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Channel: महाजाल पर सुरेश चिपलूनकर (Suresh Chiplunkar)
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Terrorist Naved Wants to Kill "Hindus" only...

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नावेद के बहाने हिंदुओं के लिए कुछ ज्ञान... 

(भाई तुफैल चतुर्वेदीजी की कलम से)...  

ख़ासा स्मार्ट, परिवार या पास-पड़ौस के ही शरारती लड़के जैसा किशोर, अभी मसें भी नहीं भीगीं, मीठी मुस्कराहट बिखेरता चेहरा और उदगार "मैं यहाँ हिन्दुओं को मारने आया हूं, मुझे ऐसा करने में मज़ा आता है "ये वर्णन जम्मू के नरसू क्षेत्र में बीएसएफ की एक बस पर ताबड़तोड़ फायरिंग के बाद गांव वालों की साहसिक सूझ-बूझ से दबोचे गये एक आतंकवादी का है। उसके जैसा ही एक हत्यारा मारा भी गया। इस पाकिस्तानी आतंकी की कई स्वीकारोक्तियों के अनुसार उसका नाम क़ासिम ख़ान या उस्मान या नावेद...ऐसा कुछ है और उसकी आयु भी 16 वर्ष से 20 वर्ष के बीच कहीं है। ये शायद वो भारतीय न्यायव्यवस्था के समक्ष अपने को नाबालिग़ बताने के लिए कर रहा है। 


भारत आकर ऐसी स्वीकारोक्ति करने वाले इस पाकिस्तानी आतंकवादी के मानस को समझना इस लिये भी आवश्यक है कि उसने कहा है "मैं यहाँ हिन्दुओं को मारने आया हूं, मुझे ऐसा करने में मज़ा आता है "। उसके कथन के दो भाग हैं। पहला "मैं यहाँ हिन्दुओं को मारने आया हूँ "यानी आप होंगे जाटव, कुर्मी, राजपूत, यादव, जाट, बाल्मीक, ब्राह्मण, बनिये इत्यादि कोई भी मगर आपको मारने आने वाले दुश्मन को आपकी वो असली पहचान पता है जिसे आप जान कर भी नहीं जानना चाहते।आप अपनी नज़र में पिछड़े, अन्त्यज, अनुसूचित, सवर्ण कोई तीसमारखां हों, मगर उसके और उसकी सोच वालों के लिये आप सब एक हैं। वो यहाँ जम्मू के डोगरे, पंजाबी, गुजरती, मराठी, तमिल, तेलगू, मलयाली, कन्नड़, बिहारी, असमी, नगा, मणिपुरी, बंगाली इत्यादि प्रान्त के किसी निवासी को मारने नहीं आया। न ही वो बाल्मीक, यादव, जाटव, ब्राह्मण, गूजर, राजपूत, जाट, वैश्य, तेली इत्यादि किसी जाति के व्यक्ति को मारने आया है। वो हिन्दुओं को मारने आया है। यहाँ क्या ये सवाल अपने आप से पूछना उचित और आवश्यक नहीं है कि दुश्मन के लिये आप सब एक हैं तो आप सब आपस में एक क्यों नहीं हैं ? एक इस्लामी आतंकी की दृष्टि में हम सब जातियों में बंटे समाज नहीं है बल्कि हिन्दू हैं तो हम इससे निबटने के लिये केवल और केवल हिन्दू क्यों नहीं हैं ? 

दूसरे उसने कहा है "मुझे ऐसा करने में मज़ा आता है "अर्थात ये एक विक्षिप्त उन्मादी का ही किया एक काम भर नहीं है अपितु लगातार की जा रही घटनाओं की एक अटूट श्रंखला है।वो पाकिस्तान से आया है। भारत का विभाजन कर बनाये गये देश पाकिस्तान में करोड़ों हिन्दुओं ने वहीँ रहने को प्राथमिकता दी थी। इस नरपिशाच के "मुझे ऐसा करने में मज़ा आता है"से मतलब ये है कि ये और उसके जैसे राक्षसों को पाकिस्तान में ऐसा करते रहने का अभ्यास है। आख़िर "मज़ा आता है "कथन इस बात का द्योतक है कि उसके लिये ये एक अनवरत प्रक्रिया है। बंधुओ ! पाकिस्तान में करोड़ों हिन्दू छूटे थे। विभाजन के बाद पाकिस्तानी जनसँख्या में हिन्दुओं का प्रतिशत दहाई के आंकड़ों में था। अब पाकिस्तान अपनी जनसंख्या में हिन्दू 1 प्रतिशत से भी कम क्यों दिखता है ? हमारे वो सारे भाई कहाँ गये ? उनका क्या हाल हुआ ? इस और इस जैसे इसके साथी लोगों ने पाकिस्तान में बचे हिन्दुओं की क्या दुर्दशा की ? आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का बहुत प्रसिद्द कथन है "साहित्य समाज का दर्पण है"आइये इस दर्पण को देखते हैं। पाकिस्तान के शाइर रफ़ी रज़ा साहब का एक शेर देखिये।

तलवार तो हटा मुझे कुछ सोचने तो दे 
ईमान तुझ पे लाऊँ कि जज़िया अदा करूँ 

कोई घटना यूँ ही शेर में नहीं ढलती। ये करोड़ों लोगों के साथ हुआ व्यवहार है जिसे रफ़ी रज़ा साहब ने बयान किया है। यही वो व्यवहार है जिसके कारण विश्व भर में इस्लाम का प्रसार हुआ है। आतंक एक उपकरण है और इसका प्रयोग इस्लाम में अरुचि रखने वालों को डराने और इस्लाम की धाक जमाने के लिये किया जाता है। बंधुओ ये जम्मू में हुई एक घटना भर नहीं है बल्कि सैकड़ों वर्षों से अनवरत चली आ रही घटनाओं की अटूट श्रंखला है। अफ़ग़ानिस्तान की सीमा पर एक पहाड़ का नाम ही हिन्दू-कुश है। इस शब्द का अर्थ है वो स्थान जहाँ हिन्दू काटे गये। अफ़ग़ानिस्तान हिन्दू क्षेत्र था और उसका इस्लामी स्वरूप अपने आप नहीं आया है।ऐसे ही हत्यारे वहां भी कार्यरत रहे हैं और उनके लगातार प्रहार करते रहने, राज्य के इन बातों पर ध्यान न देने, इन दुष्टों पर भरपूर प्रहार करके इन्हें नष्ट न करने का परिणाम अफ़ग़ानिस्तान का वर्तमान स्वरुप है। पाकिस्तान के ख़ैबर-पख्तूनख्वा क्षेत्र के चित्राल जनपद में कलश जनजाति समूह रहता है। ये बहुदेव-पूजक दरद समूह के लोग हैं। दरद योद्धाओं का वर्णन महाभारत में मिलता है। दुर्योद्धन के लिये कर्ण ने जो विजय यात्रा की है उसमें दरद लोगों से कर लेने का उल्लेख है। इस क्षत्रिय जाति के लोग महाभारत में कौरवों के गुरु कृपाचार्य के नेतृत्व में लड़े थे। महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भी इनका उल्लेख है। अर्जुन की सेना में ये लोग साथ थे। ईरान सहित ये सारा क्षेत्र महाराज चन्द्र गुप्त मौर्य के शासन क्षेत्र के किनारे का नहीं अपितु मध्य का भाग रहा है। ये लोग भारत-ईरानी मिश्रित मूल की भाषा कलश बोलते हैं। पड़ौस के देश अफ़ग़ानिस्तान के पूर्वी प्रदेश नूरिस्तान जिसे पहले काफ़िरिस्तान कहा जाता था, के निवासी भी इसी भाषा को बोलते थे। उनकी भी संस्कृति हमारी तरह बहुदेव पूजक थी। 1895 में यहाँ के निवासियों को ऐसे ही नृशंस हत्यारों ने मुसलमान बनाया और यहाँ की भाषा, संस्कृति, मान्यताओं को बलात बदला। ज्ञान-शौर्य से चमचमाते माथों वाला यह समाज-क्षेत्र, आज मुसलमान हो चुका है और तालिबान की ख़ुराक बन कर विश्व को जिहाद, आतंक, अशांति का संदेश दे रहा है। 


बंधुओ ! ये बदलाव एक दिन में नहीं आये। ये सब कुछ सायास सोची-समझी गयी कट्टरता का परिणाम है। आख़िर आत्मघाती दुःसाहस अनायास नहीं हो सकता, निरंतर नहीं हो सकता, सदियों नहीं हो सकता।इसकी तह में जाना, इससे जूझने, निबटने की योजना बनाना सुख-चैन से रहने के लिये आवश्यक है।ये आतंकी स्पष्ट रुप से यहां आने का कारण बता रहा है कि "मै यहाँ हिन्दुओं को मारने आया हूं "। कोई बुरे से बुरा हत्यारा भी अकारण हत्याएं नहीं करता। उनकी हत्या नहीं करता जिन्हें वो जानता ही नहीं है। अनदेखे व्यक्तियों पर हमला कौन सी मानसिकता का व्यक्ति कर सकता है ? ऐसे हमले भारत, भारतवासियों पर ही नहीं विश्व भर में सैकड़ों वर्षों से हो रहे हैं। इसका प्रारम्भ इस्लाम की इस मनमानी सोच से हुआ है कि ख़ुदा एक है, उसमें कोई शरीक नहीं है, मुहम्मद उसका अंतिम पैग़म्बर है। जो इसको नहीं मानता वो काफ़िर है और काफ़िर वाजिब-उल-क़त्ल हैं। 

इस विचारधारा का जन्म मक्का में हुआ था और मुहम्मद जी ने अपनी ये सोच मक्का वासियों को मनवाने की कोशिश की। उन्होंने नहीं मानी और मुहम्मद जी के प्रति कड़े हो गए तो मुहम्मद जी भाग कर मदीना चले गए। वहां शक्ति जुटा कर सैन्य बल बनाया और फिर इस्लाम के प्रारंभिक लोगों से ही इन संघर्षों का बीज पड़ा। प्रारम्भिक इस्लामी विश्वासियों ने ही ये हत्याकांड मक्का-मदीना से प्रारम्भ करते हुए इसका दायरा लगातार बड़ा किया था, बढ़ाया था। मुहम्मद और उनके बाद के चार ख़लीफ़ाओं ने इसकी व्यवस्था की कि ऐसा अनवरत चलता रहे और इस्लाम का तलवार से प्रसार होता रहे। परिणामतः कुछ लाख की आबादी के तत्कालीन अरब में चालीस साल में हज़ारों अमुस्लिमों का नरसंहार हुआ और चार में से तीन खलीफा की हत्या हुई । इस्लाम का प्रारंभिक खिलाफत का दौर, तथाकथित स्वर्णिम काल मनुष्यता का काला युग था। उन लोगों ने आतंक का उपयोग कर लोगों को धर्मान्तरित किया। उसी दौर को विश्व भर में लाने के प्रयास फिर से चल रहे हैं। 

इस हत्यारी सोच के बीज मूल इस्लामी ग्रंथों में हैं। क़ुरआन, हदीसों में अमुस्लिम लोगों की हत्या करने, उन्हें लूटने के अनेकों आदेश हैं। ऐसे हत्यारों को मारे जाने पर जन्नत मिलने और वहां ऐश्वर्यपूर्ण जीवन आश्वासन भी इन्हीं ग्रंथों में हैं। कुछ उल्लेख दृष्टव्य हैं।

1) काफिरों से तब तक लड़ते रहो जब तक दीन पूरे का पूरा अल्लाह के लिये न हो जाये { 8-39 }
2) ओ मुसलमानों तुम गैर मुसलमानों से लड़ो. तुममें उन्हें सख्ती मिलनी चाहिये { 9-123 }
और तुम उनको जहां पाओ कत्ल करो { 2-191 }
3) ऐ नबी ! काफिरों के साथ जिहाद करो और उन पर सख्ती करो. उनका ठिकाना जहन्नुम है { 9-73 और 66-9 }
4) अल्लाह ने काफिरों के रहने के लिये नर्क की आग तय कर रखी है { 9-68 }
5) उनसे लड़ो जो न अल्लाह पर ईमान लाते हैं, न आखिरत पर; जो उसे हराम नहीं जानते जिसे अल्लाह ने अपने नबी के द्वारा हराम ठहराया है. उनसे तब तक जंग करो जब तक कि वे जलील हो कर जजिया न देने लगें { 9-29 }
6) तुम मनुष्य जाति में सबसे अच्छे समुदाय हो, और तुम्हें सबको सही राह पर लाने और गलत को रोकने के काम पर नियुक्त किया गया है { 3-110 }
7) जो कोई अल्लाह के साथ किसी को शरीक करेगा, उसके लिये ने जन्नत हराम कर दी है. उसका ठिकाना जहन्नुम है { 5-72 }
8) मुझे लोगों के खिलाफ तब तक लड़ते रहने का आदेश मिला है, जब तक ये गवाही न दें कि अल्लाह के सिवा कोई दूसरा काबिले-इबादत नहीं है और मुहम्मद अल्लाह का रसूल है और जब तक वे नमाज न अपनायें और जकात न अदा करें [ सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या 33 }

अफ़ज़ल गुरू, अजमल कसाब, याक़ूब मेमन, नावेद, बोको हराम और आई एस आई एस के आतंकी सब एक ही श्रंखला के राक्षस हैं। ये उसी हत्यारे दर्शन में विश्वास रखते हैं और वही कर रहे है जो इनके प्रारम्भिक लोगों ने किया था और भारत में जिसकी शुरुआत हिन्द-पाक के मुसलमानों के चहेते हीरो मुहम्मद बिन कासिम ने की थी।इस हत्यारे आक्रमणकारी ने इस्लामी इतिहासकार के ही अनुसार 60 हज़ार लोगो (महिलाओं सहित) बंदी बनाया। मुहम्मद बिन कासिम ने इस्लामी कानून के मुताबिक़ लूट का 1/5 हिस्सा दमिश्क में खिलाफत निजाम को भेजा और बाकी मुस्लिम फौज में बांटा { reference- al-Baladhuri in his book The Origins of the Islamic State }। आज अफ़ज़ल गुरू, अजमल कसाब, याक़ूब मेमन, नावेद जो कर रहे हैं वो उनकी ही नहीं इस्लाम की दृष्टि में भी जन्नत का मार्ग खोलने का काम है। कई मुसलमान बड़े आराम से यह कह देते है ये या बोको हराम, आई एस आई एस के लोग जो कर रहे हैं वह इस्लाम नहीं है। बंधुओ ये केवल तब तक सायास बोला जाने वाला झूट है जब तक खुल कर कहने और सारे अमुस्लिम समाज को समाप्त करने का अवसर नहीं आ जाता।

ऐसी हत्यारी सोच ज्ञान के प्रकाश से समाप्त हो सकती थी अतः सावधान इस्लामी आचार्यों ने ज्ञान-विज्ञान को इसी लिये वर्जित घोषित कर दिया। 900 साल पहले मौलाना गजाली ने गणित को शैतानी ज्ञान बता कर वर्जित कर दिया था। अब उसी पथ पर आगे बढ़ते हुए अल-बग़दादी के ख़िलाफ़त निज़ाम ने PHILOSOPHY और CHEMISTRY पढने पर प्रतिबंध लगा दिया है। कोढ़ में खाज ये है कि पाकिस्तान की उजड़ी-बिखरी राजनैतिक स्थितियां, देश में आयी मदरसों की बाढ़, सऊदी अरब-क़तर से उँडेले जाते खरबों पेट्रो डॉलर ऐसे संगठनों के लिये अबाध भर्ती की परिस्थितियां बनाते हैं। इस या इस जैसी विचारधारा को चुनौती न देने के परिणाम व्यक्ति, देश और सम्पूर्ण मानवता हर स्तर पर भयानक होते हैं। अभी कुछ दिन पहले दुबई की एक घटना के बारे में जानना उपयुक्त होगा। एक पाकिस्तानी मूल का परिवार समुद्र में नहाने के लिये गया। 20 वर्ष की बेटी गहरे पानी में फंस गयी। रक्षा-कर्मी दल के लोग बचाव के लिये बढे तो उसके पिता ने उन्हें यह कह कर रोक दिया कि ग़ैर मर्द बेटी को छुएं इससे तो बेहतर है कि वो डूब कर मर जाये। वो लड़की मर गयी। ये मृत्यु उसके पिता के कारण नहीं हुई है। ये मृत्यु इस्लाम की सोच के कारण हुई है। इसका पाप इस्लाम के सार है. 


अंत में प्रेस के वाचालों, कोंग्रेसियों, सैक्यूलरवाद की खाल ओढ़े वामपंथी भेड़ियों का एक सामान्य दावा भी परखना चाहूंगा। इन ढपोरशँखों के अनुसार आतंकियों का कोई मज़हब नहीं होता ? चलिये मान लेते हैं, वाक़ई नहीं होता होगा मगर क्या कीजिये कि हम सबने अमरनाथ यात्रा पर घात लगा कर आतंकी हमले देखे-सुने हैं, मंदिरों पर हमले देखे-जाने हैं। क्या कभी किसी ने कभी हजयात्रियों पर आतंकी हमला सुना है ?क्या वाक़ई आतंकियों का कोई मज़हब नहीं होता ? वो सारे शरीर के बाल उतरवा कर अपनी समझ से ग़ुस्ल, नमाज़ अदा कर नास्तिकता के पथ पर जाने के लिये या इस्लाम छोड़ने के लिये निकलते हैं ?

ये सारे काम हमारे पड़ौसी देश पाकिस्तान से संचालित हो रहे हैं। ज़ाहिर है पाकिस्तान हमारा पड़ौसी देश है और हम पड़ौसी बदल नहीं सकते। हम पड़ौसी की चौखट पर गाँधीवादी मार्ग पर चलते हुए फूल तो रख सकते हैं ? बंधुओ ऐसी स्थितियों में फूल भेंट करने की सर्वोत्तम जगह क़ब्र है। ये भयानक-लोमहर्षक बदला लेने, उसकी योजना बनाने का क्षण है। यहाँ एक सवाल नावेद को पकड़ने वाले लोगों से भी करना है। क्या आपके घर में कोई चाक़ू, पेंचकस, हथौड़ा नहीं था। एक हत्यारा आतंकी समूचा-साबुत पुलिस को कैसे मिल गया ? आपसे उसके हाथ पैरों में 10-20 छेद नहीं किये गये ? उसके दोनों हाथ के अंगूठे नहीं काटे गये ? आपमें से कई बंधु अंगूठे काटने का अर्थ नहीं समझ पा रहे होंगे। इसका अर्थ है जब तक जीना पूर्ण अपाहिज हो जाना। अंगूठे के बिना कोई शौच-स्थान साफ़ तक नहीं कर सकता, खाना नहीं खाया जा सकता। कपड़े नहीं पहने जा सकते। हर पकड़ अंगूठे से ही सम्भव होती है। उसे पता तो चले चोट क्या होती है ? दर्द क्या होता है ? इस रास्ते पर अगले बढ़ने वाले को भी तो ये ध्यान रहे भारतीय केवल बिरयानी ही नहीं खिलते, ख़ून के आंसू भी रुलाते हैं।

- तुफ़ैल चतुर्वेदी

Maratha Queen Tarabai and Aurangzeb

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रानी ताराबाई : औरंगज़ेब का सपना चूर करने वाली मराठा वीरांगना 


भारत के इतिहास की पुस्तकों में अधिकांशतः हिन्दू राजाओं-रानियों एवं योद्धाओं को “पराजित” अथवा युद्धरत ही दर्शाया गया है. विजेता हिन्दू योद्धाओं के साम्राज्य, उनकी युद्ध रणनीति, उनके कौशल का उल्लेख या तो पुस्तकों में है ही नहीं, अथवा बहुत ही कम किया गया है. ज़ाहिर है कि यह जानबूझकर एवं व्यवस्थित रूप से इतिहास को विकृत करने का एक सोचा-समझा दुष्कृत्य है. जिस समय औरंगज़ेब लगभग समूचे उत्तर भारत को जीतने के पश्चात दक्षिण में भी अपने पैर जमा चुका था, उसकी इच्छा थी कि पश्चिमी भारत को भी जीतकर वह मुग़ल साम्राज्य को अखिल भारतीय बना दे. परन्तु उसके इस सपने को तोड़ने वाला योद्धा कोई और नहीं, बल्कि एक महिला थी, जिसका नाम था “ताराबाई”.ताराबाई के बारे में इतिहास की पुस्तकों में अधिक उल्लेख नहीं है, क्योंकि वास्तव में उसने छत्रपति शिवाजी की तरह कोई साम्राज्य खड़ा नहीं किया, परन्तु इस बात का श्रेय उसे अवश्य दिया जाएगा कि यदि ताराबाई नहीं होतीं तो न सिर्फ मराठा साम्राज्य का इतिहास, बल्कि औरंगज़ेब द्वारा स्थापित मुग़ल साम्राज्य के बाद आधुनिक भारत का इतिहास भी कुछ और ही होता. 


जिस समय मराठा साम्राज्य पश्चिमी भारत में लगातार कमज़ोर होता जा रहा था, तथा औरंगजेब मराठाओं के किले-दर-किले पर अपना कब्ज़ा करता जा रहा था, उस समय ताराबाई (1675-1761) ने सारे सूत्र अपने हाथों में लेते हुए न सिर्फ मराठा साम्राज्य को खण्ड-खण्ड होने से बचाया, बल्कि औरंगज़ेब को हार मानने पर मजबूर कर दिया. छत्रपति शिवाजी के प्रमुख सेनापति हम्बीर राव मोहिते की कन्या ताराबाई का जन्म 1675 में हुआ, ताराबाई ने अपने पूरे जीवनकाल में मराठा साम्राज्य में शिवाजी के राज्याभिषेक से लेकर सन 1700 में औरंगजेब के हाथों कमज़ोर किए जाने, तथा उसके बाद पुनः जोरदार वापसी करते हुए सन 1760 में लगभग पूरे भारत पर मराठा साम्राज्य की पताका फहराते देखा और अंत में सन 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में अहमद शाह अब्दाली के हाथों मराठों की भीषण पराजय भी देखी. ताराबाई का विवाह आठ वर्ष की आयु में शिवाजी के छोटे पुत्र राजाराम के साथ किया गया. छत्रपति के रूप में राज्याभिषेक के कुछ वर्ष बाद ही 1680 में शिवाजी की मृत्यु हो गई. यह खबर मिलते ही औरंगज़ेब बहुत खुश हो गया. शिवाजी ने औरंगज़ेब को बहुत नुकसान पहुँचाया था, इसलिए औरंगज़ेब चिढ़कर उन्हें “पहाड़ी चूहा” कहकर बुलाता था. आगरा के किले से शिवाजी द्वारा चालाकी से फलों की टोकरी में बैठकर भाग निकलने को औरंगज़ेब अपनी भीषण पराजय मानता था, वह इस अपमान को कभी भूल नहीं पाया.इसलिए शिवाजी की मौत के पश्चात उसने सोचा कि अब यह सही मौका है जब दक्षिण में अपना आधार बनाकर समूचे पश्चिम भारत पर साम्राज्य स्थापित कर लिया जाए. 

शिवाजी की मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र संभाजी राजा बने और उन्होंने बीजापुर सहित मुगलों के अन्य ठिकानों पर हमले जारी रखे. 1682 में औरंगजेब ने दक्षिण में अपना ठिकाना बनाया, ताकि वहीं रहकर वह फ़ौज पर नियंत्रण रख सके और पूरे भारत पर साम्राज्य का सपना सच कर सके. उस बेचारे को क्या पता था कि अगले 25 साल वह दिल्ली वापस नहीं लौट सकेगा और दक्षिण भारत फतह करने का सपना उसकी मृत्यु के साथ ही दफ़न हो जाएगा. हालाँकि औरंगजेब की शुरुआत तो अच्छी हुई थी, और उसने 1686 और 1687 में बीजापुर तथा गोलकुण्डा पर अपना कब्ज़ा कर लिया था. इसके बाद उसने अपनी सारी शक्ति मराठाओं के खिलाफ झोंक दी, जो उसकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा बने हुए थे. 


मुगलों की भारीभरकम सेना की पूरी शक्ति के आगे धीरे-धीरे मराठों के हाथों से एक-एक करके किले निकलने लगे और मराठों ने ऊँचे किलों और घने जंगलों को अपना ठिकाना बना लिया. औरंगजेब ने विपक्षी सेना में रिश्वत बाँटने का खेल शुरू किया और गद्दारों की वजह से संभाजी महाराज को संगमेश्वर के जंगलों के 1689 में औरंगजेब ने पकड़ लिया. औरंगजेब ने संभाजी से इस्लाम कबूल करने को कहा, संभाजी ने औरंगजेब से कहा कि यदि वह अपनी बेटी की शादी उनसे करवा दे तो वह इस्लाम कबूल कर लेंगे, यह सुनकर औरंगजेब आगबबूला हो उठा. उसने संभाजी की जीभ काट दी और आँखें फोड़ दीं, संभाजी को अत्यधिक यातनाएँ दी गईं, लेकिन उन्होंने अंत तक इस्लाम कबूल नहीं कियाऔर फिर औरंगजेब ने संभाजी की हत्या कर दी. 

औरंगजेब लगातार किले फतह करता जा रहा था. संभाजी का दुधमुंहे बच्चा “शिवाजी द्वितीय” अब आधिकारिक रूप से मराठा राज्य का उत्तराधिकारी था. औरंगजेब ने इस बच्चे का अपहरण करके उसे अपने हरम में रखने का फैसला किया ताकि भविष्य में सौदेबाजी की जा सके. चूँकि औरंगजेब “शिवाजी” नाम से ही चिढता था, इसलिए उसने इस बच्चे का नाम बदलकर शाहू रख दिया और अपनी पुत्री जीनतुन्निसा को सौंप दिया कि वह उसका पालन-पोषण करे. औरंगजेब यह सोचकर बेहद खुश था कि उसने लगभग मराठा साम्राज्य और उसके उत्तराधिकारियों को खत्म कर दिया है और बस अब उसकी विजय निश्चित ही है. लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पाया. 

संभाजी की मृत्यु और उनके पुत्र के अपहरण के बाद संभाजी का छोटा भाई राजाराम अर्थात ताराबाई के पति ने मराठा साम्राज्य के सूत्र अपने हाथ में लिए. उन्होंने महसूस किया कि इस क्षेत्र में रहकर मुगलों की इतनी बड़ी सेना से लगातार युद्ध करना संभव नहीं है, इसलिए उन्होंने अपने पिता शिवाजी से प्रेरणा लेकर, अपने विश्वस्त साथियों के साथ लिंगायत धार्मिक समूह का भेष बदला और गाते-बजाते आराम से सुदूर दक्षिण में जिंजी के किले में अपना डेरा डाल दिया. इसके बाद चमत्कारिक रूप से राजाराम ने जिंजी के किले से ही मुगलों के खिलाफ जमकर गुरिल्ला युद्ध की शुरुआत की. उस समय उनके सेनापति थे रामचंद्र नीलकंठ.राजाराम की सेना ने छिपकर वार करते हुए एक वर्ष के अंदर मुगलों की सेना के दस हजार सैनिक मार गिराए और उनका लाखों रूपए खर्च करा दिया. औरंगज़ेब बुरी तरह परेशान हो उठा.दक्षिण की रियासतों से औरंगज़ेब को मिलने वाली राजस्व की रकम सिर्फ दस प्रतिशत ही रह गई थी, क्योंकि राजाराम की सफलता को देखते हुए बहुत सी रियासतों ने उस गुरिल्ला युद्ध में राजाराम का साथ देने का फैसला किया. औरंगज़ेब के जनरल जुल्फिकार अली खान ने जिंजी के इस किले को चारों तरफ से घेर लिया था, परन्तु पता नहीं किन गुप्त मार्गों से फिर भी राजाराम अपना गुरिल्ला युद्ध लगातार जारी रखे हुए थे. यह सिलसिला लगभग आठ वर्ष तक चला. अंततः औरंगज़ेब का धैर्य जवाब दे गया और उसने जुल्फिकार से कह दिया कि यदि उसने जिंजी के किले पर विजय हासिल नहीं की तो गंभीर परिणाम होंगे. जुल्फिकार ने नई योजना बनाकर किले तक पहुँचने वाले अन्न और पानी को रोक दिया. राजाराम ने जुल्फिकार से एक समझौता किया कि यदि वह उन्हें और उनके परिजनों को सुरक्षित जाने दे तो वे जिंजी का किला समर्पण कर देंगे. ऐसा ही किया गया और राजाराम 1697 में अपने समस्त कुनबे और विश्वस्तों के साथ पुनः महाराष्ट्र पहुँचे और उन्होंने सातारा को अपनी राजधानी बनाया. 



82 वर्ष की आयु तक पहुँच चुका औरंगज़ेब दक्षिण भारत में बुरी तरह उलझ गया था और थक भी गया था. अंततः सन 1700 में उसे यह खबर मिली की किसी बीमारी के कारण राजाराम की मृत्यु हो गई है. अब मराठाओं के पास राज्याभिषेक के नाम पर सिर्फ विधवाएँ और दो छोटे-छोटे बच्चे ही बचे थे. औरंगजेब पुनः प्रसन्न हुआ कि चलो अंततः मराठा साम्राज्य समाप्त होने को है. लेकिन वह फिर से गलत साबित हुआ... क्योंकि 25 वर्षीय रानी ताराबाई ने सत्ता के सारे सूत्र अपने हाथ में ले लिए और अपने अपने चार वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय को राजा घोषित कर दिया. अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए ताराबाई ने मराठा सरदारों को साम-दाम-दण्ड-भेद सभी पद्धतियाँ अपनाते हुए अपनी तरफ मिलाया और राजाराम की दूसरी रानी राजसबाई को जेल में डाल दिया. मुग़ल इतिहासकार खफी खान लिखते हैं – “राजाराम के साथ रहकर ताराबाई भी गुरिल्ला युद्ध और सेना की रणनीतियों से खासी परिचित हो गई थीं और उन्होंने अपनी बहादुरी से कई मराठा सरदारों को प्रभावित भी किया था”.

अगले सात वर्ष में, अर्थात सन 1700 से 1707 तक ताराबाई ने तत्कालीन सबसे शक्तिशाली बादशाह अर्थात औरंगजेब के खिलाफ अपना युद्ध जारी रखा. वह लगातार आक्रमण करतीं, अपनी सेना को उत्साहित करतीं और किले बदलती रहतीं.ताराबाई ने भी औरंगजेब की रिश्वत तकनीक अपना ली और विरोधी सेनाओं के कई गुप्त राज़ मालूम कर लिए. धीरे-धीरे ताराबाई ने अपनी सेना और जनता का विश्वास अर्जित कर लिया. औरंगजेब जो कि थक चुका था, उसके सामने मराठों की शक्ति पुनः दिनोंदिन बढ़ने लगी थी. 

ताराबाई ने औरंगजेब को जिस रणनीति से सबसे अधिक चौंकाया और तकलीफ दी, वह थी गैर-मराठा क्षेत्रों में घुसपैठ. चूँकि औरंगजेब का सारा ध्यान दक्षिण और पश्चिमी घाटों पर लगा था, इसलिए मालवा और गुजरात में उसकी सेनाएँ कमज़ोर हो गई थीं. ताराबाई ने सूरत की तरफ से मुगलों के क्षेत्रों पर आक्रमण करना शुरू किया और धीरे-धीरे (आज के पश्चिमी मप्र) आगे बढ़ते हुए कई स्थानों पर अपनी वसूली चौकियां स्थापित कर लीं. ताराबाई ने इन सभी क्षेत्रों में अपने कमाण्डर स्थापित कर दिए और उन्हें सुभेदार, कमाविजदार, राहदार, चिटणीस जैसे विभिन्न पदानुक्रम में व्यवस्थित भी किया. 

मराठाओं को खत्म नहीं कर पाने की कसक लिए हुए सन 1707 में 89 की आयु में औरंगजेब की मृत्यु हुई. वह बुरी तरह टूट और थक चुका था, अंतिम समय पर उसने औरंगाबाद में अपना ठिकाना बनाने का फैसला किया, जहाँ उसकी मौत भी हुई और आखिर अंत तक वह दिल्ली नहीं लौट सका. औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात मुगलों ने उसके द्वारा अपहृत किये हुए पुत्र शाहू को मुक्त कर दिया, ताकि सत्ता संघर्ष के बहाने मराठों में फूट डाली जा सके. यह पता चलते ही रानी ताराबाई ने शाहू को “गद्दार” घोषित कर दिया. ताराबाई ने विभिन्न स्थानों पर दरबार लगाकर जनता को यह बताया कि इतने वर्ष तक औरंगजेब की कैद में रहने और उसकी पुत्री द्वारा पाले जाने के कारण शाहू अब मुस्लिम बन चुका है, और वह मराठा साम्राज्य का राजा बनने लायक नहीं है. रानी ताराबाई के इस दावे की पुष्टि खुद शाहू ने की, जब वह औरंगजेब को श्रद्धांजलि अर्पित करने नंगे पैरों उसकी कब्र पर गया.ताराबाई के कई प्रयासों के बावजूद शाहू मुग़ल सेनाओं के समर्थन से लगातार जीतता गया और सन 1708 में उसने सातारा पर कब्ज़ा किया, जहाँ उसे राजा घोषित करना पड़ा, क्योंकि उसे मुगलों का भी समर्थन हासिल था. 

ताराबाई हार मानने वालों में से नहीं थीं, उन्होंने अगले कुछ वर्ष के लिए अपने मराठा राज्य की नई राजधानी पन्हाला में स्थानांतरित कर दी. अगले पाँच-छह वर्ष शाहू और ताराबाई के बीच लगातार युद्ध चलते रहे. मजे की बात यह कि इन दोनों ने ही दक्षिण में मुगलों के किलों और उनके राजस्व वसूली को निशाना बनाया और चौथ वसूली की. आखिरकार शाहू भी ताराबाई से लड़ते-लड़ते थक गया और उसने एक अत्यंत वीर योद्धा बालाजी विश्वनाथ को अपना “पेशवा” (प्रधानमंत्री) नियुक्त किया. बाजीराव पेशवा के नाम से मशहूर यह योद्धा युद्ध तकनीक और रणनीतियों का जबरदस्त ज्ञाता था.बाजीराव पेशवा ने कान्होजी आंग्रे के साथ मिलकर 1714 में ताराबाई को पराजित किया तथा उसे उसके पुत्र सहित पन्हाला किले में ही नजरबन्द कर दिया, जहाँ ताराबाई और अगले 16 वर्ष कैद रही. 


1730 तक ताराबाई पन्हाला में कैद रही, लेकिन इतने वर्षों के पश्चात शाहू जो कि अब छत्रपति शाहूजी महाराज कहलाते थे उन्होंने विवादों को खत्म करते हुए सभी को क्षमादान करने का निर्णय लिया ताकि परिवार को एकत्रित रखा जा सके. हालाँकि उन्होंने ताराबाई के इतिहास को देखते हुए उन्हें सातारा में नजरबन्द रखा, लेकिन संभाजी द्वितीय को कोल्हापुर में छोटी सी रियासत देकर उन्हें वहाँ शान्ति से रहने के लिए भेज दिया. बालाजी विश्वनाथ उर्फ बाजीराव पेशवा प्रथम और द्वितीय की मदद से शाहूजी महाराज ने मराठा साम्राज्य को समूचे उत्तर भारत तक फैलाया. 1748 में शाहूजी अत्यधिक बीमार पड़े और लगभग मृत्यु शैया पर ही थे, उस समय ताराबाई 73 वर्ष की हो चुकी थीं लेकिन उनके दिमाग में मराठा साम्राज्य की रक्षा और सत्ता समीकरण घूम रहे थे. शाहूजी महाराज के बाद कौन?? यह सवाल ताराबाई के दिमाग में घूम रहा था. वह पेशवाओं को अपना साम्राज्य इतनी आसानी से देना नहीं चाहती थीं. तब ताराबाई ने एक फर्जी कहानी गढी और लोगों से बताया कि उसका एक पोता भी है, जिसे शाहूजी महाराज के डर से उसके बेटे ने एक गरीब ब्राह्मण परिवार में गोद दे दिया था, उसका नाम रामराजा है और अब वह 22 साल का हो चुका है, उसका राज्याभिषेक होना चाहिए. ताराबाई मजबूती से अपनी यह बात शाहूजी को मनवाने में सफल हो गईं और इस तरह 1750 में उस नकली राजकुमार रामराजा के बहाने ताराबाई पुनः मराठा साम्राज्य की सत्ता पर काबिज हो गई. रामाराजा को उसने कभी भी स्वतन्त्र रूप से काम नहीं करने दिया और सदैव परदे के पीछे से सत्ता के सूत्र अपने हाथ में रखे. 

इस बीच मराठों का राज्य पंजाब की सीमा तक पहुँच चुका था. इतना बड़ा साम्राज्य संभालना ताराबाई और रामराजा के बस की बात नहीं थी, हालाँकि गायकवाड़, भोसले, शिंदे, होलकर जैसे कई सेनापति इसे संभालते थे, परन्तु इन सभी की वफादारी पेशवाओं के प्रति अधिक थी. अंततः ताराबाई को पेशवाओं से समझौता करना पड़ा. मराठा सेनापति, सूबेदार, और सैनिक सभी पेशवाओं के प्रति समर्पित थे अतः ताराबाई को सातारा पर ही संतुष्ट होना पड़ा और मराठाओं की वास्तविक शक्ति पूना में पेशवाओं के पास केंद्रित हो गई. ताराबाई 1761 तक जीवित रही. जब उन्होंने अब्दाली के हाथों पानीपत के युद्ध में लगभग दो लाख मराठों को मरते देखा तब उस धक्के को वह बर्दाश्त नहीं कर पाई और अंततः 86 की आयु में ताराबाई का निधन हुआ. परन्तु इतिहास गवाह है कि यदि 1701 में ताराबाई ने सत्ता और मराठा योद्धाओं के सूत्र अपने हाथ में नहीं लिए होते, औरंगज़ेब को स्थान-स्थान पर रणनीतिक मात नहीं दी होती और मालवा-गुजरात तक अपना युद्धक्षेत्र नहीं फैलाया होता तो निश्चित ही औरंगज़ेब समूचे पश्चिमी घाट पर कब्ज़ा कर लेता. मराठों का कोई नामलेवा नहीं बचता और आज की तारीख में इस देश का इतिहास कुछ और ही होता.समूचे भारत पर मुग़ल सल्तनत बनाने का औरंगज़ेब का सपना, सपना ही रह गया. इस वीर मराठा स्त्री ने औरंगज़ेब को वहीं युद्ध में उलझाए रखा, दिल्ली तक लौटने नहीं दिया. औरंगज़ेब के बाद मुग़ल सल्तनत वैसे ही कमज़ोर पड़ गई थी. इस वीरांगना ने अकेले दम पर जहाँ एक तरफ औरंगज़ेब जैसे शक्तिशाली मुगल बादशाह को बुरी तरह थकाया, हराया और परेशान किया, वहीं दूसरी तरफ धीरे-धीरे मराठा साम्राज्य को भी आगे बढाती रहीं... 

एक समय पर मराठों का साम्राज्य दक्षिण में तंजावूर से लेकर अटक (आज का अफगानिस्तान) तक था, लेकिन आपको अक्सर इस इतिहास से वंचित रखा जाता है और विदेशी हमलावरों तथा लुटेरों को विजेता, दयालु और महान बताया जाता है, सोचिए कि ऐसा क्यों है??

Congress Internal Politics and Rahul Gandhi

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काँग्रेस : थोथा चना, बाजे घना 

सामान्यतः किसी राज्य के नगर निगम चुनावों पर देश में किसी का ध्यान नहीं जाता. आए दिन कई राज्यों में इस प्रकार के नगरीय निकाय चुनाव आते-जाते रहते हैं. लेकिन हाल ही में मध्यप्रदेश में सम्पन्न हुए नगरीय निकाय चुनावों (MP Nigam Elections) को सभी प्रमुख राजनैतिक विश्लेषकों एवं राजनैतिक पार्टियों ने बड़े ध्यान से देखा, यहाँ तक कि भाजपा ने भी. इन मामूली निकाय चुनाव परिणामों को ध्यान से देखने की वजह थी, “व्यापमं” (Vyapam) नामक भर्ती घोटाला. चूँकि संसद के मानसून सत्र में काँग्रेस ने जिन दो प्रमुख मुद्दों पर संसद को ठप करके रखा, कोई काम नहीं होने दिया, उसमें से व्यापमं घोटाला भी एक था. व्यापमं घोटाले और ललित मोदी मामले को लेकर काँग्रेस ने संसद के मानसून सत्र में जमकर हंगामा किया. देश के राजनैतिक विश्लेषक यह समझने को उत्सुक थे कि क्या व्यापमं घोटाले का जैसा भयावह स्वरूप पेश किया जा रहा था, उससे मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह की राजनैतिक पकड़ ढीली होती है या नहीं?जिस घोटाले को लेकर देश भर में जबरदस्त नकारात्मक प्रचार चला, उस घोटाले से सर्वाधिक प्रभावित उसके गृहप्रदेश में भाजपा की क्या स्थिति है, यह समझने के लिए कई लोग बेचैन थे. मध्यप्रदेश के इन नगरीय निकाय चुनावों ने कई विश्लेषकों को हैरान कर दिया, चंद राजनैतिक पार्टियों के सारे अनुमान गड़बड़ा दिए. हालिया जीत के बाद मध्यप्रदेश के सभी 16 नगर निगमों एवं अधिकाँश नगरपालिकाओं सहित जनपद एवं जिला पंचायतों पर भी भाजपा निर्णायक रूप से काबिज हो चुकी है. मप्र काँग्रेस में आपसी गुटबाजी और सिर-फुटव्वल इतनी ज्यादा है कि मप्र अब काँग्रेस मुक्त होने की कगार पर आ चुका है. 


यहाँ मध्यप्रदेश में यह हुआ, और उधर संसद में सत्र समापन से दो दिन पहले चहुँओर आलोचना से घिरी काँग्रेस ने उसकी “रणनीति” (जिस पर प्रश्नचिन्ह है) के तहत संसद में निलंबन के बाद वापस लौटने के बावजूद 25 सांसदों के शोरशराबे के बीचविदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने जिस जोश एवं तथ्यों के साथ ललित मोदी काण्ड पर अपना पक्ष रखा, उससे सोनिया गाँधी हक्की-बक्की रह गईं. सुषमा स्वराज ने जिस हमलावर अंदाज़ में राहुल गाँधी एवं काँग्रेस सहित समूचे गाँधी परिवार के इतिहास की बखिया उधेड़ी, वह न सिर्फ लाजवाब था, बल्कि सुषमा स्वराज के स्वभाव को देखते हुए राजनैतिक विश्लेषकों के लिए हैरानी भरा भी था.वास्तव में सुषमा स्वराज (Sushma Swaraj)  राहुल गाँधी द्वारा संसद के बाहर दिए गए उस बयान से बुरी तरह आहत थीं, जिसमें राहुल ने कहा था कि “ललित मोदी (Lalit Modi) को मदद करने के लिए सुषमा के खाते में कितना पैसा मिला?”. देश की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी पार्टी के उपाध्यक्ष द्वारा इस प्रकार के राजनैतिक अपरिपक्व और बचकाने बयान के बाद तो सुषमा स्वराज का भड़कना स्वाभाविक ही था. “Attack is the best Defence” सिद्धांत के तहत संसद में जिस प्रकार आदिल शहरयार से लेकर वॉरेन एण्डरसन तथा क्वात्रोच्ची के भारत से निकलने, उन्हें सुरक्षित भागने और भारत सहित विदेशों में उनकी कानूनी मदद करने के जो तथ्यात्मक इल्ज़ाम सुषमा स्वराज ने लगाए, उसका कोई जवाब सोनिया-राहुल अथवा काँग्रेस पार्टी के प्रवक्ताओं के पास नहीं था. संसद और संसद के बाहर तमाम काँग्रेसी बगलें झाँकते नज़र आए...


ऐसे में यह सवाल उठना लाज़मी है कि आखिर काँग्रेस पार्टी को क्या हो गया है?ऐसी “आत्मघाती गोल” टाईप की राजनीति वह क्यों कर रही है? क्या काँग्रेस में अच्छे वक्ताओं की कमी हो गई है, या रणनीतिक चतुराई और संसदीय मर्यादाओं में कमी आ गई है? विश्लेषक सोचने पर मजबूर हो गए हैं कि आखिर काँग्रेस इस प्रकार की नकारात्मक राजनीति पर क्यों उतर आई है? क्या वह पिछले एक-सवा वर्ष में भी अपनी ऐतिहासिक हार को पचा नहीं पा रही या काँग्रेस में कोई ऐसा गुट है जो चाहता हो कि सोनिया गाँधी की अस्वस्थता को देखते हुए, अभी से राह में काँटे बिछाते हुए भविष्य में राहुल गाँधी को किनारे कर दिया जाए?क्या काँग्रेस में राजनैतिक सलाहकारों का स्थान पूर्ण रूप से चाटुकारों ने ले लिया है? 

