनी लम्बी पोस्ट पढ़ने का शुक्रिया, शेयर करने का अनुरोध तो है.... 

Windows Versus Linux

विन्डोज़ Vs लाईनक्स 

(फेसबुक की वाल से कॉपी - ताकि भविष्य में सनद रहे)
Windows के करप्ट होनेक्रैश होनेवायरस हमलों आदि से बहुत परेशानी होती है... बारम्बार Install करने अथवा Restore/Recovery करने में समय बर्बाद होता है...
समस्या यह है कि मेरा साइबर कैफे होने के कारण सभी पीसी पर Linux भी नहीं अपना सकता... क्योंकि कैफे पर जो सामान्य ग्राहक, Gmail तक को गूगल सर्च बॉक्स में जाकर खोजते होंजो अनभिज्ञ ग्राहक आज भी Chrome की बजायइंटरनेट का मतलब Internet Explorer ही समझते हों... उन्हें Linux का ले-आउट और इंटरफेस कैसे सिखाऊँगा?? कुछ ऐसा होना चाहिएकि Windows करप्ट या क्रैश होने की स्थिति में सिर्फ पेन ड्राईव लगाकर दस-पन्द्रह मिनट में पूरा का पूरा सिस्टम (डाटाप्रिंटर्ससाफ्टवेयर आदि सहित) Restore हो जाए...

=====================यदि ऐसा हो जाए तो फिर तो तमाम एंटी-वायरस से भी तौबा की जा सकती है... आने दो वायरसों को... जैसे ही विंडोज क्रैश हुआ... दस मिनट में पीसी को फिर से ओके कर लिया... क्या ऐसा कुछ होता है?? 

समाधान हेतु आए कुछ चुनिंदा जवाब को भी यहाँ लिख रहा हूँ... ताकि रिकॉर्ड में रहे... 

Adhokshaj Mishra · Aisa ho to sakta hai, lekin

1) 10 min me nahi hoga

2) thoda tedha kaam hai.

Disk cloning and recovery software use kariye. Aam taur pe 30-40 min pe sab ready ho jayega. Sare software, driver, settings sab kuch. 



Adhokshaj Mishra · Friends with Anand G. Sharma





Ranjan Jain लिनक्स हॉट इमेज या रेडी तो यूज़ इमेज ट्राई करो। हर बार एक ही स्टेटस रहेगा सिस्टम का। बूट होते ही पहले जैसा। 

 · 
Agar aap windows hi use karna chahte hai to Acronic True Image install kijiye. jisse aap apna system crash or corrupt ho jaane par aap pehle jaisa restore kar sakte hai maatr 15 min me. 

Ankush Kalia · Friends with लवी भरद्वाज सावरकर


किशोर बड़थ्वाल fedora Linux kar sakte hain.. interface lagbhag window jaisa he hai aur chrome to sabhi Linux me chal jata hai... mai 19 saal se pahle UNIX aur fir Linux use kar raha hun.. kabhi koi samasya nahi aayi... aur virus to kabhi nahi... 


Prabhat Sandheliya Linux install कर लीजिये फिर उसमें windows virtualbox चला लीजिये। कभी भी विंडोज currupt हो जाये तो virtual machine फिर से कॉपी कर लीजिये। 


Shyam Rathore 1. Install Linux 2. Install VirtualBox 3. Create virtual machine 4. Virtual machine ko clone kare and every morning reset to initial state. I can demo on teamviewer to you. 


Hridayesh Gupta clonezilla se pure system ki image bana kar rakh sakte hain. jab corrupt ho jaye to 30 minutes me pura system waisa ka waisa sab kuch installed aa jayega jab image banayi hogi
http://clonezilla.org/ 


  •  linux mint प्रयोग करें .. इसमें mozila firefox और google chrome दोनों ब्राउज़र डाल सकते हैं .. किसी डिवाइस ड्राइवर की भी जरुरत नहीं .. एकदम विंडोज जैसा है .. किसी मदद के लिए मुझे फोन कर सकते हैं नंबर मेसेज बॉक्स में भेज रहा हूँ
  • Samant B Jain ९९% लिनिक्स का पेन ड्राइव से बूट करने वाला वर्शन बनाना संभव है .. ये टूल डाउनलोड करें http://www.pendrivelinux.com/universal-usb-installer.../ 


दिब्यम प्रभात् Suresh Chiplunkar जी शायद मेरे दो सुझाव आपके काम आ सकता है....
(1) Linux का OS install करे फिर उसके ऊपर Oracle का Virtual Box install करने से आपकी समस्या हल हो जाएगी....और फिर आप उसमे Xp install कर दीजिये....सारा सॉफ्टवेर install करने के बाद आप एक Snap
sort ले लीजिये बाद में समस्या आने में आप मिनट में सिस्टम को Restore/Revert कर सकते है... 
लिंक :- https://www.virtualbox.org/ 

पर इसके लिए एक अच्छा हार्डवेयर चाहिये...
(2) सबसे अच्छा और सबसे हल्का linux जिसे आप पेन ड्राइव से चला सकते है और data और सारा configuration भी save कर सकते है वो Puppy Linux है जिसे आप यहाँ से डाउनलोड कर सकते "OS Size is aprox. 170 MB"साथ में ऑफिस package भी और काम की बहुत सॉफ्टवेर Preloaded रहती है....है...http://puppylinux.org/main/Download%20Latest%20Release.htm
वैसे मैंने अपने कैफे में काफी हद तक सफल प्रयोग किया था...आप भी अपने किसी एक PC में Trial कर के देख लीजिये.... 


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