पिछले एक वर्ष से लगातार काँग्रेस इस बात की कोशिश कर रही है कि किसी भी तरह मोदी सरकार को घेरा जाए, उसे फँसाया जाए अथवा कम से कम एक-दो मंत्रियों अथवा मुख्यमंत्रियों के इस्तीफे तो ले ही लिए जाएँ, ताकि नरेंद्र मोदी की साफ़ छवि में एक-दो दाग लगाए जा सकें. काँग्रेस की रणनीति यह भी है कि इस सरकार को काम ही न करने दिया जाए. राज्यसभा में बहुमत के कारण काँग्रेस और विपक्ष इस स्थिति में हैं कि वे जब चाहें किसी भी महत्त्वपूर्ण बिल को पास होने से रोक सकते हैं. संसद में यही किया जा रहा है, ताकि सरकार के कामकाज की गति बाधित हो, विदेशी निवेश थमे और आवश्यक प्रोजेक्ट्स में देरी के कारण जनता के बीच मोदी सरकार की अकर्मण्यता को लेकर भ्रम पैदा किया जा सके. परन्तु सवाल यह है कि क्या ऐसी राजनीति करके काँग्रेस खुद अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मार रही? जनता के मन में यह सन्देश जा रहा है कि जो क़ानून खुद काँग्रेस लेकर आई थी, जिन कानूनों को पास करवाने के लिए काँग्रेस ने लगभग सभी तैयारियाँ कर ली थीं अचानक उन कानूनों पर काँग्रेस ने “यू-टर्न” क्यों मार दिया? भाजपा ने भी ऐसा किया था, इसलिए हम भी करेंगे... भाजपा ने भी संसद बाधित की थी, इसलिए हम भी करेंगे... इस प्रकार की “बदले की राजनीति” काँग्रेस का स्वभाव नहीं है, ना ही होना चाहिए.जनता इतनी समझदार तो है कि वह समझ सकती है कि भाजपा ने जब संसद को ठप्प किया तब कॉमनवेल्थ, 2G, कोयला जैसे महाघोटाले हुए थे, उसके मुकाबले अब तक नरेंद्र मोदी की सरकार काफी साफसुथरा काम कर रही है. व्यापमं घोटाला एक राज्य विशेष तक सीमित है, जिसकी चर्चा मप्र विधानसभा में होना चाहिए. पहले भी मप्र हाईकोर्ट की निगरानी में विशेष जाँच दल (STF) अपनी जाँच कर रहा था... हालाँकि फिर भी लगातार होती जा रही मौतों के कारण CBI की जाँच मंजूर हो गई है और अब मामला उच्चतम न्यायालय की निगरानी में है. व्यापमं घोटाले की परतें जैसे-जैसे खुलेंगी वैसे-वैसे जनता समझती जाएगी कि यह मामला सिर्फ शिवराज सरकार तक सीमित नहीं है, 1993 से अर्जुन सिंह के जमाने से इस प्रकार की फर्जी नियुक्तियाँ होती आई हैं. सूत्र बताते हैं कि दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में भी राघौगढ-अशोकनगर-गुना से आने वाले व्यक्ति की नियुक्ति सिर्फ सिगरेट की डिब्बियों पर हाथ से लिखकर रातोंरात हो जाती थीं.शिवराज सिंह सरकार ने इस तमाम फर्जीवाड़े को बन्द किया, व्यापमं जैसा बोर्ड गठित किया और पिछले बारह वर्ष में हुईं लाखों नियुक्तियों और परीक्षाओं के मुकाबले सिर्फ 1500-2000 मामले ऐसे हैं जिन्हें संदिग्ध माना जा सकता है, ज़ाहिर है कि यह बहुत छोटा सा प्रतिशत है. सबसे बड़ी बात यह है कि यदि शिवराज सिंह इस घोटाले में शामिल होते, तो वे जाँच शुरू ही क्यों करते? न्यायालय का सहयोग ही क्यों करते? ऐसे घोटाले प्रत्येक राज्य में आज भी जारी हैं, परन्तु हंगामा सिर्फ मप्र के व्यापमं पर ही अधिक हुआ, क्योंकि इसमें मौतें हुईं और “काँग्रेस पोषित मीडिया” ने इसे जमकर हवा भी दी. चूँकि मप्र में काँग्रेस लगभग मरणासन्न अवस्था में है, इसलिए राज्य के इस मामले को लेकर काँग्रेस केन्द्र की राजनीति में अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहे तो यह उसकी नासमझी ही कही जाएगी. इसीलिए “व्यापमं” की तथाकथित व्यापकता के बावजूद जब मप्र की जनता ने नगरीय निकायों में शिवराज पर अपना भरोसा जता दिया तो उधर दिल्ली में मानो एक “राजनैतिक सन्नाटा” छा गया. प्रतिदिन टीवी पर दिखाई देने वाले दिग्गी राजा अचानक अज्ञातवास में चले गए और सीबीआई की जाँच आरंभ होते ही, व्यापमं मामले में होने वाली मौतों का सिलसिला भी रहस्यमयी तरीके से थम गया. अर्थात कांग्रेस पार्टी का उद्देश्य किसी भी तरह बदनाम करके शिवराज का इस्तीफा हासिल करने का था, जिसमें वह विफल रही क्योंकि भाजपा ने “रुको और देखो” की रणनीति अपनाई. 


आज की दिनाँक में गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, गोवा, महाराष्ट्र और पंजाब जैसे राज्यों में काँग्रेस को भाजपा ने लगभग धूल चटा रखी है. इसी प्रकार क्षेत्रीय दलों ने तमिलनाडु, आंधप्रदेश, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों में तथा आम आदमी पार्टी ने पंजाब और दिल्ली में काँग्रेस को लगभग अप्रासंगिक बना रखा है. इस स्थिति में सोनिया-राहुल को विपक्ष में बैठने का जो पाँच वर्ष का समय मिला है, उसका सदुपयोग पार्टी के ढाँचे में सुधार और संगठनात्मक मजबूती की तरफ नहीं देना चाहिए? विश्लेषक चाहे जो कहें, वे भी मानते हैं कि नरेंद्र मोदी का जादू अभी खत्म नहीं हुआ है. जनता में अभी यह विश्वास बना हुआ है कि पिछले साठ वर्ष की नाकामी और अव्यवस्थाओं को रातोंरात ठीक नहीं किया जा सकता.काँग्रेस और वामपंथी दलों से जो “प्रशासनिक और मानसिक विरासत” भारत को मिली है, उसे बदलने में काफी समय लगने वाला है. ऐसे में भूमि अधिग्रहण बिल अथवा GST बिल पर काँग्रेस की नकारात्मक राजनीति का और भी गलत सन्देश जा रहा है. 44 सीटों पर सिमटने के बावजूद ऐसा लगने लगा है कि काँग्रेस जल्दबाजी में है, जबकि अगले चार वर्ष तो मोदी सरकार रहेगी ही. 

एक कहावत है कि सच्चा और घाघ काँग्रेसी सत्ता की भनक सबसे पहले पा जाता है. जो व्यक्ति, जो मुद्दा उसे सत्ता दिलाए वह बेहिचक सभी गुण-दोषों के साथ उसे स्वीकार कर लेता है. विभिन्न राज्यों में निराशाजनक प्रदर्शन और संसद में 44 सीटों पर सिमट जाने के बाद ऐसा माना जाता है कि काँग्रेस शासित राज्यों में राहुल गाँधी के नेतृत्त्व के विरोध में फुसफुसाहट शुरू हुई. हालाँकि अभी एक सामान्य काँग्रेसी गाँधी परिवार की आभा से मुक्त होने के बारे में सोच भी नहीं सकता, परन्तु जो पुराने और चतुर नेता हैं अथवा राजनीति में अपना करियर चमकाने को आतुर युवा नेता हैं उन्होंने राहुल गाँधी की अत्यधिक सीमित क्षमता को पहचान लिया है. इस आंतरिक खदबदाहट को सोनिया गाँधी के वफादारों ने उन तक पहुँचाया और राहुल गाँधी की जो तथाकथित आक्रामकता हम आज देख रहे हैं, यह उसी घबराहट का नतीजा है. यानीजो पार्टी अपनी विश्वसनीयता इतनी खो चुकी हो, उस पार्टी को तो गहराई से आत्ममंथन करना चाहिए, लेकिन वह नकली आक्रामकता दिखा रही है. संसद में बिल पास नहीं करने दे रही और अपनी छवि और गिराती जा रही है. निश्चित ही या तो यह एक बड़ी रणनीतिक चूक है या फिर चिदंबरम, एंटोनी, दिग्विजयसिंह जैसे कुछ और नेताओं द्वारा काँग्रेस में आंतरिक षड्यंत्र के तहत ऐसा हो रहा है. 


इसी आत्म-घातक तथाकथित रणनीति के तहत काँग्रेस ने मानसून सत्र में GST बिल को पास नहीं होने दिया, ताकि यह मामला लगभग एक वर्ष और पीछे चला जाए. लेकिन काँग्रेस द्वारा ऐसा करने से उद्योग जगत जो इतने वर्षों से लगातार काँग्रेस का प्यारा रहा है, वह भी नाराज हो गया. खास बात यह है कि GST बिल को काँग्रेस ही लाई थी, उसमें सारे संशोधन पूरे हो चुके थे. सभी दलों की आपत्तियाँ और राज्यों के दावे-प्रतिदावों की संतुष्टिपूर्ण सुनवाई हो चुकी थी, संसद की स्थायी समिति ने इसे हरी झंडी दे दी थी. लेकिन फिर भी काँग्रेस ने इसे जानबूझकर अटकाया ताकि मोदी सरकार कहीं इसका श्रेय ना ले ले. राहुल गाँधी के साथ असली समस्या यह है कि उन्हें अपनी पार्टी का इतिहास पता ही नहीं है. राजनैतिक चातुर्य तो राहुल में कभी था ही नहीं, लेकिन संसद में प्रधानमंत्री पर शाब्दिक हमला करते समय जिस बचकाने तरीके से वे भाषण दे रहे थे उसने पार्टी की भद और भी पिटवाई. गाँधी जी के तीन बंदरों की कहावत भारत में तीसरी कक्षा का कोई भी बच्चा बड़े आराम से सुना देगा, लेकिन इतनी मामूली सी कहावत के लिए भी राहुल गाँधी को तीन बार कागज़ देखना पड़ा. रही-सही कसर एक पत्रकार द्वारा उनके हाथ में रखे पर्चे की तस्वीर ने पूरी कर दी, जो सोशल मीडिया और बाद में अखबारों में जमकर प्रसारित हुआ. उस कागज़ के पुर्जे के चित्र ने साफ़ कर दिया कि राहुल गाँधी मुद्दों से बिलकुल अनजान रहते हैं, और सामान्य भाषण से लेकर कहावतों और उक्तियों का उल्लेख करने में भी बुरी तरह से अपने सलाहकारों पर निर्भर रहते हैं.भला ऐसा में पता नहीं उनके किस सलाहकार ने उन्हें “केजरीवाल छाप” आरोपों की राजनीति करने की सलाह दी और उन्होंने सुषमा स्वराज पर संसद के बाहर खड़े होकर आरोप जड़ दिया, जो बाद में उन्हीं की पार्टी के गले पड़ा. 

राहुल गाँधी के इन्हीं “अतिरिक्त-समझदार” सलाहकारों ने उन्हें “वन रैंक वन पेंशन” मुद्दे को लेकर जंतर-मंतर पर प्रदर्शन और धरना दे रहे पूर्व सैनिकों के बीच जाने को उकसाया, ताकि सैनिकों के बीच भाजपा की छवि को खराब करके कुछ राजनैतिक बढ़त हासिल की जा सके. लेकिन इसका उल्टा नतीजा यह हुआ कि वहाँ “राहुल गाँधी वापस जाओ” के नारे लगे, पूर्व सैनिकों ने काँग्रेस के खिलाफ जमकर नारेबाजी की. गडबड़ी यह हुई कि राहुल गाँधी को इतिहास की जानकारी ही नहीं थी,उन्हें यह पता ही नहीं था कि इंदिरा गाँधी ने ही 1973 में सेना हेतु “वन रैंक वन पेंशन” को खत्म कर दिया था. उसके बाद सैनिकों की यह माँग चालीस वर्ष तक काँग्रेस ने ही लटकाए रखी और अब मोदी सरकार के पन्द्रह माह में ही अचानक काँग्रेस को पूर्व सैनिकों की याद आ गई. जंतर-मंतर पर जाने की बजाय राहुल गाँधी चुप भी बैठ सकते थे, अथवा पूर्व सैनिक रहे किसी काँग्रेसी को ही अपना प्रतिनिधि बनाकर वहाँ भेज सकते थे, परन्तु अपरिपक्वता के कारण ऐसा नहीं किया गया और अंततः काँग्रेस को इस “स्टंट” का नुक्सान ही उठाना पड़ा. 

ललित मोदी और सुषमा स्वराज के मामले में भी काँग्रेस द्वारा ऐसी ही अज्ञानता का प्रदर्शन हुआ था. सभी जानते हैं कि ललित मोदी एक व्यवसायी है, उसके जितने मधुर सम्बन्ध वसुंधरा राजे सिंधिया के साथ है, उससे कहीं अधिक मधुर सम्बन्ध क्रिकेट से जुड़े प्रत्येक खास व्यक्ति से हैं, फिर चाहे वे राजीव शुक्ला हों, शरद पवार हों, जगमोहन डालमिया हों, अनुराग ठाकुर हों, जीजाश्री उर्फ वाड्रा हों. IPL के प्रणेता ललित मोदी थे और इस “बिजनेस” में सभी साझीदार रहे हैं. ज़ाहिर है कि सुषमा स्वराज द्वारा ललित मोदी की पत्नी के लिए ब्रिटिश सरकार से यह कहना कि “ब्रिटिश कानूनों के अंतर्गत ललित मोदी की कैंसरग्रस्त पत्नी को जो भी राहत दी जा सकती हो, दे दी जाए” कहीं से भी कदाचार का मामला नहीं बनता. परन्तु जल्दबाजी और सरकार को घेरने के मुद्दों का अभाव इतना ज्यादा था कि राहुल-सोनिया ने मूलभूत बातों को भी ध्यान में रखना उचित नहीं समझा. जिस व्यक्ति को राजनीति की ABCD भी नहीं आती, वह भी सवाल कर रहा है कि ललित मोदी जब भारत से भागा, तब काँग्रेस की सरकार थी. 2011 से 2015 तक ललित मोदी को किसी भी न्यायालय ने “भगोड़ा” घोषित नहीं किया, फिर इस बीच तीन वर्ष तक काँग्रेस की UPA सरकार ने मोदी को वापस लाने के लिए कौन से प्रयास किए?लेकिन पार्टी में विद्रोह के स्वर दबाने और राहुल गाँधी को “असली नेता” साबित करने के चक्कर में सारे तथ्यों को भुला दिया गया, नतीजा यह हुआ कि संसदीय भाषण कैसे किया जाता है, सुषमा स्वराज के हाथों इसका सबक राहुल बाबा को प्राप्त हुआ. 


वस्तुतः काँग्रेस इस समय लगभग उसी दौर से गुज़र रही है, जो दौर इंदिरा गाँधी को “गूँगी गुड़िया” कहने का दौर था. उस समय भी काँग्रेस के दिग्गज नेताओं ने मजबूरी में इंदिरा गाँधी को अपनी नेता स्वीकार किया था, लेकिन भीतर ही भीतर घाट-प्रतिघात का दौर शुरू था, और किसी भी तरह इंदिरा गाँधी को राजनैतिक रूप से काबू करके पार्टी और सरकार में अपनी मनमानी थोपने का इरादा था. उस वक्त इंदिरा गाँधी ने मजबूत राजनैतिक परिपक्वता का परिचय दिया था और अपनी चालों से बड़े-बड़े नेताओं को धूल चटाते हुए राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पकड़ मजबूत बनाई थी. उस समय और उसके बाद आने वाले कई वर्षों तक इंदिरा गाँधी ने काँग्रेस में किसी भी क्षेत्रीय क्षत्रप को पनपने का मौका ही नहीं दिया. जो भी काँग्रेसी इंदिरा के मुकाबले में अथवा राजनैतिक रूप से सशक्त होता दिखाई देता था, इंदिरा गाँधी बड़ी सफाई से उसका राजनैतिक तबादला या वध कर दिया करती थीं. आज राहुल गाँधी की स्थिति भी कुछ-कुछ ऐसी ही है. खुले तौर पर इक्का-दुक्का काँग्रेसी ही कह रहे हैं, लेकिन दबे-छिपे स्वर में काँग्रेस के घुटे हुए नेता यह मानने लगे हैं कि सत्ता दिलाने के लिए जो “स्पार्क” अथवा “करिश्मा” एक नेता में होना चाहिए, वह राहुल गाँधी में नदारद है. यही बात सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी के आसपास जमा चौकड़ी को खाए जा रही है.इससे निपटने के लिए सोनिया गाँधी ने दोहरी रणनीति अपनाई. अपने “पालतू मीडिया” के जरिये क्षेत्रीय क्षत्रपों के पर कतरने शुरू किए. ख़बरों को कैसे “प्लांट” और “लीक” किया जाता है इसमें तो काँग्रेस की वैसे भी मास्टरी है. अतः वीरभद्र सिंह के सेब की खेती वाले पुराने मामले उखाड़े जाने लगे तो वे छिप गए, उधर हरीश रावत का स्टिंग ऑपरेशन सामने आया और वह गायब हो गए. व्यापमं मामले में CBI की जाँच शुरू होने से पहले ही दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में हुई नियुक्तियों का मामला सामने आ गया... दूसरी रणनीति के तहत राहुल गाँधी को दो माह के अज्ञातवास पर भेजकर पहले पार्टी की थाह ली गई और फिर अज्ञातवास से लौटकर उन्होंने अचानक “एंग्री यंगमैन” की भूमिका निभानी शुरू कर दी. राहुल ने केजरीवाल की तरह छापामार युद्ध अर्थात “आरोप लगाओ, और भाग खड़े हो, जब तक उस पर विपक्ष की कोई सफाई आए, तब तक फिर एक नया आरोप मढ़ दो और आगे बढ़ जाओ..” की शैली अपना ली, ताकि उनके नेतृत्त्व को कहीं से भी चुनौती ना मिल सके. ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट और मिलिंद देवड़ा जैसे प्रतिभाशाली और साफ़-सुथरी छवि वाले युवा नेताओं को अपना राजनैतिक करियर बड़ा ही धुँधला सा लगने लगा है, काँग्रेसी परंपरा के अनुसार राहुल गाँधी के सामने इनका आभामण्डल गर्त में चला गया है. इसी प्रकार वीरभद्र सिंह, चिदंबरम, एके एंटोनी जैसे अनुभवी लोग जब राहुल गाँधी जैसे नौसिखिए के सामने कोर्निश बजाते हैं तब निश्चित ही उनकी आत्मा कलपती होगी. परन्तु सोनिया गाँधी को इसकी कतई चिंता नहीं है, राहुल गाँधी के सामने उठ सकने वाले किसी भी नेतृत्त्व के कद की छँटाई करना उनका पहला कर्त्तव्य लगता है. हालाँकि काँग्रेस में जो खेमा अप्रत्यक्ष रूप से पार्टी में महत्त्वपूर्ण स्थान हासिल करना चाहता है वह भी अपनी गोटियाँ बड़ी सफाई से चल रहा है और फूँक-फूँक कर कदम रखते हुए अपनी राजनीति कर रहा है. क्योंकि उन्हें भी पता है कि ना तो काँग्रेस से बाहर निकाले जाने के बाद उनका कोई भविष्य है और ना ही गाँधी परिवार का खुल्लमखुल्ला विरोध करके. इसीलिए इस खेमे ने सबसे पहले राहुल गाँधी के विकल्प के रूप में उभर सकने वाली सबसे तगड़ी शख्सियत अर्थात प्रियंका गाँधी को किनारे किया. रॉबर्ट वाड्रा के भ्रष्टाचार और जमीन सौदों को लेकर उनकी इतनी बदनामी हो चुकी है कि अब प्रियंका गाँधी यदि राजनीति में आने का फैसला भी करें तो DLF का भूत राजनीति में सदैव उनका पीछा करता रहेगा. यानी राहुल विरोधी खेमे ने वाड्रा संबंधी विभिन्न दस्तावेज लीक करके “सेकण्ड लाईन ऑफ डिफेन्स” सबसे पहले गिरा दी. राहुल गाँधी ने अब तक जितनी और जैसी राजनैतिक समझदारी दिखाई है, उसे देखते हुए यह लगने लगा है कि घाघ और शातिर किस्म के राजनैतिक काँग्रेसी जानबूझकर राहुल गाँधी को धीरे-धीरे एक गहरे गढ्ढे की तरफ ले जा रहे हैं, उनसे गलतियाँ करवाई जा रही हैं, ऊटपटांग बयान दिलवाए जा रहे हैं, उन्हें संगठनात्मक कार्यों को मजबूती देने, विभिन्न राज्यों में राजनैतिक रूप की जमीनी लड़ाई में झोंकने की बजाय मनमानी छुट्टियाँ बिताने के लिए भेजा जा रहा है. पिछले दो-तीन वर्ष में जनता ने देखा है कि देश के सामने जब भी कोई महत्त्वपूर्ण मुद्दा होता है तब-तब राहुल गाँधी परिदृश्य से गायब रहते हैं. ऐसी “पार्ट-टाईम” राजनीति काँग्रेस जैसी पार्टी के उपाध्यक्ष के लिए सही नहीं है.भूमि अधिग्रहण बिल पर काँग्रेस ने जैसी तर्कपूर्ण बढ़त हासिल की थी और समूचे विपक्ष के साथ मिलकर सरकार को बैकफ़ुट पर धकेल दिया था, वैसा ललित मोदी, व्यापमं पर वह नहीं कर पाई. क्योंकि मुद्दों में दम नहीं था और संसद को बाधित करने जैसे आत्मघाती खेल में पूरे विपक्ष ने बेमन से उसका साथ दिया था. बल्कि अंतिम दिन आते-आते तो मुलायम सिंह ने तो काँग्रेस को चेतावनी भी दे दी थी. भूमि अधिग्रहण बिल पर जो बढ़त हासिल की गई थी, वह GST को खामख्वाह रोके जाने तथा सुषमा स्वराज पर बेतुके आरोप लगाने से जाती रही और विश्वसनीयता गँवाकर आज काँग्रेस पुनः वहीं आन खड़ी हुई है, जहाँ वह मई 2014 में थी. 

यह लेख लिखे जाने तक राजस्थान के नगरीय निकाय चुनाव भी सम्पन्न हो चुके हैं और वहाँ भी जनता ने काँग्रेस को नकार दिया है. ललित मोदी मामले में काँग्रेस बारम्बार जिस वसुंधरा राजे के इस्तीफे की माँग पर अड़ी हुई थी, फिलहाल जनता ने उस पर विश्वास जता दिया है. लेकिन राजस्थान और मप्र के नगरीय निकायों के परिणामों की तुलना करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि राजस्थान में काँग्रेस ने सिर्फ दो साल में अच्छी खासी मजबूती हासिल कर ली है. इसका कारण है सचिन पायलट की जमीनी मेहनत और पार्टी द्वारा खराब छवि वाले अशोक गहलोत को पीछे करना. इसीलिए जहाँ लोकसभा चुनावों में भाजपा-काँग्रेस के बीच मतों का अंतर बीस प्रतिशत से अधिक था, वहीं सिर्फ डेढ़ साल में यह अंतर घटकर सिर्फ दो प्रतिशत रह गया है. वहीं दूसरी ओर मप्र में काँग्रेस के पास कोई प्रभावशाली नेतृत्त्व ही नहीं है, और ऊपर से व्यापमं की चीख-पुकार के बावजूद शिवराज चौहान की छवि जनता में आज भी अच्छी बनी हुई है. उधर बंगलौर जैसे सुपर-रिच महानगर के नगरीय निकायों में भी मुख्यमंत्री और सत्ता होने के बावजूद काँग्रेस बुरी तरह हार गई.

सत्ता की भनक सूँघने में कांग्रेसियों से ज्यादा माहिर कोई नहीं होता, इसलिए आज यदि कई कांग्रेसियों को लग रहा है कि राहुल गाँधी उन्हें सत्ता दिलवाने में नाकाम हो रहे हैं तो षड्यंत्र और गहराएँगे. इसलिए अंत में, कहने का तात्पर्य यह है कि काँग्रेस पार्टी और खासकर राहुल गाँधी को सबसे पहले “अपने घर” पर ध्यान देना चाहिए. एकाध बार तो ठीक है, परन्तु हमेशा खामख्वाह दाढ़ी बढ़ाकर प्रेस कांफ्रेंस में एंग्री यंगमैन की भूमिका उनके लिए घातक सिद्ध हो रही है.काँग्रेस के सलाहकार और योजनाकार इस बात पर मंथन करें कि राहुल गाँधी के खिलाफ जो अंदरूनी खामोश उठापटक जारी है, उस पर काबू कैसे पाया जाए... जिन राज्यों में काँग्रेस लगभग मरणासन्न अवस्था में पहुँच गई है, वहाँ उसे शक्तिशाली कैसे बनाया जाए... भाषणों में पैनापन कैसे लाया जाए... पिछली UPA सरकार की गलतियों को खुलेआम स्वीकार कैसे किया जाए... भ्रष्ट और दागदार छवि वाले नेताओं को दरकिनार करके सचिन पायलट, सिंधिया, मिलिंद देवड़ा जैसे “यंगिस्तान” को प्रभावी भूमिका कैसे दी जाए...| अभी कम से कम चार वर्ष तो लोकसभा चुनाव होने वाले नहीं हैं, इसलिए काँग्रेस जो इस समय “जल्दबाजी” दिखा रही है, उसे थोड़ा शान्ति रखना चाहिए. यदि राज्यों में काँग्रेस मजबूत होती है, तो मोदी सरकार को घेरने के और भी कई मौके उसे मिलेंगे, अन्यथा वह जनता की निगाह में इसी तरह “थोथा चना, बाजे घना” की हास्यास्पद स्थिति में पड़ी रहेगी.हो सकता है कि इससे राहुल गाँधी का पार्टी पर शिकंजा मजबूत हो जाए, परन्तु यह उनकी पार्टी और देश के लिए अच्छी बात नहीं है. 

FTII Pune Communist White Paper

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FTII के “लाल” कारनामों का श्वेत-पत्र 


जब से मोदी सरकार ने केन्द्र में सत्ता संभाली है, अक्सर हमें विभिन्न चैनलों और अखबारों में कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी “भगवाकरण हो रहा है” जैसा कुछ बडबडाते हुए मिल ही जाते हैं. “संस्थाओं का, शिक्षा का भगवाकरण हो रहा है” यह कथित आरोप कोई नई बात नहीं है, जब वाजपेयी सरकार में मुरलीमनोहर जोशी मानव संसाधन मंत्री थे, तब भी ऐसे कथित बुद्धिजीवी यही बात लगातार दोहराते थे. चूँकि मोदी सरकार इस बार पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई है, इसलिए वामपंथ नियंत्रित और विदेशों की नाजायज़ स्कॉलरशिप से “पोषित” बुद्धिजीवियों के गिरोह का स्वर इस बार और भी तीखे हैं.पिछले दो-तीन माह से पुणे स्थित फिल्म एंड टीवी इंस्टीट्यूट (FTII) में गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति को लेकर जो बवाल काटा जा रहा है, वह इसी गिरोह की कारस्तानी है. FTII में छात्रों के कंधे पर रखकर जो वामपंथी बन्दूक चल रही है, उसकी जड़ में इस संस्थान पर पिछले कई वर्षों का कब्ज़ा गँवाने का डर तथा इन वर्षों में किए गए तमाम लाल-काले कारनामों के उजागर होने का डर, यह दो प्रमुख कारण हैं. 


हाल ही में आई किसी नई फिल्म में एक संवाद था कि, “वो करें तो चमत्कार, और हम करें तो बलात्कार”. शिक्षा संस्थाओं के “भगवाकरण” और अन्य संस्थाओं को दक्षिणपंथी बनाने का आरोप ठीक ऐसा ही है जैसे कोई बलात्कारी व्यक्ति खुद को संत घोषित करते हुए सामने वाले पर चोरी का आरोप मढ़ने की कोशिश करे. मोदी सरकार द्वारा अपने अधिकार क्षेत्र का उपयोग करते हुए जनता के धन से चलने वाली इस संस्था का प्रमुख नियुक्त करने को लेकर जैसा फूहड़ आंदोलन किया जा रहा है, वह इसी मानसिकता का नतीजा है. 1960 से लेकर अभी तक पिछले चालीस-पचास साल में वामपंथियों ने देश की विभिन्न शैक्षिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के साथ “बौद्धिक बलात्कार” किया है वह अकल्पनीय है, और यही लोग जब अचानक “भगवाकरण-भगवाकरण” चिल्लाने लगते हैं तो फिल्म का वही संवाद याद आता है.आईये पहले संक्षेप में देखें कि देश की जनता के टैक्स के पैसों पर चलने वाले इस संस्थान में इन बुद्धिजीवियों ने पिछले तमाम वर्षों में कैसी “लालमलाल” मचा रखी थी. 

FTII की स्थापना 1960 में पुणे स्थित प्रभात स्टूडियो के परिसर में हुई. आरम्भ में इसका नाम सिर्फ “फिल्म इंस्टीट्यूट ऑफ इण्डिया” (FII) था, 1974 में इसमें टीवी शब्द जोड़कर इसे FTII बनाया गया. इस संस्था के गठन का उद्देश्य था कि देश की नई पीढ़ी के प्रतिभावान छात्रों को दृश्य-श्रव्य माध्यमों की तकनीकी जानकारी और फिल्म निर्माण की बारीकियाँ सिखाई जाएँ. उस समय देश को आज़ादी मिले हुए अधिक समय नहीं हुआ था, गाँधी के वध के पश्चात नेहरू ने देश की सत्ता पर पूर्ण पकड़ बना ली थी. नेहरू ने वामपंथ के प्रति अपना प्रेम कभी नहीं छिपाया, इसलिए उन दिनों से ही वामपंथी विचारधारा ने भी कुछ क्षेत्रों में अपनी पकड़ मजबूत करना आरम्भ कर दिया था. शीतयुद्ध के दिन थे और नेहरू का सोवियत प्रेम उफान पर था. भारत सिर्फ कहने भर का “गुटनिरपेक्ष” देश था, लेकिन वास्तव में वह रूस का बगलबच्चा ही बनता चला जा रहा था. भारत की प्रत्येक नीति और संस्थाओं का गठन रूस की साम्यवादी संस्थाओं के पैटर्न पर बनती थी.जैसा सोवियत संघ ने अपने देश की प्रत्येक संस्था पर पूर्णतः काबिज होने की नीति बनाई, ठीक उसी तरह भारत में भी नेहरू और वामपंथियों ने बिलकुल निचले स्तर तक शासकीय नियंत्रण के सहारे विचारधारा का प्रसार किया. देश के युवाओं की विचारधारा पर नियंत्रण का सबसे अच्छा माध्यम होता है साहित्य, शिक्षा, नाटक, फ़िल्में और टीवी. 1960 में सोवियत संघ ने इन सभी विधाओं की संस्था पर पूर्ण नियंत्रण बनाए रखा, यही भारत में भी किया गया. FTII की स्थापना का उद्देश्य भी देश के युवाओं को भारत की संस्कृति और हिन्दू सभ्यता से तोड़कर, वामपंथ और समाजवाद की दिशा में मोड़ने का ही था.मजे की बात यह है कि भारत को मिलाकर विश्व में सिर्फ पाँच ही देश ऐसे हैं, जहाँ शासकीय धन और संरक्षण में फिल्मों से सम्बन्धित पढ़ाई करवाई जाती है, अन्य देश हैं रूस, क्यूबा, जर्मनी और ऑस्ट्रेलिया. 


(नक्सलवादियों के समर्थक :- मृणाल सेन) 

1962 से 1971 तक इंस्टीट्यूट के कर्ताधर्ता थे जगत मुरारी. इस समय तक इस संस्थान को वामपंथी “लाल रंग” से पोतने का काम पूरा नहीं हो पाया था. इसी दौरान देश के राजनैतिक फलक पर नेहरू की तानाशाह बेटी इंदिरा का आगमन हुआ. 1967 से 1971 के बीच इंदिरा गाँधी ने काँग्रेस पार्टी और देश की सत्ता पर लगभग पूर्ण तानाशाही स्टाईल का नियंत्रण हासिल कर लिया था. इंदिरा गाँधी ने कई निजी संस्थाओं को “राष्ट्रीय” बना दिया. 1971-72 में टेलीविजन के आगमन की आहट पर इस संस्थान के नाम में टीवी भी जोड़ा गया. FTII का उपयोग दूरदर्शन के कर्मचारियों को ट्रेनिंग देने के लिए भी किया जाने लगा. उद्देश्य था कि इसी माध्यम से टीवी कलाकारों और समाचारों पर सरकारी नियंत्रण कायम रहे. 1970-71 में ही इंदिरा गाँधी और भारत के वामपंथियों के बीच एक “अलिखित समझौता” हो गया कि जिन क्षेत्रों में काँग्रेस मजबूत है, वहाँ वामपंथी दखल नहीं देंगे और शिक्षा और मीडिया के क्षेत्र में वामपंथी दबदबे को काँग्रेस तब तक चुनौती नहीं देगी, जब तक उसके हितों पर आँच न आए. यह अलिखित समझौता आज तक चला आ रहा है. 

बहरहाल, 1971 में इंदिरा गाँधी ने “शिक्षा मंत्री” के रूप में अपनी पहली कठपुतली चुनी, जिसका नाम था डॉक्टर नूरुल हसन.नूरुल हसन एक घोषित वामपंथी थे, जो राज्यसभा के मार्ग से मंत्रिमंडल में घुसे. इनके नेतृत्व में ही सबसे पहले वामपंथियों ने देश की शिक्षा और मीडिया संस्थाओं पर कब्ज़ा करना आरम्भ किया. देश के बौद्धिक वातावरण को लाल रंग से पोतने का काम पूरा किया गया, जिससे यह देश आज तक नहीं उबर सका है. 1974 से 1977 तक FTII के अध्यक्ष बने अनवर जमाल किदवई.ये सज्जन भी सिर्फ रीढ़विहीन नौकरशाह थे जो इंदिरा गाँधी का हुक्म तामील करते थे. किदवई ने जामिया मिलिया विश्वविद्यालय में मास कम्युनिकेशन रिसर्च सेंटर का गठन किया ताकि “अपने लोगों” को वहाँ समाहित किया जा सके. किदवई साहब का फिल्मों या फिल्म की तकनीक अथवा ज्ञान से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं था. इनके बाद आए एसएम बर्नी, ये भी चाटुकार नौकरशाह ही थे जिन्हें जामिया मिलिया इस्लामिया विवि से उठाकर FTII में थोपा गया था. ज़ाहिर है कि बर्नी साहब का फ़िल्मी ज्ञान भी एकदम शून्य था,लेकिन उस समय भी छात्रों ने कोई आंदोलन नहीं किया. आश्चर्य तो इस बात का है कि इन पाँच वर्षों में FTII और जामिया इस्लामिया विवि का “अदभुत और रहस्यमयी प्रेम” किसी की निगाह में नहीं आया. इन दोनों मुस्लिम नौकरशाहों ने आपातकाल के दौरान FTII और मीडिया पर पूरा दबदबा बनाए रखा, ताकि उनकी मालकिन इंदिरा गाँधी और उनके आपातकाल के खिलाफ कोई चूं भी ना कर सके.गजेन्द्र चौहान से फ़िल्मी अनुभव और तकनीकी ज्ञान के बारे में सवाल करने वाले (कु)बुद्धिजीवियों को भी FTII के इन दोनों “फिल्म ज्ञान-शून्य रीढ़विहीन” नौकरशाहों के बारे में सब पता है, परन्तु जब बुद्धि बेच खाई हो तो बेशर्मी भी आ ही जाती है. 

खैर, 1977 में आपातकाल खत्म हुआ, इंदिरा गाँधी सत्ता से गईं तब जनता पार्टी ने प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आरके लक्ष्मणको FTII का अध्यक्ष बनाया. लक्ष्मण साहब की सभी लोग इज्जत करते थे, कला के प्रति समर्पित यह सज्जन मना व्यक्ति राजनीति से दूर ही रहता था. 1977 से 1980 के दौरान FTII बिना किसी दिक्कत के चला. लेकिन फिर वही एक बात, कि आरके लक्ष्मण को भी फिल्मोग्राफी और सिनेमा के बारे में कतई कोई ज्ञान नहीं था, गजेन्द्र चौहान के पास तो फिर भी ढेर सारा है. अर्थात FTII के शुरुआती तीनों अध्यक्षों का फिल्मों से कोई लेना-देना नहीं था. 


(फ़िल्मी ज्ञान एवं फिल्मोग्राफी का शून्य ज्ञान रखने वाले अनंतमूर्ति) 

1980 में जनता सरकार गई और इंदिरा की वापसी हुई. देश के मूड को भांपते हुए इंदिरा गाँधी ने श्याम बेनेगलको FTII का अध्यक्ष नियुक्त किया. ज़ाहिर है कि बेनेगल की फिल्मों एवं उनके गहन फ़िल्मी ज्ञान के बारे में कोई सवाल ही नहीं है, लेकिन एक बात निश्चित है कि श्याम बेनेगल कट्टर नेहरूवादी थे. नेहरू की लिखी हुई “डिस्कवरी ऑफ इण्डिया” के प्रत्येक शब्द पर उन्हें भगवदगीता के बराबर भरोसा था. इसी नाम से बनाई उनकी प्रसिद्ध डॉक्यूमेंट्री में उन्होंने नेहरू की अंधभक्ति में लीन होकर, आर्यों का भारत पर आक्रमण भी दिखा दिया. जबकि भारत पर इस्लाम के वास्तविक आक्रमण को सफाई से छिपा गए. इसके बाद इस कुर्सी पर पधारे मृणाल सेन... होंगे बड़े जाने-माने फिल्मकार, लेकिन इन्होंने भी खुलेआम नक्सलियों और हिंसक मार्क्सवादियों की तारीफ़ में कसीदे काढ़े. (ध्यान रहे नक्सलियों की तारीफ़ करना प्रगतिशीलता कहलाती है, लेकिन संघ की तारीफ़ करने भर से आप अचानक अछूत हो जाते हैं). मृणाल सेन के बाद 1987 से 1995 तक अडूर गोपालकृष्णन FTII के अध्यक्ष बने, इस दौरान देश की राजनैतिक उथल-पुथल के बावजूद इस संस्था ने वाकई अच्छा काम किया. हिन्दू संगठनों की बढ़ती ताकत और बाबरी ढाँचे के ध्वंस के पश्चात वाजपेयी सरकार बनने की आशंका के बीच 1995 से FTII में वामपंथियों ने अपना पूरा ज़ोर लगाना शुरू कर दिया. 

1995 में अपसंस्कृति फैलाने में माहिर फिल्मकार महेश भट्टको FTII का अध्यक्ष बनाया गया. 1998 तक महेश भट्ट के कार्यकाल में यह संस्था पूरी तरह से हिन्दू विरोधी बन गई. महेश भट्ट न सिर्फ वामपंथियों से सहानुभूति रखते थे, बल्कि उनकी और उनके “सुपुत्र” की इस्लामी आतंकियों के प्रति सहानुभूति भी किसी से छिपी नहीं थी. महेश भट्ट ने ही एक बार कश्मीर मसले को लेकर “भारत सरकार एक आततायी सरकार है” जैसा बयान दिया था. इन्हीं महाशय के कार्यकाल में FTII ने सामाजिक क्रान्ति के नाम पर एकदम घटिया और “सी” ग्रेड की फ़िल्में भी बनाईं. 1999 में स्थिति और भी खराब हो गई, जब गिरीश कर्नाड को इस संस्था का अध्यक्ष नियुक्त किया गया.कर्नाड तो खुलेआम हिन्दू संस्कृति को गाली देते रहे. उन्होंने अपने नाटकों में हिंदुओं और भारतीय संस्कृति की खिल्ली उड़ाने और भौंडे तरीके से मुग़ल शासकों को महान बताने का कृत्य भी किया. गिरीश कर्नाड के अनुसार प्राचीन भारत की संस्कृति हिंसा और सेक्स से भरी हुई थी. हाल ही में गिरीश कर्नाड ने बंगलौर में “बीफ-महोत्सव” का आयोजन भी किया और कहा गौमांस खाना उनका अधिकार है. सोचिये ऐसे-ऐसे “धुरंधर हिन्दू विरोधी” लोग FTII के अध्यक्ष रह चुके हैं... लेकिन अभी सूची खत्म कहाँ हुई है... आगे चलिए.. 


("सी"ग्रेड फ़िल्में बनाने वाले महेश भट्ट)

गिरीश कर्नाड के बाद 2002 से 2005 तक विनोद खन्नाइस संस्था के अध्यक्ष रहे, लेकिन प्रशासनिक रूप से वे अपनी कोई छाप नहीं छोड़ पाए और संस्था को बिना कोई विशेष योगदान दिए, UPA सरकार के गठन के पश्चात वे चलते बने. विनोद खन्ना के बाद पुनः यह संस्था वामपंथियों के कब्जे में आ गई. इस कुर्सी पर आए चरम वामपंथी यूआर अनंतमूर्ति. यूआर अनंतमूर्ति का फिल्म ज्ञान भी एकदम शून्य था, परन्तु उनकी एकमात्र योग्यता यही थी कि वे हिन्दू संगठनों, हिन्दू त्यौहारों, हिन्दू परम्पराओं को जमकर कोसते थे.वे खुलेआम अपना वामपंथ प्रेम प्रदर्शित भी करते थे. 2004 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को रोकने की खातिर उन्होंने चुनाव भी लड़ा, लेकिन असफल रहे. इसी प्रकार 2014 के आम चुनावों से पहले यूआर अनंतमूर्ति ने यह बयान दिया था कि, “यदि नरेंद्र मोदी इस देश के प्रधानमंत्री बन गए तो वे देश त्याग देंगे”, हालाँकि झूठे वामपंथियों की तरह ही उन्होंने अपनी इस बात पर अमल नहीं किया और अंततः भारत में ही मरे. गजेन्द्र चौहान के फ़िल्मी ज्ञान पर सवाल उठाने वालों के लिए यह दूसरा तमाचा है कि यूआर अनंतमूर्ति, जिन्होंने कभी कैमरा तक अपने हाथ में नहीं पकड़ा, वे दो-दो बार इस संस्था के अध्यक्ष बने... क्योंकि उनकी एकमात्र योग्यता थी हिन्दू संस्थाओं, संस्कृति, परम्पराओं को गरियाना और काँग्रेस-वामपंथ के तलवे चाटना. 


(गौमांस खाने के समर्थक - गिरीश कर्नाड) 

दो-दो बार कब्जे बाद अनंतमूर्ति का स्थान लेने आए सईद अख्तर मिर्ज़ा. ये साहब भी खुलेआम वामपंथी हैं और गुजरात में काँग्रेस पोषित NGOs गिरोह की सरगना शबनम हाशमी की संस्था “अनहद” के सक्रिय सदस्य रहे (अन्य सदस्यों में हर्ष मंदर और के एन पणिक्कर जैसे धुर वामपंथी). “अनहद” का गठन गुजरात दंगों के बाद NGOs गिरोह ने किया था और इसके कई सदस्य सोनिया गाँधी की किचन कैबिनेट अर्थात NAC (जो मनमोहन सिंह को कठपुतली की तरह नचाती थी) के सदस्य भी थे.  

कहने का तात्पर्य यह है कि केन्द्र सरकार के आश्रय में चलने और करदाताओं के पैसों पर पलने वाली FTII संस्था का फिल्मों, पढ़ाई, तकनीकी ज्ञान आदि से कोई लेना-देना नहीं था, पिछले चालीस-पचास साल से यह विशुद्ध रूप से राजनैतिक पद बना हुआ है, जिसमें अध्यक्ष की नियुक्ति का पूरा अधिकार केन्द्र सरकार का है. गजेन्द्र चौहान को लेकर जो हालिया प्रदर्शन जारी है वह वामपंथियों द्वारा अपनी खिसकती जमीन को बचाने तथा भ्रष्टाचार के नए आयाम स्थापित कर चुके तथा करोड़ों-अरबों रूपए की सब्सिडी तथा शोध सहायता के नाम पर अफरा-तफरी किए हुए धन की पोल खुलने की चिंता में है. कथित आंदोलनकारी कहते हैं कि यह संस्था स्वतन्त्र और स्वायत्त है, निरा झूठ है. जैसा कि ऊपर कई उदाहरण देकर बताया है, यह संस्था कभी भी स्वतन्त्र और लोकतांत्रिक नहीं थी, इसमें अधिकाँश बार चमचे किस्म के, रीढ़विहीन अथवा धुर हिन्दू-विरोधी लोगों का जमावड़ा बना रहा है. जिस उद्देश्य से इस संस्था का गठन हुआ था, वह तो कभी भी पूरा नहीं हुआ, उलटे लगभग 50 छात्र(??) ऐसे हैं जो पिछले दस-बारह वर्ष से इसी संस्था में जमे हुए हैं, अधेड़ हो चुके लेकिन अभी तक उनसे एक लघु-फिल्म भी नहीं बन पाई, फिर भी होस्टलों के मजे लूट रहे हैं.प्राप्त जानकारी के अनुसार सरकार IIT के एक छात्र पर जितना पैसा खर्च करती है, उससे कहीं अधिक सब्सिडीयुक्त धन इस संस्था के छात्रों पर खर्च किया जाता है. मोदी सरकार के आने के बाद से ही इस मक्कारी और मुफ्तखोरी पर लगाम कसने की तैयारी शुरू हो चुकी थी. जो “गिरोह” पिछले कई वर्षों से बंगाल और केरल में आंदोलन, धरना, प्रदर्शन, घेराव, तालाबन्दी वगैरह में मास्टरी हासिल कर चुके हैं, वे FTII में यही कर रहे हैं... देश की जनता के सामने इन्हें बेनकाब करना बहुत जरूरी है. सरकार को अब पीछे नहीं हटना चाहिए और ऐसी सभी संस्थाओं में “सफाई अभियान” चलाना चाहिए, जहाँ से विषाक्त वामपंथी विचारधारा बहती है.

Census 2011 Illusionary Christian Population and Dalits of India

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जनगणना के धार्मिक आँकड़े : बिगड़ती स्थिति और शतुरमुर्ग हिन्दू


हाल ही में केन्द्र सरकार ने विभिन्न संगठनों की माँग पर 2011 की जनगणना के धर्म संबंधी आँकड़े आधिकारिक रूप से उजागर किए हैं. जैसे ही यह आँकड़े सामने आए, उसके बाद से ही देश के भिन्न-भिन्न वर्गों सहित मीडिया और बुद्धिजीवियों में बहस छिड़ गई है. हिन्दू धार्मिक संगठन इन प्रकाशित आँकड़ों को गलत या विवादित बता रहे हैं, क्योंकि आने वाले भविष्य में इन्हीं का अस्तित्त्व दाँव पर लगने जा रहा है. जैसे-जैसे यह लेख आगे बढ़ेगा आप समझ जाएँगे कि उपरोक्त बात डराने-धमकाने के लिए नहीं की जा रही, बल्कि इसके पीछे तथ्य-आँकड़े और इतिहास मौजूद है. इन आँकड़ों पर सवाल उठाने वाले संगठनों एवं बुद्धिजीवियों का मानना है कि जनगणना के इन आँकड़ों में हिन्दू जनसँख्या को बढ़ाचढ़ाकर दिखाया गया है. जबकि मुस्लिमों और ईसाईयों की जनसँख्या के आँकड़े बेहद संदिग्ध हैं. इस समूची चर्चा में अधिकाँश वाद-विवाद-प्रतिवाद मुस्लिमों की जनसँख्या को लेकर हो रहा है, परन्तुजिस प्रमुख मुद्दे की तरफ लोगों का ध्यान अभी भी नहीं जा रहा, वह है ईसाई जनसँख्या.मुस्लिमों की जनसँख्या के आँकड़े सामने आते ही तमाम सेकुलर बुद्धिजीवियों ने इस आशय के लेख धड़ाधड़ लिखने आरम्भ कर दिए कि हिन्दू संगठन, मुस्लिम जनसँख्या को लेकर भय का झूठा माहौल पैदा करते हैं. हालाँकि आँकड़ों को गहराई से देखने के बाद इन सेकुलर-वामपंथी बुद्धिजीवियों का यह प्रचार भी नकली ही सिद्ध होगा. लेकिन असली चिंताजनक बात यह है कि ईसाई जनसँख्या के आँकड़े को लेकर कहीं कोई विमर्श नहीं चल रहा, जबकि वेटिकन के आश्रय में चर्च के माध्यम से धर्मांतरण की गतिविधियाँ सर्वाधिक चल रही हैं. जनगणना के आंकड़ों के अनुसार 2011 में भारत में हिन्दू 80.5%, मुस्लिम 13.4%, ईसाई 2.3% हैं, यह तीनों ही आँकड़े संदिग्ध हैं. 



चलिए आगे बढ़ने से पहले एक परीक्षण करते हैं... जरा अपनी सामान्य समझ के अनुसार बताईये कि “क्रिस्टोफर पीटर”, “अनुष्का विलियम” और “सुनीता चौहान” में से कौन सा नाम ईसाई है?? ज़ाहिर है कि आप पहले नाम को तो निःसंकोच रूप से ईसाई घोषित कर देंगे, दूसरे नाम पर आप भ्रम में पड़ जाएँगे, लेकिन फिर भी संभवतः उसे ईसाई कैटेगरी में ही रखेंगे... लेकिन सुनीता चौहान जैसे नाम पर तो आप कतई शक ज़ाहिर नहीं कर सकते कि वह ईसाई हो सकती है, लेकिन ऐसा हो रहा है और जमकर हो रहा है. हाल ही में प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी दिनेश कार्तिक ने अपनी बचपन की मित्र दीपिका पल्लीकल से विवाह किया. अगले कुछ दिनों बाद अखबारों के माध्यम से देश को पता चला कि दिनेश-दीपिका का विवाह समारोह पहले एक चर्च में आयोजित किया गया, उसके कुछ दिन बाद हिन्दू रीतिरिवाजों से एक बार पुनः विवाह किया गया. ज़ाहिर है कि यह उनका निजी मामला है, परन्तु इससे आम जनता के मन में जो सवाल उठा, वह ये था कि “दिनेश” और “दीपिका” में से ईसाई कौन है? आखिर इन्हें चर्च में विवाह करने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई? इन दोनों के नाम से तो यह कतई ज़ाहिर नहीं होता कि इनमें कोई ईसाई भी होगा. जब कुछ लोगों ने खोजबीन की तो पता चला कि दीपिका पल्लीकल ईसाई हैं, तो सब हैरत में पड़ गए. इसलिए प्रमुख बात यह है कि ईसाई जनसँख्या के वर्तमान आँकड़ों से यह पता करना लगभग असंभव है कि “हिंदुओं जैसे नाम रखने वाले” कितने लाख लोग ऐसे हैं, जिन्होंने जनगणना के समय अपना सही धर्म लिखवाया? भारत में कितने लोग हैं जो यह जानते हों कि आंधप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री “राजशेखर रेड्डी” कट्टर ईसाई थे और उनके दामाद अनिल कुमार तो घोषित रूप से वेटिकन के एवेंजलिस्ट (ईसाई धर्म प्रचारक) हैं??यह एक तरफ हिंदुओं में अज्ञानता का आलम तो दर्शाता ही है, दूसरी तरफ हिन्दू दलितों एवं ग्रामीणों के धर्मांतरण हेतु वेटिकन की धोखाधड़ी और धूर्तता को भी प्रदर्शित करता है. 

पहले हम चंद आँकड़ों पर निगाह डाल लेते हैं, उसके बाद इस झूठ और धूर्तता के कारणों को समझने का प्रयास करेंगे. 2011 के जनगणना आंकड़ों के अनुसार भारत के ईसाईयों की जनसँख्या पन्द्रह राज्यों में बढ़ी है, जबकि छः राज्यों में कुछ कम हुई है. अरुणाचल प्रदेश में ईसाई जनसँख्या 18.70 से बढ़कर 30.30 प्रतिशत हो गई है, मणिपुर में ईसाईयों की संख्या 34% से बढ़कर 41.30% हुई है, जबकि मेघालय में ईसाई जनसँख्या 70.30% से बढ़कर 74.60% हुई है. उत्तर-पूर्व के राज्यों में सांख्यिकी और जनसँख्या अनुपात ईसाईयों के पक्ष में किस तेजी से बिगड़ा है, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1981 से 2001 के बीच में नागालैंड में हिन्दू जनसंख्या 14.36% से घटकर सिर्फ 7.70% रह गई, जबकि ईसाई जनसँख्या 80.2% से बढ़कर 90% हो गई. ध्यान देने वाली बात यह है कि 1951 में नागालैंड में 52% ईसाई थे. फिर पिछले पचास-साठ वर्ष में नागालैंड में ईसाईयों की जनसँख्या इतनी क्यों और कैसे बढ़ी? क्या ईसाई पंथ अचानक इतना अच्छा हो गया कि नागालैंड के आदिवासी ईसाई बनने के लिए उतावले हो उठे? नहीं... इसका जवाब वही है जो नागालैंड में जमीनी स्तर पर दिखाई देता है, अर्थात आदिवासियों का जमकर धर्मांतरण और बन्दूक के बल पर “नागालैंड फॉर क्राईस्ट” के नारे और पोस्टरों के जरिये दबाव बनाकर.क्या दिल्ली में बैठे और गुडगाँव/नोएडा तक सीमित किसी कथित राष्ट्रीय चैनल पर आपने इस बारे में कोई बहस या रिपोर्ट देखी-सुनी है? नहीं देखी होगी, क्योंकि विकृत सेकुलरिज़्म द्वारा “साम्प्रदायिकता” का अर्थ सिर्फ और सिर्फ हिन्दू साम्प्रदायिकता से लिया जाता रहा है. 

बहरहाल आगे बढ़ते हैं... जनगणना के सबसे चौंकाने वाले आँकड़े यह हैं कि अब भारत के सात राज्य ऐसे हैं, जहाँ हिंदुओं की जनसँख्या 50% से नीचे आ चुकी है, अर्थात वे तेजी से वहाँ अल्पसंख्यक बनने की कगार पर हैं. जम्मू-कश्मीर में हिन्दू 28.4%, पंजाब में 38.5%, नागालैंड में 8.7%, मिजोरम में सिर्फ 2.7%, मेघालय में 11.5%, अरुणाचल प्रदेश में 29% और मणिपुर में 41.4%. सुदूर स्थित केंद्रशासित लक्षद्वीप में हिंदुओं की संख्या सिर्फ 2.8% है. इस स्थिति में हमारे देश के कथित बुद्धिजीवियों को जो प्रमुख सवाल उठाना चाहिए वह ये है कि क्या इन राज्यों में हिंदुओं को “अल्पसंख्यक” के तौर पर रजिस्टर्ड किया जा चुका है? क्या इन राज्यों में हिंदुओं को वे तमाम सुविधाएँ मिलती हैं, जो अन्य राज्यों में मुस्लिमों और ईसाईयों को मिलती हैं? क्या इन राज्यों की योजनाओं एवं छात्रवृत्तियों में गरीब हिन्दू छात्रों एवं कामगारों को अल्पसंख्यक होने का लाभ मिलता है??परन्तु ऐसे सवाल पूछेगा कौन? “तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवी” तो मोदी सरकार को कोसने में लगे हुए हैं और नेशनल मीडिया(??) को इंद्राणी मामले से ही फुर्सत नहीं है. 


ईसाईयों की जनसंख्या के जो आँकड़े ऊपर दिए हैं वे प्रमुखता से उत्तर-पूर्व के राज्यों से हैं, चूँकि ये आँकड़े घोषित रूप में हैं. परन्तु इससे भी बड़ी समस्या उस ईसाई जनसँख्या की है, जिसने अपना धर्म छिपा रखा है, अघोषित रूप से वे ईसाई हैं, परन्तु हिन्दू नामों के साथ समाज में विचरते हैं. उड़ीसा के कंधमाल की घटना और स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या को कोई भी भूला नहीं है. वह घटना क्यों हुई थी? ज़ाहिर है ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में जमकर हो रहे ईसाई धर्मांतरण की वजह से. अब यह कोई रहस्य नहीं रह गया है कि वेटिकन और चर्च का मुख्य ध्यान भारत के दूरदराज आदिवासी और ग्रामीण क्षेत्रों पर होता है, जहाँ ये लोग “सेवा” के नाम पर बड़ी मात्रा में धर्मान्तरण करवा रहे हैं. गुजरात का डांग, मध्यप्रदेश के झाबुआ-बालाघाट, छत्तीसगढ़ का जशपुर, उड़ीसा के कंधमाल जैसे भारत के किसी भी दूरदराज कोने में आप चले जाईये वहाँ आपको एक चर्च जरूर मिलेगा. कई-कई गाँव ऐसे दिखाए जा सकते हैं, जहाँ एक भी ईसाई नहीं रहता, परन्तु वहाँ भी चर्च स्थापित है, ऐसा क्यों और कैसे? वास्तव में ईसाई धर्मांतरण हेतु चर्च, साम-दाम-दण्ड-भेद सभी नीतियाँ अपनाता है, इसके अलावा छल-कपट और धोखाधड़ी भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है.पहले “सेवा” के नाम पर अस्पताल, डिस्पेंसरी, स्कूल आदि खोले जाते हैं, फिर वहाँ आने वालों का धीरे-धीरे “ब्रेन वॉश” किया जाता है. चूँकि भारत में गरीबी जबरदस्त है, इसलिए चर्च को पैसों के बल पर धर्मान्तरण करवाने में अधिक समस्या नहीं आती. एक तो इनका “कथित सेवाकार्य” और दूसरे धन का लालच, इस चक्कर में बड़ी आसानी से भोले-भाले आदिवासी इनके जाल में फँस जाते हैं. जहाँ धन की जरूरत नहीं है, उदाहरणार्थ नागालैंड-मिजोरम जैसे इलाके जहाँ ईसाईयों की जनसँख्या 90% के आसपास है, वहाँ आदिवासियों को डरा-धमका कर ईसाई बनाया जाता है, जबकि केरल में कई ग्रामीण क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ छल-कपट का सहारा लिया जाता है. केरल में ईसाईयों द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में जो चर्च स्थापित किए जा रहे हैं, वे छोटी-छोटी झोंपडियों में हैं, जिन पर “माता मरियम का मंदिर” लिखा जाता है, वहाँ पर “भगवा वस्त्र पहने हुए पादरी” मिलेगा ताकि ग्रामीणों में भ्रम पैदा किया जा सके. उसके बाद धोखाधड़ी के सहारे धीरे-धीरे धर्मांतरण करवा लिया जाता है. जिस प्रकार देश के कई जिले अब मुस्लिम बहुल बन चुके हैं इसी प्रकार देश के कई जिले अब ईसाई बहुल भी बन चुके हैं. निकोबार द्वीप समूह में 67% ईसाई हैं, कन्याकुमारी जिला 44.5% ईसाईयों को समेटे हुए है और केरल के कोट्टायम जिले में ईसाई जनसँख्या 44.6% है. इनके अलावा तमिलनाडु के तूतीकोरिन, तिरुनेलवेली जैसे जिलों में बड़े-बड़े विराट चर्चों का निर्माण कार्य आसानी से देखा जा सकता है. यह तो हुई ईसाई जनसँख्या की बात, जरा हम पहले मुस्लिम जनसँख्या को भी संक्षेप में देख लें, फिर वापस आएँगे ईसाईयों द्वारा हिन्दू नाम धरकर छल करने की समस्या के बारे में. 

2011 की जनगणना के अनुसार मुस्लिमों की संख्या 14.8% ही बताई जा रही है. यह आँकड़ा भी भ्रामक और जानबूझकर फैलाया जा रहा मिथ्या तथ्य है. क्योंकि केरल, असम, बंगाल, उत्तरप्रदेश, दिल्ली-बिहार जैसे राज्यों में जिस रफ़्तार से मुस्लिम जनसँख्या बढ़ रही है, यह आँकड़ा विश्वसनीय नहीं हो सकता. असम में मुस्लिम जनसँख्या का प्रतिशत 30.9 से बढ़कर 34.2, पश्चिम बंगाल में मुस्लिम प्रतिशत 25.2 से बढ़कर 27.9, केरल में 24.7 प्रतिशत से बढ़कर 26.6 प्रतिशत जबकि उत्तराखंड में यह प्रतिशत 11.9 से 13.9 हो गया है. असम के धुबरी जिले में मुस्लिम जनसँख्या 80% तक पहुँच चुकी है, इसी प्रकार पश्चिम बंगाल के लगभग 17 जिले ऐसे हैं जहाँ मुस्लिम जनसंख्या 40% के आसपास है, जबकि केरल के मलप्पुरम जैसे जिले 50% मुस्लिम आबादी वाले हो चुके हैं. बढ़ती मुस्लिम जनसंख्या पर तो कई संगठन अपनी चिंताएँ जता ही रहे हैं, इसलिए इस लेख में उस पर अधिक चर्चा नहीं की जा रही. असली समस्या है ईसाईयों द्वारा हिन्दू नामधारी होकर अपना धर्म छिपाना. 

हम सभी जानते हैं कि जब भी कोई मुस्लिम मतांतरण स्वीकार करता है तो उसे सबसे पहले अपना नाम बदलना होता है. किसी भी मुस्लिम नाम को समझना एक आम हिन्दू के लिए कतई भ्रामक या कठिन नहीं होता. परन्तु वेटिकन इस मामले में बहुत चतुर है, अर्थात जब कोई ग्रामीण या शहरी हिन्दू अथवा आदिवासी धर्मान्तरित होकर ईसाई बनता है तो उसे अपना नाम बदलने की कोई बाध्यता नहीं होती. इसीलिए हम और आप दीपिका पल्लीकल को हिन्दू ही मानते-समझते रहते हैं. भारत के सिर्फ ग्रामीण-आदिवासी क्षेत्रों में ही नहीं, बल्कि शहरी क्षेत्रों में भी ऐसे लाखों-करोड़ों ईसाई हैं जो “गुपचुप” ईसाई बन चुके हैं, लेकिन यह बात सरकार को पता ही नहीं है. क्योंकि ना तो इन्होंने अपना हिन्दू नाम बदला है, और ना ही जनगणना के समय अपना धर्म ईसाई घोषित किया है. इन्होंने सिर्फ अपने घरों से हिन्दू देवी-देवताओं को बाहर करके यीशु और क्रॉस लगा लिया है, अपनी पूजा पद्धति बदल ली है. अब सवाल उठता है कि इन्होंने ऐसा क्यों किया? अपना धर्म छिपाकर इन्हें क्या हासिल होगा? इसका जवाब है हमारे देश की आरक्षण पद्धति एवं आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था. 


जैसा कि सभी जानते हैं, भारत के संविधान में आरक्षण की व्यवस्था हिन्दू, सिख और बौद्ध धर्म के SC (Scheduled Caste) दलितों को प्रदान की गई है. जबकि आदिवासियों को जो विशेष ST (Scheduled TRIBE) दर्जा हासिल है, उसमें वे किसी भी धर्म के तहत ST ही माने जाएँगे और उनका आरक्षित दर्जा बरकरार रहेगा. चर्च और धर्मांतरण कर चुके ईसाईयों की चालबाजी, धोखाधड़ी और कपट पद्धति यह होती है कि यदि धर्मान्तरित हो चुके दलितों ने घोषित कर दिया कि वे अब हिन्दू नहीं रहे, ईसाई बन चुके हैं तो वे तत्काल आरक्षण के सभी लाभों से वंचित हो जाएँगे. परन्तु यदि वे अपना हिन्दू नाम नहीं बदलें और हिन्दू SC-ST-OBC बनें रहें तो उन्हें नियमों के तहत आरक्षण मिलता रहेगा. भारत के संविधान और हिन्दू दलितों के साथ यही खेल हो रहा है.यह घातक खेल भारत की जनगणना के आँकड़ों को भी प्रभावित कर रहा है. 2011 के आंकड़ों के अनुसार हिन्दू जनसँख्या 80% के आसपास है, लेकिन वास्तव में यह बहुत ही कम है क्योंकि धर्मान्तरित दलितों ने अपना ईसाई धर्म घोषित नहीं किया है. राजशेखर रेड्डी और उनके दामाद की मेहरबानियों की वजह से तटीय आंध्रप्रदेश का 30% से अधिक हिस्सा ईसाई बन चुका है, लेकिन वे बड़े आराम से हिन्दू नामधारी बने हुए हैं तथा हिंदू दलितों के आरक्षण का हक छीन रहे हैं. भारत के तथाकथित “दलित चिंतकों” को इस बात की या तो फ़िक्र नहीं है, या शायद ऐसा हो कि फिलहाल भारत में जो दलित नेतृत्त्व है उनमें भी कई धर्मान्तरित हो चुके हैं. दिल्ली में चर्च के प्रमुख सत्ता केन्द्र में जॉन दयाल जैसे कट्टर ईसाई और NGOs पोषित-पल्लवित एवेंजेलिस्टो का गिरोह पिछले दस वर्ष से लगातार UPA सरकार पर दबाव बनाए हुए था कि “दलित ईसाईयों” को भी आरक्षण का लाभ मिले. इसके लिए संविधान संशोधन करना जरूरी है और यह UPA सरकार के लिए संभव नहीं था. 

अब वर्तमान स्थिति यह है कि लाखों-करोड़ों की संख्या में अनुसूचित जाति (SC) के लोगों ने पैसा लेकर ईसाई धर्म तो अपना लिया है, परन्तु नाम हिन्दू ही रखा है और जनगणना में अपना धर्म भी हिन्दू ही बताया हुआ है. ये लोग मजे से दोहरा लाभ ले रहे हैं, यानी वेटिकन से पैसा और सुविधाएँ तथा संविधान के तहत हिन्दू दलितों के हिस्से का आरक्षण भी. ऐसे में हो यह रहा है कि आरक्षण का जो वास्तविक हकदार है उसे आरक्षण नहीं मिल पाता. जिस दिन देश के दुर्भाग्य से “दलित ईसाईयों”(??) को भी आरक्षण मिलने लगेगा, उसी दिन ये सभी छद्म नामधारी अपने असली रूप में आ जाएँगे और खुद को हिन्दू धर्म से अलग घोषित कर देंगे.ऐसे लोग तन-मन-धन से तो काफी पहले ईसाई बन चुके हैं. हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू परम्पराओं को सतत कोसने और गाली देने का काम तो वे आज भी “प्रगतिशीलता” के नाम पर कर ही रहे हैं और साथ ही आरक्षण की मलाई भी खा रहे हैं.  


जनगणना के फॉर्म में सिर्फ छह धर्मों की घोषणा करने को कहा गया है, हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और जैन. इनके अलावा व्यक्ति यदि किसी और धर्म का है तो वह “अन्य” लिख सकता है. देश के कई हिस्सों में तथाकथित आधुनिक शिक्षा की बदौलत अमेरिका की देखादेखी एक “नया वर्ग” पैदा हो गया है, जो खुद को “एथेइस्ट” (अर्थात किसी भी धर्म को नहीं मानने वाला अथवा नास्तिक). दक्षिण भारत और विशेषकर तमिलनाडु में करूणानिधि जैसे नेता स्वयं को “नास्तिक” कहते हैं और रामसेतु को तुड़वाने के लिए पूरा जोर लगा देते हैं. ऐसे तथाकथित नास्तिकों की संख्या भी लाखों में पहुँच चुकी है जिन्होंने जनगणना में स्वयं को हिन्दू घोषित नहीं किया है, परन्तु वास्तविकता यह है कि इनमें से अधिकाँश संख्या में धर्मान्तरित ईसाई ही हैं. इनमें तमिलनाडु की द्रविड़ पार्टियों के नेता और कार्यकर्ता, नक्सल समर्थक वामपंथी और स्वयं को प्रगतिशील कहलाने वाले शहरी बुद्धिजीवी भी शामिल हैं. धर्मांतरण के लिए चर्च सारे हथकण्डे अपना रहा है, जहाँ एक तरफ वह मानवाधिकार समूहों, धर्म का अधिकार माँगने वाले समूहों तथा हिन्दू संस्कृति का हरसंभव और हर मुद्दे पर विरोध करने वाले NGOs को पैसा देकर पोषित कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ वह हिंदुओं में फ़ैली जाति व्यवस्था, कुप्रथाओं एवं कुरीतियों के खिलाफ काम कर रहे समूहों को भड़काकर तथा उन्हें धन मुहैया करवाकर हिंदुओं के बीच खाई को और चौड़ा करने का प्रयास भी कर रहा है. दुःख की बात यह है कि अपने इस कुत्सित प्रयास में चर्च काफी सफल हुआ है, और मजे की बात यह है कि अज्ञानतावश दलित संगठन एवं दलित बुद्धिजीवी चर्च को अभी भी अपना खैरख्वाह मानते हैं, जबकि चर्च उन्हीं के पीठ पीछे उन्हीं की जातियों में सेंध लगाकर उन्हें तोड़ रहा है. एक छोटा उदाहरण, वर्ष 2013-14 में सिर्फ तीन देशों अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी ने भारत में काम कर रहे ईसाई समर्थक NGOs तथा चर्च संबंधी मामलों को “आधिकारिक” रूप से 1960 करोड़ रुपयों की आर्थिक मदद पहुँचाई है. FCRA (विदेशी मुद्रा अधिनियम) के ये आँकड़े बेहद चौंकाने वाले हैं. जिस तरह से वेटिकन, धर्मांतरण करवाने वाली संस्थाओं, एवेंजेलिस्ट कार्यकर्ताओं को अरबों रुपया पहुँचा रहा है, उसी से ज़ाहिर है कि इनका मकसद सिर्फ “सेवा” तो कतई नहीं हो सकता.जब नरेंद्र मोदी सरकार ने विदेशी मुद्रा अधिनियम में संशोधन करके विदेश से आने वाले धन का उपयोग लिखित स्वरूप में बताने को अनिवार्य बना दिया तथा दुनिया भर में सबसे बड़े चन्दा देने वाली दो संस्थाओं अर्थात “ग्रीनपीस” और “फोर्ड फाउन्डेशन” पर लगाम कसना आरम्भ किया, तब हल्ला मचाने और छाती पीटने वालों में सबसे आगे यही NGOs थे, जिनकी रोजी-रोटी धर्मान्तरण से चलती है. समस्या यह है कि भारत के गरीब हिन्दू दलित (और इनके नेता तथा संगठन) अभी चर्च की इस चालबाजी को समझ नहीं पा रहे.  

असल में जनगणना के समय जो फॉर्म भरा जाता है उसमें माँगी जाने वाली जानकारी बिलकुल सटीक प्रश्नों पर आधारित होनी चाहिए. धर्म के सम्बन्ध में “अन्य” वाला कॉलम तो बिलकुल हटा ही दिया जाना चाहिए. जिसका जो भी धर्म हो वह स्पष्ट लिखे, नास्तिक हो तो नास्तिक लिखे. इसके अलावा प्रत्येक परिवार में जितने भी अवयस्क हैं उनका धर्म संबंधी कॉलम अलग होना चाहिए. ऐसा करना इसलिए जरूरी है, ताकि यदि वह नाबालिग दो भिन्न धर्मों के माता-पिता से पैदा हुई संतान है तो उस पर पिता का धर्म लादने की जरूरत नहीं. हो सकता है कि अगली जनगणना में वह संतान वयस्क हो जाए और माता की तरफ का या दूसरा कोई धर्म अपना ले. साथ ही केन्द्र सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि किसी भी कीमत पर “दलित ईसाईयों” (अर्थात धर्मान्तरण कर चुके) को आरक्षण का लाभ कतई ना मिलने पाए, चाहे इसके लिए संविधान संशोधन ही क्यों ना करना पड़े. इसी प्रकार OBC एवं दलितों के बीच यह जागरूकता फैलाने की भी आवश्यकता है कि आरक्षण के वास्तविक हकदार सिर्फ और सिर्फ वे ही हैं, ना कि धर्म बदल चुके उनके सजातीय बंधु. इन्हीं जातियों और समाजों के बीच में छिपे बैठे ईसाईयों को पहचान कर उन्हें आरक्षण से बाहर किया जाना जरूरी है, ऐसा करने से “वास्तविक हिन्दू दलित-ओबीसी” के आरक्षण प्रतिशत में अपने-आप वृद्धि हो जाएगी.दावे के साथ कहा जा सकता है कि यदि सरकार किसी दिन यह कह दे कि धर्मान्तरित हो चुके दलित-ओबीसी को भी हिंदुओं की तरह आरक्षण मिलेगा, तो वेटिकन के निर्देश पर ये छद्म हिन्दू नामधारी नव-ईसाई ताबड़तोड़ अपने “असली रूप यानी घोषित ईसाई” के रूप में आ जाएँगे और उस समय हिंदुओं को अपनी सही जनसँख्या और औकात पता चल जाएगी.

अब वर्तमान स्थिति यह है कि आधिकारिक रूप से भारत में हिन्दू जनसँख्या जो 2001 की जनगणना में 85% थी, अब 2011 में 80% से नीचे आ चुकी है. लेकिन क्या यह भी वास्तविक आँकड़ा है?? मूलनिवासी आंदोलन के नाम से जो भौंडा और घृणा फैलाने वाला आंदोलन समाज के अंदर ही अंदर चल रहा है, वे लोग खुद को हिन्दू मानते ही नहीं हैं. हिन्दू नामधारी लेकिन धर्मान्तरित हो चुके दलित भी ईसाई हो गए, हिन्दू नहीं रहे. नास्तिकतावादी और वामपंथी भी सिर्फ नाम के लिए हिन्दू हैं, यानी वे भी हिन्दू धर्म से अलग हुए. दक्षिण की द्रविड़ पार्टियों के नेता और समर्थक भी खुद को हिन्दू नहीं मानते. बांग्लादेश से अनाधिकारिक रूप से लगभग तीन करोड़ घुसपैठिये भारत में बैठे हैं, जिनके पास राशनकार्ड और आधार कार्ड भी है, इस 2% को भी जोड़िए... तो अब बताईये इस देश में “वास्तविक हिन्दू जनसंख्या” कितनी हुई? क्या यह 50-60% के नीचे नहीं है??तो फिर जनगणना के ऐसे भ्रामक आँकड़े जारी करने की क्या तुक है? और क्या एक सभ्य देश को ऐसा करना चाहिए? जबकि सबसे बड़ा और डरावना सवाल यह है कि आखिर स्वयं “हिन्दू” लोग और “हिन्दू संगठन” छद्म रूप धारण किए हुए हिंदुओं की इस विकराल होती समस्या के प्रति क्या कर रहे हैं?? उनका रुख क्या है? उनकी योजना क्या है??

Why Hindu Nationalistic Academia is Lagging Behind

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विचार, प्रचार और राष्ट्रवादी बौद्धिक असफलताएँ : कारण और निवारण 

(बंगलौर निवासी भाई गौरव शर्मा द्वारा लिखित एक उम्दा लेख जो आपको सोचने पर मजबूर कर देगा) 

विषय प्रवेश
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किसी भी समाज में विचार बरसों बरस के लिए कैसे स्थापित होते हैं इसको समझना है तो भारत में वामपंथ को समझिए , आज गंभीर "राष्ट्रवादियों"का एक बहुत बड़ा तबका वामपंथियों को कोसने में अपना समय खर्च करता है , क्यों ? क्या वामपंथी एक दो राज्य छोड़कर कहीं सत्ता में हैं ? क्या उनका कोई व्यापक जनाधार है ? क्या उनका काडर बेस है ? क्या यूवा उनके विचार की तरफ तरफ आकर्षित हैं ? नहीं , सबका जवाब नहीं में ही आएगा , ऐसा कुछ भी नहीं है फिर भी देश के केंद्र में और आधे राज्यों में राज करने वाली विचारधारा के लोग वामपंथ से भयाक्रांत हैं ? क्यों ? जवाब है  उस विचार को जीने वाले और उसके लिए माहौल बनाने वाले विचारक / प्रचारकों का  "बौद्धिक विमर्श" (intellectual discourse) और सूचना की व्याख्या (interpretation of information ) करने वाली लगभग सभी प्रकार की संस्थाओं पर प्रभुत्व !! आगे बढ़ने से पहले ये भी बताना ज़रूरी है की एक प्रबुद्ध विचारक एक अच्छा प्रचारक भी सिद्ध हो ये ज़रूरी नहीं , खासकर वह जो समकालिक (contemporary ) विचारों को स्वीकारते हुए भी अपनी विचारधारा को समझा और फैला सके !!

दरअसल जब जब भी मैं वामपंथ को इस लेख में संदर्भित करूँ तब तब आप उसे समाजवाद , नेहरुवाद , जिहादवाद के साथ ही समझियेगा क्योंकि ये सब चचेरे ममेरे भाई हैं , सब एक दूसरे के पूरक हैं और एक दूसरे को बचाने समय समय पर आगे आते रहे हैं , यही पूरी बहस का सबसे रोचक पहलु भी है और सबसे दुःखद भी , क्योंकि राष्ट्रवाद इतना सहज और पवित्र विचार होते हुए भी अलग थलग दिखाई देता है  , संघ परिवार के उद्भव के सौ साल बाद तक भी राष्ट्रवाद अकेला चल रहा है , लाखों करोड़ों की पैदल सेना है , पर प्रचारक रुपी किले नहीं है !! मैं बचपन से संघ के वातावरण में ही पला बढ़ा हूँ , सैकड़ों संत रुपी विचारनिष्ठ तपस्वियों और मनीषियों को बहुत करीब से देखा है , इसलिए ये कहना की संघ परिवार के पास विचारक ही नहीं है ये उस महान संगठन के ऊपर मेरे जैसे अल्पज्ञानी का दिया हुआ लांछन होगा !! पर याद रखें आप जनता का दिल जीत लें , पर राज्य तो किले जीतने वाले का ही कहलाता है , "राज्य"के संदर्भ यहाँ उस  बौद्धिक विमर्श से है जिसमे हम हमेशा हारते आये हैं , पैदल की सेना रवीश कुमार पर गालियों की बौछार कर सकती है पर उसे हरा नहीं सकती , रवीश कुमार को हराने के लिए रवीश कुमार जैसे ही चाहिए ,रवीश कुमार महान भाषायी छलावे बाज हो , प्रोपगेंडिस्ट हो , पर लोग उसे सुनते हैं , सुनना चाहते हैं , और यही हमारी कुंठा का भी कारण है की हम उसे वैचारिक रूप से परास्त क्यों नहीं कर पा रहे ? उसी कुंठा से गालियां पैदा होती हैं !! 

बहस को थोड़ा सा अलग मोडते हुए ,  रवीश कुमार और उनके सोशल मीडिया छोड़ने की बहस के और भी पहलु हैं जिन्हे यहाँ बताना जरूरी है , उदाहरणतः , 2011  की कोई बहस हाल ही में यूट्यब पर देख रहा था जिसमे विनोद दुआ नरेंद्र मोदी के लिए ये शब्द इस्तेमाल करते हैं की "दस साल से ये आदमी गुजरात की जनता को टोपी पहना रहा है" , उसी दौर की ऐसी ही किसी बहस का मुझे याद है जिसमे रवीश कुमार मोदी के लिए कहते हैं "मजमा लगाकर चूरन बेचने और देश के लिए जान देने में फर्क है " , अब आप मुझसे इसपर बहस मत कीजियेगा की ये वाक्य किसी राज्य के निर्वाचित मुख्यमंत्री के लिए  "अपशब्द"या गाली की श्रेणी में नहीं आते !! अब इन स्टूडियो मठाधीशों के अहंकार में खलल इसलिए पड़ गया की जो जनता इनके ऐसे कथन सुनकर घर के ड्राइंग रूम में गालियां देती थी वो अब टेक्नोलॉजी के माध्यम से इतनी सक्षम हो गयी है की आपकी फेसबुक वॉल पर आकर आपको गालियां दे सके  और उसी से आपके अहम को चोट पहुँच रही है !! खैर ,  रवीश कुमार को हराना है तो गाली गलौच नहीं बल्कि अपनी तरफ के  "रवीश कुमार"खड़े करने होंगे , आइये ये समझते हैं की इस विचारधारा की लड़ाई में ऐसे प्रचारक क्यों जरूरी हैं !! 


प्रचारक रुपी किले क्यों जरूरी  ?
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आप में से कई बी पी सिंघल साहब को जानते होंगे , अब स्वर्गीय हैं , भगवान उनकी आत्मा को शांति दे , 2010 से 2012 -13 तक लगातार भाजपा , संघ की तरफ से सांस्कृतिक मुद्दों की पैरवी करने टीवी चैनलों पर आते थे , पैरवी क्या करते थे एक तरफा जीता जिताया मुद्दा हरवा कर आ जाते थे आप में से कोई आज भी उनकी बहसें देखेगा तो सोचेगा की ये वैचारिक आत्महत्या जैसा काम भाजपा इतने सालों तक कैसे करती रही ? कैसे इतनी आत्म मुग्ध बनी रही की जनता ऐसे प्रवक्ताओं के बारे में क्या सोच रही है उसे पता ही नहीं चला ? आपको बता दूँ सिंघल साहब यूपी के रिटायर्ड डायरेक्टर जनरल थे , मतलब उनकी वैचारिक क्षमता पर टिप्पणी शायद नहीं की जा सकती , तो फिर कमी कहाँ थी ? इसका व्यतिरेक (contrast ) समझना हो तो आज राकेश सिन्हा जी को सुनिए , कितनी बुद्धिमत्ता और अकाट्य ऐतिहासिक सन्दर्भों से समकालिक होते हुए अपनी बात को रखते हैं , शायद रवीश कुमार का असली "तोड़"गाली गलौच नहीं बल्कि राकेश सिन्हा जैसे हज़ारों प्रभावी विचारक / प्रचारक इस देश में पैदा करना है !! इसके एक दूसरे पर बड़े पहलु पर जाते हैं , इस देश में JNU जैसी कई संस्थाएं हैं जहाँ संपादकों , पत्रकारों और साहित्यकारों का सृजन होता है , यही सब "बुद्धिजीवी"मिलकर जनमानस का सृजन करते हैं ,  ऐसी संस्थाओं पर अपनी विचारधारा का प्रभुत्व कैसे हो इस पर भी सोचना होगा , क्योंकि ये प्रभुत्व ही आपके विचारों की छाप नीचले पायदानों तक ले जाने का काम करेगा !! 


प्रभावी प्रचारकों की कमी क्यों ?
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शीर्षक गलत है दरअसल , प्रभावी प्रचारकों की कमी नहीं बल्कि उन्हें मौके देने की कमी महसूस होती है , संघ जैसे अनुशासित संगठन में ऐसा होना प्राकृतिक सा लगता है , ऐसा होता है की "आधिकारिक लाइन"एक होती है और उसे भी व्यक्त करने वाले बहुत चुनिंदा लोग होते हैं , इसलिए विचारों की उन्निस्सी बीसी संभव ही नहीं होती , सेना की तरह स्वयंसेवक "विचारवान"होते हुए भी उस लाइन से अलग नहीं जाते , और जब लगातार पालन करते हुए ये एक परम्परा बन गयी तो लाइन से अलग बोलने लिखने वालों को अनुशासनहीन माना जाने लगा और छिठक दिया गया, गोविंदाचार्य जैसे उदाहरण हमारे पास हैं !! तो होता ये है की जब शीर्ष स्तर पर विचारों का तरलीकरण (dilution) सम्भव नहीं होता तो नीचे की पैदल सेना तक भी वही बात निर्मित होती है जिसमे लीक से एक प्रतिशत हटकर बात करने की भी कोई गुंजाईश ही नहीं होती , और यहीं से शुरू होता है "राष्ट्रवाद"का एकाकीपन , अब ये तो सब ही मानते हैं की संघ ही भारत में राष्ट्रवाद का ध्वजवाहक या ब्रांड एम्बेसेडर है , इसीलिये राष्ट्रवाद के चिंतन में सबसे ज्यादा अपेक्षाएं भी संघ से ही होनी चाहिए , एक उदाहरण देता हूँ , किसी भी राष्ट्रीय मुद्दे पर हमारा स्वर सबसे ऊंचा और प्रभावी तो होता है पर इकलौता होता है , पर "सुर से सुर"मिलाने वाली ना प्रवृत्ति होती है ना ऐसे लोग हमारे साथ होते हैं  , वो आवश्यक वृंदगान (chorus ) नहीं बनता जिससे उस मुद्दे पर जनभावना और जनजागृती और तीव्र हो उठे !! जैसे वामपंथी और नेहरूवादी विचारकों का उदाहरण लेते हैं , इस्लामिक आतंकवाद या वोटबैंक की राजनीती के मुद्दे पर मौलवियों को या इस्लामिक बुद्धिजीवियों को अकेले अपनी पैरवी नहीं करनी पड़ती  , ये स्टूडियो में आस पास बैठे , अख़बारों में स्तम्भ लिखने वाले तथाकथित विचारक उस वृंदगान का निर्माण कर देते हैं जिससे उस मुद्दे के खिलाफ प्रभावी तरीके से लड़ा जा सके , इधर हम अकेले थे और पूरे देश पर सत्तासीन होते हुए भी अकेले ही हैं !! तो ये वृंदगान कैसे बने , कैसे हमारे विचारों के करीब वाले लोग (दस बीस प्रतिशत इधर या उधर वाले या कहें उन्नीसे बीसे ) हम से जुड़ें और हमारे विचार को और मजबूत बनायें इसको हम नीचे समझेंगे , पर उससे पहले ये शंका दूर करना जरूरी है की सरकार बन जाना ही विचारधारा की जीत है क्या !!


क्या सरकार बन जाना ही विचारधारा की जीत है ? 
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कई लोगों को ये भ्रान्ति है की सरकार में निर्वाचित होना उस विचारधारा का जनता द्वारा अनुमोदन है , ये उतना ही गलत है जितना ये सोचना की दिल्ली के लोगों ने केजरीवाल को इसलिए चुना क्योंकि उन्होंने भ्र्ष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी !! 2014 के लोकसभा चुनाव में दरअसल कांग्रेस हारी है और एक व्यक्ति जीता है जिसका नाम है नरेंद्र मोदी।  विचारधारा ने उस व्यक्ति के लिए संघर्ष किया होगा , कहीं कहीं उत्प्रेरक का काम भी किया होगा पर इसे  ब्रांड "हिंदुत्व"को  भारतीय जनमानस का अनुमोदन समझने की भूल ना करें , कहीं अंतर्मन में उसके लिए सहानुभूति और प्रेम हो पर अनुमोदन तो कतई नहीं है ,  यही घर वापसी जैसे मुद्दों पर जनता की प्रतिक्रिया के रूप में हम देख भी चुके हैं !! इसके उलट, इतिहास में केंद्र और राज्यों की भाजपा शासित सरकारों ने भी ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे ये लगे की वे इसे जनता का अनुमोदन मानकर काम कर रहे हैं , उन्होंने ठीक वैसे काम किया जैसे राजनीतिक दल सामान्यतः काम करते हैं , अंग्रेजी में कहें तो performative या symbolic aspect अलग (की हाँ हम भी इस विचारधारा के लिए कटिबद्ध हैं ) और कार्यशैली निरीह सामान्य , हाँ थोड़ी बहुत ईमानदारी वाला प्रशासन जरूर दिखता रहा है !! इस विषय पर भी जिम्मेदार लोग दो तरह की बातें करते हैं , एक तरफ तो कहते हैं की सरकार बन जाने  से विचारधारा जीती है और दूसरी और चुनाव के वक्त सुनाई पड़ता है की "हमारे लिए विधायक या सांसद सिर्फ एक हाथ है जो संसद में वोटिंग के समय बटन दबायेगा , इसलिए हम इसकी ज्यादा चिंता नहीं करते" , कहीं सुनाई पड़ता है की "राजनीती में जीतना किसी भी हाल में जरूरी है"और उसी तर्क पर कांग्रेस से आये दलबदलूओं को लगे हाथ सत्ता की चाबी दी जाती है , आश्चर्य नही की फिर यही "हाथ"जब स्मार्टफोन पकडे विधानसभा में पोर्न फिल्म देखते हैं तो बिचारी विचारधारा ओंधे मुह धड़ाम गिरती सी दिखती है !! इसलिए एक विचार पर सहमत होना जरूरी है , सरकार बनने से विचारधारा की जीत है या नहीं है ?

भाजपा ने विचारधारा को मजबूत करने के लिए क्या काम किया इसकी भी बात करेंगे पर पहले समझते हैं की हमारे विचार से निकटता रखने वालों को कैसे जोड़ा जाए !! (जो आपके ना होकर भी आपके मुद्दे पर सहमती का माहौल बनायें )


वृंदगान कैसे बने 
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मेरे पाठक ज्यादातर सोशल मीडिया से हैं , उन्हें राजीव मल्होत्रा जी का नाम बताने की ज़रुरत नहीं है , इस एक मनीषी ने राष्ट्रवाद और हिंदुत्व की जितनी सेवा है उसे व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं , पढ़े लिखे शहरी युवा या कहें बुद्धिजीवी वर्ग को एक मुख्यधारा (मुख्यधारा है मानवतावाद , धर्म निरपेक्षता ) से अलग विचार के लिए संतुष्ट करना बहुत टेढ़ी खीर होती है , मल्होत्रा जी ने ये जटिल काम एक बहुत बड़ी सफलता के साथ पूरा किया है !! एक बार किसी पत्रकार ने उनसे विश्व हिन्दू परिषद या संघ से जुड़ा कोई प्रश्न पूछा , उन्होंने सीधे कहा "उनसे जुड़े प्रश्न उनसे ही पूछिये " , इतना कहना समझने वालों के लिए काफी होगा की दूरियां किस कदर हैं , वृंदगान बनाना तो दूर की बात यहाँ लोग मौन स्वीकृति भी देना नहीं चाहते !! इसमें दोनों और के अहम को मैं दोष देना चाहूंगा , एक तरफ एक संगठन है जो सोचता है की हमारे विचार से उन्नीसे व्यक्ति से हमें कोई लेना देना नहीं , दूसरी और व्यक्ति हैं जिनका अपना "हठ"है , ये सब करीब आना तो दूर एक हॉल में एक साथ किसी मिलन समारोह में भी साथ नहीं बैठना चाहते !! पर ये बात याद रखी जानी चाहिए की वैचारिक लड़ाई अकेले नहीं लड़ी जा सकती , खासकर तब जब आप को शत्रु के केम्प में कौन कौन है और किस किस भेस में बैठा है उसका भी ज्यादा भेद नहीं हो , आज पत्रकार , साहित्यकार , संपादक , यहाँ तक की फिल्म डाइरेक्टर और कलाकार तक भी किसी न किसी विचारधारा को आगे बढ़ाने एक "एजेंट"की भूमिका में है , सामान्य जनता ये न कभी समझी थी ना कभी समझेगी , इसलिए उन्हें लगातार बेनकाब करने के कुचक्र में फंसकर अपनी जगहंसाई और अपना समय और ऊर्जा बर्बाद करने में कोई बुद्धिमत्ता नहीं !! बुद्धिमत्ता इसमें है की आप भी ऐसे प्रचारक विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित कीजिये जो समय समय पर अलग अलग मुद्दों पर तटस्थ आवाज़ के तौर पर आपके साथ वृंदगान कर सकें !! इसके तीन उदाहरण देता हूँ , राम सेतु के मुद्दे पर हम सब भावनात्मक बचाव करते रहे , जबकि पर्यावरणविदों का एक बहुत बड़ा समूह भी राम सेतु को बचाने के पक्ष में था , पर दिक्कत ये थी की ना वे हमारे साथ खड़े होना चाहते थे ना हम उनके साथ , इसलिए वृंद बनने की सारी संभावनाएं होते हुए भी नहीं बन पाया , सोचिये अगर पर्यावरण संरक्षण जैसे क्षेत्र में जुड़े और हमारे विचार के निकट लोगों को हमने जोड़ने की कोशिश की होती तो माहौल क्या और अच्छा नहीं बनता ? दूसरा उदाहरण , साध्वी प्रज्ञा को कैंसर है , हमारे सारे संगठनों को जैसे लकवा मारा हुआ है , कोई कुछ बोलता ही नहीं , इस डर में की लांछन उनपर भी ना लग जाए , क्या कुछ मानवाधिकार संगठनों में हमारी पैठ होती या पांच दस हमारे पैसे से खड़े हुए संगठन होते तो हमें भी बोलने की ज़रुरत नहीं पड़ती और काम ज्यादा प्रभावी ढंग से सध जाता !! तीसरा उदाहरण , समान नागरिक संहिता की बात हम करते हैं तो वो सांप्रदायिक रंग ले लेती है , क्यों ना ये आवाज़ लोकतान्त्रिक नागरिक अधिकारों की बात करने वाला कोई एनजीओ उठाये ? क्या फर्क नहीं पड़ेगा ? क्या असर ज्यादा नहीं होगा ?  सोचिये अगर ऐसा गैर राजनीतिक वृंदगान जनता में समान नागरिक संहिता के लिए लहर पैदा कर दे तो सरकार के लिए ये निर्णय लेना तो चुटकियों का काम हो जाये , पर सरकार भी किस किस्म की निठल्ली हैं इसको आगे समझते हैं , देखते हैं भाजपा की सरकारों ने आजतक विचारधारा के लिए  क्या किया -  


भाजपा का वैचारिक दामन 
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इस पूरी बहस में सबसे ज्यादा निराश भाजपा ने किया है , अगर आप किसी भाजपा शासित प्रदेश में रहते हैं और रोज़ अख़बार पढ़ते हैं तो आप देखते होंगे की मुख्यमंत्री के लिए हमेशा वहां के संपादकों और पत्रकारों की भाषा में एक नरम रुख रहेगा , कई बार तो उनका महिमामंडन और यश गान ही देखा जायेगा , पर हिंदुत्व , राष्ट्रवाद या फिर संघ के लिए वही जहर उगलू और प्रोपेगेंडा वाली भाषा रहेगी , समझने वाले समझ ही जाते हैं की पैसा कहाँ और किसके लिए लगा है  !! इसका थोड़ा थोड़ा असर तो अब दिल्ली के मीडिया हाउसों में भी देखने को मिल रहा है , जहाँ प्रधानमंत्री का यश गान तो हो रहा है पर राष्ट्रवाद का ? क्या पता !! विचारधारा की रीढ़ तो दूर की कौड़ी है , किसी ज़माने में जब इस दल के शीर्षस्थ नेताओं के मुख्य सलाहकार बृजेश मिश्र और सुधींद्र कुलकर्णी जैसे राष्ट्रवाद से नफरत करने वाले लोग हों तो सोचना पड़ेगा की सत्ता में आने के बाद ये वैचारिक नपुंसकता का कारण क्या होता होगा !! वैसे हमें ये भी समझना होगा की बिना विचारकों और प्रचारकों की रीढ़ तैयार किये , बिना उनके सृजन केन्द्रों (जो हमने पहले खडं में समझा ) पर प्रभुत्व स्थापित किये विचारधारा का गुणगान इन कॉर्पोरेट दलालों से करवाना लगभग असंभव ही है !! एक उदाहरण देता हूँ , आपके राज में एक सरस्वती शिशु मंदिर का आचार्य अरबपति खनन कारोबारी बन गया , और ये तो सिर्फ एक उदाहरण है , ऐसे सेकड़ो व्यापारी , बिल्डर , उद्योगपति आपसे लाभान्वित होते हैं , क्या ऐसे धन्ना सेठ कोई अख़बार , कोई न्यूज़ चैनल खड़े नहीं कर सकते जिनका स्तर इन एनडीटीवी और टाइम्स नाउ से बेहतर हो और जो राष्ट्रवाद की अलख भी जगाये ? 

इसका व्यतिरेक देखना हो तो पश्चिम बंगाल के अख़बार उठाइये , ममता बेनर्जी के सत्ता में आने के इतने साल बाद भी वहां के लेख और ख़बरों में वामपंथ की बू आती है , बंगाल की आधी आबादी बिना कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बने वामपंथ की तरह सोचती समझती और सांस लेती है , आप आज जो ये हिंदुत्व पर विष वमन करते मुख्यधारा के पत्रकार , संपादक , फिल्म निर्देशक देखते हैं उनका अतीत टटोलियेगा , कहीं न कहीं बंगाल उनके बायोडाटा में होगा ही ,इसे अंग्रेजी में कहते हैं "ब्रेनवाश"या डीएनए मेनिपुलेशन  !! 

ये कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगी की भाजपा तो विचारकों और प्रचारकों की ऐसी रीढ़ बनाना ही नहीं चाहती क्योंकि ऐसा हो गया तो ये रीढ़ और ये वैचारिक प्रचारक किले उनके ऑडिटर या ombudsmen की तरह हो जायेंगे जो ये सुनिश्चित करेंगे की पार्टी या सरकार विचारधारा से भटके नहीं और कोई एक सत्तारूढ़ व्यक्ति जो चाहे मन मुताबिक शासन कर सके और वही "परम सत्य"कहलाने लगे !! आजकल तो संघ का मार्गदर्शन भी कईयों को नागवार गुज़रता है , तभी तो वे दिन रात हिंदुत्व को गरियाने वाले राजदीप सरदेसाई की पुस्तक का विमोचन करने बेझिझक पहुँच पाते हैं , तभी तो वादे "जुमले"हो जाते हैं , तभी तो गजेन्द्र चौहान जैसे Yes Man से अच्छा व्यक्ति पूरे फिल्म जगत में उन्हें कोई मिल ही नहीं पाता , तभी तो नेताजी की फाइलें खुल ही नहीं पाती , तभी तो संघ के हस्तक्षेप से पहले तक वन रेंक वन पेंशन के वादे को डकारने का मूड बन जाता है ,तभी तो तरुण विजय , शेषाद्री चारी , अरुण शौरी जैसे विचारवान लोग हाशिये पर चले जाते हैं , तभी तो !! 

अंत में
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हिंदुत्व कह लीजिये , राष्ट्रवाद कह लीजिये या भारतीयता कह लीजिये , इस विचार में अनंत संभावनाएं हैं , इस विचार में मानवता की सेवा की , विश्व कल्याण करने की अपार शक्ति है , आज के पाखंड से भरे मानवतावाद और सेक्युलरवाद धीरे धीरे फेल हो रहे हैं , लोग दूसरे विचारों की और देख रहे हैं , इसी के लिए आने वाले दिनों में समकालिक होते हुए , यूवा और आधुनिक सोच को आत्मसात किये हुए , राष्ट्रवाद का प्रबल और प्रभावी प्रस्तुतीकरण करने वाले हज़ारों विचारक - प्रचारक हमें चाहिए होंगे, उनका बड़े पैमाने पर सृजन कैसे हो उसकी चिंता हमें करनी होगी , हम पहले से ही देरी से चल रहे हैं , वृंद गान के लिए हज़ारों लोग सैकड़ों संगठनों से चाहिए होंगे जिनका हमारे संगठन से कोई सम्बन्ध न हो फिर भी वैचारिक रूप से हम और वे एक साथ खड़े दिखें , हम अकेले नहीं चल सकते , अगर चलते हैं तो ये हमारा अहंकार है ,  हम इस विचारधारा के ध्वजवाहक हैं , हमारे पीछे चल रहे लोग हमारे साथ वैचारिक तारतम्य में है की नहीं ये देखना भी हमारा कर्तव्य है !! जब तक ये नहीं होगा तब तक रिमोट चालित पैदल सेना ऐसे ही गाली गलौच से किले फतह करने की कोशिश करती रहेगी और चुनिंदा सत्तासीन अपने ड्राइंग रूम से इस नज़ारे के चटकारे उड़ाते रहेंगे !! लड़ाई बहुत भीषण है , लड़ाई सभ्यताओं की है , मोदी या राहुल या केजरीवाल की नहीं !! तैयार रहें !!

Owaisi Monarchy and History of Kasim Rizvi

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ओवैसियों का काला इतिहास और कासिम रिज़वी...


आजकल भारत की राजनीति में तेजी से उभरता हुआ नाम है असदुद्दीन ओवैसी. AIMIM अर्थात ऑल इण्डिया “मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन” के नेता और मुस्लिमों के बीच तेजी से अपनी पैठ बनाते जा रहे हैदराबादी. असदुद्दीन ओवैसी ने लन्दन से वकालत की पढ़ाई की है, इसीलिए अक्सर चैनलों पर बहस में अथवा साक्षात्कारों में बेहतरीन तरीके से “कुतर्क” कर लेते हैं. इन्हीं के छोटे भाई हैं अकबरुद्दीन ओवैसी (Akbaruddin Owaisi). अकबरुद्दीन की अभी कोई खास देशव्यापी पहचान नहीं बन पाई है, सिवाय इसके कि पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान इन्होंने कई चुनावी सभाओं में जहरीले भाषण दिए. जिस कारण इन पर कुछ मुक़दमे दर्ज हुए और चंद दिनों हवालात में काटकर आए. तेलंगाना विधानसभा में एक विधायक से अधिक फिलहाल उनकी हैसियत सिर्फ असदउद्दीन ओवैसी के भाई की ही है. खैर, यह तो हुआ AIMIM का संक्षिप्त वर्तमान इतिहास, लेकिन क्या आपने कभी इस बात पर गौर किया कि अकबरुद्दीन ओवैसी जहरीले भाषण क्यों देता है? अथवा असदउद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) सिर्फ मुस्लिमों की राजनीति क्यों करता है? इनके भाषण और इंटरव्यू अक्सर मुस्लिम साम्प्रदायिकता के इर्द-गिर्द क्यों रहते हैं? इसके लिए आपको AIMIM के इतिहास, उसके जन्म और पिछले नेताओं के बारे में जानना जरूरी है.


आईये चलते हैं देश की आज़ादी के कालखण्ड में. जैसा कि हम सभी जानते हैं स्वतंत्रता प्राप्ति के समय सरदार पटेल को गृह मंत्रालय सौंपा गया था ताकि वे देश की पाँच सौ से अधिक रियासतों और राजाओं को समझाबुझा कर भारत गणराज्य में शामिल करें, ताकि यह देश एक और अखंड बने. अंग्रेजों के जाने के बाद उस समय अधिकाँश रियासतों ने खुशी-खुशी भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार किया और आज जो भारत हम देखते हैं वह इन्हीं विभिन्न रियासतों से मिलकर बना. उल्लेखनीय है कि उस समय कश्मीर को छोड़कर देश की बाकी रियासतों को भारत में मिलाने का काम सरदार पटेल को सौंपा गया था, जिसे उन्होंने बखूबी अंजाम दिया. नेहरू ने उस समय कहा था कि कश्मीर को मुझ पर छोड़ दो, मैं देख लूँगा. इस एकमात्र रियासत को भारत में मिलाने का काम अपने हाथ में लेने वाले नेहरू की बदौलत, पिछले साठ वर्ष में कश्मीर भारत की छाती पर नासूर ही बना हुआ है. ऐसा ही एक नासूर दक्षिण भारत में “निजाम राज्य” भी बनने जा रहा था.उन दिनों वर्तमान तेलंगाना और मराठवाड़ा के कुछ हिस्सों को मिलाकर हैदराबाद रियासत अस्तित्त्व में थी, जिस पर पिछले कई वर्षों से निजाम शासन कर रहे थे. सरदार पटेल ने निजाम से आग्रह किया था कि भारत में मिल जाईये, हम आपका पूरा ख़याल रखेंगे और आपका सम्मान बरकरार रहेगा. निजाम रियासत की बहुसंख्य जनता हिन्दू थी, जबकि शासन निजाम का ही होता था. लेकिन निजाम का दिल पाकिस्तान के लिए धड़क रहा था. वे ऊहापोह में थे कि क्या करें? क्योंकि हैदराबाद की भौगोलिक स्थिति भी ऐसी नहीं थी, कि वे पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) के साथ को जमीनी तालमेल बना सकें, क्योंकि बाकी चारों तरफ तो भारत नाम का गणराज्य अस्तित्व में आ ही चुका था. फिर निजाम ने ना भारत, ना पाकिस्तान अर्थात “स्वतन्त्र” रहने का फैसला किया. निजाम की सेना में फूट पड़ गई, और दो धड़े बन गए. पहला धड़ा जिसके नेता थे शोएबुल्लाह खान और इनका मानना था कि पाकिस्तान से दूरी को देखते हुए यह संभव नहीं है कि हम पाकिस्तानी बनें, इसलिए हमें भारत में विलय स्वीकार कर लेना चाहिए, लेकिन दूसरा गुट जो “रजाकार” के नाम से जाना जाता था वह कट्टर इस्लामी समूह था और उसे यह गुमान था कि मुसलमान हिंदुओं पर शासन करने के लिए बने हैं और मुग़ल साम्राज्य फिर वापस आएगा. रजाकारों के बीच एक व्यक्ति बहुत लोकप्रिय था, जिसका नाम था कासिम रिज़वी. 


(Kasim Rizvi) 

कासिम रिज़वी अलीगढ़ से वकालत पढ़कर आया था और उसके जहरीले एवं उत्तेजक भाषणों की बदौलत वह जल्दी ही रियासत के प्रधानमंत्री मीर लईक अली का खासमखास बन गया. कासिम रिज़वी का स्पष्ट मानना था कि निजाम को दिल्ली से संचालित हिंदुओं की सरकार के अधीन रहने की बजाय एक स्वतन्त्र राज्य बने रहना चाहिए. अपनी बात मनवाने के लिए रिज़वी ने सरदार पटेल के साथ कई बैठकें की, परन्तु सरदार पटेल इस बात पर अड़े हुए थे कि भारत के बीचोंबीच एक “पाकिस्तान परस्त स्वतंत्र राज्य” मैं नहीं बनने दूँगा. कासिम रिज़वी धार्मिक रूप से एक बेहद कट्टर मुस्लिम था. सरदार पटेल के दृढ़ रुख से क्रोधित होकर उसने रजाकारों के साथ मिलकर निजाम रियासत में उस्मानाबाद, लातूर आदि कई ठिकानों पर हिन्दुओं की संपत्ति लूटना, हत्याएँ करना और हिन्दुओं को मुस्लिम बनाने जैसे “पसंदीदा” कार्य शुरू कर दिए.हालाँकि कासिम के इस कृत्य से निजाम सहमत नहीं थे, लेकिन उस समय तक सेना पर उनका नियंत्रण खो गया था. इसी बीच कासिम रिज़वी ने भारत में विलय की पैरवी कर रहे शोएबुल्ला खान की हत्या करवा दी. MIM का गठन नवाब बहादुर यार जंग और कासिम रिजवी ने सन 1927 में किया था, जब हैदराबाद में उन्होंने इसे एक सामाजिक संगठन के रूप में शुरू किया था. लेकिन जल्दी ही इस संगठन पर कट्टरपंथियों का कब्ज़ा हो गया और यह सामाजिक की जगह धार्मिक-राजनैतिक संगठन में बदल गया. 1944 में नवाब जंग की असमय अचानक मौत के बाद कासिम रिज़वी MIM का मुखिया बना और अपने भाषणों की बदौलत उसने “रजाकारों” की अपनी फ़ौज खड़ी कर ली (हालाँकि आज भी हैदराबाद के पुराने बाशिंदे बताते हैं कि नवाब जंग कासिम के मुकाबले काफी लोकप्रिय और मृदुभाषी था, और कासिम रिजवी ने ही जहर देकर उसकी हत्या कर दी). MIM के कट्टर रुख और रजाकारों के अत्याचारों के कारण 1944 से 1948 तक निजाम राजशाही में हिंदुओं की काफी दुर्गति हुई.बहरहाल, अब तक आपको MIM के मूल DNA के बारे में काफी कुछ समझ में आ गया होगा. अब आगे... 

सरदार पटेल MIM और कासिम की रग-रग से वाकिफ थे. October Coup – A Memoir of the Struggle for Hyderabad नामक पुस्तक के लेखक मोहम्मद हैदर ने कासिम रिजवी से इंटरव्यू लिया था उसमें रिजवी कहता है, “निजाम शासन में हम भले ही सिर्फ बीस प्रतिशत हों, लेकिन चूँकि निजाम ने 200 साल शासन किया है, इसका अर्थ है कि हम मुसलमान शासन करने के लिए ही बने हैं”, इसी पुस्तक में एक जगह कासिम कहता है, “फिर एक दिन आएगा, जब मुस्लिम इस देश पर और निजाम हैदराबाद पर राज करेंगे”. जब सरदार पटेल ने देखा कि ऐसे कट्टर व्यक्ति के कारण स्थिति हाथ से बाहर जा रही है, तब भारतीय फ़ौज ने “ऑपरेशन पोलो” के नाम से एक तगड़ी कार्रवाई की और रजाकारों को नेस्तनाबूद करके सितम्बर 1948 में हैदराबाद को भारत में विलय करवा दिया.सरदार पटेल ने MIM पर प्रतिबन्ध लगा दिया और कासिम रिजवी को गिरफ्तार कर लिया गया. चूँकि उस पर कमज़ोर धाराएँ लगाई गईं थीं, और उसने भारत सरकार की यह शर्त मान ली थी कि रिहा किए जाने के 48 घंटे के भीतर वह भारत छोड़कर पाकिस्तान चला जाएगा, सिर्फ सात वर्ष में अर्थात 1957 में ही वह जेल से बाहर आ गया. माफीनामे की शर्त के मुताबिक़ उसे 48 घंटे में भारत छोड़ना था. कासिम रिजवी ने ताबड़तोड़ अपने घर पर MIM की विशेष बैठक बुलाई.  


(Abdul Wahid Owaisi) 

डेक्कन क्रॉनिकल में इतिहासकार मोहम्मद नूरुद्दीन खान लिखते हैं कि भारतीय फ़ौज के डर से कासिम रिजवी के निवास पर हुई इस आपात बैठक में MIM के 120 में से सिर्फ 40 प्रमुख पदाधिकारी उपस्थित हुए. इस बैठक में कासिम ने यह राज़ खोला कि वह भारत छोड़कर पाकिस्तान जा रहा है और अब सभी लोग बताएँ कि “मजलिस” की कमान संभालने में किसकी रूचि है? उस बैठक में मजलिस (MIM) में भर्ती हुआ एक युवा भी उत्सुकतावश पहुँचा हुआ था, जिसका नाम था अब्दुल वाहिद ओवैसी (अर्थात वर्तमान असदउद्दीन ओवैसी के दादा). बैठक में मौजूद वरिष्ठ नवाब मीर खादर अली खान ने ओवैसी का नाम प्रस्तावित किया और रिजवी ने इस पर अपनी सहमति की मुहर लगाई और पाकिस्तान चला गया. वह दिन है, और आज का दिन है... तब से MIM पर सिर्फ ओवैसी परिवार का पूरा कब्ज़ा है. 


अब्दुल वाहिद ओवैसी ने MIM के साथ All India शब्द भी जोड़ दिया और वह AIMIM बन गई. कासिम रिजवी से प्राप्त “कट्टर इस्लामिक परंपरा” को अब्दुल वाहिद ने भी जारी रखा, और जहरीले भाषण देने लगा. 14 मार्च 1958 को हैदराबाद पुलिस ने ओवैसी को भडकाऊ भाषण, दंगा फैलाने, गैर-मुस्लिमों के प्रति घृणास्पद बयान देने के कारण गिरफ्तार कर लिया. वाहिद ओवैसी ग्यारह महीने तक चंचलगुडा जेल में कैद रहा.वाहिद ओवैसी की गिरफ्तारी को उनके बेटे सुलतान सलाहुद्दीन ओवैसी ने आंध्रप्रदेश हाईकोर्ट में चुनौती दी, लेकिन हाईकोर्ट ने उसे खारिज कर दिया और ओवैसी को जेल में ही रहना पड़ा. 1976 में अपने पिता की मौत के बाद सुलतान सलाउद्दीन ओवैसी ने AIMIM की ताजपोशी हासिल की और पूरे आंध्रप्रदेश में इसका विस्तार करना आरम्भ किया. ओवैसी परिवार शुरू से ही हैदराबाद को अपनी रियासत समझता रहा है, इसीलिए बादशाहों की तर्ज पर पहले अब्दुल वाहिद, फिर सुलतान सलाहुद्दीन और अब असदउद्दीन ओवैसी इस पार्टी को अपनी निजी जागीर समझकर चलाते आए हैं. मैं समझ सकता हूँ, कि आपको अचानक कश्मीर याद आ गया होगा, जहाँ शेख अब्दुल्ला, फारुक अब्दुल्ला और अब उमर अब्दुल्ला अपनी “जागीर” चला रहे हैं.  


(Sultan Salahuddin Owaisi) 

बहरहाल, जब हैदराबाद में आप ओवैसी खानदान के किसी चश्मो-चिराग से AIMIM का इतिहास पूछेंगे अथवा उनकी वेबसाईट पर जाएँगे तो आपको बताया जाएगा कि AIMIM की स्थापना मौलवी अब्दुल वाहिद ओवैसी ने 1958 में की, जिन्हें “राजनैतिक कारणों और मुसलमानों की आवाज़ उठाने” के जुर्म में दस माह की जेल हुई थी. अपना “काला इतिहास” बताने में AIMIM को इतनी शर्म (या कहें धूर्तता) आती है कि वेबसाईट कासिम रिज़वी और उसके रजाकारों द्वारा किए गए कट्टर और हिंसक कारनामों के बारे में एकदम खामोश रहती है. “अल-तकैया” की नीति अपनाते हुए 1948 से 1957 के बीच का इतिहास गायब कर दिया गया है.अब आपको अकबरुद्दीन ओवैसी के जहरीले और धार्मिक भाषणों तथा पुराने हैदराबाद में ओवैसी परिवार की बेताज बादशाहत एवं अकूत धन-संपत्ति सहित इसी परिवार के विभिन्न ट्रस्टों के माध्यम से तमाम स्कूल-कॉलेज-अस्पताल-संस्थाएँ आदि पर पूर्ण कब्जे की कहानी और इसका DNA समझ में आ गया होगा.  

ओवैसी के बढ़ते राजनैतिक रसूख से यूपी-बिहार और महाराष्ट्र सहित देश के कई भागों में एक विशिष्ट किस्म की “सेकुलर बेचैनी” उभरने लगी है.महाराष्ट्र विधानसभा के गत चुनावों में ओवैसी ने अपने कई उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारे, और उनमें से दो विधायक चुने भी गए. इसके अलावा औरंगाबाद नगर निगम में भी AIMIM दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. फिलहाल असदउद्दीन ओवैसी इसके लोकसभा सांसद हैं, और अकबरुद्दीन ओवैसी सहित इस पार्टी के सात विधायक तेलंगाना विधानसभा में मौजूद हैं. मुस्लिम वोटों के प्रमुख सौदागर अर्थात समूचे देश में काँग्रेस, यूपी में मुलायम सिंह, बिहार में लालू-नीतीश और महाराष्ट्र में NCP ये सभी लोग मुसलमानों के बीच ओवैसी के चढ़ते बुखार से परेशान हैं. अपने पिछले बयानों में ये सभी पार्टियाँ AIMIM और ओवैसी बंधुओं को “सेकुलरिज़्म” का सर्टिफिकेट बाँट चुकी हैं, परन्तु जब ओवैसी ने पहले महाराष्ट्र और अब बिहार चुनावों में मजबूत दस्तक दी है, तब से (कु) बुद्धिजीवियों द्वारा सेकुलरिज़्म का यह सर्टिफिकेट उनसे वापस लिया जा रहा है.मजे की बात यह है कि पुराने हैदराबाद में ओवैसी के एकछत्र साम्राज्य और अन्य राज्यों के मुस्लिम वोटरों में सेंधमारी से सिर्फ सेकुलर बिरादरी ही परेशान है, मुस्लिमों का एक वर्ग भी अब ओवैसी बंधुओं की अनियमितताओं और दबाव की राजनीति के खिलाफ आवाज़ उठाने लगा है. 


(Asaduddin Owaisi) 

हाल ही में मुस्लिम मिरर.कॉम नामक वेबसाईट परआए एक लेख में ओवैसी बंधुओं पर कई तीखे सवाल दागे गए हैं. किसी मुस्लिम द्वारा ही लिखे गए इस लेख में ओवैसी बंधुओं से उनका इतिहास खोदते हुए सवाल पूछा गया है कि जब कासिम रिज़वी पाकिस्तान भाग गया तो उस समय AIMIM के पास जो संपत्ति और मालमत्ता थी उस पर ओवैसी परिवार ने कब्ज़ा कर लिया, वह संपत्ति कितनी थी और उसका हिसाब-किताब क्या है? इसी प्रकार इस मुस्लिम लेखक ने इस लेख में यह सवाल भी किया है कि सुलतान सलाहुद्दीन ओवैसी के जमाने से वक्फ की संपत्ति जिस अनुपात में घटती गईं, ओवैसी परिवार की संपत्ति उसी अनुपात में बढ़ती गई, ऐसा क्योंकर हुआ?सलाहुद्दीन ओवैसी वर्षों तक सांसद रहे, उसके बाद असदउद्दीन भी सांसद हैं, एक ही परिवार से अकबरुद्दीन भी विधायक हैं, इसके अलावा चचेरे-ममेरे-फुफेरे भाईयों-भतीजों की टीम भी विधायकी, महापौर और पार्षदों के पदों पर काबिज है, इस “ओवैसी परिवारवाद” के बारे में कोई जवाब नहीं मिलता. ओवैसी बंधुओं से इस लेखक का अधिक चुभने वाला सवाल यह है कि हैदराबाद और तेलंगाना के बड़े हिस्से में दारुल उलूम द्वारा संचालित मुसलमानों की शिक्षण संस्थाएँ और मदरसे धीरे-धीरे बन्द क्यों होते चले गए, जबकि ओवैसी परिवार के ट्रस्ट द्वारा संचालित निजी स्कूल-कॉलेज जमकर फल-फूल रहे हैं. इसके अलावा जब से ओवैसी परिवार की मुठ्टी में सत्ता बन्द है, तब से लेकर आज तक हैदराबाद में कई बार हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए, लेकिन फिर भी उस समय ओवैसियों ने सत्ताधारी काँग्रेस का दामन नहीं छोड़ा, ना ही काँग्रेस की कोई आलोचना की.चलो माना कि ये तो सुलतान सलाहुद्दीन के समय की बात थी, लेकिन जब से असदउद्दीन ओवैसी के हाथ में AIMIM के सत्ता-सूत्र आए हैं, उसके बाद ओल्ड मलकापेट मस्जिद की जमीन अतिक्रमणकारियों ने हथियाई, रामोजी फिल्म सिटी में वक्फ बोर्ड की जमीन रामोजी ने कब्ज़ा कर ली, किरण कुमार रेड्डी तथा राजशेखर रेड्डी के रिश्तेदारों ने भी हैदराबाद में वक्फ बोर्ड की मौके की जमीन लूट ली, लेकिन असदुद्दीन ओवैसी चुप्पी साधे रहे. ओवैसी बंधुओं को अचानक इस्लाम की याद तब आई जब मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी से उनके सम्बन्ध खटास भरे हुए और रेड्डी ने “ओवैसी परिवार की शिक्षा और चिकित्सा इंडस्ट्री”अर्थात मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों की जाँच और अनियमितताओं के बारे में पूछताछ आरम्भ की. 

फिलहाल ओवैसी बंधु अपनी पार्टी को “अखिल भारतीय” बनाने के चक्कर में पूरे देश में मुस्लिम वोटरों की थाह ले रहे हैं और कथित सेकुलरों का दुर्भाग्य कहें कि मुस्लिमों का एक तबका इनकी पार्टी की तरफ आकर्षित भी हो रहा है. हिन्दू संगठन ओवैसी को शुरू से ही संदेह की निगाह से देखते आए हैं, क्योंकि अधिकाँश हिंदुओं को उनके परिवार और रजाकारों के “काले इतिहास” के बारे में जानकारी है. क्या अब तक आप ओवैसियों के इस पाकिस्तान परस्त, धार्मिक कट्टरतापूर्ण व्यवहार तथा हैदराबाद में उनके भ्रष्टाचार, एकाधिकार और कब्जे की राजनीति के इतिहास से परिचित थे? मुझे यकीन है, नहीं होंगे.क्योंकि जब हमारे देश के कथित सेकुलर बुद्धिजीवी, वामपंथी इतिहासकार और पत्रकारनुमा व्याख्याकारों को दिल्ली में ठीक उनकी नाक के नीचे इमाम बुखारी की “तमाम बीमारियाँ” ही नहीं दिखाई देतीं, तो हैदराबाद तो उनके लिए बहुत दूर है. 

RSS-BJP Coordination Meeting

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संघ-भाजपा समन्वय बैठक : सिर्फ समन्वय या नाराजी और दबाव? 


यदि कोई व्यक्ति यह कहे कि वह दूध में घुली हुई शकर को देख सकता है, या छानकर दोनों को अलग-अलग कर सकता है, तो निश्चित ही या तो वह कोई महात्मा होगा या फिर कोई मूर्ख होगा. इसी प्रकार जब कोई यह कहता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा सरकारों का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है, संघ एक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन है और वह किसी भी सरकार के काम में दखलंदाजी नहीं करता, तो बरबस हँसी छूट ही जाती है. 



सितम्बर के पहले सप्ताह में देश के मुख्यधारा मीडिया ने दिल्ली के मध्यप्रदेश भवन “मध्यांचल” में सम्पन्न हुई संघ-भाजपा की “समन्वय बैठक” को लेकर जैसा हंगामा मचाया उससे यह पता चलता है कि या तो ये कथित पत्रकार अपरिपक्व हैं, या फिर संघ की कार्यशैली को जानते नहीं हैं या फिर खामख्वाह विरोध के लिए विरोध कर रहे हैं. RSS-भाजपा की ऐसी समन्वय बैठकें लगातार होती रहती हैं और आगे भी होती रहेंगी, क्योंकि परोक्ष एवं अपरोक्ष रूप से दोनों एक ही हैं. जो भी विश्लेषक संघ को पिछले पचास वर्ष से जानता है, उसे यह पता होना ही चाहिए कि यह एक “मातृसंस्था” है, जिसमें से निकली हुई विभिन्न संतानें, चाहे वह विश्व हिन्दू परिषद् हो, भाजपा हो, भारतीय मजदूर संघ हो या विद्या भारती हो, सभी एक छाते के नीचे हैं. ऐसे में केन्द्र की “पूर्ण बहुमत” वाली पहली भाजपा सरकार के साथ “समन्वय बैठक” करना कोई अजूबा नहीं था, न है और न होना चाहिए.

असल में मीडिया में इस प्रकार के विवाद पैदा होने का एक प्रमुख कारण संघ की मीडिया से दूरी बनाए रखने की नीति भी है. जब भी RSS की कोई प्रमुख बैठक होती है, अथवा चिंतन शिविर होता है अथवा विशिष्ट पदाधिकारियों के साथ भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ कोई समन्वय बैठक होती है तो संघ की “परंपरा” के अनुसार मीडिया को उससे बाहर रखा जाता है. ऐसा करने से मीडिया में सिर्फ वही बात आती है, जो बाद में एक प्रेस विज्ञप्ति के जरिये उन्हें बता दी जाती है और उसका अर्थ वे लोग अपने-अपने स्वार्थों एवं अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार लगाकर जनता के समक्ष पेश करते हैं. संघ की इस “मीडिया दुत्कारो नीति” को लेकर जानकारों में मतभेद हैं, कुछ लोगों का मानना है कि संघ की अंदरूनी बातें मीडिया तक नहीं पहुँचनी चाहिए, इसलिए यह इंतजाम ठीक है. जबकि कुछ लोगों का मानना है कि ऐसा करने से मीडिया अपनी मनमर्जी के अनुसार संघ की छवि गढ़ता है या विकृत करता है. वर्तमान में चाहे कोई भी देश हो, मीडिया एक प्रमुख हथियार है और यदि कोई संगठन इस हथियार से ही दूरी बनाकर रखे तो यह सही नहीं है.लेकिन संघ ने शुरू से ही मीडिया और जनता के सामने स्वयं को रहस्य के आवरण में ढँका हुआ है. इसके निर्णय तभी सामने आते हैं जब उन पर अमल शुरू हो जाता है. 


दिल्ली में जो “समन्वय” बैठक हुई, वह भी रहस्य के आवरणों में ही लिपटी हुई थी. इस तीन दिवसीय बैठक में स्वयं संघ प्रमुख और कई अन्य प्रमुख पदाधिकारी उपस्थित थे. इस बैठक में संघ के पूर्व प्रवक्ता और फिलहाल जम्मू-कश्मीर प्रभारी राम माधव एक समन्वयक के रूप में मौजूद थे, जबकि सत्ता केन्द्र के सभी प्रमुख मंत्री अर्थात श्रीमती सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, राजनाथ सिंह, मनोहर पर्रीकर और नितिन गड़करी एक के बाद एक पधारे और उन्होंने अपनी बात रखी, जिसे समन्वय नाम दिया गया. लेकिन चूँकि भारत के (अधिकांशतः हिन्दू विरोधी) मीडिया को नरेंद्र मोदी नाम की “रतौंधी” है, इसलिए सबसे अधिक हल्ला उस बात पर मचा, जब यह निश्चित हुआ कि इस समन्वय बैठक के अंतिम दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इसमें भाग लेंगे. वर्षों से एक परिवार द्वारा पार्टी पर कब्ज़ा जमाए रखने वाले उमर अब्दुल्लाने ट्वीट करके व्यंग्य किया कि यह सरकार की “अप्रेज़ल मीटिंग” है, जिसमें मंत्रियों और प्रधानमंत्री के कामकाज की समीक्षा होगी और तदनुसार उनका कद बढ़ाया (अथवा घटाया) जाएगा. जबकि योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण को बुरी तरह बेइज्जत करके बाहर निकालने तथा अपनी आलोचना सुनने की बर्दाश्त न रखने वाले तानाशाह केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने इसे संविधान के खिलाफ ही बता दिया.वहीं दूसरी तरफ पिछले साठ वर्षों से एक परिवार पर आश्रित, तथा पिछले दस वर्ष तक “महारानी सोनिया गाँधी” के किचन से चलने वाली NAC (राष्ट्रीय सलाहकार परिषद्) जैसी असंवैधानिक संस्था और प्रेस कांफ्रेंस में सरेआम प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का अपमान करते हुए कागज़ फाड़ने वाले युवराज की पार्टी, काँग्रेस भी संघ-भाजपा की इस बैठक की आलोचना करने से नहीं चूकी. 

बहरहाल, ऐसी आलोचनाएँ करना तो विपक्ष का धर्म और परंपरा ही है, इसलिए उस पर ध्यान देने की बजाय फोकस इस बात पर होना चाहिए कि आखिर संघ-भाजपा की इस महत्त्वपूर्ण बैठक में क्या हुआ होगा? किन प्रमुख मुद्दों पर चर्चा हुई होगी? संघ किन मंत्रियों से खुश है और किससे नाखुश है? ज़ाहिर है कि ये सारे सवाल गहरे रहस्य के परदे में हैं. किसी को नहीं पता कि आखिर इस बैठक में क्या हुआ, लेकिन सभी “तथाकथित” विद्वान अपनी-अपनी लाठियाँ भाँजने में लगे हुए हैं. बैठक की समाप्ति के पश्चात दत्तात्रय होसबोले द्वारा जो प्रेस विज्ञप्ति “पढ़ी एवं वितरित” की गई, उसके अनुसार केन्द्र सरकार “सही दिशा” में जा रही है और ठीक काम कर रही है. विज्ञप्ति की प्रमुख बात यह थी कि अभी सरकार को सिर्फ 14 माह ही हुए हैं, इसलिए जल्दबाजी में इससे परिणामों की अपेक्षा करना ठीक नहीं है, परन्तु कई क्षेत्रों में सुधार और तेजी की आवश्यकता है.अब प्रत्येक विश्लेषक अपनी-अपनी समझ के अनुसार इस प्रेस विज्ञप्ति का अर्थ निकालने में लगा हुआ है. मैं इस बात पर नहीं जाऊँगा कि संघ-भाजपा (यानी सरकार) के बीच ऐसी कोई बैठक उचित अथवा संवैधानिक है या नहीं, क्योंकि ठेठ कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक पिछले साठ वर्षों से हमारे सामने सभी राजनैतिक दलों के उदाहरण मौजूद हैं जिन्होंने अपनी पार्टी के “आंतरिक लोकतंत्र” की कैसी धज्जियाँ उड़ाई हैं और “कैसे-कैसे परिवार” सत्ता पर काबिज रहे हैं. उन नेताओं और पार्टियों के मुकाबले भाजपा काफी लोकतांत्रिक है और RSS भी कोई अछूत या व्यवस्था से अनधिकृत संस्था नहीं है, क्योंकि इसके लाखों सदस्य भी भारत के नागरिक ही हैं. 


छन-छन कर आने वाली ख़बरों, कुछ सूत्रों और अनुमानों के आधार पर इस समन्वय बैठक को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है. पहला है संघ की सरकार (या मंत्रियों) से अपेक्षा और नाराजी तथा दूसरे और अंतिम भाग (अर्थात प्रधानमंत्री के आगमन पश्चात) में संतुष्टि और सलाह. प्रधानमंत्री और सरकार का एजेंडा राजनैतिक होता है जबकि संघ का एजेंडा हिंदुत्व और राष्ट्रवाद को मजबूत करने का होता है, ऐसे में नीतियों को लेकर समन्वय स्थापित करना बेहद जरूरी हो जाता है, वर्ना बैलगाड़ी के दोनों बैल एक ही दिशा में एक साथ कैसे चलेंगे? नरेंद्र मोदी की चिंता यह है कि भूमि अधिग्रहण बिल और GST क़ानून कैसे पास करवाया जाए औरराज्यसभा में बहुमत हासिल करने के लिए बिहार और उत्तरप्रदेश में किस प्रकार की जातीय अथवा साम्प्रदायिक अरहर दाल पकाई जाए, जिसमें “विकास” का तड़का लगाकर लक्ष्य को हासिल किया जा सके. एक बार राज्यसभा में भी इस सरकार का बहुमत स्थापित हो गया तो फिर बल्ले-बल्ले ही समझिए.जबकि संघ की चिंता यह है कि संगठन और भाजपा का विस्तार उन राज्यों में कैसे किया जाए, जहाँ इनकी उपस्थिति नहीं के बराबर है. इसके अलावा राम मंदिर, धारा 370 तथा समान नागरिक क़ानून इत्यादि जैसे “हार्डकोर” मुद्दों को सुलझाने (अथवा निपटाने) हेतु सरकार की क्या-क्या योजनाएँ हैं. क्या मोदी सरकार इन तीन प्रमुख मुद्दों पर कुछ कर रही है अथवा फिलहाल राज्यसभा में बहुमत का इंतज़ार कर रही है? 

मोदी सरकार ने कश्मीर में जिस तरह अपने समर्थकों के विरोध की परवाह न करते हुए PDP के साथ मिलकर सरकार बनाई है तथा मृदुभाषी लेकिन फुल खाँटी संघी और युवा राम माधव को संघ से मुक्त करते हुए कश्मीर का प्रभारी बनाया है, उससे यह तो निश्चित है कि धारा 370 को लेकर RSS-मोदी के दिमाग में कोई न कोई खिचड़ी जरूर पक रही है. नेशनल कांफ्रेंस और PDP की अंदरूनी उठापटक, विरोधाभास और हुर्रियत की पाकिस्तान परस्त बेचैनी को देखते हुए साफ़ ज़ाहिर हो रहा है कि कश्मीर में शह-मात का खेल खेला जा रहा है.यदि कोई अनहोनी घटना अथवा आग भड़काने वाली कोई “विशिष्ट चिंगारी” नहीं भड़की, तो अगले पाँच वर्ष में इस मुद्दे पर कुछ न कुछ ठोस न सही हल्का-पतला जरूर निकलकर सामने आएगा. तीनों प्रमुख मुद्दों में से यही मुद्दा समन्वय बैठक में सर्वोच्च वरीयता प्राप्त रहा. 

ये बात संघ भी जानता है और मोदी भी जानते हैं कि सिर्फ “विकास” के सहारे चुनाव नहीं जीते जाते. यहाँ तक कि 2014 में जीता हुआ लोकसभा का चुनाव में भी नरेंद्र मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व और भाषणों अथवा सोशल मीडिया के सहारे नहीं जीता गया, बल्कि इसमें सदा की तरह RSS के जमीनी और हवाई कैडर ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी.इनके अलावा काँग्रेस के कुकर्म ही इतने अधिक बढ़ चुके थे और प्रचार पा चुके थे कि काँग्रेस नामक मिट्टी के ढेर को हल्का सा धक्का देने भर की जरूरत थी. यह काम संघ के कैडर ने पूरी ताकत के साथ किया. लेकिन चुनाव जीतने के लिए विकास की नहीं धर्म-जाति के गणित भी ध्यान में रखने पड़ते हैं. पिछले दस वर्ष में UPA सरकार के दौरान जिस तरह पूरी बेशर्मी के साथ हिंदुओं की भावनाओं एवं उनके सम्मान का दमन किया गया, उससे इस युवा देश की बड़ी आबादी के बीच आक्रोश फ़ैल चुका था. उस आक्रोश को सही दिशा में घुमाकर लोकसभा चुनाव जीतना भी मोदी की विशेष सफलता थी. इसलिए “कैडर” और “हिन्दू नेटीजनों” को संतुष्ट रखना संघ का पहला कर्त्तव्य है.सूत्रों के अनुसार समन्वय बैठक में अरुण जेटली पर सर्वाधिक सवाल दागे गए. संघ का एक बड़ा तबका जेटली को नापसंद करता रहा है, और इस सरकार में मोदी की शह पर दो-दो महत्त्वपूर्ण मंत्रालय कब्जे में रखे हुए जेटली, संघ की हिंदूवादी नीतियों के रास्ते में कंकर-काँटा बने हुए हैं. यह कोई रहस्य नहीं रह गया है कि देश के अधिकाँश मीडिया घराने “हिन्दू विरोधी” हैं. ऐसे में सूचना-प्रसारण मंत्रालय जेटली के पास में होने के बावजूद ऊलजलूल ख़बरें परोसना और सरकार विरोधी माहौल बनाने की कोशिश के बावजूद कुछ नहीं कर पाने को लेकर संघ में जेटली के कामकाज को लेकर बेचैनी है. स्वयं जेटली भी कह चुके हैं कि उनके स्वास्थ्य के कारण उन पर दो-दो मंत्रालयों का बोझ ठीक नहीं है, अतः बिहार चुनावों के बाद वहाँ के परिणामों के आधार पर मंत्रिमंडल में फेरबदल हो सकता है. यदि भाजपा (यानी NDA) पूर्ण बहुमत से बिहार में सत्ता पा जाता है तो केन्द्र में मंत्रियों के विभागों में मामूली फेरबदल हो सकता है, लेकिन यदि भाजपा बिहार में चुनाव हार जाती है तो “सर्जरी” किस्म का फेरबदल होगा, और बिहार से सम्बन्धित वर्तमान मंत्रियों में से कुछ को दरवाजा दिखाया जा सकता है. 

मीडिया की हिन्दू विरोधी बौखलाहट पर नियंत्रण के अलावा इस समन्वय बैठक में NGOs के मकड़जाल और काँग्रेस के शासन में दीमक की तरह फैले पैंतीस लाख NGOs की गतिविधियों पर भी बात हुई. जैसा कि अब धीरे-धीरे सामने आने लगा है यूपीए सरकार के दौरान सोनिया गाँधी की शरण में चल रही NAC नामक सर्वोच्च संस्था (जो सीधे मनमोहन सिंह को निर्देशित करती थी), कुछ और नहीं सिर्फ NGOs चलाने वालों का ही एक “गिरोह” था. अरुणा रॉय, हर्ष मंदर, शबनम हाशमी, तीस्ता सीतलवाड जैसे कई लोग NAC के सदस्य रहे और इन्होंने ग्रीनपीस और फोर्ड फाउन्डेशन जैसे महाकाय NGOs के साथ “तालमेल” बनाकर विभिन्न ऊटपटांग योजनाएँ बनाईं और देश को अच्छा ख़ासा चूना लगाया.इसके अलावा इन्हीं NGOs के माध्यम से कतिपय लोगों ने जमकर पैसा भी कूटा और साथ ही अपना हिन्दू-विरोधी एजेंडा भी जमकर चलाया. RSS के विचारक और कार्यकर्ता NGOs के खिलाफ नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा जारी कार्रवाई से संतुष्ट तो नहीं थे, परन्तु यह भी मानते हैं कि ग्रीनपीस और फोर्ड फाउन्डेशन जैसे “दिग्गजों” की नकेल कसना इतना आसान नहीं है, इसलिए इस मामले सरकार को और समय देना होगा. फिलहाल सरकार सही दिशा में कदम उठाने लगी है. 


सुषमा स्वराज, नितिन गड़करी और मनोहर पर्रीकर के मंत्रालयों की समीक्षा के दौरान अधिक माथापच्ची नहीं करनी पड़ी, क्योंकि इनके काम से संघ में लगभग सभी लोग संतुष्ट हैं. संघ के लिए तीन मंत्रालय सबसे महत्त्वपूर्ण हैं, गृह, सूचना-प्रसारण और मानव संसाधन. राजनाथ सिंह से भी कई मुद्दों पर जवाबतलबी हुई है, क्योंकि पिछले एक वर्ष में कुछ ऐसे मुद्दे उभरकर सामने आए, जिसमें गृह मंत्रालय या तो ढीला साबित हुआ, या फिर खामख्वाह विवादों में रहा. परन्तु चूँकि अरुण जेटली की ही तरह राजनाथ सिंह का रवैया भी उनके मीडिया मित्रों के प्रति “दोस्ताना” रहता है, इसलिए मीडिया ने कभी भी इन दोनों को निशाना नहीं बनाया और ना ही विवादों को अधिक हवा दी. मीडिया की आलोचना और समालोचना का सारा फोकस पिछले चौदह साल से नरेंद्र मोदी पर ही है. 

बताया जाता है कि केन्द्र में जिस मंत्री से RSS सर्वाधिक खफ़ा है, वे हैं मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी. लगातार अपने बयानों और टीवी शो में उनकी विवादित उग्रता को छोड़ भी दिया जाए, तो स्मृति ईरानी ने अभी तक पिछले चौदह माह में मानव संसाधन मंत्रालय में कोई विशेष छाप नहीं छोड़ी है. शिक्षा संस्थानों और विश्वविद्यालयों में पिछले साठ वर्ष में जिस तरह से वामपंथी विचारधारा ने अपनी गहरी पैठ बनाई है उसे देखते हुए ईरानी से अपेक्षा थी कि वे तेजी से काम करेंगी, परन्तु ऐसा हो नहीं रहा.क्योंकि ना तो इधर स्मृति ईरानी और ना ही उधर राज्यवर्धनसिंह राठौर को वामपंथी साहित्यकारों, फिल्मकारों और लेखकों की धूर्तता और “कब्जाऊ नीयत एवं नीति” के बारे में समुचित जानकारी है. चाहे IIT चेन्नई का मामला हो, या FTII का मामला हो अथवा JNU में बैठे “बौद्धिक घुसपैठियों” का मामला हो, सभी मोर्चों पर स्मृति ईरानी तथा जेटली-राठौर जोड़ी लगभग असफल ही सिद्ध हुए हैं. अतः ऐसी संभावना बन रही है कि बिहार चुनावों के बाद स्मृति ईरानी का मंत्रालय बदल दिया जाएगा. 


अब सबसे अंत में सबसे प्रमुख बात. कुछ “तथाकथित” विश्लेषक फिलहाल इस बात पर कलम घिस रहे हैं कि RSS और नरेंद्र मोदी में मतभेद हो गए हैं. वास्तव में ऐसे बुद्धिजीवियों की सोच पर तरस भी आता है और हँसी भी आती है. ये कथित सेकुलर विश्लेषक यह भूल जाते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनावों हेतु जिस समय आडवाणी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी हेतु ख़म ठोंक रहे थे, उस समय “नागपुर” की हरी झंडी की बदौलत ही नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी सुनिश्चित हुई. मोहन भागवत और नरेंद्र मोदी लगभग हमउम्र हैं, और उनकी आपसी “ट्यूनिंग” काफी बेहतर है.यदि संघ उस समय अपना रुख स्पष्ट नहीं करता तो आडवाणी गुट पूरा रायता फैला सकता था, लेकिन जैसे ही संघ मजबूती से मोदी के पीछे खड़ा हुआ, सब ठंडे हो गए. प्रधानमंत्री बनने के बाद भी एक बार नरेंद्र मोदी सरेआम कह चुके हैं कि “उन्हें संघ का स्वयंसेवक होने का गर्व है”, यदि फिर भी कोई बुद्धिजीवी यह सोचता फिरे कि मोदी और संघ के बीच कोई खटास है, तो उसका भगवान ही मालिक है. आज की तारीख में RSS और उसके लाखों स्वयंसेवक “चुनाव जिताने” का एक विशाल ढाँचा हैं. अन्य पार्टियों को लाखों-करोड़ों रूपए फूँक कर कार्यकर्ता खरीदने पड़ते हैं, जबकि भाजपा सुखद स्थिति में है कि उसे RSS के रूप में गाँव-गाँव की ख़ाक छानने वाले मुफ्त के कार्यकर्ता मिल जाते हैं, जो “साम-दाम-दण्ड-भेद” की राजनीति में भी माहिर हैं. ऐसे में यदि कोई सोचे कि वह संघ को नाराज करके अपना काम चला लेगा तो निश्चित ही वह नासमझ होगा.वर्ष में एक बार ऐसी समन्वय बैठकें इसीलिए की जाती हैं कि सरकार, संगठन और पार्टी में तालमेल बना रहे, कहाँ-कहाँ के पेंच-बोल्ट ढीले हो रहे हैं इसकी जानकारी मिल जाए और भविष्य की रणनीति पर सभी एक साथ मिलजुलकर चलें. चूँकि सरकार को सिर्फ पन्द्रह माह हुए हैं अतः संघ भी समझता है कि पिछले साठ वर्षों की “काँग्रेसी प्रशासनिक दुर्गन्ध” को साफ करने में वक्त लगेगा, फिर भी इस समन्वय बैठक में राम मंदिर सहित भाजपा के मूल मुद्दों पर चर्चा करके संघ ने दिशा तय कर दी है, अब सिर्फ “उचित समय” और “सही गोटियों” का इंतज़ार है ताकि 2017 के अंत तक अगली चाल चली जाए.


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देश में ज्ञान की बढ़ती भूख, इंटरनेट के बढ़ते उपयोग तथा छात्रों और शिक्षकों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए, भारत सरकार ने मानव संसाधन मंत्रालय के तत्त्वावधान में “नेशनल प्रोग्राम फॉर टेक्नोलॉजी एन्हांस्ड लर्निंग (NPTEL)” के नाम से एक अभिनव उपक्रम आरम्भ किया है. इस उपक्रम को भारत के सातों प्रमुख IIT (अर्थात मुम्बई, दिल्ली, गुवाहाटी, कानपुर, खडगपुर, चेन्नई एवं रुड़की) तथा बंगलौर के सुप्रसिद्ध IISc ने आपस में मिलकर डिजाइन किया है.यह कुछ-कुछ “ओपन यूनिवर्सिटी” की ही तरह है, जिसमें भारत के सर्वश्रेष्ठ शिक्षक आपस में जुड़े रहते हैं तथा इंटरनेट पर ही सुदूर छात्रों को इंजीनियरिंग, साईंस, टेक्नालॉजी, प्रबंधन, मानविकी, रसायन सहित लगभग सभी विषयों पर अपने अनुभव एवं ज्ञान से प्रकाशमान करते हैं. 


इस संस्था के वेब-पोर्टल (http://nptel.ac.in) पर इन शिक्षकों ने जो सामग्री उपलब्ध करवाई है, वह विभिन्न शैक्षिक संस्थानों द्वारा उपयोग में लाई जा रही है. देश भर के शिक्षक यहाँ से सामग्री लेकर उनके विश्वविद्यालय अथवा महाविद्यालय के पाठ्यक्रम एवं योजनाएँ तैयार करते हैं. इस पोर्टल के सहारे लाखों छात्र अपनी डिग्री अथवा प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने में जुटे हैं. इंटरनेट पर उपलब्ध यह “मुक्त विश्वविद्यालय” अमेरिका के सर्वश्रेष्ठ तकनीकी संस्थान MIT के “मुक्त शिक्षा” से प्रेरित है... और सबसे बड़ी बात यह है कि यह एकदम मुफ्त है



अगस्त 2015 तक NPTEL ने अपने इस उपक्रम में 440 वेब पाठ्यक्रम तथा लगभग 500 वीडियो पाठ्यक्रम अपलोड किए जा चुके हैं, जिन्हें ऊपर दी गई साईट की लिंक पर मुफ्त में प्राप्त किया जा सकता है. इन पाठ्यक्रमों में कुल 921 प्रकार के कोर्स हैं और प्रत्येक कोर्स के लगभग 40 वीडियो लेक्चर हैंजो एक-एक घंटे के हैं. इसके अलावा इस वेबसाईट पर ऑनलाईन चर्चा फोरम भी बना रखे हैं, जहाँ छात्र अपने प्रश्न पूछ सकते हैं, जिनके जवाब देश के सर्वश्रेष्ठ शिक्षक देंगे. सभी वीडियो पाठ्यक्रमों को MP4 एवं 3gp फॉर्मेट में डाउनलोड भी किया जा सकता है. इसके अलावा यदि छात्र चाहें तो मामूली से शुल्क पर उन्हें उनका सम्बन्धित पाठ्यक्रम (वीडियो सहित) चेन्नई स्थित NPTEL के ऑफिस से उनकी हार्ड डिस्क पर भी दिया जा सकता है. NPTEL का उद्देश्य है कि देश में छात्रों को सर्वश्रेष्ठ उच्च शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा एवं दूरस्थ शिक्षा का लाभ घर बैठे ही मिल सके. 

उपरोक्त वेबसाइटों पर जाकर आप भी इनका लाभ प्राप्त कर सकते हैं...

Manohar Parrikar : Man of Simplicity and Honesty

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सादगी और ईमानदारी की प्रतिमूर्ति मनोहर पर्रीकर... 


सुबह के लगभग छह बजने वाले थे, पणजी के मुख्य मार्गों पर इक्का-दुक्का वाहन चल रहे थे. अधिकाँश गोवा निवासी उस समय भी नींद में ही थे. परन्तु हमेशा की आदत के अनुसार एक स्कूटर सवार अपने ऑफिस जा रहा था. बीच-बीच में उसकी नज़र अपनी कलाई घड़ी पर चली जाती थी, क्योंकि उस व्यक्ति को प्रतिदिन की अपेक्षा आधा घंटा देर हो गई थी. सुबह के छः बजे भी पणजी के सभी मुख्य चौराहों के ट्रैफिक सिग्नल चालू थे. स्कूटर सवार जैसे ही एक चौराहे पर पहुँचा, लाल बत्ती से उसका सामना हो गया. मन ही मन हल्का सा चिढ़ते हुए उसने अपना स्कूटर रोक दिया. उसी समय एक आलीशान बड़ी सी कार भी उस स्कूटर के पीछे आ रही थी. रास्ते पर एक भी गाड़ी न होने के बावजूद इस स्कूटर सवार को अपने आगे ब्रेक मारते देखकर वह बड़ी कारवाला गड़बडा गया. उसने भी स्कूटर के पीछे जोर से ब्रेक मारे और गुस्से में कार से उतरकर कोंकणी भाषा में बोला, “कित्यां थाम्बलो रे?” (क्यों रुक गया रे?). स्कूटर वाले ने शान्ति से जवाब दिया, “सिग्नल बघ मरे” (लाल सिग्नल देखो”)... यह सुनकर कार सवार धनवान का पारा और चढ़ गया, “बाजू हो, तुका माहित असा मिया कोण असंय ता? मी पणजी पोलीस स्टेशन च्या PI चो झील” (अपनी स्कूटर बाजू कर, तुझे पता नहीं मैं कौन हूँ, मैं पणजी पुलिस स्टेशन का इंस्पेक्टर हूँ”). स्कूटर सवार ने फिर भी शान्ति से ही जवाब दिया, “अस्से? मग तुझ्या बापसाक जाऊन सांग की माका गोव्याचो मुख्यमंत्री भेटलो होतो”. (ऐसा क्या? तो अपने बाप से जाकर कहो कि आज मुझे गोवा का मुख्यमंत्री मिला था). भौंचक्का कार वाला उस स्कूटर सवार के पैर पकड़ने लगा, लेकिन उसे रोकते हुए स्कूटर सवार ने सिर्फ इतना कहा कि, “सिग्नल और नियम का पालन किया करो” और वह अपने दफ्तर की ओर निकल गया. 



गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री और भारत के वर्तमान रक्षामंत्री मनोहर गोपालकृष्ण पर्रीकर की सादगी के ऐसे कई किस्से गोवा में प्रसिद्ध हैं. सादगी और ईमानदारी का ढोंग करने वाले कई नेता भारत ने देखे हैं, परन्तु यह गुण पर्रीकर के खून में ही है, उसमें रत्ती भर का भी ढोंग या पाखण्ड नहीं है.गोवा में ऐसे कई लोग मिलेंगे जिन्होंने अनेक बार सुबह छः बजे किसी ठेले पर चाय पीते अथवा रात ग्यारह बजे किसी सामान्य से रेस्टोरेंट में अकेले खड़े नाश्ता करते हुए मनोहर पर्रीकर को देखा है. मुख्यमंत्री रहते हुए भी पर्रीकर कभी भी शासकीय आवास में नहीं रहे, और शासकीय गाड़ी का उपयोग भी आवश्यकता होने पर ही करते रहे. वे अपने बड़े बेटे के साथ 2BHK के उस फ़्लैट में रहते थे, जिसकी EMI वे आज भी भरते हैं. 



म्हापसा के एक गौड़ सारस्वत परिवार में मनोहर पर्रीकर का जन्म हुआ. बचपन से ही उन के मन पर RSS के संस्कार पड़े. पर्रीकर आज भी गर्व से संघ में बिताए उन दिनों को स्मरण करते हैं. उच्च शिक्षा के लिए पर्रीकर का चयन IIT मुम्बई में हुआ. उनकी ईमानदारी का एक किस्सा IIT के दिनों का है, उनके मित्र बताते हैं कि एक बार सुबह चार बजे पर्रीकर अपने मित्र के साथ कल्याण से दादर स्टेशन जाने के लिए स्टेशन पहुँचे, लेकिन टिकिट खिड़की का कर्मचारी गहरी नींद में था. उसे उठाने का काफी प्रयास किया परन्तु अंततः उन्हें बिना टिकट दादर जाना पड़ा. दादर में टिकट चेकर ने दोनों को पकड़ लिया और पर्रीकर से बीस पैसे टिकट के और चालीस पैसे दण्ड के अर्थात साठ पैसे वसूल किए. पर्रीकर को बहुत क्रोध आया, वे तो टिकट लेना चाहते थे, शासकीय कर्मचारी की गलती थी. उनकी कोई गलती नहीं होते हुए भी उन्हें दण्ड भरना पड़ा था इस कारण उन्होंने निश्चय किया कि बदले में वे भी सरकार का नुक्सान करेंगे. अगले बारह-पन्द्रह दिन तक लगातार वे बिना टिकट दादर गए. अचानक उन्होंने हिसाब लगाया तो पाया कि उन्होंने सरकार को दो रूपए ज्यादा का चूना लगा दिया है. मन ही मन उन्हें अपराधी भावना होने लगी.वे तुरंत पोस्ट ऑफिस गए और दो रूपए का डाक टिकट खरीदा और फाड़कर फेंक दिया. तब उन्हें यह समाधान हुआ कि अब सरकार से उनका “हिसाब बराबर” हुआ है. एक मुख्यमंत्री के रूप में भी पर्रीकर हमेशा अपने नियमों, अनुशासन एवं ईमानदारी के प्रति एकनिष्ठ बने रहे. 


IIT पास करके मनोहर वापस गोवा आए, एक छोटा सा उद्योग आरम्भ किया और साथ ही संघ का कार्य भी देखते रहे. उन दिनों गोवा में भाजपा का नामोनिशान तक नहीं था. सिर्फ दो अर्थात, काँग्रेस और गोमांतक पार्टी की जनता पर पकड़ थी. ऐसी परिस्थिति में संघ के कार्यकर्ताओं के सहारे पर्रीकर ने राजन आर्लेकर, लक्ष्मीकांत पार्सेकर, श्रीपाद नाईक जैसे युवाओं के साथ मिलकर सिर्फ पन्द्रह वर्षों में भाजपा को सत्ता की सीढ़ी तक पहुँचा दिया. 2012 के चुनावों में उनके नेतृत्त्व में भाजपा ने पूर्ण बहुमत से सत्ता हासिल की. अपनी दूसरी पारी में मुख्यमंत्री बनते ही पर्रीकर ने दो महत्त्वपूर्ण निर्णय किए. उन्होंने सबसे पहले गोवा में चल रहे अवैध खनन को पूरी तरह बन्द कर दिया और पेट्रोल-डीजल पर लगने वाला 20% टैक्स घटाकर सिर्फ 0.2% कर दिया. गोवा में पेट्रोल बीस रूपए सस्ता हो गया.इस निर्णय की बहुत आलोचना हुई और सरकार को होने वाली राजस्व नुक्सान की भरपाई कैसे होगी इस पर दिल्ली तक चर्चा होने लगी. यह सवाल उठाया जाने लगा कि क्या गोवा सरकार दिवालिया होने की कगार पर है? लेकिन पर्रीकर के पास पूरी योजना तैयार थी. सबसे पहले उन्होंने डाबोलिम अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर विमानों को लगने वाले “व्हाईट पेट्रोल” से भी कर घटा दिया. इसके बाद उन्होंने विमान कंपनियों से आग्रह करके उनके किराए में भारी कमी करवाई, ऐसा करते ही पहले से लोकप्रिय गोवा में देशी-विदेशी पर्यटकों की मानो बाढ़ आ गई. इसके बाद उन्होंने गोवा के सभी कैसीनो पर टैक्स बढ़ा दिया, जिससे राजस्व की भरपाई आराम से हो गई. पर्रीकर कहते हैं कि मैं गोवा की जनता का ट्रस्टी हूँ और ऐसे में सरकार अथवा जनता का नुक्सान मेरा व्यक्तिगत नुक्सान है. इसलिए जनता का कोई भी नुक्सान हो पाए, ऐसा कोई निर्णय मैं लेने वाला नहीं हूँ, और गोवा की जनता भी पर्रीकर के इन शब्दों पर पूरा भरोसा करती है.पिछले तीन वर्ष में गोवा के प्रशासन से भ्रष्टाचार बहुत-बहुत कम हुआ है. गोवा की छोटी-छोटी गलियों में भी साफ़-सुथरे और चमकदार रास्ते और बिजली की स्थिति देखकर भरोसा कायम होता है. 



अलग-अलग तरीकों से मनोहर पर्रीकर को रिश्वत देने की कोशिशें भी हुईं, लेकिन उनका कठोर व्यक्तित्त्व और स्पष्ट वक्ता व्यवहार के कारण उद्योगपति इसमें सफल नहीं हो पाते थे और पर्रीकर के साथ जनता थी, इसलिए उन्हें कभी झुकने की जरूरत भी महसूस नहीं हुई. एक बार पर्रीकर के छोटे पुत्र को ह्रदय संबंधी तकलीफ हुई. डॉक्टरों के अनुसार जान बचाने के लिए तत्काल मुम्बई ले जाना आवश्यक था. उस समय गोवा का एक उद्योगपति उन्हें विमान से मुम्बई ले गया. चूँकि पर्रीकर के बेटे को स्ट्रेचर पर ले जाना था, इसलिए विमान की छह सीटें हटाकर जगह बनाई गई और उसका पैसा भी उस उद्योगपति ने ही भरा. पर्रीकर के बेटे की जान बच गई. उस उद्योगपति के मांडवी नदी में अनेक कैसीनो हैं और उसमें उसने अवैध निर्माण कर रखे थे. बेटे की इस घटना से पहले ही पर्रीकर ने उसके अवैध निर्माण तोड़ने के आदेश जारी किए हुए थे. उस उद्योगपति ने सोचा कि उसने पर्रीकर के बेटे की जान बचाई है, इसलिए शायद पर्रीकर वह आदेश रद्द कर देंगे.काँग्रेस को भी इस बात की भनक लग गई और वह मौका ताड़ने लगी, कि शायद अब पर्रीकर जाल में फंसें. लेकिन हुआ उल्टा ही. पर्रीकर ने उस उद्योगपति से स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि एक पिता होने के नाते मैं आपका आजन्म आभारी रहूँगा, परन्तु एक मुख्यमंत्री के रूप में अपना निर्णय नहीं बदलूँगा. उसी शाम उन्होंने उस उद्योगपति के सभी अवैध निर्माण कार्य गिरवा दिए और विमान की छः सीटों का पैसा उसके खाते में पहुँचा दिया.पढ़ने में भले ही यह सब फ़िल्मी टाईप का लगता है, परन्तु जो लोग पर्रीकर को नज़दीक से जानते हैं, उन्हें पता है कि पर्रीकर के ऐसे कई कार्य मशहूर हैं. चूँकि भारत की मीडिया गुडगाँव और नोएडा की अधिकतम सीमा तक ही सीमित रहती है और टेबल पर बैठकर “दल्लात्मक” रिपोर्टिंग करती है, इसलिए पर्रीकर के बारे में यह बातें अधिक लोग जानते नहीं हैं. 



58 वर्षीय मनोहर पर्रीकर आज भी सोलह से अठारह घंटे काम करते हैं. गोवा के मुख्यमंत्री रहते समय मुख्यमंत्री कार्यालय के कर्मचारियों को साँस लेने की भी फुर्सत नहीं मिलती थी. एक बार पर्रीकर अपने सचिव के साथ रात बारह बजे तक काम कर रहे थे. जाते समय सचिव ने पूछा, “सर, यदि कल थोड़ी देर से आऊँ तो चलेगा क्या?”, पर्रीकर ने कहा, “हाँ ठीक है, थोड़ी देर चलेगी, थोड़ी देर यानी सुबह साढ़े छः तक आ ही जाना”. सचिव महोदय ने सोचा कि वही सबसे पहले पहुँचेंगे, लेकिन जब अगले दिन सुबह साढ़े छः बजे वे बड़ी शान से दफ्तर पहुँचे तो चौकीदार ने बताया कि पर्रीकर साहब तो सवा पाँच बजे ही आ चुके हैं. ऐसे अनमोल रतन की परख करके नरेंद्र मोदी नामक पारखी ने उन्हें एकदम सटीक भूमिका सौंपी है, वह है रक्षा मंत्रालय.पिछले चालीस वर्षों में दलाली और भ्रष्टाचार (अथवा एंटनी के कार्यकाल में अकार्यकुशलता एवं देरी से लिए जाने वाले निर्णयों) के लिए सर्वाधिक बदनाम हो चुके इस मंत्रालय के लिए मनोहर पर्रीकर जैसा व्यक्ति ही चाहिए था. यह देश का सौभाग्य ही है कि पर्रीकर जैसे क्षमतावान व्यक्ति के सुरक्षित हाथों में रक्षा मंत्रालय की कमान है.  

जिस समय पर्रीकर को शपथविधी के लिए दिल्ली आमंत्रित किया गया था, उस समय एक “सत्कार अधिकारी” नियुक्त किया गया. जब अधिकारी ने पर्रीकर से संपर्क किया तो उन्होंने कहा, “आपको एयरपोर्ट पर आने की जरूरत नहीं, मैं खुद आ जाऊँगा”. जब होटल के सामने ऑटो रिक्शा से सादे पैंट-शर्ट में “रक्षामंत्री” को उतरते देखा तो दिल्ली की लग्ज़री लाईफ में रहने का आदी वह अधिकारी भौंचक्का रह गया


Anuradha of Andaman - Wonderful and Stunning

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अंडमान की "द्वीपशिखा"अनुराधा... 


मूल मराठी लेख श्री विक्रम श्रीराम एडके के सौजन्य से... 
(हिन्दी अनुवाद – सुरेश चिपलूणकर) 

पोर्ट ब्लेयर से मात्र दस मिनट की दूरी पर एक द्वीप है, जिसका नाम है “रौस द्वीप”. एक ब्रिटिश खलासी डेनियल रौस के नाम पर इस द्वीप का नामकरण किए गया था. उस द्वीप पर एक देवी रहती हैं, जिसका नाम है “अनुराधा”. लेकिन मैं आपको इस अनुराधा की कहानी क्यों सुना रहा हूँ? आखिर अनुराधा में ऐसा क्या खास है? यदि सरल शब्दों में कहूँ तो अनुराधा अंडमान की सबसे महत्त्वपूर्ण बात है. जिस तरह से स्वच्छ समुद्र किनारों और सेल्युलर जेल के बिना अंडमान का इतिहास नहीं बताया जा सकता, उससे भी महत्त्वपूर्ण है अनुराधा

अनुराधा के पिता रौस द्वीप के ही निवासी थे. उनकी मृत्यु के पश्चात जब अनुराधा इस द्वीप पर रहने आई, उस समय उनकी आयु मात्र तीन वर्ष थी. उन दिनों इस द्वीप पर खरगोश, हिरन, मोर, बुलबुल आदि पशु-पक्षियों की भरमार थी. परन्तु शासकीय कर्मचारी गाहे-बगाहे द्वीप पर आते, जानवरों का शिकार करते और पेड़ों को काटकर लकडियाँ ले जाते. जब भी कोई नेता या बड़ा अफसर अंडमान के दौरे पर आता तो हिरन का शिकार करके माँस की पार्टी की जाती. धीरे-धीरे इस द्वीप पर गिने-चुने प्राणी ही बच गए, वे भी ज़ख़्मी हालत में और भूखे-प्यासे. अनुराधा नाम की यह बच्ची चुपचाप सब देखती रहती और चिढती. एक बार उसने उन क्रूर सरकारी कर्मचारियों को रोकने का प्रयास भी किया, लेकिन उन्होंने अनुराधा को जमकर पीटा. बस उसी दिन से अनुराधा ने किसी भी व्यक्ति से बातचीत करना बन्द कर दिया. उसी द्वीप पर रहने वाले एक मछुआरे की सहानुभूति अनुराधा के साथ थी. उस बच्ची की दोस्ती उस मछुआरे से हो गई. यह छोटी सी बच्ची दिन भर उस मछुआरे के कन्धों पर चढ़कर पेड़ों के पत्ते तोड़कर दिन भर इधर-उधर भटकते हुए उन जानवरों को खिलाती. बिलकुल रोज़ाना नियम से वह जानवरों को पत्तियाँ-फल खिलाती. जहाज़ों से आने वाले खलासी अनुराधा को पागल समझने लगे. जब भी कोई अनुराधा से बात करने की कोशिश करता, तो वह पत्थर लेकर मारने दौडती. ऐसा करने से लोगों ने अनुराधा को पूरा पागल समझ लिया


अनुराधा की यह दिनचर्या एक-दो वर्ष नहीं, पूरे बीस वर्ष तक चली. यह बीस वर्ष उसके जीवन के बेहद संघर्षमयी और कठोर थे. इन वर्षों में उसने कई लोगों के हाथों दर्जनों बार जमकर पिटाई खाई, एक-दो बार उसकी पसलियाँ भी टूटीं. इन बीस वर्षों में अनुराधा ने क्या कमाया?? अनुराधा की इस “एकल तपस्या” के कारण जिस द्वीप पर सिर्फ गिनती के जानवर बचे रह गए थे, आज उन प्राणियों की संख्या हजार से ऊपर हो गई है. 1987 में इस द्वीप को भारतीय सेना ने अपने कब्जे में ले लिया, और इसी के साथ अनुराधा के कष्ट भरे दिन समाप्त हुए. भारतीय सेना ने न सिर्फ अनुराधा की समस्त योजनाओं और कल्पनाओं को ध्यान से सुना, बल्कि मदद भी की. सिर्फ और सिर्फ अनुराधा के कारण यह द्वीप और इसकी प्रकृति एवं इसका पारिस्थितिकी संतुलन बचा रहा. आज अनुराधा 51 वर्ष की हो चुकी हैं और वे यहाँ की आधिकारिक स्थलदर्शी (यानी गाईड) हैं... और सबसे लोकप्रिय गाईड हैं.लेकिन अनुराधा की कहानी यहीं पर समाप्त नहीं हुई है... 

जब हम अनुराधा से भेंट करने रौस द्वीप पहुँचे तो वे इस द्वीप के इतिहास और प्रकृति के बारे में जानकारी देने लगीं. इतने में एक हिरन दिखाई दिया, उसे देखते ही अनुराधा ने जोर से पुकारा, “ए राजू... इधर आ”. हमारे आश्चर्य की उस समय सीमा नहीं थी, जब वह हिरन इतने सारे मनुष्यों की भीड़ के बावजूद चुपचाप अनुराधा के पास आकर खड़ा हो गया. अनुराधा उस हिरन से बातें करने लगी. सभी पर्यटक अनुराधा के साथ-साथ आगे चलने लगे और समूह बढ़ता गया. हमारे समूह में हिरन तो थे ही, खरगोश और मोर भी आए, कुछ पक्षी भी आए... अनुराधा उन सभी से आराम से बात करते चली जा रही थीं. जिस प्रकार हम अपने मित्रों-रिश्तेदारों के बारे में बताते हैं, ठीक वैसे ही अनुराधा उन पशु-पक्षियों की आदतों और स्वभाव के बारे में हमें बताने लगी. चलते-चलते बीच में ही उसने एक मोरनी को आवाज़ दी, “रेशमा, तेरा बच्चा तो बीमार था ना? किधर है दिखा?”और वह मोरनी अपने बच्चे को लेकर आई. अनुराधा ने मोर के बच्चे को टटोलकर देखा और कहा, “अरे? यह तो ज़ख़्मी है, जा उस वाले पेड़ के पत्ते का रस लगा दे”... घोर आश्चर्य कि सचमुच वह मोरनी इंगित पेड़ के पास गई और उसके पत्ते चबाने लगी.अचानक हमारी भीड़ के सिर के ऊपर से बुलबुलों का एक बड़ा सा झुण्ड उड़ता हुआ निकला. अनुराधा ने उन्हें भी एक विशिष्ट आवाज़ देकर बुलाया. कुछ पक्षी हमारे आजू-बाजू एकत्रित हो गए. फिर से अनुराधा ने कहा “जाओ, जा के बाकी दोस्तों को भी बुला लाओ, उनसे कहो अम्मा बुला रही है”. तत्काल दो पक्षी उड़े और आसपास से लगभग डेढ़ सौ बुलबुलों को लेकर आए. सारे पक्षी चुपचाप बैठे रहे तब अनुराधा ने उनसे कहा, “अभी ये नए लोग हैं, इन्होंने तुम्हें कभी नजदीक से देखा नहीं है... ये लोग तुम्हारे फोटो लेंगे, डरना नहीं हँ...”और तमाम देशी-विदेशी पर्यटकों को चमत्कृत करते हुए हम ने सभी पक्षियों को आराम से छुआ और एकदम पास से उनकी फोटो खींची. 

ऐसी हैं अंडमान की अनुराधा, जितने पशु-पक्षी उसके आसपास मंडरा रहे थे, उनमें से किसी को भी उसने कोई प्रशिक्षण नहीं दिया है. परन्तु उनका आपसी “पारिवारिक बंधन” इतना मजबूत है कि वह उनकी भाषा समझती है और वे जानवर भी इसकी हिन्दी-अंग्रेजी समझ लेते हैं. सुनामी में अनुराधा का पूरा परिवार खत्म हो गया, तब से यही मोर-हिरन-खरगोश-बुलबुल ही उसका परिवार हैं. कम से कम पच्चीस बार ऐसा हुआ है कि इन पशु-पक्षियों को बचाने के लिए अनुराधा ने अपने प्राण खतरे में डाले हैं और अक्सर घायल हुई हैं. अनुराधा के कई ऑपरेशन हो चुके हैं,परन्तु उनकी इस दिनचर्या में एक दिन का भी खलल नहीं आया. 

मैंने पूछा, “इतनी खराब तबियत के बावजूद आप यह कैसे कर लेती हैं?”

अनुराधा बोलीं – “वो जो ऊपर बैठा है ना, उससे मेरा बहुत बड़ा झगड़ा चल रहा है. मैंने उसे बोल दिया है कि अगर ये जानवर जिन्दा रखने हैं, तो मुझे मेरे पैरों पर खड़ा रहने दे, वर्ना बेशक मार दे मुझे... मेरा क्या है? आगे-पीछे कोई रोनेवाला नहीं है. मगर इन बेजुबानों का कोई नहीं है मेरे सिवा. बस तब से भगवान मुझे मारता नहीं... बचा ही लेता है कैसे भी..” 

वहाँ से निकलते समय हमने उसे पाँच सौ रूपए दिए तो उसने थैंक्यू बोलकर चुपचाप रख लिए. हमारी देखादेखी, अन्य लोग भी उसे कुछ न कुछ देने लगे, तो उसने किसी से एक रुपया भी नहीं लिया, बोली – “इतने ज्यादा पैसे मैं नहीं ले सकती, पाँच सौ काफी हैं मेरे लिए.” कई बार तो मैं टूरिस्टों से पैसा लेती भी नहीं, हाँ, लेकिन कोई एमपी-एमेले आए तो छोडती नहीं साले को.गाईड बनके मनमर्जी के पैसे वसूल करती हूँ. हरामी रोज लूटते हैं हमें, कभी तो उनकी भी जेब ढीली करूँ..”  

पिछले महीने वो तुम्हारे ठाकरे का बच्चा आया था मुझसे मिलने के वास्ते... उसके पहले ही उसका PA आ धमका मेरे पास. बोलने लगा कि, - सुना है तुम किसी भी मिनिस्टर और पॉलिटिशियन को जो मन में आए बोल देती हो? हमारे साहब के सामने ऐसा मत करना हाँ!... मैं बोली, क्यूँ ना करु? अगर वह कुछ ग़लत बोलेगा तो मैं उसे नहीं छोडूँगी! बाद में जब उसका साहब आया तो मैंने उससे पूछा, तेरा पीए ऐसा बोल रहा था. तो वह बत्तीस दाँत दिखा के हँसने लगा! बोला, नहीं अम्मा जो तुमको ठीक लगे वहीं बोलो. छोडा नहीं मैंने उसको भी... 

अपने जीवन के भूतकाल की कटु यादों के कारण अनुराधा सभी राजनेताओं की बातों पर उखड़ जाती है.हालाँकि वह एकदम मुंहफट है, परन्तु फिर भी एक व्यक्ति के लिए उसके मन में अगाध श्रद्धा भरी है. महाराष्ट्र से हजारों किमी दूर रहते हुए भी अनुराधा हमें बता रही थीं, कि – “जब दुनिया का अंत होता है ना, तब नई संस्कृति पनपती है... वे लोग जमीन खोदते हैं तो पिछली सभ्यता के कुछ बर्तन मिलते हैं, मूर्तियां मिलती हैं... वो लोग उन्हीं को भगवान मानकर पूजा करने लगते हैं. जब हमारी नस्ल खत्म हो जाएगी ना, तब आनेवाली नस्ल भी ऐसी ही खुदाई करेगी. उस मिट्टी से पता है कौन सा भगवान निकलेगा?? उस मिट्टी से निकलने वाले भगवान होंगे “वीर विनायक दामोदर सावरकर...”. जब वह नस्ल सावरकर जी को भगवान मानना शुरू कर देगी, बस तभी से धरती का स्वर्ग बनना शुरू हो जाएगा..

जिन सावरकर के गृहराज्य में ही उनकी ब्राह्मण जाति देखकर उनसे घृणा करने वाले नराधम रहते हों, वहाँ से हजारों किमी दूर एक द्वीप पर रहने वाली यह अनुराधा नाम की औरत सावरकर को भगवान मानते हुए हमें उनकी महिमा सुना रही थी. हमारी आँखों से आँसू निकलने लगे और कान सुन्न हो गए. उस क्षण हमें लगा कि हम कितने अज्ञानी हैं और यह संघर्षशील महिला कितनी महान आत्मा है... यह सामान्य मानव नहीं हो सकती, यह तो “द्वीपशिखा” है. अगली बार जब भी आप लोग अंडमान के दौरे पर जाएँ तो वहाँ अनुराधा और उसके “विशाल परिवार” से जरूर-जरूर मिलें... यह अदभुत अनुभव आप कभी भुला नहीं पाएँगे...

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(इस अदभुत सत्य घटना के मराठी में मूल लेखक हैं श्री विक्रम श्रीराम एडके. आप अहमदनगर (महाराष्ट्र) निवासी लेखक एवं व्याख्यानकार हैं...)

Why Ganesh Devy Returned Sahitya Akademi Award

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प्रोफ़ेसर गणेश देवी ने साहित्य अकादमी सम्मान क्यों लौटाया?? 


आजकल देश के साहित्यकारों-लेखकों में सम्मान-पुरस्कार लौटाने की होड़ बची हुई है. बड़े ही नाटकीय अंदाज़ में देश को यह बताने की कोशिश की जा रही है कि भारत में “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में है”, “लेखकों को दबाया जा रहा है”, “कलम को रोका जा रहा है”... आदि-आदि-आदि. इस सम्मान लौटाने की नौटंकी के बाद कम से कम देश को यह तो पता चला कि “अच्छा!!! इसे भी पुरस्कार मिला हुआ है??”, “अच्छा!!! इसे कब सम्मान मिल गया, लिखता तो दो कौड़ी का भी नहीं है..”. साथ ही इसी बहाने ऐसे सभी सम्मान पुरस्कार लौटाऊ साहित्यकारों की “पोलमपोल” लगातार खुलती जा रही है. इसी कड़ी में एक नाम है वडोदरा के सयाजीराव विवि के भूतपूर्व प्रोफेसर गणेश देवी साहब का... 



गणेश देवी को भी साहित्य अकादमी सम्मान मिला हुआ है, और आपको भले ही जानकारी नहीं हो गणेश देवी साहब को कोई पद्म पुरस्कार भी मिला हुआ है.गणेश देवी ने सिर्फ साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाया है, पद्म पुरस्कार नहीं लौटाया... और अकादमी पुरस्कारों के साथ मिली हुई मोटी राशि मय ब्याज तो लौटाने के बारे में सोचा भी नहीं है. बहरहाल, अब जैसी कि “परंपरा” है, उसी के अनुसार गणेश देवी साहब का एक NGO भी है. NGO का नाम है “भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर”, बताते हैं कि इस NGO के तहत देवी साहब भारतीय भाषाओं पर काम करते हैं. गणेश देवी साहब प्रभावशाली और अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त लेखक बताए जाते हैं, इसलिए इनका यह NGO विदेशों से भी अनुदान एवं सहायता प्राप्त करता है (यह भी उसी परंपरा का ही एक अंग है).पिछले आठ वर्षों से इनके NGO “भाषा” को लगातार मोटी रकम विदेशों से अनुदान के रूप में प्राप्त होती रही है... लेकिन NGO के बही-खाते के अनुसार इस वर्ष, अर्थात नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद, अर्थात 2014-15 में... अर्थात नरेंद्र मोदी द्वारा विदेशी फोर्ड फाउन्डेशन जैसे संदिग्ध दानदाताओं की नकेल कसने तथा NGOs के खातों एवं खर्चों को अपडेट रखने के निर्देश देने के बाद से इन्हें सिर्फ और सिर्फ 31 लाख रूपए का ही चंदा मिला... “सिर्फ” 31 लाख??जी हाँ, 31 लाख जैसी मोटी रकम को मैंने “सिर्फ” क्यों लिखा, यह आप जल्दी ही समझ जाएँगे. 

2014-15के खातों के अनुसार गणेश देवी साहब के NGO को "सिर्फ" 31 लाखरूपए मिले... 

जबकि 2013-14में “भाषाओं के उत्थान” के लिए इस NGO को एक करोड़ चौबीस लाख रूपएमिले थे, जिसमें से 56 लाख रूपए तो अकेले फोर्ड फाउन्डेशन नेदिए थे... 

उससे पहले 2012-13में गणेश देवी साहब को एक करोड़ नब्बे लाख रूपएका चन्दा मिला था, इस रकम में भी 55 लाख रूपए फोर्ड फाउन्डेशन ने दिए थे, जबकि नीदरलैंड के एक और संदिग्ध दानदाता ने भी खासी मोटी रकम दान में दी थी... 

सन 2011-12के रिकॉर्ड के अनुसार देवी साहब के NGO को एक करोड़ 67 लाख रूपएमिले, जिसमें से 42 लाख रूपए फोर्ड फाउन्डेशन ने दिए थे. इसके अलावा “एक्शन होम्स, जर्मनी” ने भी एक मोटी रकम दी है. 

सन 2010-11में चन्दे की रकम एक करोड़ 99 लाख रूपएतक पहुँची थी. इसमें से लगभग 45 लाख रूपए फोर्ड फाउन्डेशन ने, जबकि 50 लाख रूपए का दान “कैथोलिक रिलीफ सर्विस” नामक संस्था ने दिए थे. 

सन 2009-10में गणेश देवी साहब को विदेशों से दो करोड़ चौबीस लाख रूपएमिले. इसमें फोर्ड फाउन्डेशन ने 56 लाख रूपए दिए, फ्रांस की एक संस्था ने 66 लाख रूपए वोकेशनल ट्रेनिंग, मोटर रिपेयरिंग, कंप्यूटर खरीदी आदि के लिए दिए, जबकि कैथोलिक रिलीफ सर्विस ने सेमिनार आयोजित करने के लिए सात लाख रूपए दिए थे

सन 2008-09में देवी साहब के NGO को एक करोड़ 55 लाख रूपएमिले थे, जिसमें से 25 लाख फोर्ड फाउन्डेशन ने, जबकि अमेरिका की “एक्शन एड” नामक संस्था ने 46 लाख रूपए का चंदा दिया (सनद रहे कि “एक्शन एड” वही संस्था है, जिसने नर्मदा बचाओ आंदोलन और अरविन्द केजरीवाल के NGO को भी मोटी रकम प्रदान की थी). 

सन 2007-08में NGO “भाषा” ने एक करोड़ 15 लाखका दान हासिल किया था, जिसमें फोर्ड फाउन्डेशन ने दो किस्तों में 25 लाख और 27 लाख की रकम प्रदान की थी. 

कहने का तात्पर्य यह है कि पिछले आठ साल से लगातार गणेश देवी साहब को विदेशों से एक करोड़, सवा करोड़, डेढ़ करोड़, दो करोड़ जैसे मोटे-मोटे चन्दे मिल रहे थे (भगवान जाने इस रकम का कितना, कैसा और कहाँ उपयोग उन्होंने किया होगा?)... लेकिन बुरा हो नरेंद्र मोदी का, जिनके आने के बाद इसी वर्ष उन्हें “सिर्फ और सिर्फ” 31 लाख रूपए का चन्दा ही मिल पाया, जिसमें फोर्ड फाउन्डेशन ने फूटी कौड़ी भी नहीं दी... 

अब बताईये, ऐसे माहौल में साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाना बनता है कि नहीं?? मोदी ने कुछ साहित्यकारों(??) को ऐसी गरीबी और भुखमरी की स्थिति में ला पटका है, कि वे क्या तो साहित्य रचें, क्या तो भाषा के लिए काम करें और क्या तो खर्चा-पानी चलाएँ और क्या सेमीनार करें?? ज़ाहिर है कि चन्दे में भारी कमी से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में आनी ही थी, फोर्ड फाउन्डेशन को “तड़ीपार” करने से लोकतंत्र का गला घुटना ही है...इससे अच्छा है कि “स्वामिभक्ति” दिखाते हुए पुरस्कार ही लौटा दिया जाए, कम से कम “दानदाताओं” की निगाह में छवि तो बनी रहेगी और देश की जनता भी यह जान लेगी कि वे “सम्मानित बुद्धिजीवी” हैं... 

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नोट :- सभी आँकड़े FCRA (Foreign Contribution Regulatory Act) की वेबसाईट एवं deshgujrat.com के सौजन्य से... 

Sanjeev Bhatt and Congress Dirty Tricks (Part 2)

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पर्दाफ़ाश होते काँग्रेसी षड्यंत्र और झूठ... (भाग..२) 


(पिछले भाग से जारी... पिछला भाग यहाँ क्लिक करकेपढ़ें...) 

काँग्रेस के बुरे दिनों को जारी रखते हुए सबसे ताज़ा मामला, अर्थात काँग्रेस के मुँह पर पड़ने वाला “तीसरा तमाचा” रहा संजीव भट्ट केस. पाठकों को याद होगा कि गुजरात 2002 के दंगों के पश्चात नरेंद्र मोदी को घेरने के लिए काँग्रेस-NGOs-मीडिया गठबंधन के दो-तीन प्रमुख पोस्टर चेहरे हुआ करते थे, पहली थीं तीस्ता जावेद सीतलवाड, दूसरी थीं अहसान जाफरी की विधवा और तीसरे थे पुलिस अफसर संजीव भट्ट.इनमें से तीस्ता जावेद द्वारा पोषित NGOs को काँग्रेस सरकारों ने आर्थिक और नैतिक(??) मदद तो पहुँचाई ही, तीस्ता जावेद सीतलवाड को काँग्रेस ने पद्म पुरस्कार से भी सम्मानित कर दिया. पिछले वर्ष गुजरात दंगों को लेकर तीस्ता सीतलवाड के तमाम दस्तावेज कूटरचित एवं नकली पाए गए, तथा दंगों में पीड़ित मुस्लिमों के नाम पर तीस्ता ने अपने NGO के जरिए किस प्रकार लाखों रूपए की धोखाधड़ी की और नकली शपथ-पत्र पेश किए, उसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने तीस्ता और शबनम हाशमी के “NGOs गिरोह” को जमकर लताड़ लगाई थी.परन्तु संजीव भट्ट ने अपने इन “गुरुओं” की हालत से कोई सबक नहीं सीखा और वही गलतियाँ कीं जो उन्होंने की थीं. उल्लेखनीय है कि संजीव भट्ट IPS अधिकारी रहे हैं और हाल ही में उन्हें सेवा से बर्खास्त किया गया है. संजीव भट्ट की बर्खास्तगी को काँग्रेस ने “तानाशाही” और “लोकतंत्र की हत्या” निरूपित किया था, जबकि वास्तविकता यह है कि नरेंद्र मोदी को फाँसने के लिए काँग्रेस ने पहले दिन से ही संजीव भट्ट को मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया था. अब “ईनाम” स्वरूप संजीव भट्ट को काँग्रेस ने कितने रूपए दिए यह तो जाँच के बाद ही पता चलेगा, लेकिन संजीव भट्ट की पत्नी को चुनाव लड़ने के लिए काँग्रेस का टिकट और पार्टी फंड से चन्दा जरूर दिया था. तो ऐसे महानुभाव संजीव भट्ट जी ने नरेंद्र मोदी को दंगाई साबित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने यह शपथ पत्र दायर किया था कि पुलिस के आला अधिकारियों की जिस बैठक में “कथित रूप से” नरेंद्र मोदी ने यह कहा था कि, “हिंदुओं को अपना गुस्सा उतार लेने दो, दंगे हो जाने दो” उस बैठक में मैं अर्थात संजीव भट्ट खुद भी शामिल थे. यह शपथ पत्र और संजीव भट्ट की यह याचिका, गत माह सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दी और भट्ट के दावे को पूरी तरह से नकली और मनगढंत बताया. 


चूँकि गुजरात दंगों से सम्बन्धित प्रत्येक मामले की जाँच एक विशेष SIT कर रही है जिसके प्रत्येक कदम पर सुप्रीम कोर्ट की निगरानी और सहमति है, उस SIT ने अपनी जाँच में पाया कि संजीव भट्ट के दावे न सिर्फ झूठ का पुलिंदा हैं, बल्कि उसने न्यायालय को गुमराह करने तथा तथ्यों-सबूतों के साथ छेड़छाड़ करने में अपनी सारी सीमाएँ तोड़ दीं. गुजरात दंगों को “राज्य-प्रश्रय” आधारित बताने के चक्कर में संजीव भट्ट ने अपनी “गुरु माँ” अर्थात तीस्ता जावेद सीतलवाड़ का मार्ग अपनाया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में उसके द्वारा पेश नकली शपथ पत्रों और फर्जी ई-मेल की एक न चली. सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस महत्त्वपूर्ण निर्णय में संजीव भट्ट और NGOs गिरोह की जमकर खिंचाई की है. सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की विशेष बेंच इस बात से खासी नाराज थी, कि संजीव भट्ट ने जानबूझकर अपने राजनैतिक संपर्कों, अपने पुलिस अधिकारी होने के रसूख और NGOs साथियों के साथ मिलकर नरेंद्र मोदी को जबरन फाँसने की कोशिश की.सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि संजीव भट्ट और “नर्मदा बचाओ आंदोलन” के एक प्रमुख कार्यकर्ता के बीच जो ई-मेल का आदान-प्रदान हुआ है, उसमें संजीव भट्ट यह कहता हुआ पाया गया है कि “हमें ऐसी स्थिति पैदा करनी चाहिए जिससे SIT का काम करना मुश्किल हो जाए. कृपया दिल्ली स्थित अपने संचार संपर्कों और रायशुमारी बनाने वाली एजेंसियों को इस काम में लगाओ..”. फरवरी 2002 की उस शासकीय मीटिंग में संजीव भट्ट ने अपनी उपस्थिति सिद्ध करने के लिए ना सिर्फ फर्जी ई-मेल का सहारा लिया, बल्कि एक चतुर पुलिस अधिकारी की तरह जानबूझकर कोर्ट में आधे-अधूरे साक्ष्य प्रस्तुत किए. सुप्रीम कोर्ट ने भट्ट के वकील से पूछा कि “संजीव भट्ट को 2011 में इतने वर्ष के बाद ऐसे संवेदनशील और विस्फोटक आरोप करने की याद क्यों आई? यह बात भट्ट ने पहले SIT को क्यों नहीं बताई?”. 


संजीव भट्ट शुरू से गुजरात में काँग्रेस के मोहरे और नरेंद्र मोदी विरोधियों के पसंदीदा चेहरे रहे हैं. हाल ही में एक सोशल मीडिया पर एक ऑडियो क्लिप जारी हुई थी, जिसमें संजीव भट्ट अर्जुन मोधवाडिया से पूछ रहे हैं कि “मेरा ब्लैकबेरी फोन अभी तक मुझे नहीं मिला है, कब पहुँचाओगे? और जिस ईनाम की बात हुई थी, वह कहाँ है?”.सुप्रीम कोर्ट ने अपनी जाँच में यह भी पाया कि IPS होने का दबाव डालकर संजीव भट्ट ने गुजरात दंगों के एक प्रमुख गवाह हवलदार केडी पंत को भी धमकाने और उस पर अपने पक्ष में बयान देने के लिए दबाव बनाया था. एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी होने तथा सिस्टम से परिचित होने के कारण ही 25 मार्च 2011 को संजीव भट्ट ने यह दबाव बनाया था कि हवलदार पंत की पूछताछ उसके सामने की जाए, लेकिन मामला SIT के हाथ में होने के कारण उसकी दाल नहीं गली. 



1990 से ही संजीव भट्ट और एक निलंबित जज आरके जैन की साँठगाँठ के कई आपराधिक मामले विभाग के अधिकारियों की जानकारी में थे. भट्ट नारकोटिक्स विभाग में होने के कारण कई मासूमों को धमकाने का काम कर चुका था, और SIT ने अपनी जाँच में पाया कि नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री बनने से पहले ही संजीव भट्ट पर ब्लैकमेलिंग के कई मामले विभिन्न थानों में दर्ज थे, परन्तु IPS होने की धौंस, जजों से पहचान तथा NGOs के लोगों द्वारा दबाव बनाकर खुद को “पीड़ित” दर्शाने की उसकी चालबाजी पुरानी थी. लेकिन ज्यादा चतुर बनने के चक्कर में खुद अपने ही बिछाए जाल में फंसते हुए संजीव भट्ट ने सुप्रीम कोर्ट में जिन ई-मेल को तथ्य-सबूत कहते हुए पेश किया था, उससे यह भी सिद्ध हो गया कि संजीव भट्ट ने तत्कालीन अतिरिक्त एडवोकेट जनरल श्री तुषार मेहता का ई-मेल अकाउंट भी हैक किया था, ताकि इस मामले में चल रही अंदरूनी जानकारी एवं पत्राचार के बारे में ख़ुफ़िया ख़बरें हासिल की जा सकें.संजीव भट्ट को बर्खास्त करने के लिए इतने कारण पर्याप्त थे, लेकिन काँग्रेस को यह सब रास नहीं आ रहा था. बर्खास्तगी के बाद राशिद अल्वी ने बयान दिया कि “नरेंद्र मोदी के शासन में अफसरशाही पर दबाव बनाया जा रहा है और भट्ट जैसे पुलिस अधिकारियों के खिलाफ बदले की भावना से काम किया जा रहा है”. हालाँकि अल्वी सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों और SIT की जाँच के बारे में कुछ भी कहने से बचते रहे. सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि संजीव भट्ट ने इस मामले को खामख्वाह सनसनीखेज बनाने के लिए झूठे तथ्यों एवं नकली शपथ-पत्रों का सहारा लिया, और न्यायालय को प्रभावित करने के लिए अपने मीडियाई संपर्कों, NGOs गिरोह और “एक विपक्षी राजनैतिक पार्टी” का सहारा लिया. नरेंद्र मोदी के खिलाफ याचिका को खारिज करते हुए न्यायालय ने संजीव भट्ट पर आगे कार्रवाई जारी रखने के भी निर्देश दिए. परिणाम यह हुआ है कि मोदी-भाजपा-संघ को फाँसने के चक्कर में “सत्य की ताकत” के कारण काँग्रेस का यह मोहरा भी पिट गया है, लेकिन फिर भी मीडिया में इस मामले की कोई विशेष चर्चा नहीं होना बड़ा रहस्यमयी है. 

इस प्रकार सितम्बर-अक्टूबर 2015 के दो माह में ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा काँग्रेस पार्टी और उसके काले कारनामों एवं षडयंत्र की पोल खोलते हुए जिस तरह लगातार निर्णय आए हैं, उसने काँग्रेस को सन्निपात की अवस्था में धकेल दिया है. चूँकि मीडिया-NGOs और काँग्रेस का बहुत पुराना गठबंधन है, इसलिए इन जॉर्ज फर्नांडीस, प्रमोद महाजन और संजीव भट्ट इन तीनों ही मामलों को लगभग नगण्य कवरेज मिला और आम जनता से यह सच बड़ी सफाई से छिपा लिया गया और उसे जानबूझकर बीफ-गौमांस-साहित्य अकादमी जैसे फालतू विवादों में उलझाए रखा गया है.हालाँकि इन तमाम हथकण्डों के बावजूद काँग्रेस की मुश्किलें अभी कम होने वाली नहीं हैं, बल्कि और बढ़ने वाली ही हैं, क्योंकि जल्दी ही सोनिया गाँधी और काँग्रेस पर “नेशनल हेराल्ड” अखबार की संपत्ति हथियाकर उसे पारिवारिक स्वरूप देने के मामले में भी न्यायालयीन केस तेजी से आगे बढ़ेगा. इसके अलावा हाल ही में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के परिजनों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलकर उनकी रहस्यमयी मृत्यु से सम्बन्धित सभी गुप्त दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की जो माँग की थी, वह न सिर्फ प्रधानमंत्री द्वारा मान ली गई है, बल्कि 23 जनवरी 2016 की तारीख भी घोषित की गई है, जिसके बाद केन्द्र सरकार के पास नेहरू-बोस-पटेल से सम्बन्धित जो भी दस्तावेज हैं उन्हें सार्वजनिक कर दिया जाएगा. इस दिशा में तत्काल पहला कदम बढ़ाते हुए केन्द्र सरकार ने रूस और जापान की सरकारों से सुभाषचंद्र बोस से सम्बन्धित सभी दस्तावेजों की माँग की है. अर्थात 23 जनवरी 2016 के बाद काँग्रेस के लिए “एक और बुरा सपना” आरम्भ होने की पूरी उम्मीद है. 

बहरहाल... आगे बढ़ते हैं और संक्षिप्त में एक और मुद्दा समझने की कोशिश करते हैं, वह मुद्दा है देश के कुछ साहित्यकारों की संवेदनशीलता का “अचानक” जागृत होना. पिछले कुछ दिनों में खासकर दादरी की घटना के बाद देश के कुछ चुनिंदा साहित्यकारों की आत्मा अचानक जागृत हो गई है. 1975 के आपातकाल के बाद अब जाकर कुछ साहित्यकारों को “अचानक” अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की याद आने लगी है... कुछ कथित साहित्यकार तो अचानक इतने आहत हो गए हैं कि उन्हें यह देश डूबता नज़र आने लगा है. जबकि ऐसा कुछ नहीं हुआ है. जैसा कि मैंने ऊपर बताया, नरेंद्र मोदी की सरकार को बदनाम करने और भारत की छवि को विदेशों में धूमिल करने के लिए “एक समूचा NGOs गिरोह” काम कर रहा है, जिसे मिशनरी पोषित मीडिया और काँग्रेस का पूर्ण समर्थन हासिल है. कुछ मामूली से तथ्यों पर गौर करें...अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के दाभोलकर की हत्या हुई महाराष्ट्र में, उस समय वहाँ NCP-काँग्रेस की सरकार थी, चव्हाण मुख्यमंत्री थे... लेकिन उस समय किसी साहित्यकार ने ना तो पृथ्वीराज चव्हाण का इस्तीफा माँगा और ना ही उनकी अंतरात्मा जागृत हुई. कर्नाटक में काँग्रेस शासन के अंतर्गत साहित्यकार कल्बुर्गी की हत्या हुई, परन्तु साहित्य अकादमी से सम्मानित किसी भी लेखक को उस समय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुहावरा याद नहीं आया. इसी प्रकार दादरी में इखलाक की जो हत्या हुई, वह स्पष्ट रूप से क़ानून-व्यवस्था का मामला था जो कि राज्य सरकार के अधीन होता है. परन्तु किसी भी संवेदनशील(??) कवि या शायर ने अखिलेश यादव से इस्तीफ़ा नहीं माँगा.... क्या कभी इस बात पर विचार हुआ है कि हर बार ऐसा क्यों होता है कि पिछले 18 माह में देश में कहीं भी दूरदराज कोई भी घटना होती है तो तत्काल हमारा मीडिया और कुछ “संगठन” अचानक नरेंद्र मोदी जवाब दें, नरेंद्र मोदी इस्तीफ़ा दें की टेर लगाने लगते हैं??साहित्य अकादमी द्वारा अज्ञात कारणों के लिए पुरस्कृत कुछ तथाकथित साहित्यकार (जिनमें से कुछ की रचनाएँ तो विशुद्ध कूड़ा हैं) विदेशी संचार माध्यमों तथा NGOs के बहकावे में आकर सम्मान-पुरस्कार लौटाने का जो कदम उठा रहे हैं, यह उन्हीं को हास्यास्पद बना रहा है. ऐसा इसलिए, क्योंकि इनकी आत्मा-अंतरात्मा-संवेदनशीलता वगैरह जो भी है वह बड़े दोहरे मापदण्ड लिए हुए और वैचारिक पाखण्ड से भरी हुई है... चंद उदाहरण देखें... 

१) नेहरू की भांजी नयनतारा सहगलको जब साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया, उस समय अर्थात 1984 में दिल्ली जैसे स्थान पर 3000 से अधिक सिखों की हत्या उन्हीं की पसंदीदा पार्टी के लोगों (HKL भगत, सज्जन कुमार, जगदीश टाईटलर) द्वारा की गई थी. कुछ माह बाद ही सहगल को यह सम्मान दिया गया, जिसे उनहोंने खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया... 

२) 1990 के उन काले दिनों में जब कश्मीर से बाकायदा आव्हान करके पंडितों को मारा-खदेड़ा जा रहा था, कश्मीर से लाखों शरणार्थी अपने ही देश में शरण लेने के लिए मजबूर हो रहे थे उस समय शशि देशपांडेनाम की लेखिका को मानवाधिकार और असहिष्णुता नज़र नहीं आ रही थी. उन्होंने भी उस समय अकादमी पुरस्कार डकार लिया. 


३) केरल की एक वामपंथी लेखिका हैं सारा जोसफ (आजकल आम आदमी पार्टी की केरल संस्थापक हैं), इनका मामला तो और भी मजेदार है. आज मोदी और भाजपा को जमकर कोसने वाली इन लेखिका को गुजरात दंगों अर्थात 2002 के बाद तत्कालीन भाजपा सरकार के हाथों ही साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था, तब उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, बढ़ती हुई साम्प्रदायिकता जैसे नुमाईशी वाक्य याद नहीं आ रहे थे... 

४) एक और सज्जन हैं अशोक वाजपेयी साहब.ये साहब अर्जुन सिंह के खासुलखास हुआ करते थे. जिस समय मध्यप्रदेश में अर्जुन सिंह की तूती बोलती थी, उस समय प्रदेश के साँस्कृतिक परिदृश्य पर वाजपेयी साहब का एकाधिकार और कब्ज़ा था. इन्हीं के एक हमकदम साहित्यकार उदय प्रकाश तो अशोक वाजपेयी को सरेआम “पावर ब्रोकर” (सत्ता के दलाल) घोषित कर चुके हैं. ऐसे महान सज्जन अशोक वाजपेयी जी को जब यह बताया गया कि भोपाल में भीषण गैस काण्ड हुआ है, हजारों लोग मारे गए हैं तो आगामी दिनों में होने वाले साहित्य-नाटक सम्मेलन स्थगित कर दिए जाने चाहिए. तब वाजपेयी जी का जवाब था, “मुर्दों के साथ मरा नहीं करते, कार्यक्रम तो होगा”. ऐसी होती है लेखकीय संवेदनशीलता. 

गत वर्ष अक्टूबर 2014 में काँग्रेस शासित कर्नाटक में बंगलौर के पास एक “जीवदया समिति कार्यकर्ता” को मुस्लिमों की भीड़ ने पीट-पीटकर अधमरा कर दिया था, उसका दोष सिर्फ इतना था कि वह गौ-हत्या विरोधी कुछ पुस्तकें बाँट रहा था... इसी प्रकार सितम्बर 2014 में भोपाल में पशुओं के लिए काम करने वाली प्रसिद्ध संस्था PETA की एक मुस्लिम मोहतरमा की मुस्लिमों द्वारा ही जमकर पिटाई की गई, क्योंकि वह “शाकाहारी बकरीद” बनाने की अपील कर रही थी, और इन सभी के ऊपर हैं तस्लीमा नसरीन.. जब हैदराबाद में AIMIM के कार्यकताओं ने तस्लीमा पर हमला किया, उस समय यह पुरस्कार सम्मान लौटाने की नौटंकी करने वाला “लेखक-कवि गिरोह” अपने मुँह में दही जमाकर बैठ गया था

ये तो सिर्फ चंद ही उदाहरण हैं, यदि पुरस्कार लौटाने वाले प्रत्येक साहित्यकार की पृष्ठभूमि और उनके कार्यकलापों पर नज़र घुमाई जाए तो साफ़-साफ़ दिखाई देगा कि “अधिकाँश” (सभी नहीं, अधिकाँश) लेखकों, साहित्यकारों को जो भी सम्मान-पुरस्कार आदि मिले हैं वह सत्ता की नज़दीकी, परिवार और पार्टी विशेष की चापलूसी के कारण ही मिले हैं, और इनमें से बहुत सारे लेखक-साहित्यकार-कवि किसी न किसी NGO से जरूर जुड़े हैं. जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है, उसने NGOs का टेंटुआ दबाना शुरू किया है, ग्रीनपीस और फोर्ड फाउन्डेशन जैसे बड़े मगरमच्छों पर लगाम की कार्रवाई आरम्भ की है, तभी से यह “गिरोह” बेचैन है. पिछले अठारह माह में इनका काम यही रह गया है कि येन-केन-प्रकारेण नरेंद्र मोदी सरकार को किसी न किसी “अ-मुद्दे” में उलझाए रखना, भारत को विदेशों में बदनाम करने के लिए नित-नए षड्यंत्र रचना, अपने पालतू मीडिया चैनलों के सहारे सिर्फ वही नकारात्मक ख़बरें दिखाना जिसमें सरकार की आलोचना का मौका मिले.इस गिरोह को केन्द्र सरकार की एक भी बात सकारात्मक नहीं दिखाई देती. चूँकि काँग्रेस के पास खोने के लिए तो अब कुछ बचा ही नहीं, इसलिए अपने “मोदी-द्वेष” के कारण खुल्लमखुल्ला इस खेल में शामिल है. काँग्रेस ने पिछले साठ वर्ष में प्रशासनिक स्तर पर, अकादमिक स्तर पर, मीडियाई स्तर पर एवं NGOs के स्तर पर जो नेटवर्क खड़ा किया है, उसे अब पूरी तरह सरकार के खिलाफ “एक्टिव” कर दिया गया है. इसीलिए संजीव भट्ट जैसे “आपराधिक पुलसिए” को भी आराम से NGOs में शरण मिल जाती है तथा जॉर्ज फर्नांडीस अथवा प्रमोद महाजन को क्लीन चिट् मिलने की ख़बरें भी बड़े आराम से चुपचाप दबा ली जाती हैं. हालाँकि यह बेचैनी बेवजह नहीं है, क्योंकि यह “गिरोह” जानता है कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह और अजित डोभाल जैसे लोग इनका क्या हश्र कर सकते हैं...सिर्फ समय की बात है. 

Congress Dirty Tricks on Coffin and 2G Scam (Part 1)

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पर्दाफ़ाश होते काँग्रेसी षड्यंत्र और झूठ.. (भाग १)..


भारत में ये कहावत अक्सर सुनी जाती हैं, कि “जब मुसीबतें और बुरा वक्त आता है, तो चारों तरफ से आता है”... आज ये कहावत देश में काँग्रेस की स्थिति और उसके द्वारा रचित झूठों, जालसाजियों और षडयंत्रों पर पूरी तरह लागू होती दिखाई दे रही है. 16 मई 2014 को भारत की जनता ने काँग्रेस को उसके पिछले दस वर्षों के भ्रष्टाचार, कुशासन और अहंकार की ऐसी बुरी सजा दी, कि उसे मात्र 44 सीटों पर संतोष करना पड़ा. इस करारी हार ने काँग्रेस को बुरी तरह सन्नाटे में ला दिया और मानसिक रूप से त्रस्त कर दिया. जिस व्यक्ति अर्थात नरेंद्र मोदी के इर्द-गिर्द तमाम तरह के आरोप, बयानबाजी और “मौत का सौदागर” जैसी घटिया भाषा का उपयोग किया गया, वही व्यक्ति समूचे विपक्ष की नाक पर घूँसा लगाते हुए न सिर्फ प्रधानमंत्री बना, बल्कि पूर्ण बहुमत के साथ बना. देश के कई “कथित” बुद्धिजीवियों ने कभी सोचा भी न होगा कि तीन-तीन बार मुख्यमंत्री रहते हुए भी उन्होंने जिस व्यक्ति को अमेरिका का वीज़ा न मिले, इस हेतु जी-तोड़ कोशिशें और पत्राचार किया गया, आज वही व्यक्ति प्रधानमंत्री के रूप में एक वर्ष में तीन-तीन बार ससम्मान अमेरिका गया. सोनिया गाँधी की किचन कैबिनेट अर्थात NAC में शामिल जिस शक्तिशाली “NGOs गिरोह” ने देश-विदेश में नरेंद्र मोदी के खिलाफ दुष्प्रचार और कानाफूसियों का दौर चला रखा था, वे NGOs अब अपनी आय के स्रोत सूखते देखकर बौखलाने लगे हैं.इसी के साथ TRP के भूखे भेड़ियों और एक जमात विशेष का एजेंडा चलाने वाले मीडिया समूहों ने “गुजरात 2002” से लगातार जिस एक व्यक्ति के खिलाफ घृणा अभियान चलाया, वह मोदी की इतनी शानदार जीत के बावजूद बदस्तूर जारी है. विगत कुछ दिनों में देश की सर्वोच्च न्यायपालिका अर्थात सुप्रीम कोर्ट ने लगातार तीन-चार ऐसे फैसले दिए हैं, जिससे “काँग्रेस-NGOs-मीडिया” का यह “नापाक गठबंधन” बुरी तरह शर्मसार हुआ और सत्य की जीत हुई है. हालाँकि अभी भी इस गिरोह ने कोई सबक नहीं सीखा, और अपनी गलतियों पर ध्यान देने, पश्चाताप करने अथवा सुधार करने की कोई इच्छा नहीं दिखाई है. नरेंद्र मोदी, जॉर्ज फर्नांडीस, भाजपा को विशुद्ध लाभ पहुँचाने वाले सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों को जानबूझकर “काँग्रेस पोषित मीडिया चैनलों” ने दबाए रखा. देश को “बीफ”, “गौमांस”, “आरक्षण” जैसी बातों में उलझाए रखा गया, ताकि सुप्रीम कोर्ट के इन ऐतिहासिक निर्णयों का जनता को पता ना चले. परन्तु अब ऐसा होने वाला नहीं है, देश की जनता न सिर्फ जागरूक हो गई है, बल्कि सोशल मीडिया पर लगातार पोल खुलने के कारण जनता ने इन चैनलों पर भरोसा करना भी कम कर दिया है.आगामी जनवरी 2016 में जब केन्द्र सरकार नेताजी सुभाषचंद्र बोस की गुप्त फाईलों को सार्वजनिक करना आरम्भ करेगी, तब इस “गिरोह” का और भी पर्दाफ़ाश होगा. 


बहरहाल, हम लौटते हैं हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा काँग्रेस को लगाई गई फटकारों और काँग्रेसी षड्यंत्रों पर. पाठकों को “ताबूत घोटाला” नाम का काण्ड जरूर याद होगा. कारगिल युद्ध के समय वाजपेयी सरकार ने मृत सैनिकों के शव सुरक्षित रूप से रखने और लाने के लिए एक अमेरिकी कम्पनी, ब्यूत्रों एंड बायजा से अल्युमीनियम के ताबूत आयात किए थे. भारत ने यह युद्ध 1999 में लड़ा था और उसमें विजय प्राप्त की. तत्कालीन विपक्ष में बैठी काँग्रेस को वाजपेयी सरकार की यह उपलब्धि फूटी आँख नहीं सुहाई और उसने षड्यंत्र रचने का फैसला कर लिया. संसद में वाजपेयी के क्षीण बहुमत को देखते हुए काँग्रेस ने उस समय के सबसे ईमानदार समाजवादी व्यक्ति जॉर्ज फर्नांडीस जो कि रक्षामंत्री भी थे, को निशाना बनाने का फैसला किया. अपने “पालतू” अखबारों एवं चैनलों के माध्यम से ताबूत घोटाले के आरोप जमकर लगाए गए. कई दिनों तक संसद में लगातार हंगामा किया गया, और कार्यवाही ठप्प रखी गई.अंततः मीडिया के दबाव में वाजपेयी जी ने फर्नांडीस को रक्षामंत्री पद से इस्तीफ़ा देने के लिए राजी कर लिया. हालाँकि उस समय भी जॉर्ज फर्नांडीस ने संसद में अपने लिखित बयान में यह कहा था कि, “इस ताबूत खरीदी से उनका कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि जिस समय इन्हें खरीदने का फैसला हुआ, उस समय वे रक्षामंत्री थे ही नहीं और खरीद प्रक्रिया में उनका कोई दखल नहीं था. क्योंकि यह खरीद रक्षा सचिव के स्तर तक ही सीमित थी”. भारत और अमेरिका के राजदूतों ने भी एक प्रेस कांफ्रेंस में उन ताबूतों की वास्तविक कीमत वही बताई जिस भाव पर खरीदी की गई. परन्तु “काँग्रेस-मीडिया-NGO” का यह त्रिकोणीय गिरोहवाजपेयी सरकार के एक शक्तिशाली मंत्री की “बलि” आवश्यक समझता था, इसलिए इतना शोर मचाया गया कि देश की जनता भी इसे सच मानने लगी. अंततः जॉर्ज फर्नांडीस को बेआबरू होकर जाना ही पड़ा. 


इस घटना ने उनके बेदाग़ राजनैतिक करियर पर एक गहरा दाग लगा दिया और वे सदमे में चले गए. ताबूत घोटाले को लेकर सबसे पहली FIR यूपीए शासनकाल के दौरान 2006 में दायर की गई. जॉर्ज फर्नांडीस को सीबीआई, जाँच आयोग और जनहित याचिकाओं के माध्यम से लगातार परेशान किया जाता रहा. उस समय काँग्रेस (यूपीए) की ही सरकार थी, CBI भी काँग्रेस के दबाव में थी. लेकिन 2009 तक जॉर्ज फर्नांडीस के खिलाफ एक भी सबूत एकत्रित करने में नाकाम रही. अंततः CBI ने हथियार डाल दिए और विशेष सीबीआई कोर्ट ने जॉर्ज फर्नांडीस को बाइज्जत बरी कर दिया. लेकिन काँग्रेस में एक “डर्टी ट्रिक्स डिपार्टमेंट” (शातिर दिमागों और घटिया चालों का विभाग) भी है, वह इतनी आसानी से हार मानने वाला नहीं था, पाले-पोसे हुए NGOs किस दिन काम आते. इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर करवा दी गई, और यह मामला फिर से उलझा दिया गया. अंततः विगत 13 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट ने ताबूत घोटाले से सम्बन्धित सभी “जनहित”(??) याचिकाओं को बकवास और झूठा करार देते हुए उन्हें खारिज कर दिया और अपने निर्णय में कहा है कि “ताबूत घोटाला” नाम का कोई घोटाला हुआ ही नहीं हैऔर इस तरह के झूठे मामलों में न्यायालय का समय बर्बाद नहीं किया जावे. परन्तु काँग्रेस को शर्म तो आती नहीं है, इसलिए उसकी तरफ से कोई सफाई आने का सवाल नहीं था. परन्तु देश का चौथा स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया के रुख इस कथित घोटाले पर जैसा था, वह बेहद निराशाजनक और बिकाऊ किस्म का था. उल्लेखनीय है कि ताबूत घोटाले को सबसे पहले प्रमुखता से उठाने वाले थे “तहलका” के संपादक तरुण तेजपाल, जो आजकल यौन हिंसा के एक मामले में जमानत पर चल रहे हैं. खैर... यह तो था काँग्रेस को पड़ने वाला पहला तमाचा, परन्तु अफ़सोस यह रहा कि जॉर्ज फर्नांडीस इस समय “अल्ज़ईमर” रोग से पीड़ित हो चुके हैं और वे अपनी इस जीत पर कुछ कहने अथवा इसका आनंद लेने की स्थिति में नहीं हैं. 

सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में सुनवाई कर रही विशेष सीबीआई कोर्ट ने हाल ही में काँग्रेस के एक और घृणित षड्यंत्र का पर्दाफ़ाश किया. जैसा अब पूरा देश और दुनिया जानती है कि यूपीए शासनकाल में चरम पर पहुँच चुके भ्रष्टाचार में “लूट का सिरमौर” 2G स्पेक्ट्रम घोटाला रहा है. भारत की जनता और खजाने को सुव्यवस्थित रूप से चूना लगाने के इस “भ्रष्ट महाअभियान” में खरबों रूपए का हेर-फेर हुआ. 2G और कोयला घोटाला इन्हीं दो प्रमुख महाघोटालों की वजह से मनमोहन सिंह की छवि रसातल में पहुँची. परन्तु यूपीए सरकार के अंतिम वर्षों में केन्द्रीय मंत्री इतने अहंकारी और षडयंत्रकारी बन चुके थे कि सबसे पहले तो कपिल सिब्बल साहब “जीरो लॉस” नाम की नायाब थ्योरी खोज लाए. सिब्बल के अनुसार 2G कोई घोटाला ही नहीं था, और इससे सरकारी राजस्व को कतई कोई नुक्सान नहीं हुआ है. उन्होंने तो CAG विनोद राय को भी झूठा और बेईमान घोषित कर दिया था. लेकिन जब चारों तरफ से नए-नए खुलासे होने लगे, सुप्रीम कोर्ट से लताड़ पड़ने लगी और सिब्बल की जीरो लॉस थ्योरी खुद ही शून्य बन गई तब यूपीए के एक और शक्तिशाली मंत्री चिदंबरम ने अपने आकाओं के इशारे पर यह “अदभुत रचना” की, कि 2G घोटाला आज का नहीं है, बल्कि वाजपेयी सरकार के समय से चला आ रहा है. सोनिया गाँधी सहित सभी मंत्रियों ने विभिन्न प्रसार माध्यमों में आकर जोर-शोर से चीखना आरम्भ कर दिया कि वाजपेयी सरकार के समय प्रमोद महाजन और अरुण शौरी ने विभिन्न कंपनियों को मनमाने दामों पर स्पेक्ट्रम बेचकर देश का करोड़ों रूपए का नुक्सान किया है. देश की जनता को भ्रम में डालने और अपने अपराधों से हाथ धोने की इस कवायद में “काबिल वकील” कपिल सिब्बल और चिदंबरम ने काफी मदद की.यूपीए सरकार को लगा कि तीसरी बार भी वही सत्ता में आएगी, इसीलिए बड़ी बेशर्मी से यूपीए सरकार द्वारा एक झूठे और गढे हुए मामले को न्यायालय में ले जाया गया, ताकि वाजपेयी सरकार की छवि खराब करके स्वयं का राजनैतिक घाटा कम किया जा सके. 


चूँकि काँग्रेस के बुरे दिन अभी खत्म नहीं हुए हैं, इसीलिए अक्टूबर 2015 में सुप्रीम कोर्ट के विशेष जज ओपी सैनी ने यूपीए सरकार द्वारा दायर इस मामले को पूरी तरह खारिज करते हुए तत्कालीन दूरसंचार सचिव श्यामल घोष तथा भारती सेल्युलर, हचिंसन और वोडाफोन द्वारा सन 2002 में पूर्णतः वैध तरीके से हासिल किए गए स्पेक्ट्रम और उसकी प्रक्रिया को वाजिब ठहराया. न्यायाधीश ओपी सैनी ने 235 पृष्ठ के अपने फैसले में लिखा है कि “FIR एवं अन्य सबूतों को देखने पर साफ़ पता चलता है कि यह मामला राजनैतिक विद्वेष से दायर किया गया है. इसमें कोई तथ्य नहीं हैं और यह आरोप-पत्र पूर्णतः फर्जी और गढा हुआ प्रतीत होता है. तत्कालीन दूरसंचार मंत्री प्रमोद महाजन ने उस समय की परिस्थितियों के अनुसार एकदम सही निर्णय लिया था. न्यायाधीश ने सिब्बल-चिदंबरम की जोड़ी पर अप्रत्यक्ष टिप्पणी करते हुए लिखा है कि “यह चार्जशीट बड़े ही योजनाबद्घ तरीके और इस सफाई से तैयार की गई है, मानो इन कंपनियों को अतिरिक्त स्पेक्ट्रम प्रदान करने के लिए अकेले प्रमोद महाजन ही जिम्मेदार हों”. सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आने के बाद भाजपा के प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर ने काँग्रेस और कपिल सिब्बल द्वारा देश से माफी की माँग की, जो “काँग्रेस के स्वभाव को देखते हुए” तत्काल खारिज भी हो गई,वैसे भी काँग्रेस पार्टी ने उनके दूरसंचार मंत्री ए.राजा के तमाम गुनाहों से पहले ही अपना पल्ला झाड़ रखा था. 

असल में कपिल सिब्बल साहब ने अपने एक चहेते रिटायर्ड जज शिवराज पाटिल को इस बात की जिम्मेदारी सौंपी थी कि, वे 1999 से 2002 के बीच हुए स्पेक्ट्रम आवंटन की सभी फाईलों में से कुछ न कुछ ऐसा खोज निकालें जिससे वाजपेयी सरकार और खासकर प्रमोद महाजन को कठघरे में खड़ा किया जा सके. उसी को आधार बनाकर मनगढंत कहानी के रूप में साक्ष्य प्रस्तुत किए गए, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की निगरानी के कारण यह षड्यंत्र पकड़ में आ गया. श्यामल घोष, जो कि एक बेहद ईमानदार और कर्त्तव्यनिष्ठ अधिकारी माने जाते थे, उन्होंने हमेशा इस बात का खंडन किया कि तीनों दूरसंचार कंपनियों का उन पर कोई दबाव था अथवा प्रमोद महाजन से उनकी कोई साँठगाँठ थी. एक बार सर्वोच्च अदालत ने यूपीए सरकार के कार्यकाल में सीबीआई को “तोते” की संज्ञा दी थी, उसके पीछे कारण यही था कि अपने शासनकाल में यूपीए ने लगभग सभी संस्थाओं का ऐसा नाश कर दिया था, कि वे सिर्फ काँग्रेस की पालतू बनकर रह गई थीं. इसी “तोते” ने श्यामल घोष और एयरटेल, वोडाफोन तथा हचिंसन के बीच किए गए काल्पनिक भ्रष्टाचार की कुछ ऐसी कहानी रची, जिससे तोते के मालिक खुश हो जाएँ.जस्टिस ओपी सैनी ने सीबीआई अधिकारियों को लताड़ लगाते हुए पूछा कि, “इस कथित षड्यंत्र में षड्यंत्रकारी के रूप में सिर्फ श्यामल घोष का ही नाम क्यों है? षड्यंत्र के मामले में किसी एकल व्यक्ति के खिलाफ चार्जशीट कैसे दायर हो सकती है? और आरोपी कहाँ हैं? श्यामल घोष ने किसके साथ मिलकर यह षड्यंत्र रचा?”. यूपीए रचित झूठे कागजातों पर खड़ी सीबीआई के पास इसका कोई जवाब नहीं था. फटकार खाने के बाद तत्कालीन सीबीआई ने सुनील मित्तल, रवि रुईया और असीम घोष के नाम भी आरोप-पत्र में जोड़े, परन्तु कोई भी प्रामाणिक तथ्य नहीं होने की वजह से पहले सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश अल्तमश कबीर ने इस नकली चार्जशीट पर स्थगन दे दिया और इसी वर्ष जनवरी 2015 में जस्टिस दत्तू की खंडपीठ ने तीनों कंपनियों के प्रमुखों के खिलाफ इस चार्जशीट को ही खारिज कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने वास्तविक न्याय करते हुए यूपीए शासनकाल के दौरान की गई इस झूठी और द्वेषपूर्ण कार्रवाई के खिलाफ कड़ा रुख अपनाते हुए तत्कालीन जाँच अधिकारी आरए यादव के खिलाफ जाँच का आदेश दिया है और न्यायालय का समय खराब करने और त्रुटिपूर्ण एवं बनावटी तथ्य पेश करने हेतु आलोचना करते हुए ईमानदार अधिकारियों को परेशान करने से बाज आने की सलाह दी है. अब उन सभी सीबीआई अधिकारियों के खिलाफ जाँच की जाएगी, जिन्होंने तत्कालीन काँग्रेस सरकार के दबाव में आकर नकली तथ्य पेश किए, झूठी कहानियाँ रचीं, परन्तु केन्द्रीय मंत्री अरुण जेटली ने महत्त्वपूर्ण सवाल उठाया है कि अधिकारियों के साथ-साथ उन काँग्रेस सरकार के उन मंत्रियों सिब्बल और चिदंबरम को भी कठघरे में खड़ा किया जाना चाहिए, जिन्होंने प्रमोद महाजन और वाजपेयी सरकार को बदनाम करने के लिए यह षड्यंत्र रचा. 


कहने का तात्पर्य यह है कि अपनी बदनामी और कुकर्मों को छिपाने के लिए काँग्रेस किस हद तक जा सकती है, यह मामला उसकी मिसाल है. पहले वाले मामले में बेचारे जॉर्ज फर्नांडीस अब अल्जाइमर से पीड़ित हैं, इसलिए ना तो वे अपनी जीत की खुशी मना सकते हैं और ना ही काँग्रेस के इस झूठ के खिलाफ कोई बयान दे सकते हैं. ठीक वही स्थिति प्रमोद महाजन की है, क्लीन चिट् मिलने से पहले ही उनकी मृत्यु हो चुकी है. परन्तु जिस मीडिया ने “ताबूत घोटाले” के समय फर्नांडीस और 2G मामले में प्रमोद महाजन की छवि खराब करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, उनकी चुप्पी के गहरे मायने हैं.सुप्रीम कोर्ट द्वारा काँग्रेस को मारे गए उक्त दोनों ही तमाचों की गूँज किसी भी चैनल पर सुनाई नहीं दी, यह बड़ा ही रहस्यमयी लगता है. 

धन्यवाद...

JNU Style Tolerance, Freedom and Democracy

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JNU छाप लोकतंत्र, सहिष्णुता एवं अभिव्यक्ति स्वतंत्रता... 

इन दिनों भारत में लेखकों, साहित्यकारों, कलाकारों द्वारा पुरस्कार-सम्मान लौटाए जाने का “मौसम” चल रहा है. विभिन्न चैनलों द्वारा हमें बताया जा रहा है कि भारत में पिछले साठ वर्ष में जो कभी नहीं हुआ, ऐसा कुछ “भयानक”, “भीषण” जैसा कुछ भारत में हो रहा है. पुरस्कार-सम्मान लौटाने वाले जो भी “तथाकथित” बुद्धिजीवी हैं, उनकी पृष्टभूमि कुरेदते ही पता चल जाता है कि ये सभी स्वयं को “प्रगतिशील” कहलाना पसंद करते हैं (वास्तव में हैं नहीं). फिर थोड़ा और कुरेदने से पता चलता है कि इनमें से अधिकाँश शुरू से भाजपा-संघ-मोदी विरोधी रहे हैं. फिर थोड़ा और आगे बढ़ने पर यह जानकारी भी मिलती है कि जिन्होंने सम्मान लौटाने अथवा “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरा”, “बढ़ती असहिष्णुता” जैसे फैशनेबल मुद्दों पर मोदी सरकार की आलोचना के झण्डे उठाए हैं, उनमें से लगभग सभी कलाकारों-साहित्यकारों में से किसी न किसी का, कोई न कोई सम्बन्ध दो-तीन बातों से जरूर है.पहली, अफज़ल गूरू, याकूब मेमन की फाँसी माफी हेतु दया याचिका लगाने अथवा राष्ट्रपति को लिखी गई चिठ्ठी में इनके हस्ताक्षर हैं... या तो फिर दूसरी बात यह कि तीन-तीन बार एक चुने हुए एक मुख्यमंत्री अर्थात नरेंद्र मोदी को अमेरिका का वीज़ा न मिले इस हेतु अमेरिकी राष्ट्रपति को लिखी गई चिठ्ठी में उनके हस्ताक्षर हैं... या फिर तीसरी बात यह कि इनमें से कई साहित्यकारों-लेखकों-कलाकारों के कोई NGO हैं, जिन्हें फोर्ड फाउन्डेशन अथवा ग्रीनपीस से मोटा चन्दा प्राप्त होता है... प्रस्तावना के रूप में संक्षेप में कहने का तात्पर्य यह है कि सम्मान-पुरस्कार वगैरह लौटाने की जो नौटंकी चल रही है, उसमें सिद्धांत अथवा नैतिकता वगैरह का कोई स्थान नहीं है... यह कदम “विशुद्ध रूप से राजनैतिक” है. जब से नरेंद्र मोदी की सरकार आई है, अर्थात मई 2014 से ही यह “राजनैतिक गुट” बेचैन है.उन्हें अब भी विश्वास नहीं हो रहा है कि जिस व्यक्ति को उन्होंने लगातार बारह साल तक पानी पी-पीकर कोसा, उसके खिलाफ दुष्प्रचार किया वह इस देश की जनता द्वारा प्रधानमंत्री चुन लिया गया है.


बहरहाल, हम आते हैं मूल मुद्दे पर अर्थात जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय उर्फ JNU छाप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सहिष्णुता और लोकतांत्रिक अधिकारों के पाखण्ड पर. इन तमाम फैशनेबल मुद्दों पर सीधे “ग्राउंड रिपोर्ट” लेते हैं. आप पूछेंगे कि JNU ही क्यों?? इसका जवाब है कि ऊपर के पैराग्राफ में जिन महानुभावों का ज़िक्र किया गया है, उनमें से अधिकाँश अपनी “वैचारिक खुराक” यहीं से पाते हैं. अर्थात JNU ही वह नर्सरी है, जहाँ से सेकुलर-वामपंथी विषवृक्ष तैयार होते हैं और ये “साहित्यिक विषवृक्ष” भारत के तमाम हिंदुओं को अपने गढे हुए पाठ्यक्रमों और पुस्तकों द्वारा यह बताते हैं कि “तुम कुछ भी नहीं हो... तुम्हारी संस्कृति कुछ नहीं है... तुम्हारी परम्पराएं बेकार है... तुम्हारे ग्रन्थ बकवास हैं....” आदि-आदि. यही “वामपंथी अकादमिक विषवृक्ष” पिछले साठ साल से भारत की जनता को सहिष्णुता, लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसी महान बातें बताते-पढ़ाते आए हैं, परन्तु यह तमाम उपदेश सिर्फ दूसरों के लिए ही होते हैं यह उन पर लागू नहीं होते. तो क्यों ना एक निगाह सहिष्णुता, अभिव्यक्ति स्वतंत्रता वगैरा का ज्ञान पेलने वाली नर्सरी(??) उर्फ JNU पर डाल ली जाए, इन उपदेशकों का थोड़ा पिछला हिसाब-किताब भी देख लिया जाए... 

असल में जब कोई वामपंथी यह कहता है कि वह “वाद-संवाद संस्कृति” में यकीन रखता है, तो उसका मतलब यह होता है कि वह अकेला और एकपक्षीय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करेगा, अर्थात वामपंथ में “अभिव्यक्ति स्वतंत्रता” और “सहिष्णुता” सिर्फ वन-वे-ट्रैफिक के रूप में होती है.इसके उदाहरण स्वरूप तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का उदाहरण सर्वश्रेष्ठ होगा, क्योंकि काँग्रेस की छत्रछाया और “वित्तपोषण” के बल पर ही JNU में यह विषवृक्ष पला-बढ़ा और पल्लवित हुआ है. नवंबर 2005 में (यानी आज से दस साल पहले) मनमोहन सिंह JNU के एक कार्यक्रम में व्याख्यान देने आए थे. उस समय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकारों ने डॉक्टर सिंह के भाषण में लगातार व्यवधान उत्पन्न किए, नारेबाजी की, पर्चे फेंके गए. मनमोहन सिंह को नव-उदारवाद का चेहरा बताते हुए पोस्टर छपवाए गए कि JNU के छात्र उनका भाषण सुनने न जाएँ. “सहिष्णुता” की टेर लगाने वालों ने इतना हंगामा मचाया कि अंततः पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को उस स्थान से खदेड़ दिया,तभी वह भाषण पूरा हुआ. ऐसी होती है वामपंथी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सहिष्णुता... 

अगस्त 2008 में विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ विभाग ने अमेरिका के अतिरिक्त सचिव रिचर्ड बाउचर को भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के सम्बन्ध में चर्चा सत्र एवं विमर्श हेतु आमंत्रित किया था. लेकिन “आम आदमी पार्टी” के संस्थापकों में से एक, वामपंथी प्रोफ़ेसर कमल मित्र चिनॉय ने अपनी “सहिष्णुता” दिखाते हुए छात्रों से आव्हान किया कि वे यह कार्यक्रम न होने दें...“अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” का लाल झण्डा उठाए लंगूरों को मौका ही चाहिए था, उन्होंने “अमेरिका हाय-हाय”, “परमाणु समझौता रद्द करो” जैसे नारे लगाते हुए बाउचर के उस कार्यक्रम हो नहीं होने दिया, ना तो रिचर्ड बाउचर को बोलने दिया गया और ना ही छात्रों को सुनने दिया गया... ऐसी होती है वामपंथी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सहिष्णुता... 


2014 से पहले तक JNU के कैम्पस में इज़राईल के किसी व्यक्ति अथवा राजदूत तक का घुसना भी प्रतिबंधित हुआ करता था... अक्सर वामपंथी “सहिष्णु”(??) विश्वविद्यालय प्रशासन को हिंसा होने की संभावना की धमकी देकर इजरायल के राजदूत को JNU में घुसने तक नहीं देते थे.परन्तु अप्रैल 2014 में JNU के विदेश शिक्षा विभाग ने “पश्चिम एशिया” विषय पर छात्रों का मार्गदर्शन एवं चर्चा करने हेतु इज़राईल के राजदूत को आमंत्रित कर लिया और “वैचारिक स्वतंत्रता” के उपदेशकों को उनके आगमन की पूर्व सूचना नहीं मिल पाई, इसलिए कार्यक्रम हो गया. परन्तु “लेखकों की आवाज़ दबाई जा रही है” छाप अरण्य-रुदन करने वाले वामपंथी नेताओं ने राजदूत के जाने के बाद सम्बन्धित विभाग के प्रोफ़ेसर के साथ गालीगलौज की और उनके इस कृत्य को “अनैतिक और अलोकतांत्रिक” भी घोषित कर दिया... साथ ही यह धमकी भी दे डाली कि यदि भविष्य में इज़राईल के राजदूत को विश्वविद्यालय में आमंत्रित किया तो गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे... ऐसी होती है वामपंथी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सहिष्णुता... (अब वैसे भी यह कोई रहस्य नहीं रह गया है कि वामपंथ का फिलीस्तीन प्रेम और कश्मीरी पंडितों से नफरत का कारण क्या है). 

2001 में JNU प्रशासन ने विश्वविद्यालय में एक संस्कृत केन्द्र खोलने का निर्णय किया. लेकिन “लाल गुण्डों और उनके झाड़ू छाप भगुओं” ने इस निर्णय का कड़ा विरोध किया. शुरुआती दिनों में इन “सहिष्णु वामपंथियों” ने रात को संस्कृत केन्द्र की निर्माणाधीन दीवार को भी गिरा दिया था. संस्कृत विभाग खोलने का विरोध करने का कोई वैध कारण तो “लाल लंगूरों” के पास था ही नहीं, इसलिए पर्चे छपवाकर यह खिल्ली उड़ाई गई कि क्या JNU से संस्कृत पढ़कर या यहाँ पर संस्कृत पढ़ाकर हमें पण्डे-पुजारियों की नियुक्ति करनी है?? हालाँकि इस बात का इन वामपंथी उत्पातियों के पास कोई जवाब नहीं था कि यदि उनका विरोध संस्कृत से है, तो फिर JNU में अरबी और फ़ारसी भाषा के विभाग क्यों चल रहे हैं? ऐसी होती है पाखण्डी वामपंथी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और ढकोसलेबाज सहिष्णुता... 


2014 के आम चुनावों से पहले सभी वामपंथी पार्टियों ने निश्चय किया कि वे वाराणसी में अरविन्द केजरीवाल का प्रचार करने जाएँगे. ठीक है, यह कोई बड़ी बात नहीं है, सभी के अपने-अपने राजनैतिक विचार होते हैं. समस्या यह हुई कि इन पार्टियों ने JNU स्टूडेंट्स युनियन का “नाम और बैनर” उपयोग करने का भी निश्चय किया. जब इस बात का पता छात्रों को चला तो कम से कम दस छात्र प्रतिनिधियों ने लिखित में इस पर अपना विरोध जताया, परन्तु स्टूडेंट्स यूनियन की आम बैठक में ना तो इस पर कोई चर्चा हुई, और ना ही इस प्रस्ताव का विरोध करने वाले छात्र प्रतिनिधियों को वहाँ बोलने दिया गया.ऐसी होती है वामपंथी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सहिष्णुता... 

गत वर्ष सितम्बर में JNUSU के नवनिर्वाचित प्रतिनिधिमंडल की पहली आम बैठक हुई थी, उसमें सीरिया में कार्यरत इस्लामिक स्टेट और अफ्रीकी इस्लामिक संगठन बोको हरम की निंदा करने का प्रस्ताव लाया जाना था. बारह प्रतिनिधियों ने यह लिखित प्रस्ताव पेश भी कर दिया था. परन्तु वामपंथी छात्र गिरोहों ने आपस में गोलबंदी करके वोटिंग से अनुपस्थित रहने का फैसला कर लिया ताकि प्रस्ताव पास ही न हो सके. फिलीस्तीन का समर्थन और ISIS के विरोध प्रस्ताव का विरोध करने वाले “सेकुलर गैंग” के क्रियाकलापों द्वारा हमें पता चलता है कि, ऐसी होती है वामपंथी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सहिष्णुता... 

यह तो मात्र कुछ ही उदाहरण हैं, जिसमें यह पता चलता है कि पश्चिम बंगाल और केरल में किस तरह विपक्षी आवाजों को दबाने के लिए हिंसा-हत्या और धमकी का उपयोग किया जाता है. परन्तु जिन लोगों का घोषवाक्य ही यह हो कि “सत्ता बन्दूक की नली से निकलती है”, उन के मुँह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सहिष्णुता वगैरह की बातें सुनना बड़ा अजीब सा लगता है. इसीलिए अपने आरम्भ से अब तक लगातार JNU में हिन्दू संस्कृति, हिन्दू परम्पराओं एवं हिन्दू देवी-देवताओं के खिलाफ जमकर ज़हर उगला जाता रहा है.हिन्दू छात्रों (विशेषकर SC-ST-OBC) को सदैव धमकाया और प्रताड़ित किया जाता है. इन्हें बताया जाता है कि तुम हिन्दू धर्म के नहीं हो, ताकि वे विभिन्न होस्टलों में जारी पूजा समारोहों में शामिल होने से पहले डरें. वामपंथी गिरोह हिन्दू संस्कृति की मान्यताओं की खूब खिल्ली उड़ाते हैं, और प्रशासन पर उनके दबाव के कारण दूरदराज इलाकों से आए गरीब छात्र माथे पर तिलक और कलाई में पवित्र कलावा बाँधने से भी घबराते हैं, कि पता नहीं कब, कौन सा पागल आकर उनका सार्वजनिक अपमान कर दे. आज से कुछ वर्ष पहले तक तो स्थिति इतनी बुरी थी, कि बेचारे बंगाली छात्रों को “काली पूजा” मनाने, धार्मिक क्रियाएँ करने के लिए कैम्पस से बाहर CR पार्क के सार्वजनिक दुर्गापूजा पाण्डाल तक जाना पड़ता था. रात को वापस आते समय ये छात्र इस बात का खास ख़याल रखते थे कि पूजा अथवा धार्मिक क्रिया के कोई चिन्ह-निशान उनके माथे-कपड़े पर दिखाई ना दें. 

1998-99 से ABVP ने JNU में मजबूती से कदम रखना शुरू किया, और यह वही वर्ष था जब कैम्पस के पेरियार होस्टल के एक कमरे में पहली बार हंगामे, आलोचना और हिंसा के बीच दुर्गापूजा मनाई गई. वामपंथी स्टाईल की धार्मिक स्वतंत्रता 2001 में तब देखी गई थी, जब पहली बार JNU में सार्वजनिक स्थान पर दुर्गापूजा का आयोजन हुआ था... उस समय तत्कालीन डीन एमएच कुरैशी ने वामपंथियों और उनके “स्वाभाविक मित्रों” अर्थात इस्लामी गुण्डों से आव्हान किया कि दुर्गापूजा के हवन कुण्ड को तोड़ दें तथा देवी की मूर्ति को JNU से बाहर फेंक दे. हालाँकि यह प्रयास सफल नहीं हुआ, क्योंकि शायद उन्हें JNU में हिंदुओं की बढ़ती संख्या और ताकत का भान नहीं था.कुरैशी के इस आव्हान को सुनकर पांडाल में हिन्दू छात्र एकत्रित होने लगे. हिन्दू छात्रों में माँ दुर्गा के इस अपमान और अपनी धार्मिक आस्थाओं पर चोट को लेकर जबरदस्त क्रोध था. माहौल बिगड़ता देखकर, वामपंथी और उनके इस्लामी दोस्त वहाँ से चुपचाप निकल गए. छात्रों के क्रोध का गुबार डीन कुरैशी ने भी भाँप लिया और वह वहाँ से भागकर पास में ही स्थित कावेरी होस्टल के एक “हिन्दू” वार्डन के यहाँ जा छिपे.  


हिन्दू संस्कृति, हिन्दू देवी-देवताओं एवं हिन्दू परम्पराओं के प्रति वामपंथ और इस्लाम की मिलीजुली घृणा, असहिष्णुता का यह नंगा प्रदर्शन JNU में गाहे-बगाहे होता ही रहता है. इस गिरोह द्वारा दूरदराज से आए गरीब और भोले SC/ST/OBC छात्रों को जानबूझकर मानसिक रूप से सताया जाता है. उन्हें बारम्बार यह बताया जाता है कि तुम हिन्दू नहीं हो, हिन्दू संस्कृति नाम की कोई बात होती ही नहीं है, देवी-देवताओं को पूजना एक बकवास और मूर्खतापूर्ण कार्य है आदि-आदि. जो तथाकथित बुद्धिजीवी आज मोदी सरकार के खिलाफ अपने पुरस्कार-सम्मान लौटा रहे हैं, उनकी वैचारिक नर्सरी JNU ही है. यहीं से उन्हें इस प्रकार के हिन्दू विरोधी विचार “पोलियो ड्रॉप” की तरह पिलाए जाते हैं. इसीलिए जब हिंदुओं की देवी माँ दुर्गा को JNU में सरेआम “रंडी” कहा जाता है, और महिषासुर का पूजन किया जाता है, तब इन बुद्धिजीवियों की ज़बान पर ताला लग जाता है, और यदि इस धार्मिक दुष्कृत्य के खिलाफ हिन्दू छात्र आवाज़ उठाएँ तो तत्काल उन्हें “भगवा गुण्डे” अथवा “असहिष्णु” कहकर उन पर संघी होने का लेबल चिपका दिया जाता है.वामपंथ की “असहिष्णुता” और कथित “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” का आलम यह है कि JNU में ऐसा एक भी हिन्दू त्यौहार अथवा कोई भी हिन्दू धार्मिक गतिविधि तब तक संचालित नहीं होती, जब तक वामपंथियों-सेकुलरों और इस्लामिक तत्त्वों द्वारा हिंदुओं के प्रति घृणा फैलाने वाले, हिन्दू मान्यताओं/परम्पराओं की भद्दी और अश्लील खिल्ली उड़ाने वाले पोस्टर न लगाए जाएँ. 

JNU स्टाईल का वामपंथ, वैचारिक रूप से कितना खोखला तथा सहिष्णुता, संवाद एवं स्वतंत्रता के प्रति इनका दृष्टिकोण कितना पाखण्ड भरा एवं हिंसक है इसके दो संक्षिप्त उदाहरण और भी हैं. इस वर्ष स्कूल ऑफ लैंग्वेज में ABVP के टिकट पर एक “शिया” छात्र चुनाव लड़ रहा था. उसे वामपंथियों एवं वहाबी छात्रों ने लगातार परेशान किया, भ्रमित करने की कोशिश की क्योंकि चुनाव प्रचार के दौरान उसने यह बयान दिया था कि जब कुरआन भी इस्लाम के प्रचार-प्रसार की इजाज़त देता है तो हिन्दू संगठनों के “घर-वापसी” कार्यक्रम में कुछ भी गलत नहीं है. परन्तु यह बात “सहिष्णुता के पैरोकार” वामपंथ को रास नहीं आई और कुछ दिनों बाद हुई अध्यक्षीय पद हेतु वाद-विवाद प्रतियोगिता में उस शिया छात्र की “इस्लाम-विरोधी” कहकर संयुक्त रूप से आलोचना की गई. इसी प्रकार 2014 में एक मुस्लिम लड़की छात्रसंघ चुनाव में अध्यक्ष पद हेतु खड़ी हुई थी, AISA नामक संगठन ने मुस्लिम छात्रों के बीच, उस मुस्लिम लड़की और उसके हिन्दू मित्रों के चित्रों को वितरित किया, उसकी बदनामी करने की कोशिश की तथा यह प्रचारित किया कि अब वह लड़की मुस्लिम नहीं रही. ऐसी होती है वामपंथी “सहिष्णुता”, “महिला सम्मान” और “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता”... 

हाल ही में JNU के एक होस्टल (जिसमें मुस्लिम छात्रों की बहुलता है) में नवनिर्वाचित अध्यक्ष ने यह नोटिस चस्पा कर दिया कि आगामी दीपावली उत्सव पर आर्थिक एवं राजनैतिक कारणों की वजह से प्रतिबन्ध रहेगा. यदि छात्र दीवाली मनाना चाहते हों तो उन्हें उच्चाधिकारियों से अनुमति लेनी होगी. जब हिन्दू छात्रों ने इस “तुगलकी फरमान” का कड़ा विरोध किया और यह धमकी दी कि यदि हमें दीवाली नहीं मनाने दी गई तो भविष्य में इस होस्टल में ईद और रमजान भी नहीं मनाने देंगे, तब जाकर नोटिस वापस लिया गया. लेकिन वामपंथ की “काली परंपरा” के अनुसार हिन्दू छात्रों के इस कृत्य को “असहिष्णुता” और “साम्प्रदायिकता” कहकर खूब रुदालीगान किया गया. 2001-02 से पहले की स्थिति अलग थी, लेकिन अब JNU में वामपंथियों द्वारा जब भी ऐसी कोई घटिया हरकत की जाती है तो स्वाभाविक रूप से हिन्दू छात्रों द्वारा विरोध किया जाता है तब वामपंथ द्वारा इसे “असहिष्णुता”, “फासीवाद”, “संघी गुण्डागर्दी” आदि कहा जाता है. 

संक्षेप में तात्पर्य यह है कि वामपंथी परिभाषा के अनुसार “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” सिर्फ उसी को है, जो वामपंथी-सेकुलर अथवा मुल्लावाद की बात करे, यदि हिंदुओं ने प्रतिकार किया तो उसे “असहिष्णुता” का नाम दिया जाएगा. इसी प्रकार वामपंथी परिभाषा के अनुसार “स्वस्थ संवाद” सिर्फ तभी हो सकता है, जब किसी सभागार अथवा सेमिनार में हिन्दू संस्कृति, हिन्दू देवताओं एवं परम्पराओं को गाली देने वाले, कोसने वाले ही मौजूद हों... अरबी और फारसी भाषा की बात करना सेकुलरिज़्म है, लेकिन संस्कृत भाषा की पैरोकारी की तो JNU में साम्प्रदायिकता फैलती है...जब इस वर्ष इतिहास में पहली बार छात्रसंघ चुनावों में ABVP ने संयुक्त सचिव पद पर विजय प्राप्त की, तो “सहिष्णुता” और “अभिव्यक्ति” के नकली झंडाबरदार वामपंथियों की पहली प्रतिक्रिया थी, “हम तो उसे JNU स्टूडेंट्स युनियन का सदस्य भी नहीं मानते, वह किसी मीटिंग में शामिल होकर तो दिखाए, जो करना है कर लो”... 

चूँकि लेख का विषय सिर्फ JNU है इसलिए “नकली वामपंथी सहिष्णुता” के तमाम चिथड़ों-पोतड़ों में मैं मंगलेश डबराल- राकेश सिन्हा प्रकरण तथा गोविन्दाचार्य-अरुंधती रॉय जैसे “वैचारिक छुआछूत” वाले प्रकरण को शामिल नहीं कर रहा हूँ, वर्ना वामपंथी “बौद्धिक पाखण्ड” और तथाकथित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तमाम नग्न किस्से, बंगाल से लेकर केरल तक बिखरे पड़े हैं... मैंने इस लेख में JNU में सम्पन्न किए जाने वाले "प्रगतिशील छिछोरेपन"... अर्थात "किस ऑफ लव", अथवा "समलैंगिकता के समर्थन"जैसी बातों को भी शामिल नहीं किया है... और मजे की बात यह कि फिर भी बड़ी बेशर्मी से ये लोग संघ-भाजपा और हिंदुओं को सहिष्णुता का ज्ञान बाँटते फिरते हैं...ऐसी होती है वामपंथी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, लोकतंत्र और विमर्श... 

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www.indiafacts.com पर JNU के शोधार्थी भाई अभिनव प्रकाश द्वारा दिए गए इनपुट्स पर आधारित... 

Indian Juvenile Act, Nirbhaya and Afroz

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क्या “निर्भया” का बलात्कारी आपके आसपास है? 


मैं जानता हूँ कि शीर्षक देखकर आप चौंके होंगे, लेकिन यह सवाल है ही ऐसा. और यह सवाल करना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि दिसम्बर 2015 के बाद ऐसा हो सकता है कि दिल्ली-मुम्बई-आजमगढ़-कटिहार से लेकर भारत के किसी भी शहर में आपकी बेटी, या बीवी या बहू के आसपास ही “निर्भया” का बलात्कारी बैठा हो, उनसे बातें कर रहा हो.यह बात मैं आपको डराने के लिए नहीं कर रहा हूँ, बल्कि भारत के वर्तमान कानूनों एवं कथित मानवाधिकारवादियों के समाज-विरोधी कारनामों की वजह से पैदा हुई स्थिति को स्पष्ट करने के लिए कह रहा हूँ... 


जैसा कि अब पूरी दुनिया जानती है 16 दिसम्बर 2012 को दिल्ली में “कुख्यात” निर्भया बलात्कार काण्ड हुआ था. इस घृणित एवं नृशंस हत्याकांड काण्ड ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था एवं भारत में महिला सुरक्षा को लेकर कई सुधार हुए, नए क़ानून बने. इस भीषण बलात्कार काण्ड के अधिकाँश आरोपियों को पहले-दूसरे चरण में फाँसी की सजा हो चुकी है, अंतिम अपील वाला चरण बाकी है. बीबीसी की एक संवाददाता ने बड़ी बेशर्मी से इन दुर्दांत अपराधियों में से एक आरोपी रामसिंह पर एक डाक्यूमेंट्री को टीवी चैनलों पर प्रसारित भी कर दिया जिसमें उस बलात्कारी को बड़ी निर्लज्जता के साथ इंटरव्यू देते हुए भी दिखाया जा चुका है. परन्तु इस काण्ड का एक प्रमुख अपराधी जिसका नाम मोहम्मद अफरोज है, वह अपराध के समय सत्रह वर्ष का होने के कारण भारत के कानूनों की पतली गली (अर्थात जुवेनाईल एक्ट) द्वारा नाबालिग होने की वजह से ना सिर्फ फाँसी से बच गया, बल्कि पूरे देश के माता-पिताओं के लिए चिंता की बात यह है कि आगामी दिसम्बर 2015 के मध्य में उसे “बाल सुधार गृह” से वापस उसके घर भेज दिया जाएगा... बिलकुल सुरक्षित, बिलकुल आराम से और बिना कोई सजा दिए. जी हाँ, यह जानकर अब आपकी रीढ़ की हड्डी में कंपकंपी छूटी होगी.मोहम्मद अफरोज नामक दरिंदा जिसने पहले तो निर्भया और उसके मित्र को बस में चढ़ने के लिए पटाया, और जब ये पाँच दरिंदे और अफरोज़ मिलकर निर्भया के साथ बलात्कार कर चुके थे, तब अफरोज़ ने निर्भया की योनि में लोहे की राड भी घुसेड़ी थी... यह सब उसने पूरे होशोहवास और समझदारी के साथ किया था. लेकिन अपराध करते समय उसकी आयु सत्रह वर्ष थी, इसलिए उसे बालिग़ होने के बाद सिर्फ दो वर्ष के लिए बाल अपराधी सुधार गृह में रहने की कथित सजा(???) मिली, और अब वह उससे भी आज़ाद होने जा रहा है. 

बाल सुधार गृह के नियमों के मुताबिक़ बाल अपराधियों के दिमाग को अपराध से मुक्त करने तथा उन्हें सुधारने के लिए एक मनोचिकित्सक, एक वकील एवं एक सलाहकार (काउंसलर) की नियुक्ति होती है, जो उन अपराधियों से बातचीत करके, उनकी गतिविधियों पर निगाह रखकर उनके बारे में अपनी रिपोर्ट देते हैं. भारत के कानूनों के अनुसार नाबालिग अपराधी (चाहे उसने कितना भी घृणित अपराध किया हो) की पहचान उजागर नहीं की जाती. मोहम्मद अफरोज़ के मामले में भी यही होने जा रहा है, लेकिन इस बीच अफरोज़ बीस वर्ष का हो चुका है और काउंसिलर के मुताबिक़ अफरोज़ को अपने किए का कतई पछतावा नहीं है.वह अपने उस दुष्कर्म को बड़े ठंडे दिमाग से बयान करता है. अफरोज़ के अनुसार निर्भया को बस में चढाने से पहले उसने एक और अकेली लड़की को बस में बैठने के लिए आमंत्रित किया था, परन्तु अचानक वहाँ एक ऑटो आ गया और वह लड़की उसमें चली गई, परन्तु निर्भया और उसका दोस्त दुर्भाग्यशाली निकले और इनके चंगुल में फँस गए. अफरोज़ की काउंसिलिंग करने वाले सलाहकार के अनुसार उसकी मानसिक स्थिति में कोई खराबी नहीं है, बल्कि तथाकथित सुधार गृह में दूसरे बाल(??) अपराधियों के साथ रहकर वह इतना शातिर हो चुका है कि अब वह कोई भी वस्तु अथवा उसकी नाजायज़ माँग पुलिस या प्रशासन से नहीं माँगता, न्यायालय के माध्यम से माँगता है. क्योंकि उसे पता है कि पुलिस उसे कुछ नहीं देगी, लेकिन क़ानून की खामियों के चलते वह न्यायालय से हासिल कर लेगा. दिल्ली पुलिस ने चिकित्सक की रिपोर्ट के साथ न्यायालय में शपथ-पत्र दायर करके यह बता दिया है कि मोहम्मद अफरोज़ के सभी पुरुष प्रधान अंग पूर्ण विकसित एवं स्वस्थ हैं तथा निर्भया के साथ बलात्कार करते समय उसने जैसी क्रूरता और बर्बरता दिखाई है उसे देखते हुए अफरोज़ को सुधार गृह से तिहाड़ भेजा जाए. परन्तु वर्तमान कानूनों की पतली गलियों के कारण अफरोज़ को रिहा किया जाने वाला है. बाल सुधार गृह के समूचे स्टाफ को न्यायालय द्वारा चेतावनी दी जा चुकी है कि किसी भी परिस्थिति में मोहम्मद अफरोज़ का चेहरा जनता के बीच न पहुँचने पाए, उसकी पहचान समाज में उजागर ना होने पाए (ऐसा ही क़ानून है). यानी जनवरी 2016 के बाद यह बलात्कारी समाज में कहाँ जाकर छिप जाएगा, और अपने कुकर्मों को अंजाम देता रहेगा कौन जाने


इस बिंदु पर कई कानूनविदों में मतभेद हैं, अधिकाँश का मानना है कि जिस लड़की का बलात्कार हुआ है उसकी पहचान छिपाना तो वैध कारण माना जा सकता है, परन्तु जो खतरनाक अपराधी अब पूर्ण बालिग़ होकर समाज की मुख्यधारा में जाने वाला है उसकी पहचान छिपाने का क्या मतलब?? इससे तो उसे छिपने में आसानी ही होगी. अव्वल तो अफरोज़ जैसे अपराधी कभी सुधरते नहीं हैं, लेकिन यदि कोई बाल अपराधी वास्तव में सुधर भी गया हो तब भी उसका चेहरा और पहचान छिपाकर रखना समाज के लिए भविष्य में बेहद घातक सिद्ध हो सकता है.यही हो रहा है. काउंसिलर के अनुसार पिछले तीन वर्ष में अफरोज़ ने जेल में सिवाय मौज-मस्ती और चित्रकारी के अलावा कुछ नहीं किया. बढ़िया भोजन मिलने के कारण उसका वजन भी दस किलो बढ़ गया है. पिछले तीन साल में सिर्फ उसकी माँ उससे चार-छः बार मिलने आई, और कोई नहीं आया. 

बाल सुधार गृह एवं “जुवेनाईल एक्ट” का गठन इसलिए किया गया था, ताकि बाल अपराधियों को सजा की बजाय सुधारा जा सके. परन्तु भारत जैसे देश में ये कथित “बाल सुधार गृह”(?) कितने सक्षम एवं सफल हुए हैं इस बात पर कोई शोध अब तक नहीं किया गया है. बाल संरक्षण गृहों एवं सुधार गृहों के भ्रष्टाचार से सभी वाकिफ हैं, वहाँ के हालातों की दयनीय स्थिति और जिस निचले सामाजिक वातावरण से ऐसे अपराधी पनपते हैं, उसे देखते हुए मोहम्मद अफरोज़ जैसे अपराधियों में सुधार होने की उम्मीद नहीं के बराबर ही है. मूल सवाल यह है कि क्या अब भारत के जुवेनाईल एक्ट में संशोधन नहीं किया जाना चाहिए?? आधुनिक युग में जब छोटे-छोटे बच्चे टीवी और मोबाईल के कारण समय से पहले बड़े हो रहे हैं तब सत्रह साल के युवक को “नाबालिग” कैसे माना जा सकता है? निर्भया के साथ अफरोज़ ने जो हिंसक कृत्य किया, वह करते समय उसकी हरकतें पूर्ण वयस्क के समान थीं

इसके अलावा दूसरा डरावना सवाल यह है कि चूँकि अफरोज़ की पहचान गुप्त रखी गई है, इसलिए क्या यह संभव नहीं कि वह दुर्दान्त बलात्कारी अभी इस समय आपके आसपास ही हो... संभव है कि वह आपकी बेटी के स्कूल बस का ड्रायवर हो... या बाज़ार जा रही आपकी बीवी का ऑटोचालक हो... ऐसे में तथाकथित मानवाधिकारवादियों से यह माँग होनी चाहिए कि वे मोहम्मद अफरोज़ को अगले तीन-चार वर्ष तक अपने घर में रखें. चूँकि उन्हें विश्वास है कि अफरोज़ “सुधर” गया है, तो वे तमाम “एक्टिविस्ट” अपनी बेटी से उसकी दोस्ती करवाएँ.क्या यह माँग जायज़ नहीं है?? यदि यह माँग गलत है, तो फिर क्यों ना अफरोज़ की पहचान उजागर कर दी जाए, ताकि जनता उसे पहचान ले और सावधान रहे. 

NGOs Tool for Unrest and US Spy

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जासूसी और अस्थिरता फैलाने के लिए NGOs 


मान लीजिए कि आप रेस ट्रैक पर हैं, और बड़े-बड़े दिग्गजों को हराने का माद्दा रखते हुए आप बहुत उत्साह से दौड़ में हिस्सा लेने के लिए उद्यत हैं. यदि ऐसे में सिर्फ आपके पैरों में दो-दो किलो का वजन बाँध दिया जाए तो क्या आप दौड़ पाएँगे? नहीं. या फिर आपने दौड़ना शुरू किया और आगे-आगे कोई आपके मार्ग में कचरा-पत्थर-कीलें फेंकता चले, तो क्या आप दौड़ पाएँगे? नहीं. कुछ-कुछ ऐसा ही अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति-कूटनीति में भी होता है. तरक्की करने वाले किसी दूसरे देश में कैसे अधिकाधिक रोड़े उत्पन्न किए जा सकें अथवा उसकी तरक्की को कैसे धीमा अथवा पटरी से उतारा जा सके, इस हेतु अमेरिका-जर्मनी जैसे देशों ने विभिन्न देशों में अपने-अपने कई फर्जी और गुप्त संगठन तैयार कर रखे हैं.जिनके द्वारा समय-समय पर अलग-अलग पद्धति से उस देश में उनके हितसाधन किए जाते हैं. 

मई 2007 को व्हाईट हॉउस के पूर्वी हॉल में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश एक समारोह की अध्यक्षता कर रहे थे. इस समारोह में जॉर्ज बुश द्वारा देश की सेवा करने वाले कई विशिष्ट संगठनों को पुरस्कृत एवं सम्मानित किया जाना था. सम्मानित होने वाले महानुभावों के बीच एक शख्स था, जिसका नाम के.हायरामाइन था. हायरामाईन कोलोराडो स्थित एक विराट और अरबपति मानवाधिकार संगठन का संस्थापक और अध्यक्ष है. के.हायरामाइन के NGO का नाम है Humanitarian International Services Group अर्थात (अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार सेवा समूह). HISG. “कैटरीना” जैसे महा-तूफ़ान के बाद अमेरिकी जनता की सेवा करने के लिए ही इस समारोह में जॉर्ज बुश द्वारा HISG को सम्मानित किया जा रहा था. अमेरिकी राष्ट्रपति से हाथ मिलाने के बाद अपने संक्षिप्त संबोधन में हायरामाइन ने कहा कि, “कैटरीना तूफ़ान आने के बाद एक माह के भीतर ही ह्यूस्टन से हमारे संगठन ने 1500 स्वयंसेवकों की टीम राहत कार्यों के लिए भेजी और पीड़ित अमेरिकी जनता की तन-मन-धन से सेवा की”. यहाँ तक पढ़ने में तो आपको इसमें कोई खास बात नहीं दिखाई दी होगी, NGOs की यह कार्यप्रणाली बड़ी सामान्य प्रक्रिया है. लेकिन इसमें असली पेंच यह है कि के.हायरामाइन और उसका कथित मानवाधिकार NGO अर्थात HISG वास्तव में पेंटागन के जासूस थे, तथा इनके NGO को उच्च स्तरीय रक्षा कार्यक्रमों के जरिये लाखों डॉलर की मदद दी जाती थी, ताकि यह NGO दूसरे देशों में न सिर्फ धर्म परिवर्तन के कामों में निचले संगठनो को सहायता करे, बल्कि उत्तर कोरिया जैसे देशों में अमेरिकी छिपे हुए मोहरे के रूप में काम करके जासूसी करें. 

(जॉर्ज बुश के हाथों पुरस्कार ग्रहण करने के बाद हायरामाइन अपने साथियों के साथ) 

चौंकिए नहीं... अमेरिका सहित विभिन्न पश्चिमी देशों द्वारा पोषित अधिकाँश NGOs यही कार्य करते हैं.हायरामाइन और HISG का मामला भी ऐसा ही है. HISG जैसे ना जाने कितने संगठन भारत सहित अनेक देशों में कार्यरत हैं जिन्हें कभी अमेरिकी रक्षा विभाग के जरिये किसी अज्ञात मद में अथवा फोर्ड फाउन्डेशन एवं ग्रीनपीस जैसे महाकाय NGOs के जरिये आर्थिक रूप से पाला-पोसा जाता है और मनचाहे कार्य करवाए जाते हैं. नई शैली में पेंटागन के इस जासूसी अभियान की शुरुआत दिसम्बर 2004 में ही हो गई थी, जब अमेरिकी रक्षा मंत्रालय की गुप्तचर सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल विलियम बोयकिन (जो कि घोषित रूप से एवेंजेलिकल ईसाई, अर्थात ईसाई धर्मप्रचारक हैं) ने उत्तर कोरिया में अमेरिकी घुसपैठ बढ़ाने तथा सूचनाएँ एकत्रित करने के लिए NGOs के उपयोग का अपारंपरिक आयडिया सुझाया. 2004 से पूर्व अमेरिकी सरकार NGOs के इस गोरखधंधे में सीधे शामिल नहीं होती थी, बल्कि उसके खास मोहरे अर्थात कई तथाकथित मानवाधिकार संगठन इसमें अपनी दखल रखते और कार्यसिद्ध होने के बाद अमेरिकी सरकार को रिपोर्ट देते एवं पुरस्कार-सम्मान प्राप्त करते. पेंटागन द्वारा रक्षा मद में सीधे किसी NGO को पालने-पोसने का यह पहला मामला है. 

जैसा कि सभी जानते हैं उत्तर कोरिया का परमाणु कार्यक्रम पिछले पन्द्रह-बीस साल से अमेरिका के लिए भीषण सिरदर्द बना हुआ है. अब तक जासूसी के लिए और अपने मोहरे सत्ता प्रतिष्ठान तक फिट करने की योजना में अमेरिका के लिए उत्तर कोरिया सबसे कठिन देश रहा है. लाख कोशिशों के बावजूद CIA और पेंटागन उत्तर कोरिया के अंदरूनी मामलों की अग्रिम जानकारी प्राप्त करने के बारे में “शून्य” की स्थिति में खड़े रहे. लेकिन के.हायरामाइन के इस मानवाधिकार संगठन HISG की वजह से अमेरिका को उत्तर कोरिया में घुसपैठ की कामयाबी हासिल हुई. HISG ने उत्तर कोरिया में आई आपदाओं के समय “मानवता के नाते”(??) सहायता पहुँचाने की पेशकश की और सहमति मिलने के बाद यह संगठन उन इलाकों तक पहुँचा, जहाँ अब से पहले कोई अमेरिकी संगठन नहीं पहुँच पाया था. अपने राजनैतिक, कूटनैतिक एवं सामरिक लाभों के लिए अमेरिका एवं पश्चिमी देशों द्वारा ऐसे NGOs का इस्तेमाल करना कोई नई बात नहीं है. CIA इस खेल में माहिर रही है, और कई वामपंथी देशों में उसने इन्हीं संगठनों की मदद से जनता में असंतोष फैलाकर तख्तापलट करने में सफलता हासिल की है.सनद रहे कि मोदी सरकार के सत्ता में आने से पहले भारत में लगभग 70,000 NGOs काम कर रहे थे, जिनमें से लगभग 28,000 NGOs ने पिछले दस वर्ष से अपने पैसों एवं विदेश से प्राप्त चन्दे का हिसाब-किताब केन्द्र सरकार को नहीं दिया था. 

बहरहाल, वापस लौटते हैं HISG नामक NGO पर. HISG का गठन अमेरिका में 9/11 के हमले के तुरंत बाद किया गया था. के.हेरामाइन ने तीन मित्रों के साथ मिलकर “मानवाधिकार संगठन” के रूप में इसका गठन किया, जिसका उद्देश्य प्राकृतिक आपदाओं के समय एवं युद्धग्रस्त इलाकों में गरीबों की सहायता, दवाई-कपड़े इत्यादि पहुँचाने का घोषित किया गया. चूँकि मानवाधिकार वाला उद्देश्य दिखावटी था ही, अतः शुरुआती दो वर्षों में HISG ने अधिकाँशतः अमेरिका में ही “धर्म-प्रचार समिति” (Christian Evengelism) के रूप में काम किया.जब अमेरिका अफगानिस्तान में घुसा और उसने वहाँ तबाही मचाना शुरू किया तब HISG एक्शन में आया और पहली बार देश के बाहर कदम रखा. जहाज भर खेप में इन्होंने अफगानिस्तान के क्षतिग्रस्त अस्पतालों में दवाओं का वितरण किया. 2003 आते-आते HISG पेंटागन की निगाहों में चढ़ गया. पेंटागन ने इस NGO को अपने अफगानिस्तान ऑपरेशन में शामिल करके इसे वहाँ मिलने वाले निर्माण कार्यों के ठेके में भी सम्मिलित कर दिया. इसी साल पेंटागन में लेफ्टिनेंट विलियम बोयकिन की नियुक्ति रक्षा मंत्रालय अतिरिक्त सचिव के रूप में हुई. 9/11 के हमलों के पश्चात अत्यधिक सतर्क हुए अमेरिका ने बोयकिन को उन देशों का जिम्मा सौंपा, जिन्हें उसने “हाई-रिस्क” पर रखा था, जैसे ईरान और उत्तर कोरिया. बोयकिन को विभिन्न देशों में कई गुप्तचर ऑपरेशन चलाने का अनुभव था. विलियम बोयकिन ने 1993 में सोमालिया में एक आतंकवादी समूह को मार गिराया था और कोलम्बिया में भी कुख्यात ड्रग स्मगलर पाब्लो एस्कोबार का पीछा करके पता लगाने में भी बोयकिन की खास भूमिका थी. तत्कालीन रक्षा सचिव डोनाल्ड रम्सफेल्ड ने बोयकिन को CIA और पेंटागन के साथ मिलकर उत्तर कोरिया पर अपना ध्यान केंद्रित करने की जिम्मेदारी सौंपी थी. जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, उत्तर कोरिया अमेरिका के लिए सबसे कठिन लक्ष्य था, क्योंकि वहाँ किसी भी अमेरिकी संगठन अथवा सरकार की कोई घुसपैठ नहीं हो पा रही थी. ऐसी हालत में वहाँ से गुप्त सूचनाएँ हासिल करना अथवा वहाँ की जनता को भड़काने के लिए उनके बीच अपने नुमाईंदे फिट करना लगभग असंभव हो चला था. ऐसे हालात में पेंटागन ने दूसरे देशों में काम कर रहे NGOs की तर्ज पर HISG को इस महत्त्वपूर्ण काम के लिए चुना. 

(के.हायरामाइन उत्तर कोरिया में)

चूँकि उत्तर कोरिया पर अमेरिका ने कई तरह के प्रतिबन्ध लगा रखे हैं, इसलिए वास्तव में वहाँ की जनता किम जोंग की तानाशाही और गरीबी के तले जी रही है. उत्तर कोरिया अमूमन किसी भी सरकार से सीधे मदद स्वीकार नहीं करता, इसलिए हायरामाइन के NGO ने शुरुआत में प्रयोग के रूप में वहाँ पड़ने वाली कडाके की ठण्ड के दौरान कपड़ों, दवाओं एवं प्राकृतिक आपदा राहत उपकरणों से भरे जहाज “मानवता” के नाम पर भेजे. विशेष तौर पर डिजाइन किए गए इन कपड़ों के बीच विशेष खांचे बनाए गए थे, जिनमें बाईबल रखी जाती थी.उत्तर कोरिया घोषित रूप से वामपंथी देश है, और वहाँ किसी भी प्रकार की धार्मिक गतिविधियों पर रोक है. ऐसे में कपड़ों के बीच छुपाकर बाईबल भेजना एक जोखिम भरा काम था, परन्तु पेंटागन के लिए यह प्रयोग करना जरूरी था. पेंटागन यह जानता था कि अगर बाईबल भेजने की चाल सफल हो गई और पकड़े नहीं गए तो अगली खेप में सैन्य जासूसी उपकरण, सेन्सर्स और छिपे कैमरे-माईक आदि भी उत्तर कोरिया के भीतर भेजे जा सकते थे. HISG द्वारा कपड़ों में बाईबल भेजने की चाल सफल रही और उत्तर कोरिया की सरकार को इसकी भनक भी नहीं लगी. इसके बाद पेंटागन, CIA और इस NGO की हिम्मत खुल गई और उन्होंने चीन में कार्यरत मिशनरी समूहों, मानवीय सहायता कार्यकर्ताओं एवं चीन के स्मगलरों की मदद से इन्होंने उत्तर कोरिया में विभिन्न जासूसी उपकरण “मानवीय सहायता” के नाम पर भेज डाले. मजे की बात यह थी कि चीन के स्मगलरों और HISG के प्रमुख कर्ताधर्ताओं के अलावा किसी को भी इस बात की भनक तक नहीं थी कि वे मानवता के नाम पर चलाए जा रहे इस ऑपरेशन में मोहरे बने हुए हैं और NGO के नाम पर अमेरिका उनसे जासूसी करवा रहा है. उन्हें लगता था कि वे गरीबों की मदद करके कोई पुण्य का काम कर रहे हैं. इस बीच 2007 में के.हायरामाइन भी अपनी चीनी शक्लो-सूरत की वजह से मानवाधिकार संगठन की ढाल लेकर उत्तर कोरिया का दो बार दौरा कर आया. खोजी वेबसाईट The Interceptने जब इस मामले की खोजबीन शुरू की और अमेरिका के विभिन्न रिटायर्ड फौजियों से बातचीत की तब पता चला कि लगभग 250 से अधिक NGOs ऐसे हैं जिन्हें अमेरिकी सेना, पेंटागन और CIA मिलकर लाखों डॉलर की फंडिंग करते हैं, ताकि विरोधी नीतियों वाले देशों में या तो अपने आदमी फिट करके अमेरिका के अनुकूल नीतियाँ बनवाई जा सकें, अथवा उन देशों में उथलपुथल पैदा करके, जनता में असंतोष भड़काकर अपना उल्लू सीधा किया जा सके.उत्तर कोरिया तो वैसे ही अमेरिका की प्रमुख हिट लिस्ट में है. चूँकि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकार संगठनों को विशेष सुरक्षा एवं अधिकार प्राप्त होते हैं, इसलिए उनके नाम पर बने NGOs के जरिए किसी भी देश में घुसपैठ करना आसान होता है. लेकिन इनके कार्यकर्ताओं के जरिये जासूसी करना अथवा करवाना अन्तर्राष्ट्रीय अपराध की श्रेणी में आता है, इसलिए जब वेबसाईट ने जानकारी लेना चाहा तो पेंटागन के अधिकारियों ने HISG से कोई सम्बन्ध होने से ही इंकार कर दिया. जबकि खुद अमेरिकी सरकार ने ही विभिन्न संस्थाओं का मकड़जाल बनाकर HISG को लाखों डॉलर का भुगतान किया है. 2013 में HISG को पूरी तरह से खत्म कर दिया गया, लेकिन उससे पहले इसके कर्ताधर्ताओं को न सिर्फ ऐशोआराम का जीवन प्रदान किया गया, बल्कि उच्च पुरस्कारों से भी नवाजा गया. 

अमेरिकी अधिकारियों ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि उत्तर कोरिया के रेडियो एवं दूरसंचार उपकरणों के सिग्नल्स को भंग करने एवं उनमें सेंधमारी करने के लिए कई शक्तिशाली जासूसी उपकरण वहाँ प्लांट किए जाने जरूरी थे, ताकि समय-समय पर सूचनाएँ प्राप्त होती रहें. इस काम के लिए मानवाधिकार NGOs से बेहतर कुछ हो नहीं सकता थम क्योंकि कोई भी उन पर शक नहीं करता और उनके द्वारा पहुँचाए जा रहे सामानों की उतनी कड़ाई से जाँच भी नहीं होती.  

HISG जैसे NGOs को भारी मात्रा में पैसा पहुँचाने के लिए जो “मैकेनिज़्म” तैयार किया जाता है, वह भी बड़ा चमत्कारिक किस्म का होता है. चूँकि ऐसा कहीं भी नहीं दिखना चाहिए कि अमेरिकी सरकार इसमें सीधे शामिल है, इसलिए पहले दो प्रकार की कम्पनियाँ खड़ी जाती हैं, पहली For-Profit और दूसरी Non-Profit. दोनों ही कंपनियों में निदेशक एवं पदाधिकारी लगभग समान ही होते हैं. 2009 में HISG ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में बताया था कि उनके पास कोई “वैतनिक कर्मचारी” नहीं है, तीस लोगों की जो टीम है वह सिर्फ अवैतनिक स्वयंसेवक हैं, सिर्फ तीन या चार व्यक्तियों को जो भुगतान प्राप्त होता है वह किसी “सलाहकार कंपनी” के द्वारा किया जाता है. 2009 की ही एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार HISG के असली खिलाड़ी अर्थात के.हायरामाईन ने अपने NGO से कोई वेतन प्राप्त नहीं किया, परन्तु फिर भी एक निजी सलाहकार कंपनी द्वारा उसे बिना कोई काम किए, लगभग तीन लाख डॉलर का भुगतान किया. ज़ाहिर है कि यह पैसा सीधे पेंटागन के द्वारा उस फर्जी कम्पनी के मार्फ़त HISG को पहुँचाया गया. इसके अलावा “वर्किंग पार्टनर्स फाउन्डेशन” एवं “न्यू मिलेनियम ट्रस्ट” जैसे विभिन्न गैर-सरकारी संगठनों के माध्यम से कुल सत्तर लाख डॉलर का भुगतान किया गया, लेकिन कोई माई का लाल इसमें CIA की भूमिका नहीं खोज सकता. फाउन्डेशनों और ट्रस्टों का जाल इसीलिए बिछाया जाता है, ताकि “व्हाईट मनी” के रूप में पैसा सही व्यक्ति तक पहुँचाया जा सके... इन संस्थाओं में “सलाहकार” नामक पद ऐसा विशिष्ट पद होता है, जिसकी कोई सीमा नहीं, कोई आदि नहीं कोई अंत नहीं.निजी बातचीत में वेबसाईट को पेंटागन के ही एक रिटायर्ड अधिकारी ने बताया कि HISG ने इन सात वर्षों के दौरान लगभग तीस देशों में आपदा राहत, गरीबों को भोजन, मुफ्त दवाईयाँ एवं कपड़े पहुँचाने जैसे कई काम अपने हाथ में लिए. नाईजर, माली, इथियोपिया, केन्य, ईरान, लेबनान, यमन और चीन जैसे देशों में HISG ने विभिन्न तरीकों से अपने स्थानीय कार्यकर्ताओं के जरिये पैसा और सामग्री पहुँचाई, जिससे अमेरिकी सरकार HISG से बहुत खुश हुई. जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, HISG का मुख्य काम उत्तर कोरिया में अमेरिकी जासूसों के लिए जमीन और सुरक्षित स्थान की तैयारी करना था. HISG उत्तर कोरिया में समाजसेवी संस्थाओं एवं ऐसे मानवाधिकार अथवा असंदिग्ध और अच्छी छवि वाले लोगों को अपने साथ जोड़ती थी जो बिना किसी दिक्कत के काम कर सकें. इसके बाद कभी डॉक्टर के रूप में, तो कभी किसी संस्था के सहायक के रूप में तो कभी स्वयंसेवकों के रूप में स्थान-स्थान पर व्यक्ति “प्लांट” किए जाते थे. चूँकि उत्तर कोरिया सर्वाधिक खतरनाक देश माना जाता है, जहाँ किसी भी मामूली गलती की सजा सीधे किम जोंग इल द्वारा प्योंगयांग के चौराहे पर गोली मार देने के आदेश से समाप्त होती थी, इसलिए HISG के काम को अमेरिका में उच्च स्तर पर सराहा गया, और सीधे राष्ट्रपति बुश के हाथों “वालंटियर सर्विस अवार्ड” के रूप में पुरस्कार दिया गया. 

(मकड़ी के जाल की तरह NGOs को पैसा पहुँचाया जाता है)

NGOs की आड़ लेकर CIA जैसी अमेरिकी संस्थाएँ कैसे काम करती हैं, इसका एक संक्षिप्त उदाहरण 2011 में पाकिस्तान में देखने को मिलता है, जहाँ हेपेटाईटिस “बी” का टीका लगाने वाली स्वयंसेवी संस्था के जरिये एक पाकिस्तानी डॉक्टर ने एबटाबाद में संदिग्ध लादेन परिवार के DNA सैम्पल लेने की कोशिश की और पकड़ा गया.इस खुलासे के बाद तालिबान इतना नाराज हुआ कि उसने क्षेत्र में काम कर रहे कई डॉक्टरों को मार डाला और अफगानिस्तान और पाकिस्तान के एक बड़े इलाके में पोलियो वैक्सीन का काम भी बन्द करवा दिया, लेकिन अमेरिकी जासूसी संस्थाओं को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. NGOs का उनका जाल इतना विशाल है, कि आप कभी भी पता नहीं कर सकते कि आपके पास “मानवीय सहायता” के नाम पर बैठा हुआ शख्स अमेरिकी जासूस है. पेंटागन और HISG की मिलीभगत संबंधी पोल खुलने का मुख्य कारण रहा HISG के कर्मचारी. असल में जो भी NGO इस प्रकार की गतिविधियों में शामिल रहता है, उसमें सिर्फ उसके उच्चाधिकारियों को ही मालूम रहता है कि वास्तव में वे लोग क्या काम कर रहे हैं, अथवा क्या काम करने किसी देश में जा रहे हैं. जब अमेरिकी सरकार (यानी पेंटागन और CIA) का काम निकल गया तो उन्होंने सन 2013 में HISG की फण्डिंग बन्द कर दी. के.हायरामाइन ने भी अपने वैतनिक कर्मचारियों को बिना कोई नोटिस दिए अचानक घोषणा कर दी, कि अब यह NGO बन्द किया जा रहा है, क्योंकि हमें “समुचित पैसा” नहीं मिल रहा. 

मैं जानता हूँ कि उपरोक्त चौंकाने वाले तथ्य पढ़ने के बाद आपके दिमाग में अचानक भारत में पिछले कुछ वर्षों में हुई घटनाएँ कौंध गई होंगी, जैसे नर्मदा बचाओ आंदोलन के कारण सरदार सरोवर बाँध के निर्माण में देरी... या फिर कुडनकुलम परमाणु बिजलीघर का NGOs द्वारा कड़ा विरोध, जिसके कारण वह प्रोजेक्ट भी पिछड़ा... अथवा फोर्ड फाउन्डेशन की मदद से चलने वाले कुछ “तथाकथित ईमानदारी आंदोलन”... अथवा हाल ही में मोदी सरकार द्वारा फोर्ड फाउन्डेशन एवं ग्रीनपीस के खातों की जाँच तथा उनके द्वारा खर्च किए गए धन का हिसाब-किताब वगैरह माँगे जाने पर अन्तर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय बुद्धिजीवियों(??) द्वारा की गई बिलबिलाहटभी आपको याद आ गई होगी. उल्लेखनीय है कि मोदी सरकार के आने से पहले भारत में लगभग 70,000 NGOs थे, जिनमें से 30% NGOs ऐसे थे, जिन्होंने पिछले दस साल से विदेशों से प्राप्त होने वाले दान(??) का कोई हिसाब सरकार को नहीं दिया था, और मोदी सरकार द्वारा हिसाब माँगते ही ये NGOs अचानक गायब हो गए, कुछ तो कागजों पर ही थे, जबकि कुछ ने अपनी “दुकान” बढ़ा ली. भारत में आई भीषण “सुनामी” के बाद तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश के तटीय इलाकों में बेघरों-गरीबों के बीच जिस तेजी से मिशनरी संस्थाओं ने NGOs के जरिये धर्मान्तरण करवाया, वह भी आँखें खोलने लायक है. परन्तु आँखें किसकी खुलीं?? सोनिया सरकार की या जयललिता-करुणानिधि सरकार की? नहीं, इनमें से किसी ने भी सुनामी प्रभावित क्षेत्रों में NGOs के माध्यम से चल रही गतिविधियों पर रोक लगाने अथवा जाँच करने की कोई पहल नहीं की. सोचिये क्यों??इसके अलावा भारत ने पिछले पन्द्रह वर्षों में भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र के लगभग दस अत्यधिक प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों को खो दिया है... नहीं, नहीं... वे भारत छोड़कर नहीं गए, बल्कि उनकी रहस्यमयी मौतें हुई हैं, किसी की आत्महत्या हुई तो कोई मानसिक विक्षिप्त हुआ तो किसी पर बलात्कार अथवा यौन शोषण के आरोप लगे... (वैज्ञानिक प्रोफ़ेसर नम्बी नारायण से सम्बन्धित खतरनाक मामले के लिए ब्लॉग की इस लिंक पर क्लिक करें).औसत बुद्धि से भी विचार करें तो कोई मामूली व्यक्ति भी बता सकता है, कि यह घटनाएँ सामान्य नहीं, “असामान्य” हैं.भारत को पीछे धकेलने, उसके पैरों में पत्थर बाँधकर दौडाने की ऐसी “रहस्यमयी कारगुजारियाँ” भला पश्चिमी देशों और चीन के अलावा और कौन कर सकता है? क्योंकि भारत में काम करने वाले उनके हजारों “मोहरे” NGOs के रूप में हमारे आसपास ही मौजूद हैं...

King Kempegowda, Bangaluru and Tipu Sultan

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राजा केम्पेगौडा – बंगलौर के संस्थापक


मुस्लिम वोट बैंक के लिए काँग्रेस द्वारा खामख्वाह टीपू सुलतान की जयंती मनाने के भद्दे विवाद के समय प्रसिद्ध लेखक एवं कलाकार गिरीश कर्नाड ने भी अपनी कथित “सेकुलर उपयोगिता” को दर्शाने एवं अपने महामहिमों को खुश करनेके लिए एक बयान दिया था कि बंगलौर के अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे का नाम केम्पेगौडा टर्मिनल से बदलकर टीपू सुलतान के नाम पर कर दिया जाना चाहिए. हालाँकि एक दिन में ही गिरीश कर्नाड को अक्ल आ गई और वे अपने बयान से पलट गए. ऐसा क्यों हुआ, यह हम लेख में आगे देखेंगे. 

कई मित्रों को केम्पेगौडा के बारे में जानकारी नहीं है. होगी भी कैसे? टीपू सुलतान जैसे क्रूर बादशाह को महिमामंडित करने के चक्कर में फर्जी इतिहासकारों ने कर्नाटक के इस राजा और खासकर विजयनगर साम्राज्य को हमेशा कमतर दर्शाने अथवा उपेक्षित रखने का भरपूर प्रयास किया है,लेकिन स्थानीय भावनाएँ और जातीय व क्षेत्रीय स्वाभिमान तथा बंगलौर के गौरवशाली इतिहास के कारण केम्पेगौडा को कभी भुलाया नहीं जा सकता. हिरिया केम्पेगौडा को जनता केम्पेगौडा के नाम से जानती थी. वे विजयनगरम साम्राज्य के दौरान एक बुद्धिमान एवं कलाप्रेमी राजा के रूप में विख्यात थे. आज जो बंगलौर हमें दिखाई देता है, वह केम्पेगौडा के दिमाग की ही उपज थी. सन 1537 में केम्पेगौडा ने बंगलौर को अपनी राजधानी बनाने का फैसला किया और उसी के अनुसार व्यवस्थित रूप से बंगलौर को डिजाइन किया.राजा केम्पेगौडा “गौड़ा” खानदान से थे, जो कि येलहंकानाडु प्रभु की विरासत से आरम्भ हुआ था. “गौड़ा” शब्द का एक अर्थ भूमिपुत्र अथवा किसान भी होता है. केम्पेगौडा ने सन 1513 से आरम्भ करके कुल 56 वर्ष शासन किया. जबकि इनके पिता केम्पनान्जे गौड़ा ने 70 वर्ष तक शासन किया. केम्पेगौडा बचपन से ही दूरदृष्टा, बुद्धिमान एवं कलाप्रेमी थे. जब उन्होंने बंगलूरू को राजधानी बनाने का फैसला किया तभी उन्होंने निश्चित कर लिया था कि वे इसे एक व्यवस्थित नगर के रूप में विकसित करेंगे. बंगलूरू शहर में उन्होंने एक किला, फ़ौजी छावनी, ढेर सारे तालाब और मंदिरों का निर्माण करवाया. बंगलूरू में केम्पेगौडा ने सड़कों का निर्माण भी अत्यधिक व्यवस्थित पद्धति से करवाया, जिसमें उत्तर से दक्षिण तक तथा पूर्व से पश्चिम तक बहुत चौड़ी सड़कों तथा इन्हें जोड़ने वाली थोड़ी कम चौड़ी सड़कों का निर्माण पहले करवाया. बंगलूरू में आज जिस स्थान पर डोडापेट चौराहा है (चिक्कापेट जंक्शन) वहीं से बैलों द्वारा हल चलाकर बंगलूरू की सड़कों का निर्माण आरम्भ किया था. उन दिनों भी सड़कें इतनी चौड़ी थीं कि तीन-तीन बैलगाडियां आराम से एक साथ चल सकती थीं. 


केम्पेगौडा के शासनकाल में बंगलूरू कपास, चावल, रागी और चूड़ियों के लिए अत्यधिक प्रसिद्ध था. कुरुबारापेट, कुम्बारपेट, गनिगारपेट, उप्पारापेट जैसे इलाके व्यावसायिक केन्द्र थे, जबकि हलसूरपेट, मुटियालापेट, बल्लापुरापेट जैसे कई इलाके रिहायशी बनाए गए. किले के उत्तरी येलहांका द्वारा के पास विनायक एवं आंजनेय के मंदिर बनाए गए (जहाँ आज स्टेट बैंक ऑफ मैसूर का मुख्यालय है). इसके अलावा केम्पेगौडा ने नगर को पानी आपूर्ति हेतु कई विशाल तालाबों का भी निर्माण करवाया, जो कहीं-कहीं आज भी देखे जा सकते हैं. विजयनगर साम्राज्य के प्रमुख शासक केम्पेगौडा के इन कामों से अत्यधिक प्रसन्न हुए और उन्होंने उल्सूर, बेगुर, वर्थुर, जिगनी, थालागात्तापुरा जैसे कई गाँव केम्पेगौडा को भेंट में दिए. सन 1569 में केम्पेगौडा का निधन हुआ, और सन 1609 में उनकी एक धातुमूर्ति शिवगंगा स्थित गंगाधरेश्वर मंदिर में स्थापित की गई. आगे चलकर कर्नाटक सरकार ने केन्द्र को प्रस्ताव भेजा कि बंगलूरू अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का नाम राजा केम्पेगौडा के नाम पर कर दिया जाए. तत्कालीन यूपीए सरकार ने 2012 में कर्नाटक सरकार के इस प्रस्ताव को मंजूरी दी और 18 जुलाई 2013 को कैबिनेट ने सर्वसम्मति से बंगलूरू एयरपोर्ट का नाम “केम्पेगौडा अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा” कर दिया. 

अब आप सोच रहे होंगे कि जब काँग्रेस सरकार ने ही बंगलूरू एयरपोर्ट का नाम राजा केम्पेगौडा के नाम पर रखा है तो फिर सिद्धरामय्या सरकार और काँग्रेस के खासुलखास गिरीश कर्नाड ने इस मामले को जबरन क्यों उछाला? गिरीश कर्नाड को यह कहने की क्या जरूरत थी कि इस हवाई अड्डे का नाम टीपू सुलतान के नाम पर रखा जाए? ऐसा इसलिए, क्योंकि टीपू के कई इस्लामिक कारनामों की वजह से आज भी मुस्लिमों के दिल में टीपू के प्रति काफी इज्जत है, सो मुसलमानों को खुश करने के लिए काँग्रेस ने गिरीश कर्नाड के मुँह से यह बयान दिलवाया ताकि वह वोट बैंक खुश हो जाए, कि देखो काँग्रेस हमारे नायकों का कितना ख़याल रखती है... और फिर दो दिन बाद ही गिरीश कर्नाड के मुँह से यह बयान भी दिलवा दिया गया कि “मेरे कहने का आशय यह नहीं था, राजा केम्पेगौडा तो महान व्यक्ति थे..”. अब आप फिर सोच में पड़ गए होंगे कि अपने ही बयान से पलटी मारने का क्या मतलब?? तो ऐसा इसलिए क्योंकि कर्नाटक में गौड़ा समुदाय एक शक्तिशाली राजनैतिक वोट बैंक अर्थात “वोक्कालिगा” के अंतर्गत आता है. गिरीश कर्नाड के बयान देते ही राजा केम्पेगौडा के समस्त “गौड़ा” अर्थात वोक्कालिगा समुदाय समर्थक नाराज हो गए.... तत्काल काँग्रेस को समझ में आया कि टीपू सुलतान को लेकर खेला गया यह दाँव महँगा भी पड़ सकता है, तो गिरीश कर्नाड साहब ने तत्काल माफी भी माँग ली. वोट बैंक के लिए दोनों हाथों में लड्डू रखने का यह घृणित खेल काँग्रेस 1948 से खेलती आई है. काँग्रेस ने ही हिंदुओं को खुश करने के लिए राम जन्मभूमि स्थल का ताला खोल दिया था और मुसलमानों को खुश करने के लिए ही शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट को लात मारते हुए संविधान ही बदल दिया

खैर.... अब हम आते हैं भारत के “महान”(??) इतिहासकारों द्वारा टीपू सुलतान और उसके बाप हैदर अली को अत्यधिक सहिष्णु और उदार बादशाह साबित करने के प्रयास का पोल खोलते एक तथ्यपर. बंगलूरू से पचहत्तर किमी दूर मगादी तहसील में केम्पापुरा नामक गाँव है. इस गाँव में सिर्फ साठ मकान हैं और आबादी लगभग पाँच सौ मात्र. यह गाँव राजा केम्पेगौडा की शहीद स्थली है और इसी गाँव में, बंगलूरू जैसा आईटी शहर बसाने और विकसित करने वाले राजा केम्पेगौडा का स्मारक भी है. आश्चर्य की बात है कि यह महत्त्वपूर्ण जानकारी बंगलूरू में बहुत कम लोगों को पता है, क्योंकि इतिहासकारों (यानी कथित इतिहासकारों) ने केम्पेगौडा शासनकाल की उपलब्धियों को आम जनता तक पहुँचने से रोके रखा, उनके लिए इतिहास हैदर अली से शुरू होता था. केम्पापुरा गाँव के रहवासियों से बात करने पर जानकारी मिलती है कि 1568 में इसी गाँव के आसपास हुए भीषण युद्ध में केम्पेगौडा बुरी तरह घायल हुए और उन्होंने इस गाँव में शरण ली, तथा यहीं वीरगति को प्राप्त हुए. केम्पेगौडा के पुत्र इम्मादी ने अपने पिता की स्मृति में यहाँ एक स्मारक बनवाया तथा इसी स्मारक के सामने बासवराज का मंदिर भी निर्मित किया. इस गाँव के सभी निवासी अपने राजा के प्रति अत्यधिक कृतज्ञ थे और प्रति सोमवार को केम्पापुरा का प्रत्येक व्यक्ति राजा केम्पेगौडा के स्मारक पर पुष्प अर्पित कर सामने बने मंदिर में पूजा-आरती करता था.यह सिलसिला सत्रहवीं शताब्दी तक अर्थात लगभग 150-160 वर्ष तक लगातार जारी रहा. 



सत्रहवीं शताब्दी के मध्य तक हैदर अली का आतंक इस पूरे क्षेत्र में छा गया था. एक बार हैदर अली युद्ध लड़ने के लिए इसी केम्पापुरा गाँव से सोमवार को गुजरने वाला था. ग्रामीण भयभीत थे कि कहीं हैदर अली बासवराज मंदिर और केम्पेगौडा के स्मारक को नष्ट ना कर दे, इसलिए उन्होंने पूरे स्मारक और मंदिर को बड़ी-बड़ी झाड़ियों और काँटों से ढँक दिया और गाँव खाली कर दिया.दुर्योग से कुछ ऐसा हुआ, कि हैदर अली को इसी गाँव के पास अपनी सेना के साथ लंबी अवधि तक डेरा डालना पड़ा. हैदर अली के भय से केम्पापुरा के ग्रामीणों ने लंबे समय तक उस स्मारक का रुख ही नहीं किया. इस गाँव के सबसे वृद्ध व्यक्ति 105 वर्षीय चिंगाम्मा गौड़ा बताते हैं कि हैदर अली के बाद टीपू सुलतान बादशाह बना और उसने भी वही आतंक मचाया. अंततः ग्रामीणों ने उधर जाना ही बन्द कर दिया और वह स्मारक तथा वह मंदिर घने जंगलों एवं झाडियों के बीच कहीं खो गया. कभीकभार कुछ बहादुर युवा इस जंगल में जाकर राजा की समाधि के पास सहभोज (पिकनिक) वगैरह मना लिया करते, परन्तु टीपू का भय इतना अधिक था कि किसी ने भी इस स्मारक और मंदिर को सार्वजनिक नहीं किया. टीपू सुलतान की मृत्यु के काफी बाद अर्थात लगभग अठारहवीं सदी के मध्य में अंततः ग्रामीणों ने निश्चय किया कि अब वे अपने प्रिय राजा केम्पेगौडा के स्मारक को पुनर्जीवित करेंगे और वैसा ही किया गया.परन्तु भारत के सेकुलर इतिहासकारों ने केम्पेगौडा के इस स्मारक को पूरी तरह भुला ही दिया, और आज भी यह खराब स्थिति में है, और किसी को इसकी जानकारी नहीं है, क्योंकि जैसा कि मैंने ऊपर लिखा, इतिहासकारों के लिए टीपू सुलतान अधिक महत्त्वपूर्ण थे, ना कि विजयनगरम साम्राज्य अथवा कोई और भारतीय सम्राट. 

संक्षेप में तात्पर्य यह है कि मुस्लिम वोटों के लिए काँग्रेस कितनी भी नीचे गिर सकती है, लेकिन जैसे ही उसे लगता है कि कोई और समुदाय अथवा जाति उसके किसी कदम से नाराज हो रही है और वह भी बड़ा वोट बैंक है तो वे अपने किसी मोहरे को आगे करके झूठी माफी माँगने का नाटक भी रच लेते हैं. बहरहाल, कर्नाटक के गौड़ा समुदाय की जागरूकता के कारण गिरीश कर्नाड (यानी काँग्रेस) की यह चाल सफल नहीं हुई और बंगलूरू के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का नाम टीपू सुलतान के नाम पर होते-होते बच गया

SGFX Financials, Sharad Pawar and Mystery

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शरद पवार एवं ब्रिटेन की चमत्कारिक और रहस्यमयी कंपनी SGFX 


शरद गोविंदराव पवार, अर्थात जिन्हें भारत की जनता शरद पवार यानी NCP के सर्वेसर्वा, भूतपूर्व कृषि मंत्री, महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री, बारामती के शुगर किंग एवं क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड तथा ICC के अध्यक्ष वगैरह-वगैरह-वगैरह के नाम से जानती है, ऐसे महान और बुद्धिमान व्यक्ति को कुछ “फ्रॉड टाईप”(??) के व्यक्तियों ने ब्रिटेन की एक रहस्यमयी कंपनी SGFX में बोर्ड सदस्य बना लिया और पवार साहब को पता भी नहीं चला, यानी ऐसे चमत्कार भी कभीकभार हो जाते हैं. 13 दिसम्बर 2010 को शरद गोविंदराव पवार अचानक इस कंपनी के बोर्ड सदस्य बने और मात्र बाईस दिन बाद अर्थात 5 जनवरी 2011 को वे इस पद से हट भी गए. है ना चमत्कार!!! 



भाजपा नेता नीरज गुण्डे और डॉक्टर सुब्रह्मण्यम स्वामी द्वारा किए ट्वीट्स के अनुसार ब्रिटेन में रजिस्टर्ड एक कम्पनी जिसका नाम है (बल्कि “था”) SGFX Financial Co. UK Ltd. में शरद पवार साहब चंद दिनों के लिए शामिल हुए थे. जो दस्तावेज ब्रिटिश सरकार को सौंपे गए हैं, उसमें बाकायदा धड़ल्ले से, छाती ठोक के, शरद पवार का पेशा, “भारत सरकार में केन्द्रीय मंत्री” भी लिखा गया है. 

“असली रहस्य” यहाँ से शुरू होता है कि, शरद पवार का कहना है कि उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी और उन्हें धोखे से बोर्ड में शामिल किया गया था. 13 दिसम्बर 2010 को जब SGFX कम्पनी ने अपने दस्तावेज रजिस्ट्रार को सौंपे थे, उस समय उसमें शरद पवार का नाम तीन में से एक निदेशक के रूप में था, इस कंपनी के अन्य दो निदेशक थे सर्वेश नरेंद्र गाड़े और शहनाज़ अशरफ भराड़े. कम्पनी को आरम्भ करते समय बताया गया था कि इस कम्पनी के शुरुआती 500 शेयर रहेंगे जिनकी कुल कीमत सात लाख पाउंड होगी. इन शेयरों में से सर्वेश गाड़े के पास 375 शेयर होंगे और शहनाज़ भराड़े के पास 125 शेयर होंगे (प्रति शेयर कीमत 1401 पाउंड). दो सप्ताह बाद जब शरद पवार जैसे अचानक बोर्ड मेंबर बने, और उसी अचानक तरीके से निकल भी गए, इस दिन अर्थात 5 जनवरी 2011 को कम्पनी ने अपनी प्रस्तुत रिपोर्ट में बताया कि कंपनी ने 4500 शेयर और जारी कर दिए हैं, अर्थात अब कंपनी की कुल कीमत 5000 शेयरों की हो गई है, जिसका मूल्य सत्तर लाख पाउंड हो गया... यह था पहला “चमत्कार”. 

कम्पनी की रिपोर्ट के अनुसार 2011 का वर्ष कंपनी के लिए बहुत बेहतरीन रहा, और एक ही साल में कंपनी ने खासी तरक्की कर ली. चमत्कार पर चमत्कार देखिए कि 5 जनवरी 2011 को जो कंपनी सत्तर लाख पाउंड की थी, वह 20 मार्च 2011 को सात सौ करोड़ पौंड की तथा 29 जून 2011 को सत्तर अरब पाउंड की कंपनी बन गई. यानी 5 जनवरी 2011 को शरद पवार के कम्पनी छोड़ने के बाद इस कंपनी ने सिर्फ छह माह में एक लाख गुना की आर्थिक तरक्की कर ली.अगला चमत्कार यह हुआ कि 14 अगस्त 2012 को रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज़ में आवेदन देकर यह कंपनी बन्द कर दी गई. तो फिर यह पैसा कहाँ से आया? किसने यह पैसा लगाया? और फिर अचानक यह भारीभरकम राशि कहाँ गायब हो गई? कंपनी बन्द क्यों और कैसे हो गई? यही तो एक रहस्य है. 


इस चमत्कारी SGFX कंपनी के डायरेक्टर सर्वेश गाड़े की सार्वजनिक जीवन में जो सूचना उपलब्ध है, उसके अनुसार ये सज्जन ब्रिटेन की तीन कंपनियों के डायरेक्टर थे, SGFX Financials के अलावा Angel Investments Co UK Ltd. तथा Online Currency Exchange of UK Ltd. गाड़े साहब अपना व्यवसाय “व्यापारी” बताते हैं और“चमत्कारों की इस श्रृंखला” में हमें जानकारी मिलती है कि उपरोक्त तीनों कम्पनियाँ जिनमें गाड़े साहब डायरेक्टर थे, जून 2010 और मई 2013 के बीच बन्द कर दी गईं.दूसरी डायरेक्टर अर्थात शहनाज़ भराड़े का किस्सा भी कुछ-कुछ ऐसा ही है, ये मोहतरमा भी Angel Investments Co UK Ltd. में निदेशक थीं. क्या गजब का संयोग है ना?? 

ठहरिये... अभी चमत्कार खत्म नहीं हुए हैं. एक और रोचक बात यह है कि जो-जो कम्पनियाँ ब्रिटेन में रजिस्टर की गईं और भारीभरकम संपत्ति के बावजूद तीन साल में ही खत्म कर दी गईं, बिलकुल उन्हीं कंपनियों के नाम से भारत में भी कम्पनियाँ खोली गईं. उदाहरण स्वरूप 5 जुलाई 2013 को Online Currency Exchange of India Ltd. के नाम से कम्पनी खोली गई (U74900MH2013PLC245277) जिसका पता था नवी मुम्बई में वाशी इन्फोटेक पार्क. सर्वेश गाड़े भारत और ब्रिटेन दोनों ही कंपनियों में निदेशक थे, लेकिन मामूली(?) सा अंतर यह था कि भारत में जो कंपनी खोली गई उसमें भराड़े का नाम शहनाज़ भराड़े नहीं, बल्कि शहनाज़ सर्वेश भराड़े था, और भारत की कंपनी में एक और सज्जन भी निदेशक थे, जिनका नाम था राजिन अशरफ भराड़े, जो कि शहनाज़ के भाई हैं. इसी प्रकार SGFX Financials Co of UK Ltd. जैसे ही समान नाम से भारत में जो कंपनी खोली गई उसमें गाड़े और भराड़े के अलावा चिदम्बरेश्वर राव कल्ला नामक सज्जन निदेशक रहे, जो ब्रिटिश कंपनी में भी बोर्ड मेंबर थे. संक्षेप में कहने का तात्पर्य यह है कि कम्पनियाँ खोलने, बन्द करने और अकूत मात्रा में धन की अफरा-तफरी और हेराफेरी करने का यह खेल पता नहीं कब से चल रहा है और भारत की एजेंसियाँ इस मामले में अब तक क्या कर रही थीं यह शोचनीय विषय है. ज़ाहिर है कि सिर्फ पाँच-छः माह में जिस कंपनी की संपत्ति अचानक लाखों गुना बढ़ जाती हो, वह ना तो किसी ईमानदार उद्योगपति की कंपनी हो सकती है और ना ही साधु-संतों की. 


मामले में ताजा जानकारी यह है कि शरद पवार ने सर्वेश गाड़े और शहनाज़ भराड़े के खिलाफ धोखाधड़ी के आरोप लगाकर पुलिस में FIR कर दी है, साथ ही EOW (आर्थिक अपराध शाखा) में भी शिकायत दर्ज करवा दी है कि मामले की पूरी जाँच की जाए... 

ऐसे में कुछ बेचैन कर देने वाले स्वाभाविक सवाल उठते हैं, वह इस प्रकार हैं... 

(१) यह आधिकारिक “हवाला” कब से, कैसे और क्यों चल रहा है? 

(२) इसमें “मॉरीशस रूट”, “P-Notes” और यूपीए सरकार के तीनों महान अर्थशास्त्री अर्थात मनमोहन सिंह, चिदंबरम और मोंटेकसिंह अहलूवालिया का क्या रोल है? 

(३) क्या शरद पवार की जानकारी एवं अनुमति के बिना उनका नाम डायरेक्टर अथवा बोर्ड मेंबर के रूप में फाईल करने की किसी मामूली व्यक्ति की हिम्मत हो सकती है? यदि नहीं... तो फिर ये गाड़े और शहनाज़ कौन हैं, जिन्हें शरद पवार का, भारतीय कानूनों का, ब्रिटिश कानूनों का कोई डर नहीं है?? शरद पवार तो अत्यधिक "सक्षम"हैं, इसलिए उन्होंने इस धोखाधड़ी के खिलाफ FIR कर दी, कंपनी को कानूनी नोटिस भी दे दिया. लेकिन सोचिये कि जब शरद पवार जैसे व्यक्ति के साथ ऐसा हो सकता है (सच है या झूठ, यह तो जाँच के बाद ही पता चलेगा), तो भारत का सामान्य व्यक्ति जो आए दिन अपने आधार कार्ड, पैन कार्ड, वोटर आईडी वगैरह की फोटोकॉपी इधर-उधर थोक में बाँटता रहता है, उसके साथ और उसके दस्तावेजों के साथ कितनी आसानी से फ्रॉड किया जा सकता है, और उसे पता भी नहीं चलेगा. 

(४) क्या भारत में सरकार बदलने के बावजूद यह “शक्तिसंपन्न आर्थिक व्यापारी” अब भी बेख़ौफ़ अपना काम कर रहे हैं? यदि हाँ, तो इसका जिम्मेदार कौन है?? 

सवाल तो कई हैं, लेकिन जवाब कुछ भी नहीं मिलते... यहाँ भारत की जनता 150-200 रूपए किलो दाल के लिए संघर्ष कर रही है और उधर सिर्फ छः माह में किसी रहस्यमयी और चमत्कारी कंपनी की संपत्ति लाखों गुना बढ़ जाती है... क्या इसी को “उदार अर्थव्यवस्था” कहते हैं?? 

Relation of Rajendra Prasad and Jawaharlal Nehru

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डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद और नेहरू का दुराग्रह 


डा.राजेन्द्र प्रसाद की शख्सियत से पंडित नेहरु हमेशा अपने को असुरक्षित महसूस करते रहे। उन्होंने राजेन्द्र बाबू को नीचा दिखाने का कोई अवसर भी हाथ से जाने नहीं दिया। हद तो तब हो गई जब 12 वर्षों तक रा्ष्ट्रपति रहने के बाद राजेन्द्र बाबू देश के राष्ट्रपति पद से मुक्त होने के बाद पटना जाकर रहने लगे, तो नेहरु ने उनके लिए वहां पर एक सरकारी आवास तक की व्यवस्था नहीं की, उनकी सेहत का ध्यान नहीं रखा गया। दिल्ली से पटना पहुंचने पर राजेन्द्र बाबू बिहार विद्यापीठ, सदाकत आश्रम के एक सीलनभरे कमरे में रहने लगे।उनकी तबीयत पहले से खराब रहती थी, पटना जाकर ज्यादा खराब रहने लगी। वे दमा के रोगी थे, इसलिए सीलनभरे कमरे में रहने के बाद उनका दमा ज्यादा बढ़ गया। वहां उनसे मिलने के लिए श्री जयप्रकाश नारायण पहुंचे। वे उनकी हालत देखकर हिल गए। उस कमरे को देखकर जिसमें देश के पहले राष्ट्रपति और संविधान सभा के पहले अध्यक्ष डा.राजेन्द्र प्रसाद रहते थे, उनकी आंखें नम हो गईं। उन्होंने उसके बाद उस सीलन भरे कमरे को अपने मित्रों और सहयोगियों से कहकर कामचलाउ रहने लायक करवाया। लेकिन, उसी कमरे में रहते हुए राजेन्द्र बाबू की 28 फरवरी,1963 को मौत हो गई। क्या आप मानेंगे कि उनकी अंत्येष्टि में पंडित नेहरु ने शिरकत करना तक भी उचित नहीं समझा। वे उस दिन जयपुर में एक अपनी  ‘‘तुलादान’’ करवाने जैसे एक मामूली से कार्यक्रम में चले गए। यही नहीं, उन्होंने राजस्थान के तत्कालीन राज्यपाल डा.संपूर्णानंद को राजेन्द्र बाबू की अंत्येष्टि में शामिल होने से रोका।नेहरु ने राजेन्द्र बाबू के उतराधिकारी डा. एस. राधाकृष्णन को भी पटना न जाने की सलाह दे दी। लेकिन, डा0 राधाकृष्णन ने नेहरू के परामर्श को नहीं माना और वे राजेन्द्र बाबू के अंतिम संस्कार में भाग लेने पटना पहुंचे। इसी से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि नेहरू किस कदर राजेन्द्र प्रसाद से दूरियां बनाकर रखते थे।


इस मार्मिक और सनसनीखेज तथ्य का खुलासा खुद डा.संपूर्णानंद ने किया है।संपूर्णानंद जी ने जब नेहरू को कहा कि वे पटना जाना चाहते हैं, राजेन्द्र बाबू की अंत्येष्टि में भाग लेने के लिए तो उन्होंने (नेहरु) संपूर्णानंद से कहा कि ये कैसे मुमकिन है कि देश का प्रधानमंत्री किसी राज्य में आए और उसका राज्यपाल वहां से गायब हो। इसके बाद डा. संपूर्णानंद ने अपना पटना जाने का कार्यक्रम रद्द किया। हालांकि, उनके मन में हमेशा यह मलाल रहा कि वे राजेन्द्र बाबू के अंतिम दर्शन नहीं कर सके। वे राजेन्द्र बाबू का बहुत सम्मान करते थे। डॉक्टर सम्पूर्णानंद ने राजेन्द बाबू के सहयोगी प्रमोद पारिजात शास्त्री को लिखे गए पत्र में अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए लिखा था कि ‘‘घोर आश्चर्य हुआ कि बिहार के जो प्रमुख लोग दिल्ली में थे उनमें से भी कोई पटना नहीं गया, (किसके डर से?) सब लोगों को इतना कौन सा आवश्यक काम अचानक पड़ गया, यह समझ में नहीं आया,यह अच्छी बात नहीं हुई। यह बिलकुल ठीक है कि उनके जाने न जाने से उस महापुरुष का कुछ भी बनता बिगड़ता नहीं। परन्तु, ये लोग तो निश्चय ही अपने कर्तव्य से विमुख रहे.

ये बात भी अब सबको मालूम है कि पटना में डा. राजेन्द्र बाबू को उत्तम क्या मामूली स्वास्थ्य सुविधाएं तक नहीं मिलीं। उनके साथ बेहद बेरुखी वाला व्यवहार होता रहा, मानो सबकुछ केन्द्र के निर्देश पर हो रहा हो। उन्हें कफ की खासी शिकायत रहती थी। उनकी कफ की शिकायत को दूर करने के लिए पटना मेडिकल कालेज में एक मशीन थी कफ निकालने वाली। उसे भी केन्द्र के निर्देश पर मुख्यमंत्री ने राजेन्द्र बाबू के कमरे से निकालकर वापस पटना मेडिकल काॅलेज भेज दिया गया। जिस दिन कफ निकालने की मशीन वापस मंगाई गई उसके दो दिन बाद ही राजेन्द बाबू खाँसते-खाँसते चल बसे,यानी राजेन्द्र बाबू को मारने का पूरा और पुख्ता इंतजाम किया गया था. कफ निकालने वाली मशीन वापस लेने की बात तो अखबारों में भी आ गई हैं.


दरअसल नेहरु अपने को राजेन्द्र प्रसाद के समक्ष बहुत बौना महसूस करते थे। उनमें इस कारण से बड़ी हीन भावना पैदा हो गई थी और वे उनसे छतीस का आंकड़ा रखते थे। वे डा. राजेन्द्र प्रसाद को किसी न किसी तरह से आदेश देने की मुद्रा में रहते थे, जिसे राजेन्द्र बाबू मुस्कुराकर टाल दिया करते थे। नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद से सोमनाथ मंदिर का 1951 में उदघाटन न करने का आग्रह किया था। उनका तर्क था कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के प्रमुख को मंदिर के उदघाटन से बचना चाहिए। हालांकि, नेहरू के आग्रह को न मानते हुए डा. राजेंद्र प्रसाद ने सोमनाथ मंदिर में शिव मूर्ति की स्थापना की. डा. राजेन्द्र प्रसाद मानते थे कि ‘‘धर्मनिरपेक्षता का अर्थ अपने संस्कारों से दूर होना या धर्मविरोधी होना नहीं हो सकता।’’सोमनाथ मंदिर के उदघाटन के वक्त डा. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, लेकिन नास्तिक राष्ट्र नहीं है. डा. राजेंद्र प्रसाद मानते थे कि उन्हें सभी धर्मों के प्रति बराबर और सार्वजनिक सम्मान प्रदर्शित करना चाहिए। एक तरफ तो नेहरु डा. राजेन्द्र प्रसाद को सोमनाथ मंदिर में जाने से मना करते रहे लेकिन, दूसरी तरफ वे स्वयं 1956 के इलाहाबाद में हुए कुंभ मेले में डुबकी लगाने चले गए. बताते चलें कि नेहरु के वहां अचानक पहुँच जाने से कुंभ में अव्यवस्था फैली और भारी भगदड़ में करीब 800 लोग मारे गए।

हिन्दू कोड बिल पर भी राजेन्द्र प्रसाद, नेहरु से अलग राय रखते थे. जब पंडित जवाहर लाल नेहरू हिन्दुओं के पारिवारिक जीवन को व्यवस्थित करने के लिए हिंदू कोड बिल लाने की कोशिश में थे, तब डा.राजेंद्र प्रसाद इसका खुलकर विरोध कर रहे थे। डा. राजेंद्र प्रसाद का कहना था कि लोगों के जीवन और संस्कृति को प्रभावित करने वाले कानून न बनाये जायें। दरअसल जवाहर लाल नेहरू चाहते ही नहीं थे कि डा. राजेंद्र प्रसाद देश के राष्ट्रपति बनें। उन्हें राष्ट्रपति बनने से रोकने के लिए उन्होंने ‘‘झूठ’’ तक का सहारा लिया था।नेहरु ने 10 सितंबर, 1949 को डा. राजेंद्र प्रसाद को पत्र लिखकर कहा कि उन्होंने (नेहरू) और सरदार पटेल ने फैसला किया है कि सी.राजगोपालाचारी को भारत का पहला राष्ट्रपति बनाना सबसे बेहतर होंगा। नेहरू ने जिस तरह से यह पत्र लिखा था, उससे डा.राजेंद्र प्रसाद को घोर कष्ट हुआ और उन्होंने पत्र की एक प्रति सरदार पटेल को भिजवाई। पटेल उस वक्त बम्बई में थे। कहते हैं किसरदार पटेल उस पत्र को पढ़ कर सन्न थे, क्योंकि, उनकी इस बारे में नेहरू से कोई चर्चा नहीं हुई थी कि राजाजी (राजगोपालाचारी) या डा. राजेंद्र प्रसाद में से किसे राष्ट्रपति बनाया जाना चाहिए।न ही उन्होंने नेहरू के साथ मिलकर यह तय किया था कि राजाजी राष्ट्रपति पद के लिए उनकी पसंद के उम्मीदवार होंगे। यह बात उन्होंने राजेन्द्र बाबू को बताई। इसके बाद डा. राजेंद्र प्रसाद ने 11 सितंबर,1949 को नेहरू को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ‘‘पार्टी में उनकी (डा0 राजेन्द प्रसाद की) जो स्थिति रही है, उसे देखते हुए वे बेहतर व्यवहार के पात्र हैं। नेहरू को जब यह पत्र मिला तो उन्हें लगा कि उनका झूठ पकड़ा गया। अपनी फजीहत कराने के बदले उन्होंने अपनी गलती स्वीकार करने का निर्णय लिया।



नेहरू यह भी नहीं चाहते थे कि हालात उनके नियंत्रण से बाहर हों और इसलिए ऐसा बताते हैं कि उन्होंने इस संबंध में रातभर जाग कर डा. राजेन्द्र प्रसाद को जवाब लिखा। डा. राजेन्द्र बाबू, प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के विरोध के बावजूद दो कार्यकाल के लिए राष्ट्रपति चुने गए थे। बेशक, नेहरू सी राजगोपालाचारी को देश का पहला राष्ट्रपति बनाना चाहते थे, लेकिन सरदार पटेल और कांग्रेस के तमाम वरिष्ठ नेताओं की राय डा. राजेंद्र प्रसाद के हक में थी। आखिर नेहरू को कांग्रेस नेताओं सर्वानुमति की बात माननी ही पड़ी और राष्ट्रपति के तौर पर डा. राजेन्द्र प्रसाद को ही अपना समर्थन देना पड़ा।

जवाहर लाल नेहरू और डा. राजेंद्र प्रसाद में वैचारिक और व्यावहारिक मतभेद बराबर बने रहे थे। ये मतभेद शुरू से ही थे, लेकिन 1950 से 1962 तक राजेन्द्र बाबू के राष्ट्रपति रहने के दौरान ज्यादा मुखर और सार्वजनिक हो गए। नेहरु पश्चिमी सभ्यता के कायल थे जबकि राजेंद्र प्रसाद भारतीय सभ्यता देश के एकता का मूल तत्व मानते थे। राजेन्द्र बाबू को देश के गांवों में जाना पसंद था, वहीं नेहरु लन्दन और पेरिस में चले जाते थे। पेरिस के धुले कपड़े तक पहनते थे। सरदार पटेल भी भारतीय सभ्यता के पूर्णतया पक्षधर थे। इसी कारण सरदार पटेल और डा. राजेंद्र प्रसाद में खासी घनिष्ठता थी। सोमनाथ मंदिर मुद्दे पर डा. राजेंद्र प्रसाद और सरदार पटेल ने एक जुट होकर कहा की यह भारतीय अस्मिता का केंद्र है इसका निर्माण होना ही चाहिए। 


अगर बात बिहार की करें तो वहां गांधी के बाद राजेन्द्र प्रसाद ही सबसे बड़े और लोकप्रिय नेता थे। गांधीजी के साथ ‘राजेन्द्र प्रसाद जिन्दाबाद’ के भी नारे लगाए जाते थे। लंबे समय तक देश के राष्ट्रपति रहने के बाद भी राजेन्द्र बाबू ने कभी भी अपने किसी परिवार के सदस्य को न पोषित किया और न लाभान्वित किया। हालांकि नेहरु इसके ठीक विपरीत थे। उन्होंने अपनी पुत्री इंदिरा गांधी और बहन विजयालक्ष्मी पंडित को सत्ता की रेवडि़यां खुलकर बांटीं। सारे दूर-दराज के रिश्तेदारों को राजदूत, गवर्नर, जज बनाया। एक बार जब डा. राजेंद्र प्रसाद ने बनारस यात्रा के दौरान खुले आम काशी विश्वनाथ मंदिर के पुजारियों के पैर छू लिए तो नेहरू नाराज हो गए और सार्वजनिक रूप से इसके लिए विरोध जताया, और कहा की भारत के राष्ट्रपति को ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए। हालांकि डा. राजेन्द्र प्रसाद ने नेहरु की आपत्ति पर प्रतिक्रिया देना भी उचित नहीं समझा। राजेन्द्र प्रसाद नेहरू की तिब्बत नीति और हिन्दी-चीनी भाई-भाई की नीति से असहमत थे। नेहरु की चीन नीति के कारण भारत 1962 की जंग में करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। इसी प्रकार राजेन्द्र बाबू और नेहरु में राज्यभाषा हिन्दी को लेकर भी मतभेद था। मुख्यमंत्रियों की सभा (1961) को राष्ट्रपति ने लिखित सुझाव भेजा कि अगर भारत की सभी भाषाएं देवनागरी लिपि अपना लें, जैसे यूरोप की सभी भाषाएं रोमन लिपि में लिखी जाती हैं, तो भारत की राष्ट्रीयता मजबूत होगी। सभी मुख्यमंत्रियों ने इसे एकमत से स्वीकार कर लिया, किन्तु अंग्रेजी परस्त नेहरू की केंद्र सरकार ने इसे नहीं मानाक्योंकि, इससे अंग्रेजी देश की भाषा नहीं बनी रहती जो नेहरू चाहते थे।

वास्तव में डा. राजेंद्र प्रसाद एक दूरदर्शी नेता थे वो भारतीय संस्कृति सभ्यता के समर्थक थे, राष्ट्रीय अस्मिता को बचाकर रखने वालो में से थे।जबकि नेहरु पश्चिमी सभ्यता के समर्थक और, भारतीयता के विरोधी थे। बहरहाल आप समझ गए होंगे कि नेहरु जी किस कद्र भयभीत रहते थे राजेन्द्र बाबू से। अभी संविधान पर देश भर में चर्चाएं हो रही हैं।डा0 राजेन्द्र प्रसाद ही संविधान सभा के अध्यक्ष थे और उन्होंने जिन 24 उप-समितियों का गठन किया था, उन्हीं में से एक ‘‘मसौदा कमेटी’’ के अध्यक्ष डा0 भीमराव अम्बेडकर थे।उनका काम 300 सदस्यीय संविधान सभा की चर्चाओं और उप-समितियों की अनुशंसाओं को संकलित कर एक मसौदा (ड्राफ्ट) तैयार करना था जिसे संविधान सभा के अध्यक्ष के नाते डा0 राजेन्द्र प्रसाद स्वीकृत करते थे। फिर वह ड्राफ्ट संविधान में शामिल होता था। संविधान निर्माण का कुछ श्रेय तो आखिरकार देशरत्न डा0 राजेन्द्र प्रसाद को भी मिलना ही चाहिए, लेकिन आंबेडकर पूजा में हम इतने व्यस्त और मस्त हो गए हैं कि राजेन्द्र प्रसाद के योगदान को गायब ही कर दिया. 

संक्षेप में कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसे थे हमारे-आपके पंडित जवाहरलाल नेहरू... स्वाभाविक है कि उनकी पीढियाँ और पुरखे भी ऐसे ही षडयंत्रकारी, तानाशाही किस्म की मानसिकता के और हिन्दू द्वेषी हैं.

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साभार - श्री आरके सिन्हा भाजपा सांसद.

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